रविवार, 29 नवंबर 2009

जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने अजैव जगत में परावर्तन के कुछ रूपों की चर्चा की थी।

इस बार जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण पर एक नज़र ड़ालेंगे। यह एक महत्ववपूर्ण और दिलचस्प पड़ाव है जो परावर्तन के जटिलीकरण और उससे चेतना की उत्पत्ति तथा जैविक परावर्तन के क्रमिक विकास की पड़ताल से जुड़ा है।

समय की योजना है कि इस पर मानवजाति के अद्यानूतन ज्ञान के बारे में यहां विस्तार से प्रचुर सामग्री समेकित और प्रस्तुत की जा सके, ताकि जिज्ञासू प्रवृत्ति के मानवश्रेष्ठों को इच्छित संदर्भ-संकेत मिल सकें।
समय निमित्त मात्र है।
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पृथ्वी में जीवन अरबों वर्ष पहले उत्पन्न हुआ, और इसकी उत्पत्ति में कोई चमत्कारिकता नहीं है। गर्म महासागर में तथा जलीय वाष्प से भरपूर वायुमंडल में हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, आक्सीजन और अन्य तत्वों की प्रचुरता थी। जटिल भौतिक-रासायनिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप उनसे कार्बनिक यौगिकों की रचना हुई। अनेक वैज्ञानिकों के कार्यों की बदौलत आधुनिक विज्ञान में इन यौगिकों को प्रयोगशाला में हासिल करने की विधियों का विकास हुआ।

अजैव से जैव पदार्थ में परिवर्तन की व्याख्या के लिए अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किये गए। ओपारिन ने सुझाया कि ज्यों ही कार्बन-आधारित जैव द्रव्य बन गये, जिनमें कार्बन के परमाणु विविध प्रकार से नाइट्रोजन, आक्सीजन, हाइड्रोजन, फ़ास्फ़ोरस और गंधक के परमाणुओं से जुड़े होते हैं, जैव पदार्थ की उत्पत्ति के लिए आधार तैयार हो गया। आधुनिक विज्ञान इस मत के समर्थन में काफ़ी प्रमाण प्रस्तुत करता है।

ओपारिन के सिद्धांत के अनुसार जैव द्रव्यों का निर्माण लगभग दो अरब वर्ष पहले पृथ्वी के वायुमंडल में मुक्त आक्सीजन की उत्पत्ति और तत्जनित प्रकाश-रासायनिक अभिक्रियाओं एवं प्रकाश-संश्लेषण की बदौलत शुरू हुआ था। आद्य महासागर बहुत कुछ जैव द्रव्यों के काढ़े जैसा था, जो समय के साथ विराट अणुओं वाले अत्यंत जटिल कार्बन-आधारित द्रव्यों में संश्लेषित हो गया। ( इसके विपरीत भी एक सिद्धांत है, जिसका प्रतिपादन आल्फ़ेद कास्तलेर ने किया और इसके अनुसार आणविक यौगिकों का व्यवस्थित स्वरूप सामान्य अवस्थाओं में बढ़ने की बजाए घटते ही जाता है। इस कारण इसकी अत्यंत कम संभावना है कि जैव योगिकों की उत्पत्ति पृथ्वी पर हुई होगी। दूसरे शब्दों में, इस सिद्धांत का प्रतिपादक जीवन के पृथ्वी से इतर मूल की प्राक्कल्पना का समर्थन करता है)

अस्थिर और सहजता से अपने घटकों में विखंड़ित होनेवाले अणु, अपने स्थिर अस्तित्व के लिए (स्थायित्व के लिए) अपने से बाहर के प्राकृतिक परिवेश के साथ सतत चयापचयी विनिमय पर ( यानि परिवेश के द्रव्यों के चयनात्मक आत्मसातीकरण और अपघटन के उत्पादों के उत्सर्जन पर ) निर्भर थे। इस तरह विराट अणु वास्तव में स्वयं अपना उत्पादन करने वाले तंत्रों में परिवर्तित हो गए, जो स्वोत्प्रेरक ढ़ंग से द्रव्यों की उनके प्राकृतिक परिवेश के साथ विनिमय की प्रक्रिया का नियमन करते थे।

इन अणुओं में और, सर्वोपरी, समस्त जीवित अंगियों के अंगों की रचना करने वाले प्रोटीन के अणुओं में, ऐसे अनुगुण थे, जो हमारे लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। बाहरी वस्तुओं के प्रभावांतर्गत वे विखंड़ित नहीं हुए, गुणात्मक भिन्न प्रणालियों में रूपांतरित नहीं हुए, बल्कि संरक्षित रहे और उनका अस्तित्व बना रहा। इसका यह अर्थ है कि इन अणुओं से विरचित पदार्थ के अंशों या तत्वों के पारस्परिक आंतरिक विन्यास में एक परिवर्तन हो गया। बाह्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप कणों तथा तत्वों के बीच उर्जा संपर्क परिवर्तित हुए, किंतु स्वयं पदार्थ की प्रणाली का अपने घटक अंगों और तत्वों में विखंड़न नहीं हुआ। जब ऐसे परिवर्तन लाने वाले कारकों की संक्रिया बंद हो जाती है, तो विषयी अपनी पहले वाली स्थिति में वापस आ जाता है।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि अजैवजगत और निर्जीव प्रकृति से जैवजगत तथा सजीव प्रकृति में संक्रमण की अवधि, परावर्तन के रूपों के विकास की एक नयी अवस्था थी। जटिल जैविक प्रणालियों के स्तर पर भी परावर्तन इस बात में देखा जाता है कि विषय ( बाह्य प्रभावों ) की क्रिया के प्रति विषयी अपनी कुछ आंतरिक संरचनाओं में बदलाव के जरिए अनुक्रिया करता है। जब क्रिया बंद हो जाती है, तो ये संरचनाएं अपनी मूल अवस्था पर लौट आती हैं और इस तरह परावर्तन के विषयी के लिए अस्तित्वमान रहना और विकसित होना संभव हो जाता है।

अतएव, यह सोचने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद हैं कि परावर्तन के भ्रूण रूपों से युक्त ऐसी जैव संरचनाएं ही अनेक भूवैज्ञानिक युगों के दौरान विकसित होकर आज के जैव तंत्रों के पुरखे बनीं।

संद्रवावक्षेपों ( कोएसर्वेट ) के नाम से ज्ञात प्रोटीन के अणुओं की भांति, जो संभवतः आधुनिक जीवधारियों के आद्य प्ररूप थे, सभी प्रकार के जैव द्रव्य, बाह्य प्रभावों के परावर्तन के ढ़ंग के मामले में ही जड़ प्रकृति से भिन्न होते हैं। यह परावर्तन स्वयं पर्यावरणीय प्रभावों, उनकी तीव्रता तथा स्वरूप पर ही नहीं, अपितु जीवधारी की आंतरिक दशा पर भी निर्भर होता है। हर जीवधारी सभी बाह्य क्षोभकों ( उद्दीपकों, exciter ) के प्रति चयनात्मक, अर्थात सक्रिय रवैया अपनाता है और इस तरह जैव प्रकृति की एक गुणात्मक नयी विशेषता, स्वतःनियमन का प्रदर्शन करता है।

उदविकास की लंबी प्रक्रिया के फलस्वरूप वर्तमान अवयवियों ने क्षोभनशीलता (उद्दीपनशीलता) से लेकर संवेदन, प्रत्यक्ष, स्मृति और चिंतन यानि मानसिक जीवन की विभिन्न अभिव्यक्तियां तक, परावर्तन के अनेकानेक रूप विकसित कर लिये हैं।
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इस बार इतना ही।
अगली प्रस्तुतियों में, जैव जगत में परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण पर प्रमुखता से नज़र ड़ालेंगे, और थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे।

आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

शनिवार, 21 नवंबर 2009

अजैव जगत में परावर्तन

हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार हमने पदार्थ के मूलभूत गुण के रूप में, परावर्तन ( Reflection, a reflex action, an action in return ) की चर्चा शुरू की थी।
इसी को आगे बढ़ाने और समझने के लिए आज हम अजैव जगत में परावर्तन के कुछ रूपों की चर्चा करेंगे।
समय यहां अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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हमने जाना था कि, परावर्तन हर भौतिक वस्तु ( परावर्तन के विषयी ) का अपने साथ अंतर्क्रियाशील अन्य भौतिक वस्तुओं ( विषयों ) के प्रभाव के प्रति अनुक्रिया करने का एक विशेष गुण है।

परावर्तन का सरलतम रूप अजैव जगत में पाया जाता है, जो भूतद्रव्य ( Matter ) की गति के यांत्रिक, रासायनिक, भौतिक तथा कुछ अन्य रूपों में अपने आपको अभिव्यक्त करता है।

अजैव जगत में परावर्तन के इन रूपों की विशेषता को समझने के लिए हम चंद उदाहरणों पर ग़ौर करते हैं:

१. हम बिलियर्ड के बल्ले से गेंद पर चोट करते हैं। गेंद एक निश्चित दिशा में और एक निश्चित दूरी तक ऐसी रफ़्तार से लुढ़कती है, जो गेंद पर किये गए आघात बल पर निर्भर होती है।

२. दो प्राथमिक भौतिक कण, ऋण आवेश युक्त इलैक्ट्रॉन तथा धन आवेश युक्त पोज़ीट्रॉन निश्चित दशाओं में एक दूसरे से टकराते हैं और नष्ट हो जाते हैं, यानि दो फ़ोटोनों में अर्थात प्रकाश के क्वांटमों में तबदील हो जाते हैं।

३. जब क्षरण से अरक्षित लोहे की किसी वस्तु पर पानी गिर जाता है, तो ऑक्सीकरण की क्रिया से उस वस्तु में जंग लग जाता है।

४. कठोरतम चट्टानों से निर्मित पहाड़ भी धूप, पानी और रेत के कणों, वायु तथा कंकरों के प्रभाव से शनैः शनैः टूटता है, उसमें दरारें पड़ जाती हैं और वह घिस-पिटकर छोटे-छोटे टुकड़ों में और अंततः बालू में परिणत हो जाता है।

इन उदाहरणों में हम भूतद्रव्य की गति के विविध रूपों ( यांत्रिक, भौतिक, रासायनिक और तथाकथित भूवैज्ञानिक जो कि वास्तव में इन्हीं तीनों का सम्मेल है ) को देखते हैं।

पहले उदाहरण में में गेंद का सरल विस्थापन होता है। इस परावर्तन का विषयी ( गेंद ) स्वयं परिवर्तित नहीं होता। अन्य तीन उदाहरणों में बाह्य क्रिया का विषयी ( एक प्राथमिक कण, लोहे की वस्तु, पहाड़ ) वस्तुगत कारकों के प्रभाव के प्रति एक निश्चित ढ़ंग से अनुक्रिया हे नहीं करता, बल्कि उनके असर से विखंड़ित होकर किसी अन्य वस्तु में परिवर्तित हो जाता है ( एक फ़ोटोन, जंग, बालू में )।

इन सारे मामलों में परावर्तन का विषयी, बाह्य प्रभाव के प्रति एक निश्चित ढ़ंग से अनुक्रिया करता है। उनके साथ होने वाले परिवर्तन, बाह्य प्रभाव के स्वभाव के अनुरूप होते हैं।

यदि लोहे की वस्तु को बिलियर्ड़ के बल्ले से ठोकर मारी गई होती, तो उस पर जंग नहीं लगती और हाथी दांत की गेंद को पानी में भिगोया गया होता, तो वह अपने स्थान से विस्थापित न होती। परावर्तन का विषयी बाहरी प्रभाव के प्रति कैसी अनुक्रिया करता है, यह केवल विषय के स्वभाव पर ही नहीं, बल्कि विषयी के अपने अनुगुणों पर, उसकी भौतिक, यांत्रिक और रासायनिक विशेषताओं पर भी निर्भर करता है।

अजैव जगत में परावर्तन के उपरोक्त सभी उदाहरण, विविध विज्ञानों के दृष्टिकोण से, पदार्थ की गति के भिन्न रूपों से की अभिव्यक्ति से संबंधित हैं। दर्शन के दृष्टिकोण से ये उदाहरण एक विशेषता से एकीकृत हैं, अर्थात यह कि विषयी, विषय के प्रभाव के प्रति एक खास ढ़ंग से अनुक्रिया करता है, यानि परावर्तन की प्रक्रिया में भाग लेता है।

इस तरह, यह या तो स्थान परिवर्तित करता है ( उदाहरण-१ ), या किसी अन्य वस्तु में परिवर्तित होते हुए गहन गुणात्मक परिवर्तन से होकर गुजरता है ( मूल कण प्रकाश के क्वांटमों में, लोहा जंग में, पहाड़ बालू-मिट्टी में )। परावर्तन के दौरान विषयी का विनाश या गुणात्मक रूपांतरण अजैव जगत में परावर्तन की लाक्षणिक विशेषता है।
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आज इतना ही।
अगली बार जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण पर एक नज़र ड़ालेंगे, और थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

पदार्थ का मूलभूत गुण - परावर्तन

हे मानवश्रेष्ठों,
समय फिर हाज़िर है।
चेतना की उत्पत्ति पर चल रही श्रृंखला पर फिर लौटते हैं, और इस बार पदार्थ के मूलभूत गुण और उसके सिद्धांत को समझने की कोशिश करते हैं।

आज की चर्चा का यही विषय है। समय यहां अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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मानव-मन या चेतना (Consciousness) की उत्पत्ति उन प्रश्नों में से है, जिन्होंने प्रकृति के नियमों का अध्ययन करने वालों को सबसे अधिक उलझन में ड़ाला है। १८ वीं शताब्दी में दार्शनिकों ने इस प्रश्न पर पुरजोर बहस की थी कि क्या भूतद्रव्य (Matter) के बिना चेतना का अस्तित्व संभव है और अगर नहीं है, तो वह आयी कहां से?

भौतिकवादी वैज्ञानिकों का मत है कि मन या चेतना की उत्पत्ति पदार्थ के विकास की दीर्घ प्रक्रिया के फलस्वरूप संपन्न हुई। पदार्थ की प्रकृति की जांच करते हुए उन्होंने उसकी गति के विभिन्न रूपों पर ध्यान केन्द्रित किया, क्योंकि गति ही पदार्थ के अस्तित्व का रूप है। पूर्णतः गतिशून्य और परिवर्तन रहित पदार्थ नाम की कोई चीज़ नहीं है। ब्रह्मांड़ में सारा पदार्थ, सारी जीव और जड़ प्रकृति सतत गति, परिवर्तन और विकास की अवस्था में है।

प्रत्ययवादियों (Idealistic) के उपरोक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए फ़्रांसीसी भौतिकवादी देनी दिदेरो ने अनुमान लगाया कि भूतद्रव्य के अपने आधार में ही एक विशेष अनुगुण है, जो मूलतः संवेदनों से मिलता जुलता है। इसी से संवेदन की क्षमता तथा बाद में चिंतन का जन्म हुआ। इस अनुमान के समर्थन में उन्होंने अंड़े और चूज़े का उदाहरण दिया कि अंड़े में संवेदन और विश्व के प्रत्यक्षण की क्षमता नहीं होती, जबकि उससे उत्पन्न होनेवाले चूज़े में होती है। फलतः उन्होंने तर्कणा की कि संवेदन की क्षमता अजैव भूतद्रव्य से उत्पन्न हुई।

चूंकि १८ वीं शताब्दी के विज्ञान को हमारे युग के विज्ञान के सापेक्ष जीवन और चेतना की उत्पत्ति के बारे में बहुत कम जानकारी थी इसलिए दिदेरो चेतना और भूतद्रव्य के संबंध के बारे में एक पूर्ण, प्रमाणित दार्शनिक सिद्धांत की रचना नहीं कर पाए।

बहुत बाद में जब मानवजाति का यह वस्तुगत ज्ञान और विकसित होता गया तो एक ऐसे ही सिद्धांत का विकास हुआ जिसे परावर्तन का सिद्धांत कहते हैं।

इस सिद्धांत के अनुसार, अपने जड़, अजैव रूपों से लेकर, पदार्थ के उद्‍विकास के सर्वोच्च तथा जटिलतम उत्पाद - मानव मस्तिष्क तक, सारे पदार्थ का एक सामान्य गुण है परावर्तन। परावर्तन (Reflection, a reflex action, an action in return) भूतद्रव्य (Matter) का एक सार्विक, मूलभूत, अविभाज्य (Integral) तथा वस्तुगत अनुगुण है। यह हर भौतिक वस्तु का अपने साथ अंतर्क्रियाशील अन्य भौतिक वस्तुओं के प्रभाव के प्रति अनुक्रिया करने का एक विशेष गुण है। यानि कि यह भौतिक वस्तुओं द्वारा बाह्य प्रभावों की प्रतिक्रिया है।

परावर्तन के रूप, भूतद्रव्य के रूपों पर निर्भर होते हैं, यह अपने को बाह्य प्रभावों के उत्तर में, इन प्रभावों की प्रकृति के अनुसार क्रिया करने में व्यक्त करता है। जड़ प्रकृति में गति, पिंड़ों अथवा द्रव्यों की यांत्रिक, भौतिक अथवा रासायनिक अन्योन्यक्रिया के रूप ले सकती है। भौतिक विश्व के दीर्घकालिक क्रमविकास तथा पदार्थ की गति के रूपों की बढ़ती जटिलता के दौरान जैव पदार्थ का आविर्भाव गति के रूपों में गुणात्मक परिवर्तन ले आता है। जीवधारियों में परावर्तन के जैव रूप पाये जाते हैं। जैव पदार्थ के उदविकास के दौरान, परावर्तन का यह अनुगुण अंततः मानव चेतना तथा चिंतन में विकसित हो गया। अतः यह कहा जा सकता है कि चेतना परावर्तन का उच्चतम रूप है

विश्व के भौतिक स्वभाव तथा उसके वस्तुगत द्वंदात्मक विकास के दृष्टिकोण और मत, परावर्तन के इस सिद्धांत के साथ घनिष्टता और अविभाज्य रूप से जुड़ा है। प्रत्ययवादी और अधिभूतवादी इस संयोजन को समझने में अक्षम हैं और इसी कारण से वे चेतना की उत्पत्ति के प्रश्न का ऐसा सही उत्तर नहीं दे सकते, जो विज्ञान से मेल खाता हो और प्रकृति और समाज की वस्तुगत समझ विकसित करने में सक्षम हो।

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आज इतना ही।
अगली बार अजैव और जैव जगत में परावर्तन के रूपों पर एक नज़र ड़ालेंगे, और उन्हें थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय
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