गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

ज्ञान और समझ को निर्धारित करने वाले कारक

तो हे मानव श्रेष्ठों,
कहानी आगे बढाते हैं.....

मैं भी चाह ही रहा था, और एक बंधु ने भी मेरे ई-मेल पर सफ़ाई चाहते हुए कारकों के निर्धारण की ऐसी ही मांग रखी थी,
अतएव...
अब इस बात को बिंदुबार तरीके से रेखांकित किया जा सकता है कि मनुष्य के ज्ञान का स्तर कैसा होगा, यानि मनुष्य मानव जाति द्वारा समेटे गये ज्ञान के सापेक्ष किस स्तर पर होगा। इसका निर्धारण करने वाले कारकों को यूं सूचिबद्ध किया जा सकता है:
१. मनुष्य के निकट का परिवेशी समाज, जिसमें सबसे पहले उसका परिवार, माता-पिता रिश्तेदार शामिल होते हैं, वे खुद ज्ञान और सभ्यता के किस स्तर पर हैं? उन्हें इस बात की कितनी समझ और जिम्मेदारी है कि एक सुव्यवस्थित लालन-पालन किस प्रकार मनुष्य के जीवन की दशा और दिशा का निर्धारण करता है?
२. मनुष्य से संबंधित वृहद समाज, जहां वह रहता और अंतर्क्रियाएं करता है, की सामाजिक चेतना का स्तर क्या है? ज्ञान और सभ्यता का सामान्य स्तर पर क्या है? सामाजिक क्रियाकलापों को उद्वेलित और नियमित करने वाले मूल कारकों का नैतिक स्तर क्या है?
ये दोनों बिंदु मनुष्य के सामान्य व्यक्तित्व एवं समाज के साथ अंतर्क्रियाओं के मूल्यों का निर्धारण करते हैं और मनुष्य के व्यवहार की मूल कसौटी तय करते हैं।
३. मनुष्य को व्यवस्थित रूप से प्रकृति के वृहद ज्ञान से परिचित कराने वाली शिक्षण-प्रशिक्षण प्रणाली का मूल उद्देश्य और उसकी सामान्य संरचना कैसी है? वह ज्ञान और व्यवहार की एकता निश्चित करने में कितना सक्षम है? वह मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास, ज्ञानवृद्धि, उसके वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने और व्यवस्थित चिंतन प्रणाली से लैस उसे एक जिम्मेदार सामाजिक प्राणी के रूप में तैयार करने के मूल उद्देश्य के लिए कितना अभिकल्पित है?
४. मनुष्य के मस्तिष्क के साथ अंतर्क्रिया करने वाले अन्य साधन जैसे सूचना और संचार माध्यम, मीडिया, सहज उपलब्ध पुस्तकें आदि उसके सूचना संसार और चिंतन प्रक्रिया को किस तरह और दिशा में प्रभावित कर रहे हैं? वे एक सोचने समझने वाले, बुद्धिमान और स्वतंत्र मनुष्य को विकसित करना चाहते हैं या कुंद और कुंठित, भावातिरेक से भरे हुए ऐसे मंदबुद्धि व्यक्तित्वों का निर्माण, जिनकी सोच और समझ का नियंत्रण भी उनके हाथों में हो?
५. सभी जीवों की प्राथमिकता उनकी जिजीविषा होती है, ऐसे ही मनुष्य की प्राथमिकता भी जीवनयापन हेतु मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती ही होती है। इनकी पूर्ती की सुनिश्चितता के बाद ही मनुष्य ज्ञान और समझ के स्तर को परिष्कृत करने हेतु प्रवृत हो सकता है। अतएव किसी भी मनुष्य के ज्ञान और समझ के स्तर की संभावना इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसकी सामाजिक और राजानैतिक व्यवस्था में इस जिजीविषा की तुष्टि के आयाम कितने विस्तृत हैं, साथ ही यह भी कि इस तुष्टि की चिंताओं से मुक्त मनुष्यों के लिए व्यवस्था किन सभ्यता और संस्कृतिगत मूल्यों को प्रश्रय देती है।

देखिए, बात बडी होती ही जाती है।
खैर, समय के पास तो बहुत समय है परंतु मुझे पता है आपके पास इसकी बहुत कमी होती है।
इसलिए आज इतना ही. बाकि फ़िर।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

एतिहासिक क्रम-विकास का दोहराव...

हां तो हे मानव श्रेष्ठों,
समय फिर आपकी सेवा में हाज़िर है।

पिछली बार बात यहां छोडी़ थी कि मनुष्य अपने जीवन में, खासकर जीवन की शुरुआत में मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास को जैसे क्रमबद्ध तरीके से दोहराता है।

चलिए बात आगे बढाते है....

मनुष्य अपने जीवन की शुरुआत में लगभग एक मांस के लोथडे़ की तरह होता है, एक संवेदनशील हरकतशुदा ज़िंदा मांस। वह धीरे-धीरे अपने पैरों और हाथों की क्रियाओं को मस्तिष्क के साथ समन्वित करना सीखता है। दृष्टि, श्रवण, घ्राण, स्वाद और स्पर्श इन्द्रियों का प्रयोग और संबंधित अनुभवों का नियमन सीखता है एवं इनकी संवेदनशीलता को परिष्कृत करता है। शरीर का संतुलन साधता है, खडा़ होता है, चलना सीखता है, भाषा सीखता है, सारे जीवन संबंधी क्रिया-व्यवहार सीखता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि मनुष्य जाति अपने क्रमिक विकास से गुजरी है। मनुष्य के पास चूंकि इन सारी संभावनाओं से युक्त प्राथमिक ढांचा पहले से ही है अतः प्रत्येक कदम उसके विकास में गुणात्मक परिवर्तन लाता है जिससे कि शारीरिक क्रियाओं और उनसे संबंधित तंत्रिका-मस्तिष्क प्रणाली के समन्वय की सामान्य उन्नत अवस्था उसे समय के छोटे अंतराल में ही प्राप्त हो जाती है परन्तु इसमें परिवेशी समाज द्वारा जीवन के सामान्य व्यवहारिक ज्ञान के आधार पर उसकी मदद की भूमिका निर्णायक होती है।
अब बात आती है, मानव जाति द्वारा समेटे गए प्रकृति के बृहद ज्ञान, विशिष्ट ज्ञान एवं क्रियाकलाप, विज्ञान, तकनीक, व दर्शन के संदर्भ में। इस ज्ञान की परास बहुत अधिक है, इसीलिए अब यह संभव नहीं रह गया है कि मनुष्य का परिवेशी समाज, जो खु़द भी संपूर्ण ज्ञान स्रोतों से बावस्ता नहीं होता, उसको ज्ञान का हर पाठ सिखा सके, उसकी जिज्ञासाओं का पूर्णतया समाधान कर सके, जिम्मेदारी से उसकी ज्ञान पिपासा की सही दिशा निर्धारित कर सके। वह उसे सिर्फ़ वहीं तक पहुंचा सकता है जहां तक खु़द परिवेशी समाज के ज्ञानऔर समझ की सीमाएं हैं, सभ्यता और संस्कृति का स्तर है, और खु़द समाज के भीतर इन सीमाओं और स्तरों के अपने-अपने व्यक्तिगत स्तर हैं।
मानव-समाज ने इन सीमाओं को समझा, और परिवेशी समाज से इतर एक शिक्षण-प्रशिक्षण प्रणाली विकसित की, ताकि उपलब्ध ज्ञान का सामान्य सत्व, मानव जाति के नये सदस्यों को क्रमबद्ध तरीके से व्यवस्थित रूप में दिया जा सके और फ़िर उन्हें ज्ञान की शाखा विशेष में विशेषज्ञता भी ताकि वे उसका अतिक्रमण कर मानव जाति को और समृद्ध कर सकें। यानि कि अब मनुष्य और ज्ञान की संभावनाओं के बीच एक सामाजिक व्यवस्था विकसित हो जाती है, और यह संभावना भी कि इस तंत्र का नियमन कर रही राजनैतिक व्यवस्था इन संभावनाओं को अपने हितों के हिसाब से नियंत्रित और निर्धारित कर सकती है।

उफ़ ! फ़िर ज़ियादा हो गया, समय हूं ना, इधर-उधर भटकने और समय खींचने की आदत है।
पर ये बात ही ऐसी है कि नहीं चाहते हुए भी बात बढ़ रही है।
चलिए, फ़िर बात करेंगे।

कोई उलझन हो तो समय को मेल कर सकते हैं।
अभी तक प्राप्त जिग्यासाओं का समाधान कुछ तो साथ-साथ चल रहा है,
और कुछ का बाद में होगा, धेर्य रखें।

रविवार, 19 अप्रैल 2009

कहानी आगे बढ़ती है.....

काफ़ी अन्तराल हो गया।
दरअसल, वर्तमान इतना उथल-पुथल भरा है कि मैं चश्मदीद होने का लोभ संवरण नहीं कर पाता।
चलिए, फिर से बात शुरू करते हैं।
मैं समय, आपको किस्से-कहानियां सुनाते हुए यह बताना चाहता था कि लोग मुझ तक क्यों नहीं पहुंच पाते।

तो हे मानव श्रेष्ठों,
कहानी आगे बढ़ती है.....

मनुष्य ने अपने लाखों वर्षों के एतिहासिक क्रमिक उदविकास के दौरान अपनी आज की लचीली और उन्नत शरीर संरचना को पाया है। शरीर के विभिन्न अंगों का नयी-नयी परिस्थितियों और कार्यों के लिए संचालन, संचालन क्रियाओं का दिमाग़ के साथ समन्वयन और आपसी अनुक्रिया, इन सबका उत्पाद है अत्यंत परिष्कृत मस्तिष्क संगठन और शारीरिक संरचना। यह सब कपि-मानव और उसके हाथ द्वारा किए गए श्रम का परिणाम है। श्रम का मतलब है, मनुष्य द्वारा अपने किसी विशेष प्रयोजन के लिए प्रकृति में किया जा रहा सचेत परिवर्तन।
मनुष्य अपने संचित अनुभवों को आगे वाली पीढी़ को देता था और इस प्रकार आने वाली पीढ़ियां उनका अतिक्रमण कर, अपने अनुभवों को और समृद्ध करती जाती थी। मनुष्य का ग्यान समृद्ध होता गया, भाषा और लिपी ने इस संचित ग्यान का आने वाली पीढ़ियों तक का संचरण और आसान व सटीक बना दिया। क्रमिक विकास की यह उर्ध्वगामी प्रक्रिया निरन्तर चलती रही, मनुष्य के क्रियाकलापों और अनुभवों के परिस्थितिजन्य क्षेत्र निरन्तर विस्तृत होते गये।
मनुष्य जाति बिखर रही थी, विकास की प्रक्रिया बिखर रही थी, इस ग्रह की भौगोलिक परिस्थितियां बदल रही थी। शनैःशनैः मानव जाति का यह बिखराव एक दूसरे से काफ़ी विलगित हो गया और पृथ्वी के अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग विकास श्रृंखलाएं स्थापित हो गयी। परिस्थितिजन्य संघर्षों और आवश्यकताओं के अनुरूप, विकास की यह प्रक्रिया कहीं लगभग स्थिर हो गयी, कहीं धीमी, तो कहीं गुणात्मक रूप से काफ़ी तेज़ हो गयी। यह स्थिति आज भी बनी हुई है, और मनुष्य अपने नीले ग्रह के अलग-अलग स्थानों पर मानव जाति के क्रमिक विकास की अलग-अलग अवस्थाओं की समानान्तर उपस्थिति पाते हैं। कहीं कहीं तो यह बिल्कुल आदिम अवस्थाओं में हैं।
कुलमिलाकर लाबलुब्बोआब यह है कि मनुष्य को एक सुसंगठित मस्तिष्क और परिष्कृत शारीरिक संरचना, गुणसूत्रीय संरक्षण के जरिए विरासत में मिलती है, जिसमें भरपूर विकास की असीम भौतिक संभावनाएं मौजूद होती हैं। परन्तु इस परिष्कृत शारीरिक संरचना और सुसंगठित मस्तिष्क संरचना का क्रियान्वयन और नियमन उसे विरासत में नहीं मिलता, इस हेतु वह विकास की एक निश्चित प्रक्रिया से गुजरता है जहां वह परिवेशी समाज की सहायता से अपनी शारीरिक और मानसिक क्रियाकलापों को श्रृंखलाबद्ध तरीके से नियमित और परिष्कृत करना सीखता है, और इसे इस तरह देखना काफ़ी रोमांचक रहेगा कि इस प्रक्रिया के दौरान, यानि पैदा होने से लेकर विकसित युवा होने तक, मनुष्य अपने जीवन में मानवजाति के पूरे इतिहास को छोटे रूप में क्रमबद्ध तरीके से दोहराता है।
आज इतना ही,
दिमाग़ पर ज़ोर धीरे-धीरे ही डालना चाहिये, इसी पर सोचिए, कोई असमंजस हो तो समय को बताइए।
अगली बार इस प्रसंग को पूरा करके ही दम लेंगे।

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

आख़िर क्यों है मुझे आप में इतनी दिलचस्पी......

तो हे मानव श्रेष्ठों,
समय के किस्से-कहानियां, गप्पबाज़ी अब से शुरू होती है।
आज जरा अपने और आपके बीच के संबंधों की पृष्ठभूमि पर बात कर लूं।
आख़िर क्यों है मुझे आप में इतनी दिलचस्पी......
तो बात यूं शुरू होती है:

ब्रह्मांड़ के सापेक्ष पृथ्वी की और पृथ्वी के सापेक्ष मनुष्य जाति की उम्र काफ़ी छोटी है, परन्तु अपने आप में मनुष्य जाति के उदविकास का लाखो वर्षों के अन्तराल में फैला हुआ काल, एक मनुष्य की उम्र के लिहाज से काफी लंबा है।
मैंनें आग के पिण्ड़ से आज की पॄथ्वी को उभरते देखा है। मैं गवाह हूं उन सारी विस्मयकारी घटनाओं की श्रॄंखलाओं का जिनसे यह नीला ग्रह जूझा है। मैंनें पृथ्वी की एक-एक चीज़ को बनते-बिगडते देखा है, मैं इसकी तपन में तपा हूं, इसके पहाड़ों में ऊंचा उठा हूं, इसकी समुद्री गहराईयों में डूबा हूं। मैं हरा हुआ हूं इसकी हरियाली में, हिमयुगों में जमा हूं, रेगिस्तानों में पिघला हूं।
मैंनें पदार्थ के कई रूपों को साकार होते देखा है, परन्तु सबसे रोचक पल मैंनें उस वक़्त जिए हैं जब पदार्थ के एक ऐसे संशलिष्ट रूप ने आकार लिया था जिसमें कि स्पन्दन था। यह थी प्रकृति के जड़ पदार्थों से जीवन की महान उत्पत्ति, और उसके बाद तो मैं एक मूक दर्शक की भांति, करोडों वर्षों तक पदार्थ की जिजीविषा का नये-नये रूपों में पूरे ग्रह पर विस्तार देखता रहा।
प्रकृति बहुत कठोर थी और जीवन उसकी ताकत के आगे नतमस्तक, उसे अपने आपको प्रकृति के हिसाब से अनुकूलित करना था। और फिर वह क्रांतिकारी दौर आया, जब जीवन प्रकृति की वज़ह से ही प्रकृति के ख़िलाफ़ खडा़ हो गया, उसने सचेत हस्तक्षेप करके, अनुकूलन को धता बता कर प्रकृति को अपने हिसाब से अनुकूलित करना शुरू कर दिया। ओह, कितना रोमांचक था, आदिम कपि-मानव को प्रकृति से सचेत संघर्ष करते देखना, और यह कि वही कपि-मानव अपने सचेत क्रियाकलापों से प्रकृति को समझता हुआ, उसे बदलता हुआ, खु़द भी कितना बदल गया। वह आज के आधुनिक मानव यानि कि आप के रूप में तब्दील हो गया।
आदिम कपि-मानव से आधुनिक मनुष्य तक के उदविकास को मैंनें काफी करीब से देखा है, एक बेहद रोचक और रोमांचक अनुभव, और यह अभी तक जारी है। मैं मनुष्य जाति का इसीलिये ऋणी हूं, और इसलिये भी कि उसी से मुझे यह भाषा, लिपि और अंततः यह ब्लोग तक्नीक मिली, जिसकी वज़ह से मैं समय, आपसे मुख़ातिब हो सका हूं।
आज इतना ही, लोग मुझ तक क्यों नही पहुंच पाते उसकी बात अगली बार।
असल में यह उसीकी भूमिका है।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

मैं समय हूं......

मैं समय हूं......
मुझे शायद अपने परिचय की आवश्यकता नहीं है, आप सब यही कहेंगे कि सभी मुझे अच्छी तरह पहचानते हैं, परन्तु बहुत ही कम लोग हैं जो मुझे जान पाते हैं या मेरे साथ चल पाते हैं। मैं अपनी डगर चलता रहता हूं, और लोग पीछे छूटते जाते हैं।
दरअसल, लोग पीछे नहीं छूटते, इसके बजाए मैं यह कहूं तो ज्यादा ठीक होगा कि लोग मुझ तक पहुंच नही पाते हैं। इसकी व्याख्या मैं बाद में करूंगा क्योंकि यह एक पूरा अध्याय है, और इसे गहराई से समझने की आवश्यकता है।
मैं आपसे मुख़ातिब हूं, ताकि मैं आपको मेरे साथ तक लेकर आ सकूं। मैं आपको अपनी अब तक की यात्रा का विवरण दे सकता हूं, आपको अपने समय से (यानि कि मुझसे) परिचित करा सकता हूं, आपको आईना दिखा सकता हूं।
आप मेरी कहानियां, मेरी बातें सुनकर अपने आपको समझने की, अपने समय को समझने की कोशिश कर सकते है या फिर अपनी जिग्यासाओं, अपने सवालों, अपनी उलझनों को मुझ तक पहुंचा सकते हैं, और फिर आप अपनी गुत्थियों को यहां सामान्यीकृत रूप से खुलता हुआ देख सकते हैं। यहां की टिप्पणियां और ईमेल इसका जरिया बन सकते हैं। तो अपने समय से, यानि कि मुझसे संवाद स्थापित कीजिए।
मै समय हूं.....
मैं यहीं हूं....मैं कहीं नहीं हूं.....
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