शनिवार, 27 नवंबर 2010

सक्रियता का आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में सक्रियता की संरचना के अंतर्गत क्रियाएं, गतियां और उनके नियंत्रण को समझने की कोशिश की थी इस बार हम सक्रियता के आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


सक्रियता का आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण

मस्तिष्क भविष्य का पूर्वानुमान कैसे कर लेता है? जो क्रियाएं अभी की ही नहीं गई हैं, मस्तिष्क उनके परिणामों को कैसे प्रतिबिंबित कर पाता है?

पूर्वानुमान की संभावना परिवेशी विश्व की एक बुनियादी विशेषता, यानि इसके नियमशासित स्वरूप से पैदा होती है। इसका यह अर्थ है कि विश्व की विभिन्न परिघटनाएं आपस में कुछ निश्चित स्थायी संबंधों व संपर्कों से जुड़ी हुई हैं, कि विश्व की सभी वस्तुओं के कुछ निश्चित स्थायी गुणधर्म तथा संरचनाएं हैं, जो अपने को कुछ खास परिस्थितियों में प्रकट करते हैं ( आग सदा जलती है; रात के बाद दिन आता है; कोई भी पिंड उतनी ही तेज़ी से गति करेगा, जितना अधिक उसपर बल लगाया जाएगा: जोड़ी जानेवाली राशियों को ऊपर-नीचे, आगे-पीछे करने से योगफल नहीं बदलता: वग़ैरह )।

वस्तुओं के बीच, परिघटनाओं के बीच मौज़ूद ऐसे स्थायी ( अपरिवर्तनीय ) संबंधों को वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्म और परिघटनाओं की नियमसंगतियां कहा जाता है। इन्हीं की बदौलत ही निश्चित परिस्थितियों में वस्तुओं तथा परिघटनाओं के ‘व्यवहार-संरूपों’ का पूर्वानुमान किया जाता है, अर्थात् किन्हीं निश्चित प्रभावों के अंतर्गत उनके परिवर्तनों की भविष्यवाणी करना और निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप उन्हें नियमित करना संभव बनता है। बाह्य, वस्तुसापेक्ष क्रिया से पहले जैसे कि एक आंतरिक, प्रत्ययात्मक क्रिया का निष्पादन होता है। वस्तुओं से जुड़ी क्रियाओं का स्थान वस्तुओं के बुनियादी गुणों की प्रत्ययात्मक ( मानसिक ) जोड़-तोड़ ले लेती है। दूसरे शब्दों में, वस्तुओं की भौतिक जोड़-तोड़ की जगह उनके अर्थों की मानसिक जोड़-तोड़ को दे दी जाती है।

बाह्य, वास्तविक क्रिया से आंतरिक, प्रत्ययात्मक क्रिया में संक्रमण की इस प्रक्रिया को आभ्यंतरीकरण ( Internalization ) कहा जाता है। इसकी बदौलत मानव मन उन वस्तुओं के बिंबों के साथ भी क्रियाएं कर सकता है, जो दत्त क्षण में उसके दृष्टि-क्षेत्र के भीतर नहीं है। मनुष्य जीवित वर्तमान की सीमाएं लांघ जाता है और कल्पना के बल पर विगत तथा भविष्य, दिक् तथा काल में स्वच्छंद विचरण करने लगता है। वह बाह्य स्थिति के, जो जीव-जंतुओं के सारे व्यवहार का निर्धारण और नियमन करती है, बंधनों को तोड़ डालता है।

यह अकाट्यतः सिद्ध किया जा चुका है कि इस संक्रमण का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण शब्द हैं, कि यह संक्रमण वाक्, यानि वाचिक सक्रियता के जरिए संपन्न होता है। शब्द वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्मों को और मानवजाति के व्यावहारिक जीवन में विकसित सूचना के उपयोग की प्रणालियों को अलग तथा अपने में समेकित कर लेता है। अतः शब्दों का सही प्रयोग सीखना और वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्मों व सूचना-उपयोग की विधियों को जानना, ये दोनों कार्य साथ-साथ होते हैं। शब्द के ज़रिए मनुष्य सारी मानवजाति के अनुभव, यानि सैकड़ों पूर्ववर्ती पीढ़ियों और अपने से हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित लोगों और समूहों के अनुभव को आत्मसात् करता है।

शब्दों और वस्तुओं के आपसी संबंधों के परिचायक अन्य प्रतीकों के उपयोग से, मनुष्य वस्तुओं के अभाव में भी चर्चागत संबंधों से ताल्लुक़ रखनेवाली सूचना के उपयोग तथा अनुभव, ज्ञान तथा आदर्शों और अपेक्षाओं के जरिए अपनी सक्रियता तथा व्यवहार का नियमन करना संभव बनाता है। मनुष्य की सक्रियता एक बड़ी पेचीदी और अदभुत प्रक्रिया है, वह मनुष्य की आवश्यकताओं की साधारण तुष्टि तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि काफ़ी हद तक समाज के लक्ष्यों तथा मांगों से भी निर्धारित होती है। लक्ष्य की चेतना और उसकी प्राप्ति के लिए सामाजिक अनुभवों पर निर्भरता उसकी एक ख़ास विशेषता है।

मनुष्य की सक्रियता का एक लक्षण यह है कि उसके बाह्य ( भौतिक ) और आंतरिक ( मानसिक ) पहलुओं के बीच अटूट संबंध है। बाह्य पहलू या गतियां, जिनके द्वारा मनुष्य बाह्य विश्व को प्रभावित करता है, आंतरिक ( मानसिक ) सक्रियता द्वारा, अभिप्रेरणा, संज्ञान तथा विनिमयन से संबद्ध प्रक्रियाओं द्वारा निर्धारित और नियमित होती हैं। दूसरी ओर, आंतरिक ( मानसिक ) सक्रियता का निदेशन व नियंत्रण बाह्य सक्रियता करती है, जो वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं के गुणधर्मों को प्रकाश में लाती है, उनका लक्ष्योद्दिष्ट रूपांतरण करती है और बताती है कि मानसिक मॉडल कहां तक पूर्ण हैं और क्रियाएं व उनके परिणाम उनके प्रत्ययात्मक बिंबों से कहां तक मेल खाते हैं।

जैसा की हम ऊपर देख चुके हैं, आंतरिक, मानसिक सक्रियता को बाह्य, वस्तुसापेक्ष सक्रियता के आभ्यंतरीकरण का परिणाम माना जा सकता है। इसी प्रकार बाह्य, वस्तुसापेक्ष सक्रियता को भी आंतरिक, मानसिक सक्रियता का बाह्यीकरण समझा जा सकता है।


                                                                                     
इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 20 नवंबर 2010

सक्रियता की संरचना - क्रियाएं, गतियां और उनका नियंत्रण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में सक्रियता और उसके लक्ष्यों पर एक संक्षिप्त चर्चा की थी इस बार सक्रियता की संरचना के अंतर्गत क्रियाएं, गतियां और उनके नियंत्रण को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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सक्रियता की संरचना - क्रियाएं, गतियां और उनका नियंत्रण

सक्रियता यथार्थ के प्रति एक तरह का सक्रिय रवैया है, जिसके जरिए मनुष्य अपने और परिवेशी विश्व के बीच संबंध स्थापित करता है। मनुष्य अपनी सक्रियता के द्वारा प्रकृति, बाह्य वस्तुओं और अन्य लोगों पर प्रभाव डालता है। सक्रियता में अपने आंतरिक गुणों को चरितार्थ तथा उद्‍घाटित करते हुए, मनुष्य वस्तुओं के संबंध में कर्ता और अन्य मनुष्यों के संबंध में व्यक्ति के तौर पर सामने आता है। वह चीज़ों को विषयों और लोगों को व्यक्तियों के रूप में देखता है।

क्रियाएं और गतियां

किसी भी पत्थर का भार जानने के लिए हमें उसे उठाना होता है और पैराशूट की विश्वसनीयता जांचने के लिए हमें उसके साथ कूदना होता है। पत्थर उठाकर या पैराशूट के साथ कूदकर, यानि सक्रियता के ज़रिए मनुष्य उनके वास्तविक गुणों का ज्ञान प्राप्त करता है। वह इन वास्तविक क्रियाओं के बदले वैकल्पिक तरीकों से भी काम ले सकता है, मगर इसके लिए भी शुरू में व्यवहार या व्यवहारिक सक्रियता आवश्यक थी। यह सक्रियता न केवल पत्थर या पैराशूट के गुणों को, बल्कि स्वयं मनुष्य के गुणों को भी दिखाती है ( उसने पत्थर क्यों उठाया, पैराशूट क्यों इस्तेमाल किया, वग़ैरह)। व्यवहारिक कार्य निर्धारित करता और दिखाता है कि व्यक्ति क्या जानता है और क्या नहीं, विश्व में उसे क्या दिखाई देता है और क्या नहीं, क्या वह चुनता है और क्या ठुकराता है। दूसरे शब्दों में, व्यवहारिक कार्य मानव मन की अंतर्वस्तु तथा उसके क्रियातंत्रों का निर्धारण तथा उद्‍घाटन करता है

सक्रियता का लक्ष्य आम तौर पर कमोबेश दूरस्थ होता है, जिसकी वज़ह से मनुष्य लक्ष्य को तभी पा सकता है, जब वह राह में अपने सामने पैदा होनेवाले कई सारे विशिष्ट कार्यभारों को पूरा कर ले। उदाहरण के लिए, किसी औजार विशेष को बनाने के लिए लौहार को हर निश्चित कालावधि के भीतर कई सारे छोटे-मोटे कार्य करने होते हैं। जैसे कि लोहे को गरम करना, ठंड़ा होने से पहले उसे पीट कर निश्चित आकार देना, वग़ैरह। किसी सरल तात्कालिक लक्ष्य को पाने के लिए निष्पादित सक्रियता की इन अपेक्षाकृत पृथक इकाईयों को क्रियाएं कहा जाता है। ऊपर बताई गई श्रम क्रियाएं वस्तुसापेक्ष क्रियाएं, यानि बाह्य विश्व की वस्तुओं की अवस्था अथवा गुणों को बदलने के लिए की गई क्रियाएं हैं। हर वस्तुसापेक्ष क्रिया दिक् और काल में आपस में जुड़ी हुई कुछ निश्चित गतियों की संहति होती हैं। जैसे कि, अक्षर ‘अ’ को लिखने की क्रिया में कलम को एक निश्चित ढ़ंग से पकड़ने, उसे उठाने फिर कागज को छूते हुए दो अर्धवृत्त बनाने, फिर नोक को उठाकर एक आड़ी तथा उसे छूते हुई एक खड़ी पाई बनाना, और अंत में उनके ऊपर एक आड़ी रेखा खींचना शामिल है।

मनुष्य की सक्रियता में वस्तुसापेक्ष गतियों के अलावा वे गतियां भी शामिल होती हैं, जो मनुष्य को एक निश्चित मुद्रा ( खड़ा रहना, बैठना, आदि ) अपनाने तथा बनाए रखने, स्थान-परिवर्तन करने ( चलना, दौड़ना, आदि ) और अन्य लोगों से संप्रेषण करने में समर्थ बनाती हैं। संप्रेषण के साधनों में भावात्मक गतियां ( चहरे और शरीर की भंगिमाएं ), अर्थपूर्ण चेष्टाएं और वाचिक गतियां शामिल हैं। उपरोक्त गतियां बांहों और टांगों के अलावा शरीर तथा चहरे की पेशियों, कंठ, स्वरतंत्रियों, आदि द्वारा संपन्न की जाती हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि वस्तुसापेक्ष अथवा अन्य किसी बाह्य क्रिया के निष्पादन का अर्थ एक निश्चित गति-श्रृंखला का निष्पादन है। यह क्रिया के लक्ष्य, उन वस्तुओं के गुणों, जिनकी ओर यह क्रिया लक्षित है, और जिन परिस्थितियों में यह क्रिया संपन्न की जाती है, उन पर निर्भर करती है।

क्रिया का नियंत्रण तथा निगरानी

किसी भी गति के निष्पादन का उसके परिणामों का क्रिया के अंतिम लक्ष्य के साथ मिलान करके लगातार नियंत्रण और समंजन किया जाता है। वांछित परिणाम ज्ञानेन्द्रियों ( दृष्टि, श्रवण, पेशी संवेदन ) की सहायता से प्राप्त किया जाता है। गतियों का नियंत्रण इनके जरिए प्रतिपुष्टि ( feed back ) के सिद्धांत के अनुसार होता है। इस प्रतिपुष्टि का माध्यम ज्ञानेन्द्रियां और सूचना का स्रोत वस्तुओं तथा गतियों के निश्चित अवबोधित लक्षण होते हैं, जो क्रिया के संदर्भ-बिंदु की भूमिका अदा करते हैं।

इस प्रकार वस्तुसापेक्ष क्रिया अथवा किसी अन्य बाह्य क्रिया का निष्पादन एक निश्चित गति-श्रॄंखला के निष्पादन तक सीमित नहीं है। इसमें गतियों का ऐंद्रिक नियंत्रण और उनके मौजूद परिणामों तथा क्रिया के विषयों के गुणों के अनुसार संशोधन भी शामिल है। यह प्रक्रिया मस्तिष्क को परिवेश की अवस्था एवं उसमें की जा रही गतियों तथा प्राप्त परिणामों की सूचना देनेवाले इंद्रियगत संदर्भ-बिंदुओं के आभ्यंतरीकरण ( Internalization ) पर आधारित होती है।

लुहार तपे हुए लोहे के तापमान को देखकर, जिसे मोटे तौर पर धातु की चमक से आंका जाता है, उस पर कम या ज़्यादा जोर से हथौड़ा मारता है। बढ़ई पेशियों द्वारा लकड़ी के प्रतिरोध की अनुभूति को देखते हुए रंदे पर दाब की मात्रा और उसे चलाने की रफ़्तार तय करता है। ट्रक चालक जब ब्रेक लगाता है, तो अपने ट्रक की रफ़्तार तथा भार, सड़क की दिशा, आदि को ध्यान में रखता है। यानि कि किसी भी क्रिया में सम्मिलित गति-श्रृंखला का नियंत्रण उस क्रिया के लक्ष्य द्वारा किया जाता है। वास्तव में हम गतियों के परिणामों को उनके लक्ष्य की दृष्टि से ही आंकते हैं और लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही उनमें आवश्यक सुधार या परिवर्तन करते हैं।

लक्ष्य सामान्यतः एक ऐसी चीज़ है, जो दत्त क्षण में नहीं होती और जिसे क्रिया द्वारा पाया जाना है। अतः मस्तिष्क में लक्ष्य एक बिंब का, क्रिया के प्रत्याशित परिणाम के एक गतिशील मॉडल का रूप लेता है। इस अभीष्ट भविष्य के मॉडल के साथ ही हम अपनी क्रिया के वास्तविक परिणामों का मिलान करते हैं और यह मॉडल ही गतियों के ढ़ांचे का नियंत्रण तथा संशोधन करता है। इस तरह हम देखते हैं कि भावी क्रियाओं तथा उनके परिणामों का मस्तिष्क में पूर्वानुमान कर लिया जाता है, अन्यथा लक्ष्योन्मुख सक्रियता संभव ही नहीं होती।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 13 नवंबर 2010

सक्रियता और उसके लक्ष्य

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में मनुष्य की आवश्यकताओं के विकास पर एक छोटी सी चर्चा की थी इस बार सक्रियता और उसके लक्ष्यों को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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सक्रियता और उसके लक्ष्य

जीव-जंतुओं का व्यवहार पूर्णतः उनके प्रत्यक्ष परिवेश से निदेशित होता है, किंतु मनुष्य की क्रियाशीलता का नियमन बचपन से ही समस्त मानवजाति के अनुभव तथा सामाजिक अपेक्षाओं द्वारा किया जाता है। यह इतने विशिष्ट ढ़ंग का व्यवहार है कि मनोविज्ञानियों ने इसे नाम भी विशेष दिया है, सक्रियता। इस अनन्यतः मानव क्रियाशीलता अथवा सक्रियता की मनोवैज्ञानिक विशेषताएं क्या हैं।


पहली विशेषता तो यह है कि इस सक्रियता की अंतर्वस्तु केवल उसे जन्म देनेवाली आवश्यकता से ही निर्धारित नहीं होती। जहां अभिप्रेरक के नाते आवश्यकता व्यक्ति की सक्रियता की शुरुआत करती है तथा उसे बढ़ावा देती है, वहां स्वयं इस सक्रियता के रूप तथा अंतर्वस्तु सामाजिक परिस्थितियों, सामाजिक अपेक्षाओं और अनुभव पर निर्भर होते हैं। मनुष्य काम करने के लिए आहार की आवश्यकता से अभिप्रेरित हो सकता है। फिर भी, उदाहरण के लिए, कोई ख़रादी अपना काम इसलिए नहीं करता है कि काम से उसकी भूख शांत होती है, बल्कि इसलिए करता है कि उसे एक निश्चित पुरज़ा बनाने का ज़िम्मा सौंपा गया है और ख़राद ( lathe machine ) पर काम करके वह अपनी इस ज़िम्मेदारी को पूरा करता है। उसकी सक्रियता की अंतर्वस्तु आवश्यकता से नहीं, अपितु लक्ष्य - समाज द्वारा अपेक्षित निश्चित उत्पाद को तैयार करना - से निर्धारित होती है। सक्रियता का कारण और सक्रियता का लक्ष्य एक ही चीज़ नहीं है। मनुष्य के कार्यों के प्रणोदक तथा अभिप्रेरक इन कार्यों के प्रत्यक्ष लक्ष्य से भिन्न होते हैं। अतः सक्रियता की पहली विशेषता यह है कि वह आवश्यकता से पैदा और सचेतन लक्ष्य द्वारा नियंत्रित होती है। आवश्यकता उसका स्रोत है और सचेतन लक्ष्य उसका नियामक।

सक्रियता का मानसिक नियमन तभी सफल हो सकता है, जब मानस वस्तुओं के यथार्थ गुणों को परावर्तित करे और उन्हें ( न कि अवयवी की आवश्यकताओं को ) मार्गदर्शक के तौर पर इस्तेमाल करते हुए निर्धारित लक्ष्य को पाने की विधियां तय करे। इसके अतिरिक्त सक्रियता के दौरान मनुष्य को अपने व्यवहार का नियंत्रण करने में इसलिए समर्थ होना चाहिए कि लक्ष्योद्दिष्ट कार्य कर सके, यानि ऐसी आवश्यक क्रियाशीलता पैदा कर सके तथा बनाए रख सके, जो अपने आप में किन्हीं भी पैदा हो रही आवश्यकताओं की तत्काल तुष्टि नहीं करती। सक्रियता सीधे संज्ञान और इच्छा से जुड़ी होती है, उनसे समर्थन पाती है और संज्ञानात्मक तथा इच्छामूलक प्रक्रियाओं के बिना संपन्न नहीं होती। अतः सक्रियता मनुष्य की सचेतन लक्ष्य द्वारा नियमित आंतरिक ( मानसिक ) और बाह्य ( शारीरिक ) क्रियाशीलता है

इस प्रकार सक्रियता के लिए एक सचेतन लक्ष्य का होना आवश्यक है, जो अपने को मनुष्य की क्रियाशीलता में प्रकट करता है। सक्रियता के अन्य सभी पहलू, जैसे उसके अभिप्रेरक, ठोस कार्य और आवश्यक सूचना का चयन तथा संसाधन, चेतना के स्तर को छू भी सकते हैं और नहीं भी छू सकते हैं। यह भी संभव है कि व्यक्ति को उनकी आंशिक चेतना ही हो या वह उनके वास्तविक रूप को गलत ढ़ंग से समझे। उदाहरण के लिए, स्कूलपूर्व आयु के बच्चे को अपनी खेलने की इच्छा के मूल में निहित आवश्यकता की या निचली कक्षाओं के बच्चों को पाठ याद करने के अभिप्रेरकों की विरले ही चेतना होती है। अनुशासनहीन किशोर भी अपने कार्यों के वास्तविक अभिप्रेरकों को पूरी तरह नहीं जान पाता और प्रायः उन्हें गलत ढ़ंग से समझता है। यहां तक कि बड़े भी अक्सर उनकी चेतना द्वारा उनके ग़लत तथा अनुचित व्यवहार के औचित्य के तौर पर उन्हें सुझाए गये ‘गौण’ अभिप्रेरकों में विश्वास कर लेते हैं।

मनुष्य अभिप्रेरकों को ही नहीं, बल्कि बहुत-सी चिंतन प्रक्रियाओं को भी, जिनके फलस्वरूप सक्रियता की कोई निश्चित योजना चुनी जाती है, पूरी तरह विरले ही समझ पाता है। जहां तक सक्रियता को साकार बनाने की प्रणालियों का सवाल है, तो उनमें से अधिकांश का नियमन अचेतन रूप से होता है। ऐसा ही आदतवश किये जानेवाले कार्यों, जैसे टहलना, बोलना, लिखना, वाहन चलाना, कोई बाजा बजाना, आदि के मामले में भी होता है।

सक्रियता से संबंधित व्यक्ति की चेतना का स्तर इससे निर्धारित होता है कि सक्रियता के ये सभी पहलू चेतना में किस हद तक प्रतिबिंबित हुए हैं

किंतु चेतना का स्तर कोई भी क्यों न हो, लक्ष्य की चेतना हमेशा सक्रियता की एक आवश्यक विशेषता होती है। जिन मामलों में सक्रियता में यह विशेषता नहीं होती, वहां हमारे सामने केवल आवेगी व्यवहार होता है, न कि मानवसुलभ सक्रियता। सक्रियता के विपरीत, आवेगी व्यवहार सीधे आवश्यकताओं और संवेगों से नियमित होता है। वह मनुष्य के भावों और वृत्तियों को ही व्यक्त करता है, जो बहुत बार स्वार्थमूलक और असामाजिक होते हैं। उदाहरणार्थ, क्रोध या अदम्य वासना से अंधे हुए व्यक्ति का व्यवहार आवेगी ही होता है।

आवेगी व्यवहार अचेतन व्यवहार नहीं है। किंतु आवेगवश ( स्वतःस्फूर्त ढ़ंग से ) काम करते हुए मनुष्य को केवल व्यक्तिगत अभिप्रेरक की चेतना होती है, जो उसके व्यवहार का नियंत्रण करता है। इस स्थिति में मनुष्य को लक्ष्य में निहित इसकी सामाजिक अंतर्वस्तु की चेतना नहीं होती।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 6 नवंबर 2010

मनुष्य की आवश्यकताओं का विकास

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हम जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में आवश्यकताओं की क़िस्मों पर एक मनोवैज्ञानिक नज़रिये से गुजरे थे, इस बार मनुष्य की आवश्यकताओं के विकास पर एक छोटी सी चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मनुष्य की आवश्यकताओं का विकास

जीव-जंतुओं का व्यवहार सदा सीधे उनकी किसी न किसी आवश्यकता की तुष्टि की ओर उन्मुख रहता है। आवश्यकता न केवल क्रियाशीलता को जन्म देती है, बल्कि उसके रूप भी निर्धारित करती है। उदाहरण के लिए, आहार की आवश्यकता ( भूख ) लार टपकने, खाने की खोज, शिकार को पकड़ने, खाने, आदि के रूप में पशु की आहारिक सक्रियता को जन्म देती है।


अनुकूलित प्रतिवर्त इस सक्रियता को नये उत्तेजकों ( उदाहरणार्थ, घंटी की आवाज़ ) या नयी क्रियाओं ( उदाहरणार्थ, पैडल दबाना ) से जोड़ सकते हैं। किंतु इन सभी मामलों में पशु के व्यवहार की संरचना वही रहेगी। बाह्य उत्तेजकों में से घंटी के बजने को आहार के संकेत के तौर पर अलग कर लिया जाता है, इसी तरह पैडल का दबाना भी व्यवहार की एक ऐसी क्रिया के रूप में सामने आता है, जिसके फलस्वरूप आहार प्रकट होता है। दूसरे शब्दों में, अनुकूलित प्रतिवर्तों पर आधारित अत्यंत जटिल सक्रियता में भी पशु की आवश्यकताएं उसके मानस के परावर्ती और नियामक, दोनों तरह के कार्यों को प्रत्यक्षतः निर्धारित करती हैं। यह उसके शरीर की आवश्यकताओं पर निर्भर होता है कि उसका मानस परिवेशी विश्व में किन तत्वों को पृथक करेगा और उनके उत्तर में क्या क्रियाएं करेगा


मनुष्य का व्यवहार एक सर्वथा भिन्न सिद्धांत पर आधारित है। खाने की कुर्सी पर बैठे और चम्मच से खाते हुए छोटे बच्चे की क्रियाएं भी पूरी तरह उसकी नैसर्गिक आवश्यकताओं की उपज नहीं होती। उदाहरण के लिए, बच्चे की भूख की शांति के लिए चम्मच क़तई जरूरी नहीं है। मगर पालन की प्रक्रिया में बच्चा ऐसी वस्तुओं को ऐसी वस्तुओं को ऐसी आवश्यकता की तुष्टि की आवश्यक शर्त मानने का आदी हो जाता है। उसके व्यवहार के रूपों का निर्धारण स्वयं आवश्यकता से नहीं, अपितु उसकी तुष्टि के समाज में स्वीकृत तरीक़ों से होने लगता है।

अतः बच्चे की क्रियाशीलता आरंभ से ही जैविकतः महत्त्वपूर्ण वस्तुओं द्वारा नहीं, अपितु मनुष्य जिन जिन तरीक़ों से उनका उपयोग करता है, उनके द्वारा, अर्थात सामाजिक व्यवहार में इन वस्तुओं के प्रकार्यों द्वारा प्रेरित की जाती है। बच्चे द्वारा इस प्रकार सीखे गये व्यवहार-संरूप वस्तुओं को मानव व्यवहार में उनके समाज द्वारा विकसित तथा मान्य प्रकार्यों के अनुसार इस्तेमाल करने के तरीक़े हैं, जैसे मेज़ पर और चम्मच से खाना, बिस्तर पर सोना, वग़ैरह।


सभी माता-पिता और शिक्षाविद्‍ भली-भांति जानते हैं कि ऐसी आदतें डाल पाना आसान नहीं है। बच्चा मेज़ या कुर्सी के नीचे घुस जाता है, चम्मच से मेज़ बजाता है, प्लेट में हाथ डालता है, टट्टी-पेशाब लगने पर उन्हें उनके लिए नियत जगहों और तरीकों से करना भूल जाता है, वग़ैरह। ऐसी ‘शरारतों’ और ‘गंदी बातों’ से लगातार लड़ना और कुछ नहीं, बल्कि बड़ों द्वारा बच्चों को संबंधित वस्तुओं के इस्तेमाल के सामाजिकतः स्वीकृत तरीक़े सिखाना और संबंधित वस्तुओं को इस्तेमाल करके अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि के मानवसुलभ रूप बताना ही है। 

बच्चे की आवश्यकताओं की तुष्टि से जुड़े मानव परिवेश के प्रभाव से वस्तुओं का जैव महत्त्व धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में चला जाता है और बच्चे के व्यवहार में उनका सामाजिक महत्त्व निर्णायक भूमिका अदा करने लगता है

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय
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