रविवार, 30 अक्तूबर 2011

इच्छाशक्ति और जोखिम

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में इच्छाशक्ति की संकल्पना को आगे बढ़ाते हुए नियतत्ववाद और "इच्छा-स्वातंत्र्य" पर चर्चा की थी, इस बार हम इच्छाशक्ति और जोखिम के अंतर्संबंधों को समझेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



इच्छाशक्ति और जोखिम
( will and risk )

जोखिमभरी स्थिति ( risky situations ) में मनुष्य का व्यवहार उसकी इच्छाशक्ति ( will power, volition ) का एक सबसे अचूक सूचक ( indicator ) है।

जोखिम ( risk ) उस स्थिति में सक्रियता का एक आवश्यक पहलू है, जब कर्ता परिणाम ( result ) के बारे में अनिश्चित होता है और उसे लगता है कि असफलता ( failure ) की सूरत में उसे प्रतिकूल परिणाम ( adverse results ) भुगतने पड़ सकते हैं ( दंड, पीड़ा, चोट, प्रतिष्ठा-हानि, आदि )। जोखिमभरी स्थिति में अपेक्षित हानि ( expected loss ), असफलता की संभाव्यता पर और व्यक्ति के लिए जो ख़तरा उत्पन्न हो सकता है, उसपर निर्भर होती है। स्वाभाविकतः प्रश्न उठता है : यदि सफलता पाने के अवसर कम हैं और असफलता के लिए भारी दंड मिलेगा, तो मनुष्य को जोखिम उठाने को क्या विवश करता है? मनोविज्ञान जोखिमभरी स्थिति के एक अनिवार्य मानसिक घटक के नाते इच्छाशक्ति द्वारा शासित जोखिमी व्यवहार के दो परस्परसंबंध कारण या अभिप्रेरक ( motivator ) बताता है।

जोखिम के लिए पहला अभिप्रेरक और इसलिए जोखिम का पहला रूप भी सफलता की प्रत्याशा ( anticipation ) पर आधारित है, जिसका परिणाम असफलता की सूरत में होनेवाली संभावित हानि की मात्रा से अधिक होता है। ( स्थितिपरक जोखिम situational risk )। सफलता की आकांक्षा, विफलता से बचने की इच्छा से अधिक बलवती सिद्ध होती है। यदि हम ध्यान में रखें कि दैनंदिन जीवन में यह संबंध उलट सकता है ( विफलता से बचने की इच्छा सफलता की आकांक्षा से अधिक बलवती निकल सकती है ), तो हमें स्वीकार करना होगा कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में जोखिम एक प्रमुख स्थान रखता है। परंतु इस प्रकार का व्यवहार अनोखा नहीं है, यद्यपि इसके लिए संकल्पमूलक निर्णय लेना आवश्यक है।

मनोविज्ञानी उचित और अनुचित जोखिम के बीच अंतर करते हैं। जोखिमभरी स्थिति का परिणाम कितना भी अनिश्चित क्यों न हो, अनुचित जोखिम के विपरीत, उचित जोखिम में यह जरूरी होता है कि संकल्पमूलक निर्णय के सभी पहलुओं के बारे में, जोखिमभरे व्यवहार के पीछे जो अभिप्रेरक हैं, उनकी नैतिक तथा वैचारिक एकता के बारे में और अपेक्षाकृत निरापद पसंद के मुक़ाबले ख़तरनाक पसंद के लाभ के बारे में अच्छी तरह सोच-विचार कर लिया जाए। ऐसी भी स्थितियां हो सकती हैं जिनमें परिणाम संयोग ( "चित्त या पट") पर या इसके विपरीत मनुष्य के वैयक्तिक गुणों ( योग्यताओं, अध्यवसाय diligence, कौशल skill, आदि ) पर निर्भर होता है। यह पाया गया है कि अन्य बातें समान होने पर लोग उन स्थितियों में कहीं अधिक जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं, जिनमें परिणाम संयोग के बजाए मनुष्य की अपनी योग्यताओं, कौशलों और आदतों पर निर्भर होता है

जोखिमी पसंद का दूसरा अभिप्रेरक और जोखिम का दूसरा रूप व्यक्ति की तथाकथित स्थिति-निरपेक्ष क्रियाशीलता से, उसकी दत्त स्थिति की अपेक्षाओं से ऊपर उठ पाने और अपने लिए आरंभिक कार्यभार ( assignments ) से ज़्यादा ऊंचे लक्ष्य निर्धारित करने की योग्यता से पैदा होते हैं। प्रयोगों में जोखिममापी नामक एक विशेष उपकरण की मदद से प्रकट किए गए जोखिम के दूसरे रूपभेद को "स्थिति-निरपेक्ष", "निःस्वार्थ" अथवा "जोखिम की ख़ातिर जोखिम" की संज्ञा दी गई है।

कुछ लोगों को एक निश्चित प्रायोगिक क्षेत्र में ख़ुद अपने द्वारा चुने गए निशानों पर मार करने का काम दिया गया। किंतु उन्हें चेतावनी दे दी गई कि क्षेत्र में एक ख़तरनाक जगह है और उसपर मार करने से दंड मिल सकता है। पाया गया कि कुछ लोगों ने अपने निशाने उस ख़तरनाक जगह के आसपास ही चुने और इस तरह जान-बूझकर दंड का जोखिम उठाया, जबकि दूसरों ने निषिद्ध जगह से दूर के निशाने चुनकर ऐसे जोखिम से बचने का प्रयत्न किया। प्रयोग की कई बार पुनरावृत्ति और उसके डिज़ायन में परिवर्तनों से प्रयोगकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे पहले समूह के लोगों में निःस्वार्थ जोखिम के लिए परिस्थितिवश विकसित हुआ स्वाभाविक झुकाव था।

बाद के अध्ययनों ने दिखाया कि जोखिम की ख़ातिर जोखिम उठानेवाले, ऊंचाई पर काम करनेवाले निर्माण-मज़दूरों, मोटर-साइकिल के खेल के शौक़ीनों, उच्च-वोल्टता बिजली लाइनें बनानेवालों और उन पर काम करने वालों, आदि के बीच ज़्यादा मिलते हैं।

प्रयोगों ने यह भी दिखाया कि स्थितिमूलक जोखिम उठानेवालों में जोखिम की ख़ातिर जोखिम के लिए ज़्यादा झुकाव होता है। इसके विपरीत जिन लोगों ने प्रयोगों के दौरान निःस्वार्थ जोखिम की क्षमता नहीं दिखायी, वे सामान्यतः उस स्थिति में भी जोखिम उठाने को तैयार नहीं थे, जिसमें अपेक्षित लाभ और संभावित हानि बराबर-बराबर थे। निःस्वार्थ जोखिम के लिए रुझान, जिसे मनोवैज्ञानिक प्रयोग द्वारा, यानि अल्पकालिक जांच द्वारा प्रकट किया जा सकता है, दिखाता है कि वैसा मनुष्य वास्तविक ख़तरेवाली स्थिति में भी संकल्पात्मक क्रियाएं करने की क्षमता रखता है। इस तरह जोखिममापी की मदद से, एक दमकल दल का मुखिया अपने लोगों में काम का इष्टतम वितरण कर सकता है, जिसमें जोखिम उठाने का झुकाव नहीं है, उन्हें सहायक कामों में और जो जोखिम के लिए झुकाव रखते हैं, उन्हें सीधे आग से लड़ने के काम में लगाया जा सकता है।

दृढ़ इच्छाशक्ति और निःस्वार्थ जोखिम के लिए क्षमता एक ही चीज़ नहीं है। प्रयोग दिखाते हैं कि दमकल दल के जोखिम उठाने को तैयार लोगों को जब सहायक कामों पर लगाया जाता है, तो वे उनमें कोई ज़्यादा सफल नहीं रहते। रोजमर्रा का काम, जो कभी-कभी बड़ा कठिन तथा नीरस होता है, कठोर परिश्रम और दृढ़ इच्छाशक्ति के प्रयोग की अपेक्षा करता है। अध्यवसाय, धेर्य, निर्देशों का ईमानदारी से पालन, आदि संकल्पमूलक गुण ख़तरे का सामना करने के लिए आवश्यक गुणों से भिन्न होने पर भी समाज के लिए कम मूल्यवान नहीं है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

नियतत्ववाद और "इच्छा-स्वातंत्र्य"

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में इच्छाशक्ति की संकल्पना को समझा था, इस बार हम इसी को आगे बढ़ाते हुए नियतत्ववाद और "इच्छा-स्वातंत्र्य" पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



नियतत्ववाद और "इच्छा-स्वातंत्र्य"
( determinism and freedom of will )

प्रत्ययवादी या भाववादी ( idealistic ) दर्शन तथा मनोविज्ञान में इच्छा को एक अलौकिक, समाज-निरपेक्ष, यानि अनियत शक्ति बताया जाता है, जो मानो मनुष्य की कोई कार्य आरंभ व संपन्न करने की क्षमता का स्रोत है। इस संकल्पना में सारी मानसिक सक्रियता को इच्छाशक्ति का कार्य और स्वयं इच्छाशक्ति को क्रियाशीलता का अचेतन परम स्रोत समझा जाता है। इसी तरह कुछ मशहूर भाववादी मनोविज्ञानियों ने भी किसी भी क्रिया में सर्वोच्च भूमिका पूर्णतः स्वतंत्र इच्छागत निर्णय की मानी थी। यह तो कुछ ऐसा कहने के समान है कि मनुष्य अपने से कहता है, ‘ऐसा हो !’, और जो उसने चाहा था, हो जाता है। दूसरे शब्दों में , जैसे कि इस रहस्यमय परम तत्व के अलावा और किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है।

वास्तव में मनुष्य के कार्य तथा व्यवहार यथार्थ की उपज ( yield of reality ) होते हैं। अभिप्रेरकों को और संकल्पात्मक क्रियाओं को भी, वे बाह्य प्रभाव जन्म देते हैं, जिन्होंने पहले की सक्रियताओं और परिवेश से अन्योन्यक्रिया ( mutual action ) के दौरान मनुष्य के मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ी थी। किंतु संकल्पात्मक क्रियाओं के नियतत्व ( कारणसापेक्षता ) का यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य का एक निश्चित तरीक़े से ही काम करना पूर्वनियत है, कि उसे चुनने की कोई स्वतंत्रता नहीं है और वह अपने कार्यों के अवश्यंभावी स्वरूप का हवाला देकर स्वयं उत्तरदायित्व ( responsibility ) से बच सकता है।

मनुष्य कोई भी संकल्पात्मक क्रिया एक व्यक्ति के तौर पर करता है और इसलिए चह उसके परिणामों के लिए उत्तरदायी भी होता है। मनुष्य का संकल्पमूलक व्यवहार, उसकी क्रियाशीलता की सामाजिक संबंधों की एक निश्चित संबंधों की एक निश्चित पद्धति पर निर्भर एक उच्चतर अवस्था है, जिसकी विशेषता मनुष्य की ज्ञान के आधार पर निर्णय लेने की योग्यता है। मनुष्य की क्रियाशीलता और विशेषतः उसकी इच्छाशक्ति कर्म का रूप ले लेती है, जो सक्रियता का एक सामाजिकतः सार्थक परिणाम है, ऐसा परिणाम कि जिसके लिए मनुष्य तब भी उत्तरदायी होता है, जब वह उसके आरंभिक इरादों की सीमा से बाहर निकल जाता है।

दूसरे व्यक्ति को उसकी समस्याओं के हल में मदद देकर मनुष्य प्रशंसनीय काम करता है। वह दूसरे मनुष्य के जीवन में अपनी भूमिका से अनभिज्ञ ( unaware ) हो सकता है, फिर भी उसे उदात्त कार्य के हितकर परिणामों के लिए श्रेय दिया ही जाना चाहिए। इसी तरह यदि कोई आदमी किसी अन्य को बिला वज़ह हानि पहुंचाता है, उसकी आवश्यकताओं की तुष्टि में बाधा डालता है, तो वह बुरा काम करता है और इसके लिए वह उस सूरत में उत्तरदायी होता है, अगर वह इसके परिणामों का पूर्वानुमान कर सकता था या अगर ऐसा पूर्वानुमान कर लेना उसका कर्तव्य था। जब मनुष्य किसी कर्म द्वारा अन्य लोगों के जीवन, व्यवहार तथा चेतना में परिवर्तन लाता है, तो ऐसा वह नेक अथवा बुरी इच्छा के वाहक के तौर पर करता है और इसलिए प्रशंसा अथवा निंदा का पात्र बनता है।

लोग अपने कामों  के लिए किसे उत्तरदायी ( responsible ) ठहराते हैं ( मनोविज्ञान में इसे ‘नियंत्रण का स्थान-निर्धारण’, ‘कन्ट्रोल लोकेलाइज़ेशन’ कहा जाता है ), इसके अनुसार उन्हें दो कोटियों में बांटा जा सकता है। अपने व्यवहार को बाह्य कारणों ( भाग्य, परिस्थितियों, संयोग, आदि ) का परिणाम माननेवालों को ‘बाह्य स्थान-निर्धारण’ शीर्ष के अंतर्गत रखा जाता है। जो प्राप्त परिणामों को अपने प्रयासों या योग्यता का फल समझते हैं, वे ‘नियंत्रण का आंतरिक स्थान-निर्धारण’ शीर्ष के अंतर्गत आते हैं।

पहली कोटि में आनेवाले बच्चे अपने कम अंक पाने के लिए अपनी लापरवाही के सिवाय और किसी भी चीज़ को जिम्मेदार ठहरा देते हैं ( सवाल ठीक नहीं लिखा गया था, किसी ने ग़लत हल बताया, मेहमानों ने पढ़ने नहीं दिया, पुस्तक में इस बारे में नहीं था, वग़ैरह )। अनुसंधानों ने दिखाया है कि ऐसी बाह्य स्थान-निर्धारण की प्रवृत्ति का कारण चरित्र के उत्तरदायित्वहीनता ( irresponsibility ), अपनी योग्यताओं में विश्वास का अभाव, दुश्चिंता, इरादों का क्रियान्वयन स्थगित करने की आदत, आदि लक्षण होते हैं।

इसके विपरीत जो मनुष्य सामान्यतः अपने कार्यों के लिए अपने को उत्तरदायी ठहराता है और उनकी सफलता या असफलता का स्रोत अपने चरित्र, अपनी योग्यताओं अथवा उनके अभाव में देखता है, उसके बारे में उचित ही कहा जा सकता है कि उसमें नियंत्रण के आंतरिक स्थान-निर्धारण की क्षमता है। नियंत्रण का आंतरिक स्थान-निर्धारण करनेवाला छात्र यदि कम अंक पाता है, तो बहुत करके वह इसका कारण अपनी ओर से विषय में रुचि का अभाव, भुलक्कड़पन, ध्यान कहीं और होना बताएगा। यह स्थापित किया जा चुका है कि इस तरह के मनुष्यों में गहन उत्तरदायित्व-बोध, बड़ी लगन, आत्म-परीक्षा की प्रवृत्ति, मिलनसारी और स्वतंत्रता होती है।

संकल्पात्मक कार्यों के नियंत्रण का आंतरिक या बाह्य स्थान-निर्धारण, जिसके सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही तरह के सामाजिक परिणाम निकलते हैं, शिक्षा तथा पालन की प्रक्रिया में विकास करनेवाली स्थिर चरित्रगत विशेषता है



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

इच्छाशक्ति ( volition, will power )

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में इच्छाशक्ति की संकल्पना को समझने की शुरुआत ऐच्छिक और संकल्पात्मक क्रियाओं पर चर्चा से की थी, इस बार हम इच्छाशक्ति की संकल्पना पर चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



इच्छाशक्ति ( volition, will power )
व्यक्ति की क्रियाशीलता का एक रूप

इच्छाशक्ति, मनुष्य द्वारा अपनी सक्रियता और व्यवहार का सचेतन संगठन व स्वतःनियमन है, ताकि निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति में सामने आनेवाली कठिनाइयों को लांघा जा सकेइच्छाशक्ति मनुष्य की क्रियाशीलता का एक विशिष्ट रूप और स्वेच्छा से निर्धारित लक्ष्यों द्वारा निदेशित उसके व्यवहार के संगठन का एक प्रकार है। इच्छाशक्ति की उत्पत्ति श्रम के दौरान होती है, जब मनुष्य प्रकृति के नियमों का ज्ञान प्राप्त करता है और इस तरह उसे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार बदलता है।

इच्छाशक्ति दो परस्परसंबद्ध कार्य करती है : अभिप्रेरणात्मक ( motivational ) और प्रावरोधात्मक ( prohibitory )।

अभिप्रेरणात्मक कार्य का मूल मनुष्य की क्रियाशीलता में है। प्रतिक्रियाशीलता ( reactivity ) के विपरीत, जब मनुष्य की क्रिया पूर्ववर्ती स्थिति पर निर्भर होती है ( बुलाए जाने पर मुड़कर देखना, अपनी ओर फेंकी गई गेंद को वापस फेंकना, बेहूदी बात पर नाराज़ होना, वगै़रह ), क्रियाशीलता क्रिया को जन्म मनुष्य की आंतरिक अवस्थाओं के विशिष्ट स्वरूप के कारण देती है, जो अपने को क्रिया के निष्पादन ( execution ) के क्षण में प्रकट करती है ( उदाहरण के लिए, आवश्यक सूचना पाने के लिए मनुष्य अपने साथी को बुलाता है, या अच्छी मनःस्थिति में न होने के कारण बेहूदगी से बात करता है, वगै़रह )।

क्षेत्र व्यवहार के विपरीत, जिसकी विशेषता अनैच्छिकता है, क्रियाशीलता में संकल्प का तत्व होता है, यानि वह किसी सचेतन लक्ष्य की ओर निर्दिष्ट ( directed ) होती है। क्रियाशीलता का वर्तमान स्थिति द्वारा, इसकी मांगों को पूरा करने और निर्धारित सीमाओं के भीतर काम करने की इच्छा द्वारा उत्प्रेरित होना आवश्यक नहीं है। इसका स्वरूप स्थिति-निरपेक्ष होता है, यानि वह आरंभिक लक्ष्यों की सीमाओं को लांघती है और उसमें मनुष्य की दत्त स्थिति की अपेक्षाओं के सार से ऊपर उठने तथा आरंभिक लक्ष्यों से ऊंचे लक्ष्य रखने की योग्यता ( उदाहरणार्थ, ‘जोखिम के लिए जोखिम उठाना’, सृजनात्मक उत्साह, आदि ) महत्त्व रखती है।

मनुष्य की सामाजिक क्रियाशीलता की एक अभिव्यक्ति उसका सामान्य कर्तव्य-बोध से ऊपर उठकर ऐसे कार्यकलाप में प्रवृत्त होना है, जो उसके अपने लिए आवश्यक नहीं है ( यदि उसे वह नहीं करता है, तो कोई इसके लिए उसपर उंगली नहीं उठाएगा ), मगर जो सामाजिक अपेक्षाओं के अनुरूप है।

संकल्पात्मक प्रक्रियाओं ( volitive processes ) की एक और विशेषता है, जो इच्छाशक्ति के अभिप्रेरणात्मक कार्य के रूप में सामने आती है। यदि मनुष्य के लिए कोई ऐसा कार्य करना तत्काल ज़रूरी नहीं है, जिसकी वस्तुपरक आवश्यकता ( objective need ) को वह समझता है, तो इच्छाशक्ति कुछ अतिरिक्त अभिप्रेरण ( motive ) पैदा कर देती है, जो उस कार्य के अर्थ को बदल देते हैं और मनुष्य को उसके परिणामों का पूर्वानुमान लगाने को प्रेरित करके उसे और अधिक महत्त्वपूर्ण बना डालते हैं। उदाहरण के लिए, एक स्कूल की बालीबाल की टीम का कप्तान यदि थका हुआ है, तो अपनी बची-खुची ताक़त जुटाकर अभ्यास के लिए शहर के दूसरे छोर पर स्थित जिम में जाने में वह कठिनाई महसूस कर सकता है। फिर भी जब वह सोचता है कि उसकी टीम की की सफलता और उसके स्कूल की प्रतिष्ठा उसकी कप्तान के रूप में तैयारी पर निर्भर है, तो वह अपनी सारी इच्छाशक्ति जुटा लेता है और कठिन कार्य के लिए एक अतिरिक्त अभिप्रेरक पैदा कर डालता है।

इच्छाशक्ति का प्रावरोधात्मक कार्य अभिप्रेरणात्मक कार्य से एकता बनाए रखते हुए अपने को क्रियाशीलता की अवांछित अभिव्यक्तियों को रोकने में प्रकट करता है। मनुष्य सामान्यतः अपने अभिप्रेरकों और कार्यों पर अंकुश लगा लेता है, जो उसके विश्व-दृष्टिकोण, विचारों और विश्वासों से मेल नहीं खाते। अवरोध के बिना व्यवहार का नियमन असंभव होता। ‘प्रावरोधात्मक आदतों’ का विकास परिपक्व और सुरुचीपूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण के लिए एक आवश्यक शर्त है। शिक्षकों को बच्चों में अपनी अति-चंचलता, बातूनीपन और शोर-शराबे को नियंत्रित करने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। यह नियंत्रण बच्चे के शरीर के लिए उपयोगी है, सुरुचि का सूचक है और सामूहिक जीवन की अपेक्षाओं के अनुकूल है।

मनुष्य की कार्य करने की प्रेरणा बुनियादी आवश्यकताओं ( भोजन, वस्त्र तथा आवास ) से लेकर नैतिक, सौंदर्यात्मक तथा बौद्धिक आवश्यकताओं तक विभिन्न अभिप्रेरकों के सोपानतंत्र का प्रतिनिधित्व करती है। इच्छाशक्ति का प्रयोग करके मनुष्य अपने निम्नतर अभिप्रेरकों पर, जिनमें कुछ जीवनावश्यक अभिप्रेरक भी हैं, अंकुश लगाता है और उच्चतर अभिप्रेरकों को बढ़ावा देता है। अभिप्रेरणात्मक और प्रावरोधात्मक कार्यों की एकता की बदौलत इच्छाशक्ति मनुष्य को लक्ष्य-प्राप्ति में आड़े आनेवाली कठिनाइयों पर विजय पाने में समर्थ बनाती है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

ऐच्छिक और संकल्पात्मक क्रियाएं

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में प्रेम की भावना पर विचार किया था, इस बार हम इच्छाशक्ति की संकल्पना को समझने की शुरुआत ऐच्छिक और संकल्पात्मक क्रियाओं पर चर्चा से करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



ऐच्छिक और संकल्पात्मक क्रियाएं
( voluntary and volitive actions )

मनुष्य की सक्रियता किन्हीं निश्चित लक्ष्य की पूर्ति की ओर लक्षित, परस्परसंबद्ध क्रमानुवर्ती क्रियाओं की पद्धति है। क्रियाओं का उद्देश्य एक निश्चित परिणाम प्राप्त करना है, जो संबंधित सक्रियता का अभीष्ट लक्ष्य होता है या ऐसा प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, जब हम कोई वृक्ष लगाते हैं, अर्थात उसके लिए एक निश्चित गहराई का गड्ढ़ा खोदते है, उसमें खाद डालते हैं, बीच में डंडा गाड़ते हैं, फिर गड्ढ़े में पौधा रोपकर उसकी जड़ों पर अच्छी तरह मिट्टी जमाकर उसे डंडे के सहारे खड़ा करते हैं वग़ैरह, तो हम अपने लक्ष्य को पाने के लिए एक निश्चित योजना के अनुसार काम करते हैं। काम के दौरान यह योजना विचारों तथा परिकल्पनों ( बिंबों ) के एक क्रम के रूप में सामने आती है और अलग-अलग बल, वेग, विस्तार, समन्वय और सुतथ्यतावाली गतियों के माध्यम से साकार, क्रियान्वित होती है।

निश्चित गतियां, जो मिलकर क्रिया या कार्य कहलाती हैं, और सामान्य योजना से संबद्ध चिंतन की संक्रियाएं संपन्न करते हुए मनुष्य, अपना ध्यान श्रम की वस्तु तथा प्रक्रिया में प्रयुक्त उपकरणों पर संकेन्द्रित करता है। इसके साथ ही विभिन्न क्रियाएं करते हुए वह निश्चित भावनाएं भी अनुभव करता है, जैसे बाधाएं एवं कठिनाइयां सामने आने पर चिढ़ना, आवश्यकताओं की तुष्टि पर खुश होना, श्रम के लिए उत्साह, थकान, श्रम में आनंद पाना, इत्यादि।

सीधे क्षोभकों द्वारा निर्धारित अनैच्छिक क्रिया ( involuntary action, reflex ) के विपरीत संकल्पात्मक क्रिया  ( volitive action ) समुचित साधनों ( संकेतों, मानक मूल्यों, आदि ) की मदद से, यानि किसी माध्यम के ज़रिए संपन्न की जाती हैं। इस तरह शल्यचिकित्सक पहले अपने मन में भावी आपरेशन का बिंब बनाता है और इसके बाद ही वास्तविक आपरेशन करने लगता है।

संकल्पात्मक क्रिया स्वतःनियमन ( self regulation ) की मदद से की जाती है। इसकी संरचना में निम्न चीज़ें शामिल रहती हैं : कर्ता का लक्ष्य, इस लक्ष्य को पाने के लिए की जानेवाली क्रियाओं व संक्रियाओं का कार्यक्रम, क्रियाओं की सफलता के मापदंड का निर्धारण और उनकी वास्तविक परिणामों से तुलना, और अंत में, इस बारे में निर्णय कि क्रिया को पूर्ण माना जाए या समुचित सुधार के बाद आगे जारी रखा जाए। अतः किसी भी ऐच्छिक क्रिया के स्वतःनियमन के लिए उसकी आयोजना ( planning ) व निष्पादन ( execution ) पर संकल्पात्मक नियंत्रण आवश्यक होता है। व्यक्तिवृत में नियमन व नियंत्रण का कार्य आरंभ में वयस्कों द्वारा बच्चे के साथ संयुक्त सक्रियता एवं संप्रेषण के दौरान संपन्न किया जाता है। बाद में सक्रियता के प्रचलित मानकों तथा संरूपों के आभ्यंतरीकरण के फलस्वरूप बच्चा अपनी क्रियाओं का स्वयं नियंत्रण करना सीखता है।

ऐच्छिक क्रिया में मनुष्य पहले यह मालूम करता है कि उसकी क्रिया के भावी परिणाम का बिंब उसकी सक्रियता के प्रयोजन ( purpose ) से, यानि जो लक्ष्य उसने स्वयं तय किया है, उससे संगत ( compatible ) है या नहीं। इसके बाद उसकी क्रिया वैयक्तिक महत्त्व ( personal importance ) ग्रहण कर लेती है और उसकी सक्रियता के लक्ष्य के रूप में सामने आती है। सक्रियता की संरचना में ऐच्छिक क्रियाएं उसका उच्चतर स्तर होती हैं और उनकी विशेषता होती है सचेतन लक्ष्य और उनकी प्राप्ति के लिए साधनों का सचेतन चयन। छात्र द्वारा निबंध की रूपरेखा के बारे में सोचना, सामग्री की मन में पुनरावृति, आदि ऐच्छिक क्रियाएं बिना किसी बाह्य चिह्नों के संपन्न की जा सकती हैं।

संकल्पात्मक क्रियाएं एक विशेष प्रकार की ऐच्छिक सक्रियता है। ऐच्छिक क्रिया के सभी लक्षणों से युक्त संकल्पात्मक क्रिया की एक मुख्य शर्त कठिनाइयों को लांघना है। दूसरे शब्दों में, ऐच्छिक क्रिया को हम संकल्पात्मक क्रिया तभी कह सकते हैं, जब इसकी निष्पत्ति  ( achievement ) के लिए विशेष प्रयास किया जाता है।

संकल्पात्मक क्रियाएं कम या अधिक जटिल ( complex ) हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, नदी या तरणताल में ऊंचाई से कूदने का प्रयत्न करनेवाले को पहले अपने तत्संबंधी भय पर विजय पानी पड़ती है। इन्हें सरल संकल्पात्मक क्रियाएं कहा जाता हैं। जटिल संकल्पात्मक क्रियाओं में कई सारी सरल क्रियाएं शामिल होती हैं। उदाहरण के लिए, कोई कठिन धंधा सीखने का निर्णय करनेवाले नौजवान को अपना लक्ष्य पाने के लिए कई सारी अंदरूनी और बाहरी बाधाएं व कठिनाइयां लांघनी होती हैं। अपनी बारी में जटिल क्रियाएं मनुष्य की सचेतन रूप से निर्धारित निकटवर्ती तथा सुदूर लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर लक्षित संकल्पात्मक सक्रियता में सम्मिलित होती हैं।

ऐसी सक्रियता मनुष्य की संकल्पात्मक विशेषताओं को, उसकी इच्छाशक्ति ( volition, will power ) को प्रकट करती है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

प्रेम की भावना

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में आवेश पर विचार किया था, इस बार हम प्रेम की भावना पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



प्रेम की भावना

बहुत-सी ऐसी स्थायी भावनाएं ( आवेश में बदलनेवाली और न बदलनेवाली स्थायी भावनाएं ) होती हैं कि जिनके दायरे में मनुष्य के सभी विचार और इच्छाएं आ जाती हैं और जिन्हें उसके संवेगात्मक क्षेत्र की अनन्य विशेषताएं कहा जा सकता है। उनमें एक प्रमुख भावना, विशेषतः युवावस्था में, प्रेम की भावना है, जिसे एक स्थायी संवेग माना जा सकता है। अपने व्यापक अर्थ में, यानि एक सामान्य संकल्पना ( general concept ) के अर्थ में प्रेम एक अत्यंत प्रबल सकारात्मक संवेग है, जो अपने लक्ष्य ( वस्तु अथवा व्यक्ति ) को अन्य सभी लक्ष्यों से अलग कर लेता है और उसे मनुष्य की जीवनीय आवश्यकताओं एवं हितों के केंद्र में रखता है। मातृभूमि, संगीत, मां, बच्चों आदि से प्रेम इस कोटि में आता है।

संकीर्ण अर्थ में, यानि एक विशिष्ट संकल्पना ( specific concept ) के अर्थ में प्रेम मनुष्य की एक प्रगाढ़ ( dense ) तथा अपेक्षाकृत स्थिर भावना है, जो शरीरक्रिया की दृष्टि से यौन आवश्यकताओं ( sexual needs ) की उपज होती है और अपनी महत्त्वपूर्ण वैयक्तिक ( individual ) विशेषता द्वारा दूसरे व्यक्ति के जीवन में इस ढंग से अधिकतम स्थान पा लेने की इच्छा में व्यक्त होती है कि उस व्यक्ति में भी वैसी ही प्रगाढ़ तथा स्थिर जवाबी भावना रखने की आवश्यकता पैदा हो जाए। प्रेम की अनुभूति अत्यंत निजी अनुभूति है और उसके साथ स्थिति के मुताबिक़ पैदा होने और बदलने वाले स्नेह तथा हर्षोन्माद जैसे संवेग, उत्साह अथवा अवसाद की मनोदशा और कभी-कभी उल्लास अथवा दुख जैसे भाव पाए जाते हैं। मनुष्य की यौन आवश्यकता, जो अपने अंतिम विश्लेषण में वंश की वृद्धि सुनिश्चित करती है, और प्रेम, जो मनुष्य को वैयक्तिकरण ( personalization ) के लिए, यानि अपने लिए महत्त्वपूर्ण दूसरे व्यक्ति ( प्रेम के पात्र ) में जारी रहने तथा भावात्मकतः प्रतिनिधीत होने के लिए इष्टतम अवसर प्रदान करनेवाली सर्वोच्च भावना है - इन दोनों का विलयन ( merger ), परावर्तन में उनके एक दूसरे से पृथक्करण ( separation ) को लगभग असंभव बना डालता है।

इस तरह प्रेम की भावना का द्वैध ( duplex ) स्वरूप होता है। किंतु अनेक मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक संप्रदायों ने उसके शारीरिक ( physical ) और ‘आत्मिक’ ( spiritual ) पहलुओं में से किसी एक पहलू को ही सब कुछ सिद्ध करने का प्रयत्न किया। प्रेम को या तो केवल कामवृत्ति का पर्याय मान लिया गया ( जो समकालीन मनोविज्ञान की बहुसंख्य धाराओं के लिए ही नहीं, अपितु आधुनिक बाजारवादी संस्कृति के लिए भी लाक्षणिक है ), या फिर उसके शारीरिक पहलू को नकारकर अथवा महत्त्वहीन बताकर उसे मात्र एक ‘आत्मिक’ भावना का दर्जा दे दिया गया ( इसकी अभिव्यक्ति ईसाई धर्म द्वारा ‘प्लेटोनिक’ प्रेम को उचित ठहराने और शारीरिक प्रेम को निकृष्ट, गंदा तथा पापमय कर्म सिद्ध करने में देखी जा सकती है )। सत्य यह है कि शारीरिक आवश्यकताएं निश्चय ही पुरुष तथा स्त्री के बीच प्रेम की भावना के पैदा होने तथा बने रहने की एक पूर्वापेक्षा ( prerequisites ) है, किंतु अपनी अंतरंग ( intimate ) मानसिक विशेषताओं की दृष्टि से प्रेम एक समाजसापेक्ष भावना हैं क्योंकि मनुष्य के व्यक्तित्व में शारीरिक तत्व दब जाता है, बदल जाता है और सामाजिक रूप ग्रहण कर लेता है।

किशोर-प्रेम अपने विशिष्ट स्वरूप के कारण विशेष महत्त्व रखता है।  निस्संदेह, वयस्कों ( adults ) के प्रेम की भांति ही किशोर वय ( teenager ) में किया जानेवाला प्रेम भी शरीरक्रिया की, यौन आवश्यकता की उपज होता है। फिर भी आरंभिक यौवनावस्था तथा ख़ासकर किशोरावस्था का प्रेम, वयस्क प्रेम से बहुत भिन्न होता है। आम तौर पर किशोर इसके मूल में निहित आवश्यकताओं के बीच स्पष्ट भेद नहीं कर पाते और यह भी पूरी तरह नही जानते कि उन्हें तुष्ट कैसे किया जाता है। कभी-कभी वयस्क लोग ( शिक्षक, माता-पिता, परिचित लोग, आदि ) प्रेमी-युगल के संबंधों को देखकर अनजाने ही उनमें अपने निजी यौन अनुभव आरोपित ( superimposed ) कर बैठते हैं ; प्रेमी-युगल प्रायः महसूस कर लेता है कि बड़े लोग उसके संबंधों को ग़लत दृष्टिकोण से देख रहे हैं और इसलिए पूछताछ किए जाने पर किशोर अविश्वास, अवमानना तथा धृष्टतापूर्वक उत्तर देता है और नैतिक भर्त्सना से बचने की कोशिश करता है। यद्यपि इस आयु में प्रेम वस्तुपरक ( objective ) रूप से कामेच्छा पर आधारित होता है, प्रेमियों के व्यवहार का स्वरूप प्रायः कामेच्छा की बात को नकारता है। कतिपय अदूरदर्शी शिक्षक किशोरों के प्रेम को अनुचित, निंदनीय और ‘प्रतिबंधित’ ठहराकर आपस में प्रेम करनेवाले किशोर लोगों को अपने को शेष समूह से अलग-थलग कर लेने और अपने अंतरंग संबंधों के दायरे में और भी ज़्यादा सिमट जाने को बाध्य कर देते हैं।

मनोविज्ञान में एक समेकित पद्धति के नाते प्रेम की आंतरिक संरचना का अध्ययन करने और इसके विभिन्न घटकों का व्यक्ति की विभिन्न विशेषताओं से संबंध जानने के बहुसंख्य प्रयत्न किए गए हैं। इस क्षेत्र में एक सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मनुष्य की प्रेम करने की योग्यता और स्वयं अपने प्रति उसके रवैये के बीच मौजूद संबंध को जानना था। यह और बहुत-सी अन्य खोजें और विवाह तथा परिवार में प्रेम की बुनियादी भूमिका मनश्चिकित्सा, शिक्षा और मनोवैज्ञानिक सहायता की व्यवस्था में प्रेम संबंधी समस्याओं के महत्त्व को बढ़ा देती हैं।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय
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