शनिवार, 17 मार्च 2012

योग्यताएं तथा लोगों के भेद

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों की कड़ी के रूप में ‘योग्यता’ के अंतर्गत योग्यता की संरचना पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसे ही आगे बढ़ाते हुए योग्यताएं तथा लोगों का भेदविज्ञान को समझने की कोशिश करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



योग्यताएं तथा लोगों का भेदविज्ञान

व्यक्ति की सामान्य योग्यताएं अथवा सामान्य गुण पूर्णतः ठोस मानसिक परिघटनाएं ( mental phenomenon ) हैं, जिनका मनोविज्ञान प्रायोगिक अनुसंधान करता है। व्यक्ति के सामान्य गुणों में, जो विशिष्ट प्रकार की सक्रियता में योग्यताओं के रूप में अपने को प्रकट कर सकते हैं, वे वैयक्तिक मानसिक गुण शामिल किए जाते हैं, जो लोगों के तीन भेदों से एक की लाक्षणिकता हैं। इन तीन भेदों को "कलात्मक",‘"चिंतक" तथा "औसत" नाम दिए गये थे। यह वर्गीकरण मनुष्य के उच्च तंत्रिका-तंत्र का नियमन करने वाली दो संकेत प्रणालियों के सिद्धांत से संबंधित हैं : पहली संकेत-प्रणाली बिंबों और भावनाओं को जन्म देती है, दूसरी प्रणाली शब्द ( संकेतों के संकेत ) के रूप में इन बिंबों और भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है।

मनुष्य की मानसिक सक्रियता में पहली संकेत-प्रणाली के संकेतों का अपेक्षाकृत प्राधान्य कलात्मक मनुष्य की, दूसरी संकेत-प्रणाली का प्राधान्य चिंतक मनुष्य की तथा उनकी समतुल्यता औसत मनुष्य की अभिलाक्षणिकता है।

कलात्मक व्यक्ति की विशेषताएं हैं, परिवेश के साथ प्रत्यक्ष संपर्क के फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाले ज्वलंत बिंब-विधान, मन पर सजीव छापें तथा तुरंत भावनात्मक प्रतिक्रिया। चिंतक व्यक्ति की विशेषताएं हैं, अमूर्त चिंतन का प्राधान्य, तार्किक निर्मिति, सैद्धांतीकरण। कलात्मक व्यक्तित्व का अर्थ कदापि यह नहीं है कि संबद्ध मनुष्य का कलाकार बनना नियतिनिर्दिष्ट है। इस क़िस्म के व्यक्ति के लिए दूसरों की तुलना में ऐसे कार्यकलाप में पारंगत बनना सुगम है, जो प्रखर कल्पना-शक्ति, घटनाओं के प्रति अति संवेदनशील तथा भावनात्मक दृष्टिकोण की अपेक्षा करता है। यह कोई संयोग की बात नहीं है कि कलात्मक व्यवसायों में जुटे लोगों ( चित्रकारों, मूर्तिकारों, सांगीतकारों, अभिनेताओं, आदि ) में इस क़िस्म के न्यूनाधिक रूप से उभरे हुए गुण ही होते हैं। चिंतक मनुष्य के लिए लाक्षणिक गुण ऐसे कार्यकलाप में शामिल होने के वास्ते अनुकूल परिस्थितियां जुटाते हैं, जिनमें अमूर्त प्रत्ययों, गणितीय निर्मितियों, आदि का उपयोग किया जाता है। यह समझना सुगम है कि ये गुण नाना विशिष्ट क्षेत्रों ( गणित, दर्शन, भौतिकी, भाषा विज्ञान, आदि ) में सफलता के पूर्वाधार हैं।

इस बात पर ज़ोर देना आवश्यक है कि मनुष्य के कलात्मक भेद से जुड़े होने का अर्थ कदापि बौद्धिक कार्यकलाप में दुर्बलता, विवेक-बुद्धि में त्रुटी नहीं है। कहने का तात्पर्य केवल यह है कि चिंतनपरक अवयवों पर मन के बिंबात्मक अवयवों का सापेक्ष प्राधान्य है।

सामान्यतया, मनुष्य में दूसरी संकेत-प्रणाली का पहली संकेत-प्रणाली पर प्राधान्य रहता है और इस प्राधान्य का स्वरूप निरपेक्ष होता है, क्योंकि भाषा तथा चिंतन मनुष्य की श्रम-सक्रियता में निश्चित भूमिका अदा करते हैं तथा परिवेश के विषय में उसके विचारों की प्रक्रिया शब्दों में व्यक्त उसके चिंतन द्वारा व्यवहित होती है। फलस्वरूप, मनुष्य में पहली संकेत-प्रणाली का निरपेक्ष प्राधान्य हमें केवल उन अनियंत्रित तथा बेतरतीब बिंबों से युक्त अव्यवस्थित स्वप्नों में मिलता है, जो किसी भी प्रकार के विवेकसम्मत नियंत्रण के अंतर्गत नहीं होते।

दो संकेत प्रणालियों में से एक के सापेक्ष प्राधान्य का अर्थ क्या है? दूसरी संकेत-प्रणाली पर पहली संकेत-प्रणाली के सापेक्ष प्राधान्य ( कलात्मक मनुष्य ), व्यक्तित्व के लिए संबद्ध भेद के लिए लाक्षणिक भावनाओं तथा बिंबों के अर्थ में विश्व के बोध की संरचनात्मक विशिष्टता का द्योतक है। इसके विपरीत चिंतक मनुष्य, यानि पहली संकेत-प्रणाली पर दूसरी संकेत-प्रणाली का प्राधान्य विश्व के प्रति सैद्धांतिक तथा सार-ग्रहणकारी दृष्टिकोण की संरचनात्मक विशिष्टता का द्योतक है, जो इस प्रकार के मनुष्यों को बाक़ी सबसे विभेदित करती है। किसी एक संकेत-प्रणाली का दूसरी संकेत-प्रणाली पर सापेक्ष प्राधान्य उसके निरपेक्ष प्राधान्य के सदृश नहीं होता और, उदाहरण के लिए, ‘कलात्मक’ श्रेणी में आनेवाले लोगों की बुद्धि दो अन्य श्रेणियों के प्रतिनिधियों से कम विकसित नहीं होती, हालांकि उनकी मानसिक योग्यताओं के कतिपय विशिष्ट गुण होते हैं।

संक्षेप में, किसी संबद्ध कार्यकलाप के लिए व्यक्ति की तत्परता के रूप में प्रत्येक ठोस योग्यता की संरचना की लाक्षणिकता अत्यधिक संजटिल होती है, उसमें गुणों का पूरा समुच्चय होता है, जिसमें प्रमुख तथा आनुषंगिक ( auxillary ) गुण, सामान्य तथा विशिष्ट गुण आ जाते हैं।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

2 टिप्पणियां:

रविकर ने कहा…

बढ़िया प्रस्तुति ||

बधाई ||

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

व्यक्ति की मौलिक क्षमताओं की समय रहते पहचान हो जाने से उसके रचनात्मक पक्ष को स्वाभाविक खुराक देकर विकसित होने में सहयोग किया जा सकता है। इस आलेख का व्यावहारिक उपयोग शालाओं से प्रारम्भ किया जाना चाहिये।

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