शनिवार, 6 अगस्त 2011

भावनाएं ( emotions )

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में कल्पना पर चल रही चर्चा में कलात्मक तथा वैज्ञानिक सृजन में कल्पना पर बात की थी, इस बार हम व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्र के अंतर्गत भावनाओं पर विचार शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



व्यक्तित्व का संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्र
भावनाएं ( Emotions )
सामान्य संकल्पना ( general concept )

प्रत्यक्ष ( perception ), स्मृति, कल्पना और चिंतन की प्रक्रियाओं में मनुष्य यथार्थ का संज्ञान ही नहीं करता, बल्कि जीवन के विभिन्न तथ्यों के बारे में निश्चित रवैया ( attitude ) भी बनाता है और कुछ खास भावनाएं ( emotions ) भी महसूस करता है। ऐसे आंतरिक वैयक्तिक रवैये की जड़ें सक्रियता और संप्रेषण में होती हैं, जिनके दायरे में उसका जन्म, परिवर्तन, सुदृढ़ीकरण ( strengthening ) अथवा विलोपन ( deletion ) होता है। भावनाओं में हम कुत्सित इरादों से दूसरे व्यक्ति को धोखा देनेवाले झूठे मनुष्य के प्रति घृणा ( hate ) को भी शामिल करते हैं और लंबे समय तक की गर्मी की तपिश के बाद, बारिश की पहली फुहारों को देखकर अनुभव किए गए क्षणिक आह्लाद ( hilarity ) को भी शामिल करते हैं।

भावनाएं ( अनुभूतियां ) मनुष्य के वे आंतरिक रवैये हैं, जिन्हें वह अपने जीवन की घटनाओं और अपने संज्ञान व सक्रियता की वस्तुओं के प्रति, विभिन्न रूपों में अनुभव करता है

मनुष्य द्वारा अनुभव की गई भावना एक विशेष मानसिक अवस्था ( mental state ) है, जिसमें किसी वस्तु का प्रत्यक्ष, समझ अथवा ज्ञान उस वस्तु के प्रति व्यक्ति के अपने रवैये से एकाकार होता है, जो दत्त क्षण में उसके प्रत्यक्ष, समझ, ज्ञान अथवा अज्ञान का विषय बनी हुई है। ऐसे सब मामलों में मनुष्य एक विशिष्ट संवेगात्मक अवस्था के रूप में कोई न कोई भावना अनुभव भी करता है। यह एक मानसिक प्रक्रिया है, जिसके अपने गतिक गुण होते हैं।

उदाहरण के लिए, किसी प्रिय व्यक्ति को खोने की अनुभूति में जीवन में अपने स्थान का, जो उस अपूरणीय क्षति के बाद बदल गया है, सक्रिय पुनर्मूल्यांकन ( revaluation ), मूल्यों ( values ) का पुनर्निर्धारण ( rescheduling ), संकटपूर्ण स्थिति से उबरने के लिए साहस जुटाना, आदि शामिल रहते हैं। इस प्रचंड संवेगात्मक प्रक्रिया का अंत, क्षति के फलस्वरूप उत्पन्न स्थिति के और इस स्थिति में अपने आपके सकारात्मक तथा नकारात्मक मूल्यांकनों के बीच एक निश्चित संतुलन क़ायम करने में होता है। संवेगात्मक अनुभव इस तरह उस स्थिति का सामना करने की वस्तुपरक आवश्यकता से जुड़ा हुआ है, जो संकटपूर्ण बन गई है। ऐसा अनुभव एक विशिष्ट, अत्यंत प्रबल, प्रायः अत्यंत उत्पादक और मनुष्य के अंतर्जगत् के पुनर्गठन ( restructuring ) तथा आवश्यक संतुलन की स्थापना में सहायक संवेगात्मक सक्रियता के तौर पर सामने आता है।

भावनाएं संवेगों, भावों, मनोदशाओं, खिंचावों, आवेगों और, अंत में, शब्द के संकीर्ण अर्थ में भावनाओं का रूप लेती हैं। ये सब मिलकर मनुष्य के संवेगात्मक क्षेत्र का निर्माण करते हैं, जो उसके व्यवहार का एक नियामक, ज्ञान का सजीव स्रोत और लोगों के बीच मौजूद जटिल तथा अत्यंत विविध संबधों की एक अभिव्यक्ति है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

4 टिप्पणियां:

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

उपयोगी जानकारी, आभार।

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कम्‍प्‍यूटर से तेज़!
इस दर्द की दवा क्‍या है....

Arvind Mishra ने कहा…

मनुष्य के संवेगों पर उसके ललान पालन ,पारिवारिक परिवेश -देश काल परिस्थितियों का भी विवेचन करें गुरुदेव! क्या कुछ मानवीय संवेग इनके निरपेक्ष भी हैं जैसे टेरिटरी की रक्षा ,यौन सम्बन्ध की उत्कंठा आदि आदि !

Arvind Mishra ने कहा…

*लालन पालन

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सदैव की भाँति एक सुंदर पाठ।

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