शनिवार, 2 जुलाई 2011

कल्पना ( imagination )

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में चिंतन के भेदों पर चर्चा की थी, इस बार हम कल्पना पर विचार शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



कल्पना और समस्या-स्थिति
( imagination and problem-situation )

चिंतन की भांति कल्पना ( imagination ) भी उन उच्चतम संज्ञानमूलक प्रक्रियाओं ( cognitive processes ) में से एक है, जो केवल मनुष्य की मानसिक सक्रियता की विशेषता है। श्रम के परिणाम की कल्पना किए बिना मनुष्य कार्य आरंभ नहीं कर सकता। कल्पना की सहायता से अपेक्षित परिणाम का पूर्वानुमान ( prediction ) ही मानव श्रम को पशुओं के सहजवृत्तिक व्यवहार से अलग करता है। हर श्रम प्रक्रिया में कल्पना का तत्व अवश्य रहता है। कल्पना कला, रूपांकन, शोध, साहित्य, संगीत, आदि सभी सृजनात्मक ( creative ) कार्यों का एक बुनियादी पहलू है। सच कहा जाए, तो संगीत रचने या कहानी लिखने के लिए कल्पना जितनी महत्त्वपूर्ण होती है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण वह एक साधारण सी मेज़ बनाने के लिए भी है। कारीगर को मेज़ को सचमुच में बनाना शुरू करने से पहले उसकी ऐसे सभी ब्योरों के साथ मन में तस्वीर बना लेनी होती है, जैसे उसकी आकृति, ऊंचाई, लंबाई, चौड़ाई, पाये लगाने का तरीक़ा, उसकी खाने की मेज़, प्रयोगशाला में काम करने की मेज़ या लिखने की मेज़ का काम करने की उपयुक्तता, वग़ैरह।

कल्पना मनुष्य की सृजनात्मक सक्रियता का एक आवश्यक तत्व है और अपने को श्रम के उत्पाद का मानसिक बिंब बनाने में और कोई अनिश्चित समस्या-स्थिति पैदा होने पर व्यवहार का कार्यक्रम विकसित करने की संभावना प्रदान करने में व्यक्त करती है

एक मानसिक प्रक्रिया के नाते कल्पना का सर्वप्रथम और सर्वोपरि उद्देश्य श्रम की प्रक्रिया शुरू होने से पहले श्रम के अंतिम परिणाम ( उदाहरणार्थ, पूरी तरह तैयार मेज़ ) का ही नहीं, अपितु उसके मध्यवर्ती उत्पादों ( उदाहरणार्थ, जिन विभिन्न हिस्सों को जोड़कर मेज़ बनाई जानी हैं ) के भी बिंब ( images ) पैदा करना है। इस तरह कल्पना श्रम के अंतिम तथा मध्यवर्ती उत्पाद का एक मानसिक मॉडल पेश करके तथा उसके वास्तवीकरण में मदद देकर मनुष्य की सक्रियता के लिए मार्गदर्शक का कार्य करती है।

कल्पना चिंतन से घनिष्ठतः जुड़ी हुई है। चिंतन की भांति वह भी भविष्य का पूर्वानुमान करने में सहायक बनती है। प्रश्न उठता है कि चिंतन और कल्पना के बीच समानताएं और भेद क्या हैं। दोनों ही, समस्या-स्थिति ( problem-situation ) में यानि जब नये हल खोजना आवश्यक हो जाता है, तब उत्पन्न होते हैं। चिंतन की भांति कल्पना का अभिप्रेरक भी मनुष्य की आवश्यकताएं होती हैं। हो सकता है कि आवश्यकताओं की तुष्टि की वास्तविक प्रक्रिया से पहले उनकी काल्पनिक, आभासी तुष्टि की जाए, यानि एक ऐसी स्थिति की सजीव कल्पना की जाए कि जिसमें इन आवश्यकताओं को वास्तव में तुष्ट किया जा सकता है। किंतु कल्पना, यथार्थ का पूर्वाभास ( anticipation ) ठोस बिंबों के रूप में, सजीव परिकल्पनों के रूप में करती है, जबकि चिंतन की प्रक्रियाओं में यथार्थ का पूर्वाभासी परावर्तन ( anticipated reflection ) विश्व के सामान्यीकृत तथा अप्रत्यक्ष संज्ञान में सहायक धारणाओं का रूप लेता है।

अतः मन में ऐसी दो पद्धतियां ( methods ) होती हैं, जो किसी समस्या-स्थिति में मनुष्य की सक्रियता के परिणामों का पूर्वाभास कर सकती हैं, एक बिंबों ( परिकल्पनों ) की सुगठित पद्धति और दूसरी धारणाओं की सुगठित पद्धति। जहां कल्पना, बिंब-चयन की संभावना पर आधारित होती है, वहीं चिंतन का आधार धारणाओं के नये योगों की संभावना है। ये चयन ( selection ) और योग ( summation ) प्रायः एक साथ दो स्तरों पर संपन्न होते हैं, क्योंकि बिंब और धारणाएं अंतर्संबद्ध ( inter-related ) हैं : उदाहरण के लिए, तार्किक चिंतन द्वारा किया गया कार्य-प्रणाली का चयन, कार्य की सजीव कल्पना से अभिन्नतः जुड़ा हुआ होता है।

चिंतन और कल्पना की तुलना करते हुए यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि किसी समस्या-स्थिति में अधिक अनिश्चितता ( uncertainty ) हो सकती है और किसी समस्या-स्थिति में कम। उदाहरण के लिए, यदि किसी कार्यभार अथवा वैज्ञानिक समस्या के प्राथमिक तथ्य मालूम हैं, तो उसका समाधान मुख्य रूप से चिंतन के नियमों पर निर्भर होगा। किंतु यदि समस्या-स्थिति में अनिश्चितता का तत्व बहुत अधिक है और प्राथमिक तथ्यों का सही-सही विश्लेषण कठिन है, तो बात दूसरी ही होगी। इस सूरत में कल्पना के क्रियातंत्र काम करने लगेंगे। जैसे कि साहित्यिक सृजन में कल्पना की महत्त्वपूर्ण भूमिका का कारण काफ़ी हद तक यही है। कल्पना में अपने पात्रों की नियति पर दृष्टिपात करते हुए उसका किसी इंजीनियर या डिज़ायनर से कहीं अधिक अनिश्चितता से सामना होता है, क्योंकि मानव मन तथा व्यवहार के नियम भौतिकी के नियमों से कहीं ज़्यादा पेचीदे और कहीं कम ज्ञात हैं।

समस्या-स्थिति के तथ्यों को देखते हुए किसी कार्यभार ( assignment ) को कल्पना की मदद से भी पूरा किया जा सकता है और चिंतन की मदद से भी। यह सोचना ग़लत न होगा कि कल्पना संज्ञान के उस चरण में सर्वाधिक सक्रिय रहती है, जब स्थिति की अनिश्चितता अपने चरम पर होती है। स्थिति जितनी ही जानी-पहचानी, सही और सुनिश्चित होगी, उसमें कल्पना के लिए उतनी ही कम जगह होगी। स्पष्ट है कि जिन परिघटनाओं के नियम मालूम हैं, उन परिघटनाओं को जानने के लिए कल्पना की कोई ज़रूरत नहीं होती। दूसरी ओर, यदि उपलब्ध तथ्य-सामग्री अस्पष्ट है, तो निश्चायक उत्तर ( conclusive answer ) चिंतन से नहीं मिल सकता और तब कल्पना का सहारा लेना पड़ता है।

कल्पना की शक्ति इसमें है कि वह मनुष्य को निर्णय पर पहुंचने और ऐसी सूरत में भी कि जब चिंतन के लिए आवश्यक पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं होती, समस्या-स्थिति से निकास पाने में मदद करती है। कल्पना की बदौलत चिंतन के कई चरणों को लांघा और अंतिम परिणाम का एक बिंब बनाया जा सकता है। किंतु कल्पना की शक्ति ही उसकी कमजोरी भी है। कल्पना द्वारा प्रस्तावित समाधानों ( solutions ) में प्रायः यथातथ्यता ( preciseness ) और वैज्ञानिक कड़ाई ( scientific strictness ) का अभाव होता है। फिर भी सूचना के अभाव में काम करने की आवश्यकता ने मनुष्य को कल्पना का उपकरण विकसित करने को प्रेरित किया। यह उपकरण कभी भी व्यर्थ सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि परिवेशी विश्व में अनन्वेषित क्षेत्र सदा ही रहेंगे।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

2 टिप्पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

कल्पना जरूरी है आगे बढ़ने के लिए, लेकिन उस का तार्किक और सटीक होना भी उतना ही जरूरी है।

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

पढ़ रहा हूँ लेकिन संज्ञान का अर्थ कुछ और साफ हो तो अच्छा होगा।

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