शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

क्षोभनशीलता ( उद्दीपनशीलता ) और संवेदिता

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार यहां समकालीन मनोविज्ञान की शोध प्रणालियों पर थोड़ा-सा विस्तार से चर्चा की गई थी। इस बार क्षोभनशीलता और संवेदिता पर हम एक संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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क्षोभनशीलता ( उद्दीपनशीलता ) और संवेदिता

( मन और चेतना के विकास के संदर्भ में हम यहां एक पहले की प्रविष्टि "जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन" पर कुछ चर्चा कर चुके हैं। उसे पहले पढ़ा जा सकता है, वह आज की विवेचना के लिए आधार भूमिका का कार्य करेगी। वहां पदार्थ के उदविकास के परिणामों के रूप में परावर्तन के अनेकानेक रूपों से युक्त जैवीय संरचनाओं की उत्पत्ति के कुछ इशारे थे। वहीं प्रयुक्त संकल्पना क्षोभनशीलता ( उद्दीपनशीलता ) पर आज यहां थोड़ा-सा विस्तार से चर्चा करेंगे। मन के विकास के संदर्भों में, जैविक व्यवहार तथा सक्रियता को समझने में यह शुरूआती कदम है। )

वनस्पति तथा जीव जगत के उदविकास की सभी अवस्थाओं में सभी सजीव अवयवियों में परावर्तन के एक विशेष, जैव रूप के नाते क्षोभनशीलता सदा विद्यमान रही है। क्षोभनशीलता, जैविकतः सार्थक उद्दीपन की जीवधारी द्वारा प्रतिक्रिया दिखाने की क्षमता है


 प्रारंभिक क्षोभनशीलता सरलतम एककोशीय अवयवियों ( प्रोटोज़ोआ ) में भी देखी जाती है जो बाह्य प्रभाव पड़ते ही प्रतिक्रियास्वरूप हलचल करने लग जाते हैं, और ऐसे परिवेश में रुक जाते हैं, जो दत्त जैव-कोशिका  के जीवद्रव्य की रासायनिक संरचना और ढांचे की पुनर्स्थापना में सहायक है। जीवीय कारकों की प्रतिक्रियास्वरूप होनेवाली विशिष्ट गतियों को अनुवर्तन अथवा अनुचलन कहा जाता है। इनमें प्रकाशानुवर्तन, अर्थात प्रकाश की प्रतिक्रिया, तापानुवर्तन, अर्थात ताप की प्रतिक्रिया, रसायनानुवर्तन, अर्थात एक निश्चित भौतिक व रासायनिक माध्यम खोजने की प्रवृति, स्थलानुवर्तन, अर्थात किसी यांत्रिक उद्दीपन अथवा प्रभाव की प्रतिक्रिया, आदि शामिल हैं।

वनस्पतियों के परावर्तन का रूप स्वतःनियमन की प्रक्रिया से संबद्ध अनुवर्तनों तक ही सीमित है। जीवजगत एक नये प्रकार की क्षोभनशीलता विकसित करता है, जिसे संवेदिता कहा जाता है। आनुवंशिकीय दृष्टि से संवेदिता उस परिवेशीय प्रभाव से संबंधित क्षोभनशीलता ही है, जो अवयवी को अन्य प्रभावों के संपर्क में लाती है, अर्थात संकेत का कार्य करके उसे परिवेश के अनुरूप व्यवहार करने में मदद देती है। क्षोभनशीलता से संवेदिता में संक्रमण अस्तित्व के एक नये रूप को जन्म देता है, विकसित जीवों में ज्ञानेन्द्रियां पैदा हो जाती हैं। गंध, आकृति, रंग, आदि वस्तुओं के गुण, जो अपने में उदासीन हैं ( इस अर्थ में कि इन्हें किसी शारीरिक आवश्यकता की तुष्टि के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता ) संकेतों का महत्व ग्रहण कर लेते हैं। इस तरह वनस्पतियों की तुलना में जीवों में जीवीय तथा जीवेतर अभिक्रियकों के प्रति संवेदिता उन्हें कहीं ज़्यादा क़िस्म के बाह्य प्रभावों का परावर्तन करने की संभावना देती है।


एककोशीय जीव प्रोटोजोआ परिवेश में सक्रिय दिग्विन्यास की क्षमता और प्रतिक्रिया में एक अस्थायी व्यवहार-संरूप विकसित करने की प्रवृति रखता है। वहीं बहुकोशीय जीवों में उच्चतर किस्म का परावर्तन पाया जाता है। आद्यतम बहुकोशीय अवयवियों में सीलेंटरेटा ( हाइड्रायड, मेडूसा, आदि ) आते हैं, जो प्रोटोजोआ जैसे ही पानी में रहते हैं। अंतर उनके बहुत सारी कोशिकाओं से बने होने में ही नहीं है, उनकी सापेक्ष विषमांगता में भी है। बहुकोशीय अवयवियों में उत्तेजना-संवाहक का काम करनेवाले अत्यंत संवेदनशील जीवद्रव्य से युक्त कोशिकाएं भी होती हैं। ये अति संवेदनशील ( तंत्रिकीय ) कोशिकाएं इकट्ठी होती हैं और जीव के सारे शरीर में व्याप्त तंत्रिका-तंत्र का निर्माण करती हैं। सीलेंटरेटा में विशेषतः संवेदनशील उनके स्पर्शक होते हैं, जिनकी मदद से वह अपने शिकार को पकड़ते हैं।

सीलेंटरेटा का व्यवहार आंशिकतः उनकी जातीय स्मृति की उपज होता है। दूसरे शब्दों में, वह उन आनुवंशिक संबंधों की देन है, जो उदविकास की प्रक्रिया में निश्चित क्षोभकों और अवयवी की उनसे संबंधित प्रतिक्रियाओं ( मुख्यतः अनुचलन के रूप में ) के बीच विकसित हुए थे। सीलेंटरेटा का व्यवहार जीव के जीवनकाल में विकसित अस्थायी संबंधों, अर्थात अनुकूलित प्रतिवर्तों पर भी निर्भर होता हैं।

ऐसे संबंधों के निर्माण को निम्न प्रयोग में सहजता से देखा जा सकता है। यदि हम कागज़ का टुकड़ा एक्टीनिया के सामने ले जाएं, तो जीव उसे तुरंत पकड़ लेगा और निगल जाएगा। यदि यही क्रिया अनेक बार दोहरायी जाती है, तो एक्टीनिया कागज़ को मुंह तक लाये बिना ही परे फेंक देगा। किंतु इस प्रकार के प्रतिवर्त अस्थायी होते हैं और सामान्यतः तीन-चार घंटों के बाद ही लोप हो जाते हैं।

बहुकोशीय अवयवियों में, जो सीलेंटरेटा से उच्च स्तर के हैं और भूमि पर रहते हैं, शरीर की संरचना अस्तित्व के रूप में परिवर्तन के कारण कहीं अधिक पेचीदी है। उनमें कुछ निश्चित प्रकार के क्षोभकों के परावर्तन के विशिष्ट अंग मिलते हैं। ये ज्ञानेन्द्रियां हैं। परावर्तन के रूप भी कहीं ज़्यादा पेचीदे बन जाते हैं। शरीर की खंडीय रचना और ज्ञानेन्द्रियों के भ्रूण कृमियों में भी पैदा हो गये थे। कृमि के शरीर के हर खंड में तंत्रिका कोशिकाओं के पुंज या गुच्छिकाएं होती हैं। हर खंड में स्थित गुच्छिकाएं उसे कतिपय स्वतंत्र रूप से की गयी क्रियाओं का अपेक्षाकृत स्वायत्त वाहक बना देती हैं।


इस तरह बड़ी संख्या में तंत्रिका-गुच्छिकाएं के निर्माण से ही शरीर की संरचना में वह वस्तुतः उपयोगी जटिलता नहीं आ जाती, जो बाह्य प्रभावों के यथानुरूप परावर्तन के लिए और इसलिए परिवेश के अधिक अनुकूल ढलने के लिए भी आवश्यक है। किंतु इस तरह के उच्चतर परावर्तन के लिए अंतर्निहित क्षमता वहां अवश्य मौजूद है। वह प्रमस्तिष्कीय गुच्छिका में पायी जाती है, विभिन्न कार्य करने वाली और विभिन्न अंगों से जुड़ी तंत्रिका-कोशिकाओं का संकेन्द्रण है। यह शरीर के सभी भागों में पैदा होने वाले उत्तेजनों का एकत्रण, विश्लेषण तथा अन्य कोशिकाओं को अंतरण करती है और शरीर के विभिन्न खंडों के पेशी-तंत्रों को आवेग भेजती है। प्रमस्तिष्कीय गुच्छिका की बदौलत रेंगने और खोदने वाले कृमि, शरीर के अग्र भाग में विशेषीकृत ज्ञानेन्द्रियां विकसित कर लेते हैं। ये संवेदकों का काम करने वाले श्रृंगिकाएं और नेत्रों के भ्रूण हैं।

इस तरह हम देखते हैं कि परावर्तन का मूलभूत गुण, पदार्थ के विकास क्रम के दौरान विभिन्न जटिल रूपों में विकसित होते हुए, अपने जैवीय रूपों क्षोभनशीलता और संवेदिता को पाता है और जैवीय विकास को निरंतर जटिल बनाते हुए विभिन्न अवयवी संरचनाओं की उत्पत्ति के कारक के रूप में सामने आता है।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

1 टिप्पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बहुत सुंदर! अपना तो पुनरीक्षण चल रहा है।

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