शनिवार, 28 जनवरी 2012

‘मनुष्य के आचरण-व्यवहार के कार्यक्रम’ के रूप में चरित्र

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों की कड़ी के रूप में ‘चरित्र’ की संरचना के अंतर्गत चारित्रिक गुण तथा व्यक्ति के दृष्टिकोण पर चर्चा की थी, इस बार हम ‘मनुष्य के आचरण-व्यवहार के कार्यक्रम’ के रूप में चरित्र को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।




‘मनुष्य के आचरण-व्यवहार के कार्यक्रम’ के रूप में चरित्र

मनुष्य की सक्रियता, उसका आचरण-व्यवहार ( conduct - behavior ), सबसे पहले, उन लक्ष्यों से निर्धारित होता है, जो वह अपने समक्ष रखता है। उसके आचरण-व्यवहार तथा कार्यक्रम का मुख्य निर्धारक सदैव उसका व्यक्तित्व-रुझान ( personality-trends), यानि उसके हितों, आदर्शों तथा विश्वासों का कुल योग होता है। परंतु दो मनुष्य, जिनके बहुत ही एक जैसे वैयक्तिक रुझान में एक जैसे लक्ष्य एक दूसरे से मेल खाते हैं, अपने लक्ष्यों की सिद्धी के साधनों के चयन में एक दूसरे से सारभूत रूप से भिन्न हो सकते हैं। इन अंतरों के पीछे व्यक्ति के चरित्र की विशिष्टताएं होती हैं।

मनुष्य के चरित्र में, यह कहा जा सकता है, लाक्षणिक परिस्थितियों में उसके लाक्षणिक आचरण-व्यवहार का कार्यक्रम होता है। एक अध्यापक अपने छात्र के चरित्र के बारे में भली-भांति जानने के कारण उसके बारे में यह बताता है, ‘मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि वह असंयत हो जाएगा, बहुत-सी बेकार की बाते करेगा, शायद अशिष्ट और अन्यायपूर्ण ढंग से पेश आएगा, पर फिर अपने आचरण-व्यवहार पर उसे खेद होगा, प्रायश्चित की मुद्रा धारण किए हुए इधर--उधर चक्कर काटता रहेगा और अंततः अपने अपराध का निवारण करने के लिए यथासंभव सब कुछ करेगा।’ चारित्रिक गुणों में, अतएव, कोई निश्चित प्रेरक शक्ति होती है, वह तनावभरी परिस्थितियों में पूरी मात्रा में प्रकट होती है, जब मनुष्य को विवश होकर निर्णय करना पड़ता है, बड़ी कठिनाइयों पर काबू पाना पड़ता है।

चरित्र की दृष्टि से कृतसंकल्प ( resolute ) मनुष्य, अभिप्रेरणों ( motivations ) के किसी लंबे संघर्ष के बिना ही उत्प्रेरणा ( inducements ) से आगे बढ़कर कार्य-क्षेत्र में पदार्पण ( debut ) करता है। चरित्र के एक गुण के रूप में व्यवहार-कुशलता के कारण मनुष्य दूसरे लोगों के साथ संवाद में सावधानी बरतता है और नाना परिस्थितियों तथा समस्याओं को ध्यान में रखता है, जो उसके लिए सारभूत हो सकती हैं।

उपलब्धिमूलक प्रेरणा ( achievement oriented motivation ) को भी चरित्र का एक गुण माना जा सकता है, उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्यकलाप में, विशेष रूप से दूसरे लोगों के साथ प्रतिद्वंद्विता में सफलता प्राप्त करने की कर्ता की आवश्यकता आ जाती है। यह गुण, बच्चे की परवरिश की प्रक्रिया में, सफलताओं के लिए विधिवत तथा वैयक्तिक रूप से उल्लेखनीय प्रशंसा और विफलताओं के लिए दंड के फलस्वरूप गठित होता है।

चरित्र संबंधी गुणों के प्रथम शोधकर्मियों के अनुसार, उपलब्धिमूलक अभिप्रेरणा स्कूलपूर्व आयु में गठित होती है, फिर भी यह दावा नित्यप्रति के जीवन के तथ्यों से मेल नहीं खाता, जो बताते हैं कि अन्य गुणों की भांति व्यक्तित्व के इन या उन गुणों का गठन आरंभिक बाल्यकाल तक सीमित नहीं होता। संबद्ध व्यक्तित्व के विकास के इतिहास पर निर्भर करते हुए वह या तो सफलता की उपलब्धि की ओर उन्मुख हो सकता है ( इस सूरत में मनुष्य जोखिम मोल लेता है, पहल, प्रतियोगितात्मक क्रियाशीलता, आदि प्रदर्शित करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता ), अथवा विफलता से बचने की ओर उन्मुख हो सकता है ( इस सूरत में वह जोखिम मोल लेने, दायित्व ग्रहण करने से कतराता है, पहल दिखाने से बचता है, किसी अनिश्चित हालात में अहस्तक्षेप की स्थिति अपनाता है, आदि )।

चरित्र में विशेष विधियों की सहायता से प्रकाश में लायी जाने वाली उपलब्धिमूलक अभिप्रेरणा एक निश्चित आचरण-व्यवहार कार्यक्रम इंगित करती है और लाक्षणिक परिस्थितियों में मनुष्य के कार्यकलाप की दिशा को पहले से बताना संभव बना देती है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 21 जनवरी 2012

चारित्रिक गुण तथा व्यक्ति का दृष्टिकोण


हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों की कड़ी के रूप में ‘चरित्र’ की संरचना के अंतर्गत चारित्रिक गुणों के संबंधों को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम चारित्रिक गुण तथा व्यक्ति के दृष्टिकोण पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।




चारित्रिक गुण तथा व्यक्ति का दृष्टिकोण


चरित्र ( character ) , जो कर्ता की कार्रवाइयों और व्यवहार में, संयुक्त सक्रियता में उसकी सहभागिता ( participation ) के स्तर में अभिव्यक्त होता है, सक्रियता की अंतर्वस्तु ( content ) पर, कठिनाइयों पर क़ाबू पाने में कर्ता की सफलता या विफलता पर, आधारभूत जीवंत ध्येयों की सिद्धि में दूर तथा निकट के परिप्रेक्ष्यों ( perspectives ) पर निर्भर करता है।

अतः चरित्र इस बात पर निर्भर करता है कि मनुष्य ( पहले बन चुकी चारित्रिक विशेषताओं के आधार पर ) अपनी सफलताओं तथा विफलताओं, जनमत तथा अन्य परिस्थितियों के प्रति कैसा दृष्टिकोण अपनाता है। इस तरह एक ही कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों में अथवा एक ही उत्पादन-समूह में बराबरी के दर्जे पर काम करने वाले लोगों में चरित्र के भिन्न-भिन्न गुणों का विकास होता है। यह चीज़ इस बात पर निर्भर करती है कि वे अपना कार्य किस प्रकार निबटाते हैं। कुछ लोग सफलता से प्रेरित होते हैं और पहले से ज़्यादा अच्छी तरह काम या अध्ययन करने के लिए प्रेरित होते हैं, कुछ में आगे आगे मैदान जीतने की कामना नहीं होती, कुछ का विफलताओं से हौसला पस्त हो जाता है, जबकि दूसरों में जुझारू भावना उद्दीप्त होती है।

अतः चरित्र के निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व यह होता है कि मनुष्य परिवेश के प्रति, स्वयं अपने प्रति, दूसरों के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाता है। ये दृष्टिकोण चरित्र के प्रमुख गुणों के वर्गीकरण के आधार का काम देते हैं।

मनुष्य का चरित्र, पहले इस चीज़ में प्रकट होता है कि वह दूसरे लोगों ( अपने सगे-संबंधियों तथा मित्रों, सहयोगियों तथा सहपाठियों, परिचितों तथा अजनबियों, आदि ) के प्रति कैसा दृष्टिकोण अपनाता है। वह स्थिर अथवा अस्थिर अनुरक्तियों ( attachments ) में, सिद्धांतनिष्ठता अथवा सिद्धांतहीनता में , मिलनसार अथवा गैर-मिलनसार स्वभाव में, सत्यप्रियता अथवा मिथ्यावादिता में, व्यवहारकुशलता अथवा अभद्रता में प्रकट होता है। केवल समूहों में ही, सामाजिकता में ही, दूसरों लोगों से दैनंदिन संसर्ग-संपर्क की प्रक्रिया में ही मनुष्य के ह्र्दय की व्यापकता अथवा संकीर्णता, गैर-मिलनसार स्वभाव अथवा नमनशीलता ( flexibility ), शांतिप्रियता अथवा विवादप्रियता जैसे चारित्रिक गुण सुस्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं।

दूसरे, चरित्र मनुष्य के स्वयं अपने प्रति दृष्टिकोण में, अर्थात आत्मगौरव तथा आत्मसम्मान में अथवा विनम्रता तथा अपनी शक्ति में अविश्वास में प्रकट होता है। कुछ लोगों में स्वार्थ की तथा आत्म-केन्द्रिकता ( अपने को समस्त घटनाओं के बीच में रखने ) की भावना अधिक बलवती होती है, जबकि कुछ अपने हितों को समूह के हितों के मातहत कर देते हैं, संयुक्त ध्येय के लिए संघर्ष में निस्स्वार्थ भाव से भाग लेते हैं।

तीसरे, चरित्र काम के प्रति मनुष्य के दृष्टिकोण में प्रकट होता है। चरित्र के सबसे महत्त्वपूर्ण गुणों में निर्मल अंतःकरण, कार्य-कुशलता, गंभीरता, उत्साह, प्राप्त कार्य के प्रति उत्तरदायित्व ( responsibility ) की भावना तथा उसके परिणामों के लिए चिंता शामिल है। परंतु कुछ लोगों के चरित्र में कैरियरपरस्ती, छिछोरापन, श्रम के प्रति कोरा औपचारिक दृष्टिकोण पाया जाता है।

चौथे, चरित्र व्यक्ति के वस्तुओं के प्रति दृष्टिकोण मे, केवल सामाजिक संपत्ति के प्रति ही नहीं, अपितु अपने निज़ी माल-असबाब, वस्त्रों, जूतों, आदि के प्रति दृष्टिकोण में भी प्रकट होता है।




इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 14 जनवरी 2012

चारित्रिक गुणों के संबंध

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों की कड़ी के रूप में चरित्र की अवधारणा पर चर्चा की थी, इस बार हम ‘चरित्र’ की संरचना के अंतर्गत चारित्रिक गुणों के संबंधो को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


चरित्र की संरचना
चारित्रिक गुणों के संबंध

मनुष्य का चरित्र सदैव बहुआयामी ( multidimensional ) होता है। उसके पृथक-पृथक गुणों या पहलुओं का चयन किया जा सकता है, जो एक दूसरे से अलग-अलग रूप में विद्यमान नहीं होते, अपितु एक सूत्र में जुड़े होते हैं, उनसे चरित्र की एक अखंड संरचना बनती है।

चरित्र की संरचनात्मकता, उसके पृथक-पृथक गुणों के बीच नियमसंगत निर्भरता में उजागर होती है। यदि कोई मनुष्य कायर है, तो उसके बारे में हम यह भी मान सकते हैं कि उसमें पहलकदमी ( initiative ) का अभाव है ( यानि वह डरता है कि उसके प्रस्ताव या कार्रवाई के प्रति, जिनके लिए उसने पहलकदमी की, प्रतिकूल प्रतिक्रिया हो सकती है ), उसमें दृढ़ संकल्प तथा स्वावलंबन नहीं है ( क्योंकि निर्णय लेने का अर्थ व्यक्तिगत दायित्व ग्रहण करना है ), उसमें आत्मत्याग तथा उदारता का अभाव है ( दूसरों की सहायता से उसके निजी हितों को आंच आ सकती है, जो उसके लिए खतरनाक है )। इसके साथ ही चरित्र की दृष्टि से कायर व्यक्ति में हीन-भावना तथा चापलूसी ( अधिक बलवान के प्रति ), अनुरूपता ( औरों से अलग न दिखाई देने के लिए ), लालच ( भविष्य में अपनी भौतिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ), गद्दारी की तत्परता ( कम से कम उन परिस्थितियों में, जब उसकी सुरक्षा खतरे में हो ), अविश्वास की भावना तथा अतिसतर्कता, आदि लक्षण भी पाए जाते हैं।

जाहिर है, प्रत्येक व्यक्ति में, जिसके चरित्र पर कायरता हावी होती है, ये सब चर्चित लक्षण प्रकट नहीं होते। जीवन की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में मनुष्य के चरित्र की संरचना सारतः रूपांतरित ( convert ) हो सकती है और उसमें वे लक्षण तक शामिल हो सकते हैं, जो प्रतीयमान ( seeming ) रूप से हावी लक्षण के विपरीत होते हैं ( उदाहरण के लिए, कायर उद्धत भी हो सकता है )। परंतु कायर मनुष्य में समग्र रूप से चरित्र के ऐसे ही गुणों की ओर आम रूझान देखने को मिलता है।

चरित्र के नाना गुणों में से कुछ बुनियादी, अग्रणी गुणों के रूप में पेश आते हैं, जो उसकी अभिव्यक्तियों के विकास की पूर्ण समग्रता ( totality ) की आम दिशा निर्धारित करते हैं। उनके साथ-साथ द्वितीयक गुण भी विद्यमान होते हैं, जो कुछ सूरतों में मुख्य गुणों से निर्धारित होते हैं और दूसरी सूरतों में उनका मुख्य गुणों के साथ सामंजस्य नहीं होता। वास्तविक जीवन में अधिक अखंड तथा अधिक विरोधपूर्ण, दोनों तरह के चरित्र देखने को मिलते हैं। चरित्रों की अपार विविधता में अखंड चरित्रों के अस्तित्व की बदौलत कुछ निश्चित क़िस्में निर्धारित की जा सकती हैं, जिनमें कतिपय लक्षण एक समान होते हैं। चरित्र की अखंडता उसमें विरोधात्मकता को पूर्णतः वर्जित नहीं करती : सह्र्दयता की कभी-कभी सिद्धांतनिष्ठता से और विनोद की भावना की उत्तरदायित्व से टक्कर हो सकती है।

चारित्रिक गुणों को आस्थाओं, जीवन के प्रति दृष्टिकोण तथा व्यक्तित्व के रूझान ( trends ) की अन्य विशेषताओं के सदृश नहीं माना जा सकता। एक बहुत नेक स्वभाववाला और ख़ुशमिज़ाज मनुष्य बहुत सदाचारी तथा शिष्ट हो सकता है, जबकि वैसा ही दूसरा सदाचारी तथा ख़ुशमिज़ाज मनुष्य टुच्चा धंधेबाज़ हो सकता है, जो केवल अपनी ही सुख-समृद्धि की चिंता करता है और अपने लक्ष्यों की सिद्धि के लिए हर तरह के गंदे साधनों तक का उपयोग करने में नहीं चूकता।

परंतु चरित्र के कुछ लक्षण व्यक्तित्व के रूझान से निर्धारित होते हैं। अतः कुछ लक्षण निश्चित नैतिक सिद्धांतों तथा आस्थाओं से मेल खा सकते हैं, कभी-कभी वे अनिवार्य रूप से उनके साथ संलग्न होते हैं, कुछ मामलों में वे संबद्ध परिवेश में विद्यमान विचारों, नैतिकता के मापदंडों तथा सिद्धांतों के विपरीत हो सकते हैं। उदाहरण के रूप में ईमानदारी जैसा महत्त्वपूर्ण, प्रमुख गुण उनके साथ मेल खा भी सकता है और नहीं भी खा सकता है।

अक्सर हमें इस या उस मनुष्य की असाधारण ईमानदारी के क़िस्से सुनने को मिलते हैं। उदाहरण के लिए, किसी टैक्सी-ड्राइवर को अपनी गाड़ी की पिछली सीट पर एक बड़ा हैंडबैग पड़ा मिला, जिसमें बहुत बड़ी धनराशि थी। उसने मुसाफ़िर को ढूंढ निकाला, और धनराशि लौटा दी गई। ईमानदारी की ऐसी अभिव्यक्तियां लोगों के मन में आम तौर पर आदर की भावना पैदा करती हैं, परंतु वे असामान्य भी नहीं प्रतीत होतीं। फिर भी हमें ऐसे लोग मिल सकते हैं, जो ऐसी कार्रवाइयों से सचमुच चकित हो उठते हैं अथवा उनका मखौल तक उड़ा सकते हैं।



इस बार इतना ही।
 
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 7 जनवरी 2012

चरित्र की अवधारणा

हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों को समझने की कड़ी के रूप में स्वभाव और शिक्षा पर चर्चा की थी, इस बार से हम "चरित्र" पर चर्चा शुरू करेंगे और चरित्र की अवधारणा को समझने की कोशिश करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



चरित्र की अवधारणा
चरित्र की परिभाषा

चरित्र ( character ) शब्द उन अभिलाक्षणिक चिह्नों ( characteristic signs ) का द्योतक है, जिन्हें सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य ग्रहण करता है। जिस प्रकार मनुष्य की वैयक्तिकता ( individuality ) अपने को मानसिक प्रक्रियाओं ( अच्छी स्मृति, फलप्रद कल्पना, हाज़िर जवाबी, आदि ) की विशिष्टताओं और स्वभाव के लक्षणों में प्रकट करती है, उसी प्रकार वह मनुष्य के चरित्र के गुणों को प्रदर्शित करती है।

चरित्र की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है : चरित्र मनुष्य के स्थिर वैयक्तिक गुणों का कुल योग है, जो उसके कार्यकलाप तथा संसर्ग-संपर्क में उत्पन्न तथा उजागर होते हैं और उसके आचरण के अभिलाक्षणिक रूपों को निर्धारित करते हैं

मनुष्य का व्यक्तित्व केवल इसी बात से अभिलक्षित नहीं होता है कि वह क्या करता है, अपितु इस बात से भी अभिलक्षित होता है कि वह उसे किस तरह करता है। साझे हितों तथा आस्थाओं को अपना आधार बनाते हुए तथा जीवन में साझे ध्येयों की सिद्धी की कामना करते हुए लोग अपने सामाजिक आचरण-व्यवहार तथा कार्यकलाप में सर्वथा भिन्न-भिन्न, कभी-कभी तो एक-दूसरे के विपरीत वैयक्तिक गुण प्रदर्शित करते हैं।

एक जैसी कठिनाइयां झेलते हुए, एक जैसे दायित्व निभाते हुए, एक जैसी वस्तुएं पसंद या नापसंद करते हुए भी कुछ लोगों में नरमी और सुनम्यता होती है, तो कुछ कठोर और असहिष्णु होते हैं, कुछ प्रफुल्लचित्त होते हैं, तो कुछ उदास रहते हैं, कुछ में आत्मविश्वास होता है, तो कुछ कायर होते हैं, कुछ सब को साथ लेकर चल सकते हैं, तो कुछ ऐसा नहीं कर पाते। छात्रों को संबोधित एक ही अर्थ से युक्त व्याख्याएं कुछ अध्यापकों द्वारा नरमी, भद्रतापूर्वक और प्रीतिकर ढंग से, तो कुछ द्वारा कर्कश और शिष्टताहीन ढंग से की जाती हैं। ऐसे अंतर्निहित वैयक्तिक गुण उन लोगों में तो आम तौर पर और भी अधिक स्पष्ट रूप से पाये जाते हैं, जिनका जीवन के प्रति दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न होता है, जिनकी रुचियां, सांस्कृतिक स्तर तथा नैतिक सिद्धांत भिन्न-भिन्न होते हैं।

वैयक्तिक गुण, जिनसे मनुष्य का चरित्र बनता है, सर्वप्रथम तथा सर्वोपरि इच्छा ( उदाहरण के लिए, संकल्प अथवा अनिर्णय, भीरूता ) और अनुभूतियों ( उदाहरण के लिए, प्रफुल्लचित्तता अथवा विषाद ) और कुछ हद तक बुद्धि ( उदाहरण के लिए, चंचलता अथवा विचारशीलता ) से जुड़े होते हैं। परंतु चरित्र की अभिव्यक्तियां संजटिल ( complex ) प्रक्रियाएं हैं और सांकल्पिक ( volitional ), भावनात्मक अथवा बौद्धिक गुणों के अर्थ में उनका बहुधा वर्गीकरण नहीं किया जा सकता ( उदाहरण के लिए, संदेही स्वभाव, ह्र्दय की विशालता, उदारता, विद्वेष, आदि को इन तीन प्रवर्गों ( categories ) में से किसी के भी अंतर्गत नहीं रखा जा सकता )।

चरित्र, सामाजिक संबंध तथा सामाजिक समूह

व्यक्तिगत चरित्र का निर्माण विकास के भिन्न-भिन्न स्तरोंवाले भिन्न-भिन्न सामाजिक समूहों में ( परिवार में, मित्रमंडली में, अध्ययन-समूहों अथवा व्यवसायिक कार्य-समूहों में, किसी समाज-उदासीन संगठन, आदि में ) होता है। किसी व्यक्ति में, उदाहरण के लिए, किसी किशोर में खुलेपन, बेलागपन ( mindedness ), साहस तथा अडिगता के गुण, तो दूसरे मामले में घुन्नेपन, मिथ्यावादिता, कायरता, लीकपरस्ती और ढीलेपन के गुण विकसित हो सकते हैं। यह संदर्भ-समूह में मनुष्य की वैयक्तिकता तथा अंतर्वैयक्तिक संबंधों ( interpersonal relationship ) के स्तर पर निर्भर करता है। विकास के उच्च स्तरवाला सामाजिक-समूह, सर्वोत्तम मानव गुणों के विकास तथा सुदृढ़ीकरण के लिए सबसे अधिक अनुकूल परिस्थितियां पैदा करता हैं। यह प्रक्रिया व्यक्तित्व के समूह के साथ इष्टतम समेकन ( optimize integration ) तथा स्वयं समूह के आगे विकास को बढ़ावा देती है।

व्यक्ति के चरित्र को जानने पर यह पहले से कहा जा सकता है कि वह इन या उन परिस्थितियों में किस तरह से पेश आएगा। और इसके फलस्वरूप उसके व्यवहार का निदेशन किया जा सकता है। अतः अध्यापक को अपने छात्रों को सामाजिक कार्य सौंपते समय उनके ज्ञान तथा हुनर को ही नहीं, अपितु उनके चरित्र को भी ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरण के लिए, कोई छात्र अपनी धुन का पक्का और अध्यवसायी ( diligent ), परंतु साथ ही कुछ मंथर ( slow ) और आवश्यकता से अधिक सावधान होता है। दूसरा स्फूर्तिवान है, उसे साझा ध्येय बहुत प्रिय हैं, परंतु अपने से ज़रा भी भिन्न रायों के प्रति असहिष्णु ( intolerant ) होता है और इस कारण वह अकारण रूखा और अशिष्ट हो सकता है। छात्र के चरित्र के मूल्यवान गुणों को ध्यान में रखते हुए अध्यापक द्वारा उन्हें सुदृढ़ और सशक्त बनाने का तथा उनके नकारात्मक गुणों को निर्बल बनाने या कम से कम उनका प्रतिकार करने का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए वह उनमें निहित अन्य समाजोपयोगी गुणों का विकास कर सकता है।

प्रत्येक बालक-बालिका के चरित्र तथा स्वभाव के विषय में अध्यापक की जानकारी प्रत्येक पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिए जाने की पूर्वशर्त है। अध्यापन और शिक्षा के क्षेत्र में यह बात अत्यधिक महत्त्व रखती है।




इस बार इतना ही।
 
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय
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