शनिवार, 30 अप्रैल 2011

अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्मरण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में स्मरण पर विचार शुरू किया था, इस बार हम अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्मरण पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्मरण
( short-term and long-term memorization )

अल्पकालिक स्मरण क्या है? यदि हमें कुछे बेतरतीब संख्याएं, अक्षर या शब्द लिखाए जाते हैं और फिर इसके तुरंत बाद ही उन्हें काग़ज़ पर देखे बिना दोहराने को कहा जाता है, तो हम यह शायद बिना किसी विशेष कठिनाई के कर देंगे। पर अगर यही काम हमसे कुछ समय बाद करने को कहा जाए, तो हम नहीं कर पाएंगे। यह अल्पकालिक स्मरण ( short-term memorization ) की मिसाल है। उन संख्याओं, अक्षरों या शब्दों को दीर्घकाल तक याद रखने के लिए हमें उन्हें कई बार दोहराना होगा और शायद कुछ विशेष तकनीकें भी इस्तेमाल करनी होंगी ( उदाहरण के लिए, पहले से याद सामग्री के साथ उनके बीच संबंध स्थापित करना, अक्षरों को जोड़कर शब्द बनाना, शब्दों को जोड़कर कृत्रिम वाक्य बनाना, आदि )। यह दीर्घकालिक स्मरण ( long-term memorization ) होगा।

‘अल्पकालिक स्मरण’ नाम ही दिखाता है कि यह वर्गीकरण काल पर आधारित है, फिर भी स्मृति की परिघटना को समझने के लिए, काल का यह प्राचल ( parameter ) महत्त्वपूर्ण होने पर भी, अल्पकालिक स्मरण की विशद व्याख्या के लिए पर्याप्त नहीं है। वास्तव में स्मृति की प्रक्रियाओं के विश्लेषण को स्मृति की विभिन्न कालगत परिस्थितियों में मनुष्य की सक्रियता के स्वरूप पर निर्भरता को स्पष्ट करना चाहिए। यह सिद्ध किया जा चुका है कि स्मरण का नियंत्रण ऊपर से निर्धारित, यानि स्मरण की जानेवाली सामग्री के प्रति मनुष्य की सक्रियता के स्वरूप द्वारा नियत कार्यक्रम से होता है

हाल तक अल्पकालिक स्मरण विषयक अनुसंधानों का संबंध मुख्यतः दो कारकों के रूपांतरों से था, स्मरण के लिए उपलब्ध समय ( उद्‍भासन अवधि ) और स्मरण की जानेवाली सामग्री। प्रयोगाधीन व्यक्ति की सक्रियता का लक्ष्य अपरिवर्तित रहा, क्योंकि उसके सामने सदा स्मरण का कार्यभार रखा गया। अतः स्वाभाविक ही है कि दत्त उद्‍भासन अवधि ( exposure period ) में स्मरण की मात्रा स्थिर रहती थी। नवीनतम तथ्य दिखाते हैं कि संज्ञान तथा स्मरण से संबंधित विभिन्न कार्यभार, अल्पकालिक स्मरण की उत्पादिता ( productivity ) पर विभिन्न प्रभाव ड़ालते हैं। ये तथ्य इसके साक्षी हैं कि अल्पकालिक स्मरण, उद्‍भासित सामग्री ( exposed content ) की मनुष्य के मस्तिष्क पर प्रत्यक्ष छाप मात्र नहीं है।

पाया गया है कि क्षणिक उद्‍भासन ( momentary or transient exposure ) की परिस्थितियों में केवल वे कार्यभार उत्पादक सिद्ध होते हैं, जिनकी पूर्ति के लिए रटने का सहारा लिया जाता है। दूसरी ओर, जिन कार्यभारों के लिए सामग्री के सर्वतोमुखी संसाधन ( versatile processing ) की ज़रूरत पड़ती है, वे अल्पकालिक उ‍द्‍भासन की परिस्थितियों में किये जानेवाले स्मरण की प्रभाविता घटा देते हैं। अतः अल्पकालिक स्मरण को एक ऐसी प्रक्रिया कहा जा सकता है, जो मनुष्य की सक्रियता की ऐसी कालगत सीमाओं में संपन्न होती है, जिनमें उद्‍भासित सामग्री का केवल स्वचालित संसाधन किया जा सकता है

तथाकथित संक्रियात्मक स्मरण को अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्मरणों के बीच का एक स्तर कहा जा सकता है। वह स्मृति की ऐसी प्रक्रिया है, जो मनुष्य की वर्तमान क्रियाओं में सहायक बनती है और दत्त क्रिया के दायरे में हर निश्चित संक्रिया का परिणाम पाने की एक पूर्वशर्त है। जांचों से पता चला है कि संक्रियात्मक स्मृति की मात्रा, यथातथ्यता ( preciseness ), अस्थिरता, आदि विशेषताएं, एक ओर, सक्रियता की अंतर्वस्तु तथा संरचना द्वारा और, दूसरी ओर, उसके विकास की मात्रा द्वारा निर्धारित होते हैं।

अतः संक्रियात्मक स्मृति की कारगरता और वह जिस सक्रियता में सहायक बनती है, उसकी सफलता काफ़ी हद तक स्मृति की संक्रियात्मक इकाइयों, यानि क्रिया के लक्ष्य की प्रप्ति के दौरान स्मृति द्वारा धारित सामग्री की मात्रा पर निर्भर करती है। संक्रियात्मक इकाइयों के विभिन्न स्तर हो सकते हैं। संक्रियात्मक स्मृति की और वह जिस सक्रियता में काम आती है, उसकी उत्पादकता बढ़ाने का तरीक़ा इष्टतम संक्रियात्मक इकाइयों का निर्माण है।

सूचना संक्रियात्मक स्मरण के स्तर पर अल्पकालिक स्मृति से दीर्घकालिक स्मृति में संक्रमण करती है। उदाहरण के लिए, कोई सुगठित पाठ पढ़ते हुए हमें अक्षरों के जुड़कर शब्द बनने से पहले उन अक्षरों के महत्त्व और शब्दों के जुड़कर वाक्य बनने से पहले उन शब्दों के अर्थों को अवश्य याद रखना चाहिए। यही क्रम आगे भी जारी रहता है। इनमें से प्रत्येक संक्रिया के पूरा कर लिये जाने के बाद संबंधित ठोस अर्थ भुला दिये जाते हैं ( उदाहरण के लिए, हम याद नहीं रखते कि पिछले पन्ने के तीसरे पैराग्राफ़ के दूसरे वाक्य का पहला शब्द क्या था )। किंतु यदि हम मध्यवर्ती संक्रियाओं में ‘संसाधित’ ( processed )  सारी सामग्री को भूल जाते हैं, तो हम एक क्रिया के बाद अगली क्रिया नहीं कर पाएंगे। हर उच्चतर स्तर पर, उत्तरोत्तर अधिक सामान्य अर्थ अंतरित किये जाते हैं, जो शब्दार्थक फ़िल्टरों की पद्धति से गुज़ारे गए विशिष्ट अर्थों को एक सूत्र में पिरोते हैं।

दीर्घकालिक स्मृति सामयिक महत्त्व की सूचना नहीं, वरन् दूरगामी महत्त्व की सूचना ग्रहण करती है, जिसकी मनुष्य के जीवनावश्यक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यकता होती है। मनुष्य की सक्रियता का सहज उत्पाद होने के कारण दीर्घकालिक स्मृति मनुष्य की क्रियाओं की सहगामी छाप ही नहीं है, बल्कि मुख्य रूप से इस छाप की एक अनिवार्य आंतरिक शर्त भी है। दूसरे शब्दों में कहें, तो किसी भी सामग्री का स्मरण पूर्ववर्ती क्रिया का उत्पाद है और इसके साथ ही अगली क्रिया के निष्पादन की शर्त भी है तथा साधन भी है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

स्मरण ( memorization )

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में स्मृति की प्रक्रियाओं पर विचार किया था, इस बार हम स्मरण पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



स्मरण
( memorization )



स्मरण स्मृति की वह प्रक्रिया है, जिसमें नयी सामग्री को पहले के ज्ञान तथा अनुभव से जोड़कर उसका ( नयी सामग्री का ) स्थायीकरण किया जाता है। मनुष्य के अनुभव को नये ज्ञान और व्यवहार के नये रूपों से संपुष्ट बनाने की यह एक आवश्यक शर्त है। स्मरण हमेशा चयनात्मक ( selective ) होता है : हमें उसका थोड़ा-सा ही हिस्सा याद रहता है, जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित करता है। इस चयनात्मकता का आधार क्या है?

स्मरण और क्रिया

प्रयोगों ने दिखाया है कि सामान्यतः स्मरण और विशेषतः अनैच्छिक स्मरण वस्तु के संबंध में मनुष्य की क्रियाओं के सहज उत्पाद होते हैं।

एक प्रयोग में कुछ छात्रों से विभिन्न वस्तुओं के चित्रों का वर्गीकरण करने को कहा गया। हर चित्र को एक निश्चित क्रमांक भी दिया गया था। प्रयोग के बाद छात्रों से पूछा गया कि चित्रों में उन्होंने क्या देखा था। पता चला कि उन्हें वस्तुएं तो ठीक याद रहीं, किंतु क्रमांकों को उन्होंने लगभग अनदेखा कर दिया था ( कुछ ने तो कहा कि उन्होंने क्रमांक देखे ही नहीं)। दूसरे प्रयोग में उन्हें चित्रों को उनके आकार तथा क्रमांक के अनुसार आरोही क्रम में रखना था। इस बार परिणाम बिल्कुल विपरीत रहा : क्रमांक तो याद कर लिये गये थे, जबकि वस्तुओं को लगभग पूरी तरह अनदेखा कर दिया गया था।

इस तरह मनुष्य अपनी स्मृति में केवल उसी चीज़ को अंकित करता है, जो उसकी सक्रियता से संबंध रखती है। व्यावहारिक और श्रम संबंधी क्रियाओंवाले प्रयोगों से भी यही नियमसंगति प्रकट हुई।

उपरोक्त तथ्य दिखाते हैं कि घटनाओं ( चित्रों, क्रमांकों ) की साधारण संलग्नता ( involvement ) ही मनुष्य द्वारा उन्हें याद करने के लिए जाने के लिए पर्याप्त नहीं है। सब कुछ इस बात पत निर्भर होता है कि मनुष्य दत्त सामग्री का क्या कर रहा है। स्वभाविकतः सक्रियता की बाह्य परिस्थितियां समान होने से अलग-अलग व्यक्तियों के मामले में स्मरण के परिणाम समान नहीं होंगे, क्योंकि इन परिस्थितियों और स्मरण की प्रक्रिया के बीच में हमेशा मनुष्य का विगत अनुभव और उसकी वैयक्तिकता ( individuality ) मौजूद रहते हैं। किंतु इस तरह के भेद, मनुष्य की हर क्रिया को उसकी व्यक्तिगत परिस्थितियों के संदर्भ में, यानि उसके अभिप्रेरकों, लक्ष्यों तथा उनकी प्राप्ति के तरीक़ों की विशिष्टता के संदर्भ में देखने की आवश्यकता पर ही ज़ोर देते हैं।

स्मरण की प्रक्रिया के प्राचल ( parameter ) मनुष्य की सक्रियता के अभिप्रेरकों, लक्ष्यों तथा तरीक़ों से निर्धारित होते हैं। स्मृति की सक्रियतासापेक्ष संकल्पना ( activity-related concept of memory ) का यही सारतत्व है और स्मृति संबंधी सभी अनुसंधानों में इस तथ्य को अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह संकल्पना स्मरण की प्रक्रिया के सभी रूपों तथा आरंभिक स्तर, यानि अल्पकालिक स्मरण ( short-term memorization ) समेत सभी चरणों के लक्षण-वर्णन के लिए सही परिप्रेक्ष्य प्रदान करती है।

अगली बार हम अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्मरण पर चर्चा जारी रखेंगे।





इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

स्मृति की प्रक्रियाएं

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में लक्ष्य और धारण अवधि के अनुसार स्मृति के भेदों पर विचार किया था, इस बार हम स्मृति की प्रक्रियाओं पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



स्मृति की प्रक्रियाएं
( memory processes )

जब हम स्मृति को किसी शीर्ष के अंतर्गत वर्गीकृत करते हैं, तो हम स्मृति के निश्चित स्थिर गुणधर्मों और पहलुओं को इसके लिए आधार बनाते हैं, चाहे सक्रियता में उनकी भूमिका सामग्री के स्थायीकरण ( स्मरण ), धारण या प्रत्यास्मरण ( पुनर्प्रस्तुति ) में से कोई भी क्यों न हो। वहीं स्मृति की प्रक्रियाओं के वर्गीकरण के लिए मनुष्य के जीवन और सक्रियता में स्मृति द्वारा संपन्न किये जानेवाले प्रकार्यों ( functions ) को कसौटी बनाया जाता है। स्मृति की प्रक्रियाएं निम्न हैं : सामग्री का स्मरण ( memorization) ( याद करना, स्मृति में अंकन अथवा स्थायीकरण करना ), पुनर्प्रस्तुति ( retrieval, recall ) ( प्रत्यास्मरण, नवीकरण ), धारण ( hold )( याद रखे रहना ) और विस्मरण ( oblivion ) ( भुला देना )। उपरोक्त प्रक्रियाएं स्पष्टतः दिखाती हैं कि स्मृति सक्रियता से घनिष्ठतः संबद्ध है और उसकी क्रियाएं स्वतंत्र क्रियाओं के रूप में संपन्न होती हैं।

स्मृति की विभिन्न प्रक्रियाओं की तुलना उनके प्रकटतः विरोधी प्रकार्यों को तुरंत स्पष्ट कर देती हैं। फिर भी इन प्रक्रियाओं को उनकी एकता में देखा जाना चाहिए। उनकी यह एकता उनके स्पष्ट बाह्य संबंध और अन्योन्यनिर्भरता ( mutual dependence ) में ही नहीं दिखाई देती ( उदाहरण के लिए, पुनर्प्रस्तुति संबंधी विशेषताएं काफ़ी हद तक सामग्री के स्मरण, धारण और विस्मरण के विशिष्ट स्वरूप से निर्धारित होती हैं ), बल्कि उसे विभिन्न प्रक्रियाओं की परस्पर-व्याप्ति ( mutually penetrant ) तथा एक प्रक्रिया के दूसरी प्रक्रिया में द्वंद्वात्मक संक्रमण ( dialectical transition ) जैसे संबंधों में भी देखा जा सकता है।

नवीकरण ( renewal ) की प्रक्रिया सामग्री का स्वचालित पठन मात्र नहीं है, अपितु सामग्री का सचेतन गठन और यहां तक कि पुनर्गठन भी है। इसलिए पुनर्प्रस्तुति की प्रक्रिया में अनिवार्यतः अल्पकालिक स्मरण और धारण की प्रक्रियाएं भी शामिल रहती हैं। इतना ही नहीं, पुनर्प्रस्तुति की प्रक्रिया सदा दीर्घकालिक स्मरण के साथ चलती है। सामग्री का सारकथन वास्तव में उसकी पुनर्प्रस्तुति ही है, हालांकि यह इसके सीखने की एक प्रक्रिया भी है।

धारण और विस्मरण की प्रक्रियाओं का एक ही ढंग से विश्लेषण किया जा सकता है, बेशक हम उन्हें प्रक्रियाओं के तौर पर लें। इस तरह धारण को स्मृति में संचित सामग्री के मनुष्य की सक्रियता में भाग लेने का कार्य समझा जा सकता है। यह सहभागिता अचेतन हो सकती है, किंतु मनुष्य की हर क्रिया हमेशा उसके जीवन के अनुभव से प्रभावित होती है। इस दृष्टि से सामग्री के किसी अंश को भूलने का मतलब, उसका मनुष्य की सक्रियता से हट जाना है। दूसरे शब्दों में, विस्मरण कभी पूर्ण नहीं होता। मनोवैज्ञानिकतः इसका मतलब यही है कि मस्तिष्क में स्थित किसी सामग्री को अल्पकालिक स्मृति के क्षेत्र में अंतरित करने में कठिनाई पैदा हुई है ( या यह असंभव बन गया है )। सामान्य भाषा में हम भूलने की अवधारणा को इस विस्मृति की मात्रा के अर्थ में ही इस्तेमाल करते हैं। फिर भी एक प्रक्रिया के रूप में विस्मरण मूलतः तब शुरू होता है, जब कर्ता का ध्यान किसी अन्य वस्तु की ओर हट जाता है। वस्तु ‘क’ से कर्ता के ध्यान का हटकर वस्यु ‘ख’ पर टिकने का मतलब एक तरह से वस्तु ‘क’ को भूलना है।

हम इसलिए न सिर्फ़ उसे भूल जाते हैं जिसे पुनर्प्रस्तुत करना कठिन या असंभव है, बल्कि अपने अनुभव की उस अंतर्वस्तु ( content ) को भी विस्मृत कर डालते हैं, जो दत्त क्षण में हमारी चेतना में नहीं है या जिसका हमें अहसास नहीं है। इस तरह विस्मरण, स्मृति की प्रक्रियाओं समेत सभी मानसिक प्रक्रियाओं का एक पहलू है। किसी वस्तु पर चेतना के टिकने की प्रक्रिया के तौर पर स्मरण में भी अनिवार्यतः किसी सामग्री का अस्थायी विस्मरण शामिल रहता है। यह परस्पर-विपरीत स्मृति-प्रक्रियाओं की एकता की एक अभिव्यक्ति है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि स्मृति एक अत्यंत जटिल, किंतु समेकित ( consolidated ) तथा अविच्छिन्न प्रक्रिया है। चेतना की ऐसी कोई अवस्था नहीं है कि जिसमें स्मृति की कोई न कोई भूमिका न हो।

स्मृति की प्रक्रियाएं, मनुष्य की सक्रियता और उसकी निश्चित लक्ष्यों के प्रति अभिमुखता ( orientation ) पर निर्भर होती हैं। अलग-अलग स्मृति-प्रक्रियाओं के साधारण विश्लेषण में हम उनके जटिल द्वंद्वात्मक संबंधों को अनदेखा कर देते हैं और किसी एक प्रक्रिया को समग्रता में समझने के लिए उसके मुख्य लक्षणों पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं।

हम इसी पद्धति से स्मृति की एक प्रक्रिया स्मरण की अगली बार से थोड़ा विस्तार से विवेचना करेंगे।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

रविवार, 10 अप्रैल 2011

लक्ष्य और धारण अवधि के अनुसार स्मृतियां

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में स्मृति के भेदों पर विचार शुरू किया था, इस बार हम लक्ष्य और धारण अवधि के अनुसार स्मृति के भेदों पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



अनैच्छिक और ऐच्छिक स्मृति
( involuntary and voluntary memory )

पिछली बार हमने स्मृति की जिन विशेषताओं की चर्चा की, वे सक्रियता के दौरान विकसित होती हैं और स्मृति का अभिन्न अंग बन जाती हैं। पैदा हो जाने के बाद वे अपने को सक्रियता से, उसके बदलते हुए अभिप्रेरकों, लक्ष्यों तथा प्रणालियों से स्वतंत्र रूप से भी व्यक्त कर सकती हैं। किंतु स्मृति का वर्गीकरण मनुष्य की तात्कालिक सक्रियता के विशिष्ट लक्षणों को ध्यान में रखकर भी किया जा सकता है। इस तरह सक्रियता के लक्ष्य के अनुसार हम अनैच्छिक और ऐच्छिक स्मृतियों में भेद करते हैं।

अनैच्छिक स्मृति में कोई चीज़ याद कर लेने अथवा स्मृति से पुनर्प्रस्तुत करने के विशेष उद्देश्य का अभाव होता है। इसके विपरीत यदि मनुष्य अपने लिए कोई सामग्री याद कर लेने का लक्ष्य नियत करता है, तो हम इसे ऐच्छिक स्मृति कहते हैं। ऐच्छिक स्मृति के मामले में याद करना और पुनर्प्रस्तुत करना विशेष स्मरण-क्रियाओं ( memorizing actions ) का रूप लेते हैं।

अनैच्छिक और ऐच्छिक स्मृतियां स्मृति के विकास के दो क्रमिक चरण हैं। अपने अनुभव से अनैच्छिक स्मृति के महत्त्व को हर कोई जानता है। इस स्मृति के लिए किन्हीं इरादों या प्रयासों की आवश्यकता नहीं होती, फिर भी हमारे अधिकांश अनुभव का आधार वही होती है। किंतु बहुत बार मनुष्य के सामने ऐसी स्थिति आ जाती है कि उसमें उसे अपनी स्मृति का नियंत्रण करना पड़ता है। ऐसे मामलों में वह मुख्यतः अपनी ऐच्छिक स्मृति का सहारा लेता है, जो उसे आवश्यक सामग्री याद कर लेने या उसे पुनर्प्रस्तुत करने की संभावना देती है।

अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्मृति
( short-term and long-term memory )
संक्रियात्मक स्मृति

कोई भी सामग्री स्मृति में तभी धारण की जा सकती है, जब उसका कर्ता द्वारा समुचित संसाधन ( processing ) कर लिया गया हो। ऐसे संसाधन के लिए कुछ समय की आवश्यकता होती है, जिसे छाप स्थायीकरण काल ( imprint settling time ) कहा जाता है। आत्मपरक दृष्टि से यह प्रक्रिया अभी-अभी हुई घटना की गूंज के रूप में अनुभव की जाती है, मनुष्य एक क्षण तक वह देखना, सुनना, वग़ैरह जारी रखता है, जिसे दत्त क्षण में वास्तव में नहीं देख रहा या नही सुन रहा होता है ( ‘ वह अभी भी मेरी आखों के सामने थी’. ‘ उसकी आवाज़ अभी भी मेरे कानों में गूंज रही थी’, वग़ैरह )। ये प्रक्रियाएं अस्थिर तथा क्षणिक होती हैं, फिर भी वे इतनी विशिष्ट और अनुभव-संचय के क्रियातंत्रों में उनकी भूमिका इतनी महत्त्वपूर्ण होती है कि मनोविज्ञानी उन्हें सूचना के स्मरण, धारण तथा पुनर्प्रस्तुति का एक विशेष प्रकार कहते हैं, जिसे अल्पकालिक स्मृति ( short-term memory ) नाम दिया गया है।

दीर्घकालिक स्मृति ( long-term memory ) के विपरीत, जिसक विशेषता सामग्री को अनेक बार दोहराकर तथा पुनर्प्रस्तुत करके लंबे समय तक याद रखना है, अल्पकालिक स्मृति में सामग्री को उसके केवल एक बार क्षणिक प्रत्यक्षण ( perception ) के बाद बहुत कम समय के लिए याद रखा जाता है और लगभग कुछ ही क्षण बाद उसे पुनर्प्रस्तुत करके भुला दिया जाता है। कई बार ‘अल्पकालिक स्मृति’ शब्द के स्थान पर अन्य पर्यायों का प्रयोग भी किया जाता है, जैसे ‘क्षणिक स्मृति’, ‘प्राथमिक स्मृति’, ‘प्रत्यक्ष स्मृति’, वग़ैरह।

कभी-कभी कहीं ‘संक्रियात्मक स्मृति’ पद का प्रयोग भी किया जाता है, जिसमें अल्पकालिक स्मृति के कालगत स्वरूप के बज़ाए उसके ‘कामकाजी’ स्वरूप पर जोर दिया जाता है। परंतु आजकल मनोविज्ञान में इस पद ने एक भिन्न अर्थ ग्रहण कर लिया है। उसमें इसे उन स्मरण-प्रक्रियाओं को इंगित करने के लिए प्रयोग किया जाता है, जो मनुष्य के कार्यों और संक्रियाओं के निष्पादन में प्रत्यक्षतः सहायक बनती हैं।

जब हम कोई जटिल संक्रिया करते हैं, जैसे अंकगणित का सवाल, तो हम उसे अलग टुकड़ों में और क्रमशः पूरा करते हैं। ऐसा करते हुए हम कुछः अंतर्वर्ती परिणामों को तब तक अपने मस्तिष्क में धारण किये रहते हैं, जब तक हमें पुनः उनकी जरूरत होती रहती है। जैसे-जैसे हम अंतिम परिणाम की ओर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे प्रयोग की जा चुकी अनावश्यक हो चुकी सामग्री को त्याग, यानि भुला दिया जाता है। ऐसा ही पढ़ते, नक़ल करते या किसी भी अन्य कमोबेश जटिल काम को करते हुए भी होता है। व्यक्ति द्वारा प्रयोग किये हुए सामग्री के अंश अलग-अलग हो सकते हैं ( बच्चा इसी तरह अलग-अलग अक्षरों को जोड़कर ही पढ़ना सीखता है )।

ऐसे अंशों अथवा स्मृति की संक्रियात्मक इकाइयों की मात्रा का मनुष्य द्वारा इस या उस कार्य के निष्पादन पर प्रभाव पड़ता है। इष्टतम संक्रियात्मक इकाइयों के निर्माण को महत्त्व इसी कारण दिया जाता है। संक्रियात्मक स्मृति की ऐसी अवधारणा अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्मृति से भिन्न है, हालांकि उनमें कई सामान्य लक्षण अवश्य पाये जाते हैं। संक्रियात्मक स्मृति अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्मृतियों से प्राप्त सामग्री से एक ‘कार्यसाधक मिश्रण’ बनाती है। जब तक उससे काम चलता है, तब तक उसे संक्रियात्मक स्मृति के क्षेत्र में शामिल किया जाता है।

स्मृति के वर्गीकरण के लिए प्रयुक्त कसौटियां मनुष्य की सक्रियता, जो एक एकात्मक समष्टि ( unitary totality ) है, के विभिन्न पहलुओं को प्रतिबिंबित करती हैं। ऐसी ही एकात्मता, स्मृति के इन पहलुओं से संबंधित भेदों में भी पाई जाती है। उदाहरण के लिए, किसी संकल्पना से संबंधित विचारों की स्मृति, वाचिक-तार्किक स्मृति होने के साथ-साथ ऐच्छिक या अनैच्छिक और अल्पकालिक या दीर्घकालिक स्मृति के रूप में भी वर्गीकृत की जा सकती है। ऐच्छिक और अनैच्छिक स्मृतियों के बीच भी जटिल सातत्य संबंध होते हैं। इसी तरह हम देखते हैं कि कोई भी चीज़ तब तक दीर्घकालिक स्मृति का अंग नहीं बन सकती, जब तक कि वह अल्पकालिक स्मृति से न गुज़र जाए, जो कि एक प्रवेश फ़िल्टर का काम करती है और स्मृति की सभी प्रक्रियाओं का समारंभ करवाती है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

स्मृति के भेद ( classification of memory )

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में स्मृति के शरीरक्रियात्मक और जीवरासायनिक सिद्धांतों पर विचार किया था, इस बार हम स्मृति के भेदों पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



स्मृति के भेद
( classification of memory )

स्मृति मनुष्य के जीवन तथा सक्रियता के सभी क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इसलिए इसकी अभिव्यक्तियां भी अत्यंत बहुविध ( multifarious ) हैं। स्मृति का वर्गीकरण मुख्य रूप से सक्रियता की विशिष्टताओं पर आधारित होना चाहिए, जिसके दायरे में स्मरण तथा पुनर्प्रस्तुति की प्रक्रियाएं घटती है। यह बात तब भी लागू होती है, जब स्मृति का कोई एक ही रूप ( उदाहरणार्थ, चाक्षुष-स्मृति अथवा श्रवण-स्मृति ) मनुष्य की मानसिक संरचना ( mental structure ) की विशेषता के तौर पर सामने आता है। वास्तव में मानसिक गुण पहले सक्रियता के दौरान जन्मता है और इसके बाद जाकर ही अपने को मानसिक संरचना में प्रकट करता है।

स्मृति के वर्गीकरण का सबसे सामान्य आधार उसकी विषेषताओं की मनुष्य की सक्रियता पर निर्भरता है, जिसके दौरान ही याद करने, याद रखने तथा पुनर्प्रस्तुति की प्रक्रियाएं संपन्न होती हैं। आम तौर पर स्मृति के वर्गीकरण की तीन मुख्य कसौटियां हैं : १) मनुष्य की सक्रियता में प्रधान मानसिक क्रियाशीलता के स्वरूप के अनुसार, जब स्मृति को गत्यात्मक, संवेगात्मक, बिंबात्मक और शाब्दिक-तार्किक स्मृतियों में बांटा जाता है, २) मनुष्य की सक्रियता में निर्धारित लक्ष्यों के स्वरूप के अनुसार, जब स्मृति स्वैच्छिक और अनैच्छिक, इन दो प्रकार की होती है, ३) मनुष्य की सक्रियता के लिए आवश्यक सूचना के धारण की अवधि के अनुसार, स्मृति के तीन भेद बताए जाते हैं, अल्पकालिक, दीर्घकालिक और तात्कालिक

गत्यात्मक, संवेगात्मक, बिंबात्मक और शाब्दिक-तार्किक स्मृति

अलग-अलग प्रकार की सक्रियता में अलग-अलग ढंग की मानसिक क्रियाशीलता की प्रधानता होती है, जैसे पेशीय, संवेगात्मक और बौद्धिक। इनमें से हर प्रकार की क्रियाशीलता उससे संबंधित कार्यों और उनके उत्पादों - गतियां, संवेग, बिंब, विचार - में व्यक्त होती है। इनमें मदद करनेवाले स्मृति के विशिष्ट रूपों को मनोविज्ञान में गत्यात्मक, संवेगात्मक, बिंबात्मक और वाचिक-तार्किक स्मृतियां कहा जाता है।

गत्यात्मक स्मृति ( dynamic memory ) विभिन्न गतियों व उनकी श्रृंखलाओं को याद करने, याद रखने और पुनर्प्रस्तुत करने में व्यक्त होती है। बहुत से लोगों में इस प्रकार की स्मृति अन्य स्मृतियों से प्रबल होती है। इस प्रकार की स्मृति इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि वह विभिन्न व्यावहारिक तथा श्रम संबंधी आदतों और चलने, लिखने, आदि की आदतों के निर्माण का आधार प्रदान करती हैं। गत्यात्मक स्मृति के बिना हमें किसी भी क्रिया को करना बार-बार सीखना पड़ेगा। सामान्यतः हम अच्छी गत्यात्मक स्मृतिवाले मनुष्य को उसकी दक्षता, कौशल और साफ़ काम से पहचान सकते हैं।

संवेगात्मक स्मृति ( emotional memory ) संवेगों को याद रखने की क्षमता है। संवेग सदा हमारी आवश्यकताओं व रुचियों की तुष्टि की मात्रा का और परिवेश से हमारे संबंधों का संकेत देते हैं। अतः हर मनुष्य के जीवन तथा सक्रियता में संवेगात्मक स्मृति बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। एक बार अनुभव और याद कर लिए गये संवेग संकेत बन जाते हैं और हमें या तो कोई काम करने को प्रेरित करते हैं या ऐसी कोई चीज़ करने से रोकते हैं, जिसने पहले कभी अप्रिय संवेग जगाए थे। अन्य व्यक्ति से सहानुभूति रखने और किसी कलात्मक रचना के नायक के भावनाजगत में भागीदार बनने की योग्यता संवेगात्मक स्मृति पर ही आधारित होती है। एक अर्थ में संवेगात्मक स्मृति अन्य सभी स्मृतियों से प्रबल सिद्ध हो सकती है। हर कोई अनुभव से जानता है कि बहुत-सी घटनाएं, पुस्तकें और फ़िल्में उनके द्वारा मन पर डाली गई छापों और जो भावनाएं उन्होंने जगाई हैं, उनसे ही याद रखी जाती हैं। फिर भी इस तरह की छापें निश्चित वस्तुओं से असंबद्ध नहीं होती, वे साहचर्यों की लंबी श्रृंखला में पहली कड़ी हो सकती हैं।

बिंबात्मक स्मृति ( imagery memory ) परिकल्पनों ( अर्थात् प्रकृति और जीवन के दृश्यों ) और अलग-अलग ध्वनियों, गंधों तथा स्वादों को धारण करती हैं। यह चाक्षुष, श्रवणमूलक, स्पर्शमूलक, घ्राणमूलक और आस्वादमूलक हो सकती हैं। चाक्षुष और श्रवणमूलक स्मृतियों के विपरीत, जो आम तौर पर काफ़ी विकसित होती हैं और सभी सामान्य लोगों के जीवन में प्रमुख भूमिका अदा करती हैं, स्पर्श, घ्राण तथा आस्वाद से संबंधित स्मृतियों को एक तरह से पेशेवर गुण माना जा सकता है। इनके समवर्ती संवेदनों की भांति ये स्मृतियां भी मनुष्य की सक्रियता की विशिष्ट परिस्थितियों में ही सघन विकास करती हैं। उदाहरण के लिए, अंधों और बहरों के मामले में वे चाक्षुष और श्रवणमूलक स्मृतियों की कमी पूरी करते अथवा उनका स्थान लेते हुए विकास के आश्चर्यजनक रूप से ऊंचे स्तर पर पहुंच सकती हैं। बिंबात्मक स्मृति कलाओं से संबंधित पेशों के लोगों में विशेषतः विकसित होती है।

वाचिक-तार्किक स्मृति ( literal-logical memory ) विचारों से संबंध रखती है। इस स्मृति को शाब्दिक भी और तार्किक भी इसलिए कहा गया है कि विचारों का भाषा के बाहर अस्तित्व नहीं होता। चूंकि उन्हें विभिन्न भाषाई माध्यमों से व्यक्त किया जा सकता है, इसलिए उनकी पुनर्प्रस्तुति या तो केवल उनकी अंतर्वस्तु पर लक्षित होगी या उनके शाब्दिक ( वाचिक ) रूप पर। शाब्दिक रूप वाले मामले में यदि सामग्री का कोई शब्दार्थ-विश्लेषण नहीं किया जाता है, तो इसे शब्दशः याद किया जाना अपना तार्किक गुण खो देगा और मात्र एक यांत्रिक क्रिया बन कर रह जाएगा।

दूसरी संकेत पद्धति ( मानवीय भाषा ) की प्रधानतावाली वाचिक-तार्किक स्मृति केवक मनुष्यों की विशेषता है। जहां तक गत्यात्मक, संवेगात्मक और बिंबात्मक स्मृतियों का प्रश्न है, तो अपने सरलतम रूपों में वे पशुओं में भी मिलती हैं। दूसरी स्मृतियों के विकास पर आधारित होकर, वाचिक-तार्किक स्मृति उनके संबंध में प्रधान बन जाती है और स्मृति के अन्य रूप सभी रूपों का विकास उसपर निर्भर होता है। वाचिक-तार्किक स्मृति शिक्षण की प्रक्रिया में छात्रों द्वारा ज्ञान के आत्मसात्करण में प्रमुख भूमिका निभाती है।



अगली बार स्मृति के अन्य भेदों पर चर्चा जारी रखेंगे।
इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय
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