शुक्रवार, 28 मई 2010

कर्म और कर्मफल - परंपरा से इतर

हे मानवश्रेष्ठों,

इस बार भी, एक मानवश्रेष्ठ से मेल के जरिए, कर्म और कर्मफल के संदर्भों में एक संवाद स्थापित हुआ था, उसे दिया जा रहा है। यहां से आप कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में जद्दोज़हद पैदा कर सकते हैं, और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं।
कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर और मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण करने का उद्देश्य सामने है ही। यह बताना शायद ठीक रहे कि उनकी पूर्वानुमति इस हेतु प्राप्त कर ली ही गई थी।
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उनका प्रश्न/संवाद कुछ इस प्रकार था:

नमस्ते जी
आपका ब्लॉग पढा आज ..कुछ समझ आया और कुछ नहीं ..कारण आज कल मूड कुछ ठीक नहीं है ..आपसे एक प्रश्न है कि आप कर्म की क्या परिभाषा देते हैं ? और जो भी कर्म हम करते हैं उसका हम पर हमारे आस पास यानी हमारे साथ रहने वालों पर क्या प्रभाव पड़ता है ? और यदि आपके साथ रहने वाला कोई बुरे कर्म करता है किसी को दुःख देता है तो उसकी सजा सिर्फ उसको मिलती है या उसके साथ रहने वाले बाकी सदस्यों को भी ? यदि यह सही है तो इसका अंत कहाँ है ..? ऐसे बहुत से प्रश्न हैं ..मुझे आशा है कि आपसे मुझे इनका जवाब जरुर मिलेगा आसान भाषा में :)
धन्यवाद

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इस प्रश्न पर समय द्वारा किये गए इशारों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। व्यक्तिगत संदर्भ हटा दिये गये हैं, थोड़ा संपादन भी किया गया है। आप भी देखिए, कि आप यहां से क्या पा सकते हैं।
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आदरणीय,

आजकल आपका मूड़ ठीक नहीं है। पता नहीं क्यूं मुझे ऐसा लगता है आप अक्सर इस अवस्था में आते रहते हैं। अपने आप से लड़ते हैं, नये सिरे से परिस्थितियों का विश्लेषण करते हैं, नये सिरे से अपने आपको तैयार करते हैं, संघर्ष करते हैं, और सब कुछ झटक कर फिर से अपने कामों में जुट जाते हैं। फिर कोई ऐसी बात होती है, संबंधों के बीच, मान्यताओं के बीच, मूल्यों की व्यवहारिकता के बीच कि यह सब फिर से शुरु होता है, फिर से खत्म होता है। चक्र चलता रहता है।

यह सब समय की बकवास भी हो सकती है, और इसके अस्वीकरण का अधिकार आपके पास सुरक्षित है ही। आखिर यह सब, समय आपकी कुंड़ली या हाथ की रेखाएं देखकर तो बता नहीं रहा कि सच मानने की विवशता हो।

चलिए थोड़ा सा आपके प्रश्न पर बात करते हैं:

दरअसल, आपके पास ‘कर्म’ नामक संकल्पना के पारंपरिक आशय हैं और हमारी धार्मिक परंपराओं से प्राप्त इसके गूढ़ार्थ हैं। थोड़ी क्लिष्ट भाषा है, पर जानबूझ कर इसका प्रयोग किया है, हो सकता है इस शब्दावली से आपको, आज ही पढ़ी मेरी पोस्ट संकल्पनाएं और प्रवर्ग का कुछ हिस्सा याद आजाए और आप उस पोस्ट और उक्त वाक्य के बीच के अंतर्संबंधों ( co-relation ) को देख सकें।

‘कर्म’ शब्द के आसान रूप ‘काम’ से हम भलीभांति परिचित होते हैं, बचपन से ही हम अच्छी तरह जानते हैं कि ज़िंदगी जीने के लिए मनुष्य को काम करना ही पडता है, काम कर कर ही वह वाकई में मनुष्य बनता है, कामों में दक्षता प्राप्त करता है, बिना काम किए कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता, काम अच्छा होता है तो मनुष्य को ख़ुद भी सुक़ून मिलता है शाबासी मिलती है, काम खराब होता है तो ख़ुद भी मनुष्य संतुष्ट नहीं होता, ग्लानि में रहता है और जाहिरा तौर पर लताड़ और प्रताड़ना मिलती है, अपने काम के जरिए ही मनुष्य अपनी पहचान बनाता है, इसी पहचान के जरिए अपने संबंधों को विकसित करता है, अच्छे काम हमें और हमारे से संबंधित परिवेश को खुश रखते हैं, सुकून देते हैं, वहीं बुरे कार्य हमें और हमारे संबंधों को ग्लानि में भरते हैं, अशांति का कारण बनते हैं। यह काम की वह समझ है जो जीवन हमें खुद समझा देता है।

समस्या तब पैदा होती है जब हम इसी काम की क्लिष्ट संकल्पना ‘कर्म’ से परिचित होते हैं, खासकर हमारे धर्मग्रंथों और उनकी बताई गई व्याख्याओं के जरिए जो कि सहज रूप से हमें हमारे आस-पास उपलब्ध होते हैं। जैसे कि आप कर्म की गीता आधारित अवधारणाओं के बीच उलझे हुए हैं। गीता कहती है कि कर्म मनुष्य का धर्म है उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना कर्म करते जाना चाहिए, बिना इसके परिणामों और फल की चिंता किए बगैर। मनुष्य के हाथ में सिर्फ़ कर्म है और बाकी चीज़ें विधाता के हाथ में हैं। जब उसके हाथ में कर्मों के परिणाम है ही नहीं, इसीलिए जाहिरा तौर मनुष्य को इनकी चिंता नहीं करनी चाहिए। बाकि का सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए, वह ही तय करेगा कि इन कर्मों का क्या परिणाम या फल देना है किसको देना है। आगे गीता यहां तक कहती है कि यहां असल में कुछ नहीं हो रहा, सब कुछ वही कर रहा है, सब कुछ पहले से नियत है और मनुष्य तो निमित्त मात्र है।

ज़िंदगी द्वारा दी गई व्यवहारिक समझ और धार्मिक सैद्धांतिक आदर्शों के बीच का यही विरोधाभास, थोड़ा पढ़े-लिखे समझदार से लोगों को थोड़ा बहुत परेशान करता रहता हैं। अधिकतर लोग तो ज़िंदगी की तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार कर्म करते रहते हैं, मूल्य और सिद्धांत उन्हें फ़ालतू की आदर्श की बाते लगती हैं जो संतों के ही वश की होती हैं और उनके लिए सिर्फ़ बात करने या दूसरों को उपदेश देने की चीज़ मात्र होती हैं। मंदिर या शमशान जैसी जगहों के लिए ही मनुष्य दार्शनिकता और धार्मिकता का सा लबादा ओढ़े रखता है। अपनी सामान्य ज़िंदगी वह इन मूल्यों और आदर्शों से दूर, प्रचलित व्यवहारिक ढ़ग से ही जीता है। वह अपनी समझ में इनके अलग-अलग खाने बना लेता है, जिनके बीच कोई संवाद, कोई अंतर्संबंध बनाना ना वह आवश्यक समझता है ना ही संभव और फिर इसी ढोंग और दोगलेपन के साथ अपनी ज़िंदगी गुजारता चला जाता है।

हमें इस पर सोचना चाहिए कि जब मनुष्य निमित्त मात्र है, उसके हाथ में कुछ है ही नहीं, जब सब कुछ पहले से नियत है, जब कर्म और परिणाम उसके वश से परे है तो  जाहिर है नैतिक-अनैतिक, गलत-सही, प्रभाव और परिणामों की चिंता आदि का भला मतलब भी क्या रह जाता है? आपको इस बारे में कभी और, विस्तार से बताना शायद संभव हो पाए कि गीता और उसके द्वारा प्रवर्तित नये धार्मिक सिद्धांतो की ऐतिहासिक और वास्तविक पृष्ठभूमि का सच क्या है? यह किन सामाजिक जरूरतों के चलते विकसित और पल्लवित हुए?

वापस लौटते हैं।

आप अपने इस बाद के अनुकूलित धार्मिक व्यामोह से निकलिए और कर्म की ज़िंदगी द्वारा सिखाई परिभाषा पर ध्यान दीजिए। अपने व्यक्तिगत और दूसरों के सार्विक अनुभवों पर गौर कीजिए। देखें कि असल जीवन हमें इस बारे में क्या सिखा रहा है, क्योंकि यह समस्याएं हमारे वास्तविक जीवन में पैदा होती हैं अतएव इनसे निपटने के तरीके भी वास्तविकताओं को समझने से ही निकलेंगे। तभी आप अपने इन प्रश्नों से सही मायनों में जूझ पाएंगे, और कोई इच्छित परिणाम देने वाली राह चुन पाएंगे। आपकी मेधा को अभिप्रेत करने के लिए समय यहां कुछ इशारे कर रहा है। ये कोई निश्चित प्रकार के सिद्धांत नहीं है, सिर्फ़ आपकी समझ को शुरूआती आवेग प्रदान करना ही यहां इनका प्राथमिक उद्देश्य है। यह ऐच्छिक तात्कालिक वर्गीकरण है।

प्रत्येक जीव सबसे पहले अपनी जिजीविषा हेतु आवश्यक क्रियाकलापों हेतु प्रवृत्त होता है। उसकी सारी क्रियाविधियां इसी हेतु प्रेरित होती हैं, दूसरे से अंतर्संबंधित गतिविधियां उतना ही आकार ले पाती हैं जितना कि उसकी व्यक्तिगत जिजीविषा हेतु सहायक होती हैं। ये किसी भी जीव के लिए प्राथमिक और सबसे महत्वपूर्ण ‘कर्म’ होता हैं। मनुष्य भी एक जीव होने के नाते प्राथमिक रूप से, अवचेतन निर्देशों के जरिए इन्हीं कर्मों के लिए प्राकृतिक स्वाभाविक प्रवृत्ति रखता है। और इसको ध्यान में रखना बहुत ही महत्वपूर्ण है।

परंतु मनुष्य एक चेतना संपन्न, सामाजिक प्राणी है। अपनी सीमित क्षमताओं के कारण वह प्रकृति से सामूहिक रूप से, सामाजिक रूप से ही संघर्ष करना सीखकर आज की अवस्थाओं तक पहुंचा है। उसकी ऐतिहासिक समझ यह अच्छी तरह से जानती है कि सामाजिकता के बगैर उसका अस्तित्व संभव ही नहीं है। वह अकेला पहले तो ‘कर्म’ करने लायक ही नहीं हो सकता, दूसरा उसके जीवनयापन के लिए लिए जाने सारे कर्म आपस में एक दूसरे मनुष्यों के साथ बहुत ही गहराई से अंतर्गुंथित हैं।

जीवनयापन हेतु आवश्यक सामग्री और संसाधनों का उत्पादन और निर्माण उसके अकेले के कर्म के जरिए संभव ही नहीं हैं। इस तरह वह अपने हिस्से के कर्म, और उसके परिणामों के जरिए पारिवारिक और सामाजिक संबंधों का तान-बाना बुनता है। एक समाज में सभी इसी ‘कर्म’ के बंटवारे के जरिए आपस में जुडे रहते हैं, चाहे वे इसे समझ पाते हो या नहीं, एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, एक दूसरे के संबंधों को प्रेरित और विकसित करते हैं। इसी की वज़ह से एक दूसरे के बीच नकारात्मकता भी पैदा होती है, संबंध टूटते, नये संबंध बनते हैं। यह कर्म का सामाजिक पक्ष है, और द्वितीयक रूप है।

जीवनयापन हेतु जरूरी क्रियाकलापों से बचे समय में मनुष्य को आनंद भी चाहिए होता है, अपने सांस्कृतिक और सामाजिक उत्थान की आवश्यकता भी महसूस होती है। वह अपने अस्तित्व के जरिए सामाजिक श्रेष्ठता पाने की, व्यक्तिगत तौर पर अपने होने को महसूस करने और सामाजिक रूप से अपने जीवन की आवश्यकता साबित कर पाने की आकांक्षाओं से भी ओत-प्रोत होता है। अपने आपको सामाजिक उपयोगिता का आवश्यक अंग बनाने की, सामाजिक श्रेष्ठता पाने की, व्यक्तिगत अहं की तुष्टि की इन जुंबिशों  के चलते किए जाने वाले कर्मों को तृतीयक सामाजिक-सांस्कृतिक रूप की श्रेणी मॆं रखा जा सकता है

वह जैविक जरूरतों के आधार पर बने प्राथमिक और द्वितीयक कर्म संबंधों के अनुसार स्थापित व्यक्तिगत संबंधों में भावनात्मक आधार भी ढूंढ़ता है, भावनात्मक और व्यक्तिगत अपेक्षाएं पालता है, और इनके सुचारू व्यवस्थापन के लिए जिजीविषा से इतर कई तरह के क्रियाकलाप करने की प्रेरणा पाता है। इन्हें कर्म का चतुर्थ और सामाजिकता से ओत-प्रोत व्यक्तिक भावनात्मक रूप कहा जा सकता है

जाहिर है अब अलग से यह कहने की आवश्यकता नहीं रह गई है कि हम कर्मों के जरिए ही एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। अपने कर्म और उस कर्म के पीछे के वास्तविक कारण के अनुसार ही हमारे साथ रहने वालों को प्रभावित करते हैं। साथ रहने वाले सब, जब आपस में अंतर्संबंधित हैं, तो एक दूसरे के कर्मों से सभी आपस में एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। जब तक ये कर्म एक दूसरे के व्यक्तिगत हितों से नहीं टकराते हैं, सामूहिक हितों से जुड़े रहते हैं, तब तक कोई समस्या नहीं महसूस नहीं होती। परंतु जब साथ रहने वालों के कुछ कर्म आपसी हितों और मान्यताओं से टकराने लगते हैं, जब ये सुपरिभाषित और सामूहिकता के साथ व्यवस्थित रूप से प्रचालित नहीं होते हैं, तो ये आपसी कड़वाहटों का, मनमुटावों का कारण बनते हैं और जीवन में, व्यक्तिगत चेतनाओं में अशांति का कारण बनते हैं

जब एक साथ रहने वाला समूह आपस में इस तरह से अंतर्गुंथित है तो उनके कर्मों का असर भी व्यक्तिगत नहीं रह जाता, उसके परिणाम सभी को तद्‍अनुरूप प्रभावित करते हैं, अब इसे कभी सज़ा के तौर पर भी लिया जा सकता है और कभी इनाम के तौर पर भी। कुछ के तात्कालिक असर भी दिख जाते हैं, और कुछ के असर बहुत देर के बाद सामने आते हैं। समय का इस तरह से यहां कंप्यूटर पर बैठ कर टाईप करते रहना समय के परिवार के सामूहिक हितों के अनुरूप नहीं है, यह समय का तृतीयक रूप का कर्म है। जाहिरा तौर पर यह परिवार में टकराव का विषय बन सकता है। अब यह समय की समझ और प्रयासों पर निर्भर है कि समय किस तरह अपनी व्यक्तिगत और पारिवारिक जरूरतों के बीच सामंजस्य बिठाता है और इसे व्यक्तिगत अहं और श्रेष्ठताओं का विषय नहीं बनने देता है। यह आप आसानी से समझ सकते हैं।

यही अंत हो सकता है। चीज़ों को उनकी वास्तविकताओं के अनुसार समझना, वास्तविक और व्यवहारिक रूप से आपस में सामंजस्य बैठाना, पहले ख़ुद अपने आप से पारदर्शी होना, फिर अपने व्यक्तित्व को दूसरों के सामने पारदर्शी बनाना, अपने आप से और दूसरों के साथ ईमानदारी से पेश आना। अपनी व्यक्तिगतता को सामूहिक हितों के सापेक्ष सीमित करना, सामूहिक हितों में ही अपनी व्यक्तिगतता की अभिव्यक्ति को पैबस्त करना सीखना। और इस सबको प्रभावी रूप से कर पाने के लिए, अपनी ज्ञान और समझ को निरंतर बढ़ाने और परिष्कृत करने के लिए, मानवजाति के वास्तविक, यथार्थ और वैज्ञानिक अद्यतन ज्ञान का अध्ययन और व्यवहारीकरण

शायद यही अंत होना चाहिए। अगर हो सके।
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उन मानवश्रेष्ठ का संपादित जवाब:

सादर नमस्ते समय जी ..मैं नहीं जानता आपका नाम क्या है ? पर मेरे लिए आप समय ही हो जो मेरे प्रश्नों के उत्तर देते हैं और मेरे अन्दर चलने वाले द्वंद को एक दिशा दिखाते हैं ..आप के हाथ में मेरी कोई कुंडली नहीं.. कोई हाथ की  रेखा नहीं है ..पर आपने जो इस पोस्ट के आरम्भ में कहा वह एक दम से सच है ....( . )....कर्म समझने की परिभाषा यहीं से शुरू हुई सही मायने में ...गीता तो पढ़ी मैंने कई बार पर आज आपके बताये अर्थ से लगता है उसको समझने में कहीं चुक गया ...गीता हर बार नए अर्थ देती है ..यह तो लगता था पर फिर भी सामान्य इंसान हूँ न ....जब झूठ साथ वाला बोल रहा हो या वह ज़िन्दगी वह जी रहा हो तो उसका असर बाकी सदस्यों पर पड़ना लाजमी है यह आज आपकी पोस्ट से जाना ..( . ).. आपने जो मुझे मेल किया है वह मेरे जैसे कई लोगो के लिए एक अच्छा मार्गदर्शक साबित हो सकता है ..मेरा अनुरोध हैं आपसे कि आप इसको पोस्ट के रूप में अपने ब्लॉग पर पोस्ट करें ..( . )...आगे भी आपका स्नेह मुझे यूँ ही मिलता रहेगा तहे दिल से धन्यवाद

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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

मंगलवार, 18 मई 2010

सपनों के बहाने कुछ प्रवृतियों पर बातचीत

हे मानवश्रेष्ठों,

फिलहाल भारी-भरकम स्थगित। चलिए कुछ हल्का-फुल्का कुछ किया जाए, पर इसका क्या किया जा सकता है कि यहां से भी आप काफ़ी गंभीर इशारे पा सकते हैं। अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में जद्दोज़हद पैदा कर सकते हैं, और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं।

बहुत पहले सपनों के मनोविज्ञान पर दो आलेख प्रस्तुत किये थे, ‘आखिर क्या है सपनों का मनोविज्ञान’ और ‘कुछ सपने आखिर सच होते क्यों प्रतीत होते हैं’। प्रसंग पुराना है पर आप जानते ही हैं बात कभी पुरानी नहीं होती। विचार हमेशा पहली बार मुख़ातिब हो रहे और आत्मसात नहीं कर पाये मानवश्रेष्ठों के लिए नया ही रहता है। तो फिलहाल मुद्दा यह है कि उसी आलेख के बाद एक मानवश्रेष्ठ से मेल के जरिए, उन्हीं संदर्भों में एक संवाद स्थापित हुआ था। यहां उसे व्यक्तिगत संदर्भों के बिना सार्वजनिक किया जाना इसलिए जरूरी लग रहा है कि कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर और मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण किया जा सके। यह बताना शायद ठीक रहे कि उनकी पूर्वानुमति इस हेतु प्राप्त कर ली ही गई थी।
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उनका प्रश्न/संवाद कुछ इस प्रकार था:

सपने इस तरह का सच क्यों बता जाते हैं ?
नमस्ते जी ,आपके ब्लाग पर ...आप लिखते ही हैं कि मेल पर भी आपसे चर्चा की जा सकती है ..मैंने आपके ब्लाग पर दोनों लेख भी पढ़े हैं ...कमेंट्स पढ़े है ...कुछ समझ में आया कुछ नहीं ..पर मेरा अनुभव यह है कि जब जब बुरा सपना देखा है वह सच हुआ है ...

( इसके बाद उन मानवश्रेष्ठ ने अपने कुछ सपनों का जिक्र किया, जिनके सच हो जाने के कारण वे अचंभित और प्रश्नाकुल थे। वे व्यक्तिगतता का आधार रखते थे, अतएव उन्हें यहां प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है )

क्या यह सच होता है ..? मैंने इसको कभी सीरियस क्यों नही लिया ? नही जानता ..पर क्या सच में कोई मुझे संकेत कर जाता है इन बुरे सपनों से ..हम अकसर इन्हे नज़रंदाज़ क्यों कर देते हैं ? बहुत से सवाल है दिल में .और अब भी कोई सपना बुरा आए तो डर जाता हूँ ..अब यह मानता हूँ कि  कोई शक्ति हमारे अन्दर की ही हमे सूचना जरुर देती है पर शायद    हम उस को पहचान नही पाते ....पर यह सपने आते हैं .इस मेल में सिर्फ अपने आने वाले सपनो का जिक्र किया है ..आगे भी कुछ प्रश्न है जो अगली मेल में जारी रहेंगे....
शुक्रिया

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इस प्रश्न पर समय द्वारा किये गए इशारों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। व्यक्तिगत संदर्भ हटा दिये गये हैं, अतएव कहीं-कहीं लय टूटती सी नज़र आ सकती है। आप भी देखिए, कि आप यहां से क्या पा सकते हैं। सपनों के मनोविज्ञान संबंधी दिलचस्पी हो ( जिसका कि जिक्र यहां स्पष्ट नहीं है) के लिए आप शुरूआत में दिये गये आलेख-लिंक पर जा सकते हैं।
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आदरणीय,
आप इस पर बेहद गंभीर हैं, और अपनी गुत्थियों पर असमंजस में।
यह इस लंबे खत से पता चलता है। समय अभी तय नहीं कर पा रहा है, कि वह किस हद तक आपसे संवादरत हो सकता है, और कितना अनौपचारिक। चलिए कुछ कोशिश तो की ही जा सकती है।

सपनों की उलझनों ने समय को भी काफ़ी परेशान किया था, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह से आप अपने बचपन में और अभी भी इनसे बावस्ता हैं। ज़िंदगी से जुडे और भी कई पहलू थे जिनपर प्रचलित दृष्टिकोण समय को नाकाफ़ी लगता था जाहिर है समय ने काफ़ी जिज्ञासाएं की है और दर्शन और विज्ञान का एक सर्वकालिक छात्र है,  बहुतेरे विषयों पर दुनिया भर के अनेक लेखकों की सैकड़ों पुस्तकों से समय का गुजरना हुआ है जिनमें मनोविज्ञान विषय भी शामिल रहा है। यह अपने मुंह मियां-मिट्ठू बनना इसलिए हो रहा है ताकि समय आपको यह बता सके कि समय का दृष्टिकोण वहां और यहां भी पूरी गंभीरता लिए हुए है, ताकि आपको यह लग सके कि चलताऊ ढंग से यूं ही कुछ भी नहीं लिख दिया गया है, ताकि आपसे भी यह उम्मीद कर सकूं कि आप समझें कि गुत्थियों को सुलझाने के लिए सतही प्रयास हमेशा नाकाफ़ी होते हैं

साथ ही इसलिए भी कि, वस्तुगत और वैज्ञानिक दृष्टिकोणों वाली पुस्तकों में भी ऐसी गुत्थियों पर कोई सीधी-सीधी बात नहीं होती, या यूं कह लीजिए कि जरूरी नहीं कि आपकी समस्या उसी समरूपता में वहां उपलब्ध हो। वहां इनके ऊपर, मनोजगत के व्यापारों पर पूरा सटीक विश्लेषण उपलब्ध है परंतु इनकी रौशनाई में अपनी उलझनों से प्राप्त इशारों से खु़द ही जूझना पडता है। अब मानवजाति के अद्यानूतन ज्ञान ने मानसिक प्रक्रियाओं की कार्यप्रणालियों की काफ़ी सुसंगत समझ विकसित कर ली है जिसके जरिए अधिकतर गुत्थियों को सुलझाया जा सकता है। वहां भी एक समझ है, एक दृष्टिकोण है, एक पद्धति है और कुछ इशारे हैं जिनके आधार पर मनुष्य अपने एकांतिक विशेष मानसिक व्यापारों को समझने की कोशिश कर सकता है। जाहिर है पर यह कोशिश तो स्वयं को ही करनी होगी, क्योंकि हमारी पसंद का पका-पकाया हलुवा कहीं भी उपलब्ध नहीं है।

अब होता यह है कि यह एक लंबा रास्ता है, पहले तो एक असली वैज्ञानिक वस्तुगत दृष्टिकोण पैदा करना वह भी अपने भाववादी संस्कारों से लडाई के साथ, फिर उसके हिसाब से दुनिया की हर चीज़ से पुनः माथापच्ची करना और उस पर टांग खीचता परिवेश। और समय भी तो चाहिए ही। साधारणतया मानसिक प्रवृति हमेशा एक लघुप्रतिरोध की राह खोजना चाहती है, ताकि तात्कालिक रूप से, शीघ्रता से एक आत्मसंतुष्टि मिले, दिमागी़ तनाव कम हो और दैनन्दिनी क्रियाकलापों में आसानी से जुट जाया जा सके। इसलिए अधिकतर हम बिना किसी गंभीर अध्ययन के अपनी सीमित समझ के मुताबिक अटकलबाज़ी करते हैं, और तुरत किसी कामचलाऊ निष्कर्ष पर पहुंच कर दिमाग़ को अपनी दूसरी, सापेक्षतः जरूरी, इच्छित सरगोशियों में लगा देते हैं।

यही कारण है कि ईश्वर, भाग्य, नियति, अलौकिकता, अध्यात्म आदि-आदि के तुरंत तसल्ली देने वाले क्रिया-व्यापार समाज में हमेशा जोरों पर रहते हैं। यहां हर गुत्थी के सरल, स्थापित से, पूर्व तैयार, एक साधारण सी तार्किकता की श्रृंखला में व्यवस्थित से हल हमेशा तैयार हैं। इसके साथ ही ये हमारे संस्कारों में होते हैं, पूर्वपरिचित होते हैं, अधिकतर परिवेश की सहमति भी साथ होती है अतएव इनके साथ तादात्मय बैठा लेना हमारे लिए ज्यादा सहज होता है

ऐसा ही आपके साथ हो रहा है। सांयोगिक संवृत्तियां आपको इस तरह सोचने पर विवश कर रहीं है, और साथ ही आपकी जिज्ञासु समझ थोडा-बहुत संदेह भी पैदा कर रही है। आप अंतर्द्वंद में हैं।

पहले एक बात बताता हूं। हमारी दादी जी इस तरह से ही सपनों के सच वाले मामले में और टैलीपैथी जैसे मामलों में गांव में और परिवेश में बहुत लोकप्रिय थीं। वे अक्सर कुछ पुराने संकेतों के जरिए भविष्यवाणियां भी करके चौंकाया करती थी। जैसे आज कोई आयेगा, आज वहां मत जाओ, आज यूं होगा, आदि-आदि। घर में ही साक्षात उदाहरण मौजूद था, इसीलिए हमारे लिए यह अंतर्द्वंद काफ़ी भारी था। उनके आप जैसे ही कई किस्से हम सुना करते थे। दादा जी एक किस्सा तो इतना सटीक सुनाया करते थे कि आश्चर्य से मन मसोस कर रह जाता था, जैसे कि तब होता है कि हम जानते हैं कि जादू दिखाने वाला कोई ट्रिक लगाकर भ्रम पैदा कर रहा है और फिर भी हम उस ट्रिक का अंदाज़ा नहीं लगा पाते और यह सोचते रह जाते हैं कि आखिर यह संभव कैसे हो पाया होगा

यह जबरदस्त चुनौती होती है और यहीं, हमारे दृष्टिकोण, हमें दो अलग राहों पर ले जाने की संभावनाएं रखते हैं। यदि हम किसी भी तरह की अलौकिकता में, चमत्कारों में, जरा सा भी यकी़न रखते हैं तो हम इस जादू को भी उन्हीं से जोडकर शांति पा सकते हैं, इसे भी उसी अलौकिकता का एक उदाहरण मानकर श्रृद्धानवत हो सकते हैं। दूसरी ओर यदि हम जगत की वस्तुगतता के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हैं तो हम यह यक़ीन तो रखते हैं कि यह भी किसी भ्रमात्मक ट्रिक का ही मामला है पर हमारे पास इसका कोई जबाब नहीं होता और एक संदेह, एक उलझन लेकर वहां से उठते हैं। पहला रास्ता सुरक्षित रास्ता है, जिस पर और भी बहुतेरे राही होते हैं, वहीं दूसरा रास्ता हमें और भी अकेला कर देता है तथा एक अनवरत बैचैनी छोड जाता है

पहले तो हमें यह सब रहस्यमयी लगता था, धीरे-धीरे इन भविष्यवाणियों के पीछे के प्राचीन संकेतों की भाषा हम भी समझने लगे और फिर सच होने के अवसरों और आवृतियों को जांचने लगे। तब जाकर इनकी सांयोगिकताओं के प्रतिशत हमें समझ में आने लगे। परंतु हमारी माताजी उनमें अभी भी एक अलौकिक शक्ति का आभास पाती हैं और उन पर कोई तर्क काम नहीं करते। आस्थाएं, तर्क से संतुष्ट नहीं होती।

तो आदरणीय, यह आप पर है कि इन सांयोगिकताओं में किसी नियति की संभावनाएं टटोलते हैं और इनके पीछे किसी अलौकिक शक्ति के भावी इशारे ढूढ़ते हैं या फिर सपनों की वैज्ञानिक वस्तुगतता को समझ कर इनके सच के रूप में घट जाने को एक संयोग के रूप में देखते हैं। यह आप ही भली भांति जानते हैं कि इन सांयोगिकताओं के कितने रूप आपके सामने सच के हिस्से में आये, कितनों का आपने नोटिस लिया, और जो सच नहीं होते उनका नोटिस आप लेते हैं या नहीं।

समय ने अपने लेख में कई बातों को काफ़ी विस्तार से समझाने की कोशिश की थी। टिप्पणियों के जबाब में की गयी टिप्पणियों में और भी कई इशारे किये थे। कुछ फ़र्जी सपनों का जिक्र भी किया था जो कि हमेशा सच होने ही होते हैं।

यह आपने लिखा ही है कि कुछ सपने तो हूबहू घटते देखें हैं आपने, और कुछ हूबहू नहीं थे। दोनों ही मामलों में सारी व्याख्याएं घटनाएं घट जाने के बाद की हैं और उनके आपसी अंतर्संबंध भी आपने बाद में ही खोजे हैं। इसके अलावा यह भी ध्यान देने की बात है, इन सब सपनों को आप उम्र और समझ के इस दौर में पुनः नये सिरे से व्याख्यायित कर रहे हैं, ऐसे में हमारे पूर्वाग्रह अनुकूल परिस्थितियां ही चुनते हैं, कई नई अनुकूल बातें भी गढ़ ली जाती हैं। इस पर भी सोचा जाना चाहिए कि यह अधिकतर हमारे बुरे सपनों के साथ ही क्यों होता है?

हमारी चिंताएं वास्तविक परिस्थितियों के कारण ही उपजती है। जैसे की बच्चा जब झूले पर बैठा हो तो हमें उसके डूब कर मर जाने की चिंता सता ही नहीं सकती, हमें इस वक्त उसके गिर जाने की चिंता ही हो सकती हैं। यानि कि हर घटना के साथ हमारी स्मृति में उससे संबंधित चिंताओं के भावों की स्मृति भी बनती है और बाद में उस घटना का स्मरण उन चिंताओं से भी हमें पुनः रूबरू कराता है। यही सपनों में भी होता है, छवियों के साथ जुडी हुई चिंताएं भी हमें सालती हैं और यदि हमारी प्रवृति इन पर पहले से ही कोई पूर्वाग्रह पाले हुए होती है तो चिंतन में भी और सपनों में भी हम उसी के अनुसार मानसिक प्रक्रियाएं करते हैं।

काफ़ी कुछ इशारे किए हैं समय ने।

आप यदि गंभीर है सत्य के अन्वेषण हेतु तो आपको अपने मन की गहराइयों को टटोलना चाहिए, अपनी मानसिकताओं औए मान्यताओं की वास्तविक पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश करनी चाहिए, इसी से आपकों अपनी मानसिक प्रक्रियाओं और सपनों के रहस्यों की परतें खोलने में मदद मिल सकती है। जहां आपकी समझ, गुत्थियों के विश्लेषण और यथार्थ तथा वस्तुगत हल प्राप्त करने में अपनी सीमाएं महसूस करे, तो इसे उस विषय संबंधी अधिकृत तथा सिद्ध स्रोतों से और अधिक अध्ययन-मनन करने का इशारा समझना चाहिए। जब तक आप संतुष्ट नहीं महसूस करते, उस पर अपनी अंतिम मान्यताओं और निष्कर्षों को स्थगित रखना चाहिए।

यदि आप अपनी मानसिकताओं औए मान्यताओं के साथ संतुष्ट है, और अलौकिक शक्तियों के इशारों पर वास्तव में यक़ीन करते हैं तो फिर काहे इस समझ-वमझ के पचडे में पडते हैं? इसका आनंद लीजिए और ऐसे लोग जाहिर है कम ही होते हैं तो इसका जिक्र करके अपने अंदर भी अलौकिक शक्ति होने का भ्रम पालिए, लोगों के बीच चमत्कारी समझे जाने का मज़ा लीजिए और खुद भी अलौकिक होने के अहसास का गर्व महसूसिए। मिल रहा है, तो ज़िंदगी का मज़ा लूटिए।

यदि समय से कुछ और मदद चाहिए तो संवाद बनाए रखें। समय हमेशा हाज़िर है।
कुछ अनुचित और कठोर कह दिया गया हो तो मुआफ़ी की गुंजाईश बनाए रखें। मुझे मेरी सीमाएं बता दें।

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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

शनिवार, 1 मई 2010

चेतना श्रृंखला का समाहार और दर्शन का संश्लेषक कार्य

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने चिंतन और चेतना को कंप्यूटर के संदर्भ में देखने की कोशिश की थी, और विचार किया था कि क्या कंप्यूटर सोच-विचार कर सकता है?  इस बार यहां चेतना पर शुरू हुई इस श्रृंखला का समाहार प्रस्तुत किया जा रहा है तथा दर्शन के संश्लेषक कार्य पर चर्चा की जा रही है। इस समाहार में अभी तक की पोस्टों के सभी लिंक हैं।

चलिए शुरू करते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित हैं।
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चेतना श्रृंखला का समाहार : दर्शन का संश्लेषक कार्य

हमारी यह श्रृंखला चेतना की बातचीत से शुरू हुई थी, जिसे दर्शन के परिप्रेक्ष्य में ही बेहतर जाना जा सकता है। दर्शन के समेकन के जरिए हम विश्व को एक समष्टि के रूप में समझना सीखते हैं और अपना एक नज़रिया एक दृष्टिकोण विकसित करते हैं। दर्शन का बुनियादी सवाल हमारे सामने यह चुनौती रखता है कि चेतना और भूतद्रव्य में प्राथमिक और निर्धारक कौन हैं। इसके जवाब के अनुसार ही दर्शन की दो मूल प्रवृतियों भौतिकवाद और प्रत्ययवाद से हमारा सामना होता है। हम दर्शन की अध्ययनविधियों द्वंदवाद और अधिभूतवाद से परिचित हुए, और हमने संकल्पनाओं और प्रवर्गों के बारे में जाना। फिर हम भूतद्रव्य और चेतना के अंतर्संबंधों को समझने के लिए भूतद्रव्य की संकल्पना से विस्तार से गुजरे। इससे संबंधित दृष्टिकोणों और उनके विकास की प्रक्रिया को समझते हुए, हमने इसके एक मूलभूत गुण परावर्तन को जाना समझा।

अजैव जगत में परावर्तन को समझते हुए हमने उसके जटिलतर होते जाने की विकास प्रक्रिया को जानने की कोशिश की, और जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन के रूपों से परिचित हुए। फिर जीवन के क्रमविकास के दौरान परावर्तन की प्रक्रिया के साधनों के रूप में तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति तक की यात्रा हमने तय की। यह यात्रा आगे बढ़ी और हमने परावर्तन के सक्रिय और निष्क्रिय रूपों को समझने की कोशिश की। फिर हमने परावर्तन के उच्चतम जटिल रूप में मानसिक क्रियाकलापों और इसी की संदर्भ में मन, चिंतन और चेतना के बीच बारीक फ़र्कों को समझने की कोशिश की।

यह सफ़र आगे बढा और हमने मानसिक क्रियाकलापों के भौतिक अंग के रूप में मस्तिष्क पर एक संक्षिप्त नज़र ड़ाली, तथा जैव जगत में पशुओं और मनुष्य के मानस में मुख्य भेदों को जाना। अंतत्वोगत्वा हम मनुष्य की चेतना के मुख्य आधारों के रूप में श्रम की चर्चा तक पहुंचे तथा भाषा और चिंतन के अंतर्संबंधों को कुछ विस्तार से जाना। इस तरह हमने भूतद्रव्य के क्रमिक विकास के परिणाम स्वरूप चेतना की उत्पत्ति को अद्यतन स्तर पर समझने की कोशिश की और भूतद्रव्य और चेतना के बीच की प्रतिपक्षता और सापेक्षता को ह्र्दयंगम किया। इसी कड़ी में हमने मशीनों और उनके चेतना संपन्न हो सकने की संभावनाओं पर भी गौर किया और जाना कि चेतना किस तरह से सिर्फ़ मनुष्य का लाक्षणिक गुण हो सकती है।

इस श्रृंखला के अंतर्गत हमने जिन संकल्पनाओं (concepts) और प्रवर्गों (categories) को समझने की कोशिश की है, उनका विधितंत्रीय (methodological) महत्व बहुत अधिक है। वे दर्शाते हैं कि हमारे संज्ञानात्मक (cognitive) क्रियाकलाप की सामान्य दिशा क्या है। किसी भी गंभीर अध्येता और सक्रिय सचेत व्यक्तित्व के लिए, बाह्य विश्व का अध्ययन करते समय यह जरूरी है कि वह विश्व को संयोगिक घटनाओं के बेतरतीब ढ़ेर की तरह नहीं, बल्कि एक ऐसी अविभक्त और अंतर्संबंधित भौतिक प्रक्रिया के रूप में जांचे-परखे, जो वस्तुगत रूप से विद्यमान है और अपने ही नियमों के अनुसार विकसित होता है।

यह विश्व, ना केवल साकल्य के रूप में (as a whole) एक विराट भौतिक प्रणाली है, बल्कि इसके अलग-अलग हिस्से भी विशेष प्रणालियां हैं, जिनमें आवश्यक, अंतर्निहित, स्थायी संयोजन (connections) होते हैं और जिनकी अपनी ही संरचनाएं और तत्व होते हैं। इसीलिए विश्व को प्रत्ययवादी ( भाववादी, Idealistic) दृष्टिकोण से जाना और समझा नहीं जा सकता है, क्योंकि वह हमारे परिवेश की घटनाओं के वस्तुगत (Objective) स्वभाव से इंकार करता है, क्योंकि वह परिवर्तन और विकास के सार्विक स्वभाव से इंकार करता है, क्योंकि वह इस बात को समझे बिना कि चिंतन और चेतना स्वयं भौतिक विश्व के जटिल विकास का उत्पाद हैं, वह सारी परिवेशी घटनाओं में चेतना की अभिव्यक्ति और नियमितताओं को देखता है।

प्रत्ययवाद हमारी तर्कबुद्धि को गति और विकास के वस्तुगत नियमों के अध्ययन की ओर नहीं ले जा सकता है जो कि आधुनिक विज्ञान का एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। जो लोग परिवर्तन, गति तथा विकास के सार्विक, सामान्य स्वभाव को नहीं देख पाते, वे व्यावहारिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के अपने विश्लेषण और निर्णयों में गलती करेंगे। तेज़ी से बदलती हुई आधुनिक दुनिया में सामाजिक प्रणालियों और संरचनाओं के वस्तुगत नियमों का ज्ञान, समुचित तथा सफ़ल क्रियाकलापों और हस्तक्षेपों की अनिवार्य शर्त है।

इस श्रृंखला में प्रस्तुत द्वंदात्मक भौतिकवाद के प्रवर्ग और संकल्पनाएं, मनुष्य का एक विश्वदृष्टिकोण विकसित करने और विश्व को समझने के विधितंत्रीय कार्यों के अलावा एक और महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। इनके द्वारा सर्वाधिक विविधतापूर्ण वैज्ञानिक ज्ञान को विश्व के एकल चित्र में संश्लेषित तथा संयुक्तिकृत किया जाता है, जिससे भूतद्रव्य ( matter ) की गति के सारे रूपों ( सरलतम व यांत्रिक गति से लेकर जटिलतम तक ) को एक ही साकल्य की शक्ल में जांचा जा सकता है। अजैव वस्तुएं तथा जीवित प्राणी, परावर्तन के निम्नतम रूप तथा उसका उच्चतम रूप चेतना, जीवन की उत्पत्ति की प्रक्रिया, सामाजिक क्रियाकलाप के रूप में श्रम, चिंतन के भौतिक वाहक के रूप में भाषा - ये सभी एक एकल विश्वदृष्टिकोण में एकीकृत तथा संश्लेषित, एक ही तस्वीर में अंकित सिद्ध होते हैं।

भौतिकी, रसायन, जैविकी, खगोलविद्या, इतिहास, साइबरनेटिकी तथा अन्य विज्ञान अपनी समस्याओं को अपनी ही विधि से हल करते हैं और अध्ययनाधीन वस्तुओं के बारे में अपनी ही विशेष व्यापक संकल्पनाओं और धारणाओं का विकास करते हैं। किंतु इनमें से एक भी, इन सभी विज्ञानों के परिणामों को विश्व की एकल तस्वीर के अंदर संश्लेषित और एकीकृत करने का कार्य नहीं करता है। दर्शन इन सभी अलग-अलग विज्ञानों के प्रमुख बुनियादी निष्कर्षों को संश्लेषित करता है और उनके आधारों पर विश्व को एक साकल्य के रूप में समझने की राह प्रशस्त करता है। यह हमें बदलती हुई दुनियां में अलग-अलग विज्ञानों के स्थान तथा उनके अंतर्संबंधों को तथा आगे के विकास को सही ढ़ंग से समझने में समर्थ बनाता है। इस तरह, दर्शन ज्ञान के संश्लेषण का कार्य भी निष्पादित ( perform ) करता है

मानवश्रेष्ठों, चेतना की संकल्पना और इसके भूतद्रव्य के साथ अंतर्संबंधों को जाने बगैर तथा भूतद्रव्य के जटिल विकास के फलस्वरूप चेतना की उत्पत्ति को समझे बगैर, हम अपने परिवेश की अंतर्गुथित परिघटनाओं और जटिल सामाजिक अंतर्संबंधों के सटीक विश्लेषण की योग्यता हासिल नहीं कर सकते। हमारा प्रत्ययवादी ( भाववादी, Idealistic) मानसिक अनुकूलन और अध्ययन की अधिभूतवादी ( metaphysical ) विधि के कारण हमें घटनाओं में किसी अलौकिक चेतना की उपस्थिति और रहस्यमयता नज़र आती है। और ऐसे में जबकि आज वैज्ञानिक से लगते उपागमों और शब्दावलियों के सहारे प्रत्ययवादी दर्शन की सिद्धी तथा पुष्टि के अनगिनत, संगठित और बहुप्रचारित प्रयासों का जो अंबार लगाया जा रहा है, मनुष्य जाति के भावी सामूहिक विकास के लिए दर्शन की सुसंगत समझ तथा एक समुचित वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना और भी जरूरी हो गया है।

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इस बार इतना ही।
आगे दिमाग़ को कष्ट देने के लिए हम कोई और राह ढूंढ निकालेंगे। दर्शन और मनोविज्ञान की और कई संकल्पनाओं और प्रवर्गों पर यथासंभव चर्चा करते रहेंगे। देखते हैं समय के हाथ क्या लगता है।

विषयगत आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय
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