शनिवार, 30 जून 2012

मानसिकताओं में परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया है

हे मानवश्रेष्ठों,

कुछ समय पहले एक मानवश्रेष्ठ से उनकी कुछ समस्याओं पर एक संवाद स्थापित हुआ था। कुछ बिंदुओं पर अन्य मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण करने के उद्देश्य से, इस बार उसी संवाद से कुछ सामान्य अंश यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं। यह बताना शायद ठीक रहे, कि संवाद के व्यक्तिगत संदर्भों को हटा कर यहां सार्वजनिक करने के लिए उनकी पूर्वानुमति प्राप्त कर ली ही गई है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



( संवाद में उन मानवश्रेष्ठ की बातों को एकाध जगह अलग रंग में सिर्फ़ संक्षिप्त रूप में दिया जा रहा है, ताकि बात का सिरा थोड़ा पकड़ में आ सके। बाकी जगह सिर्फ़ समय  के कथनों के अंश है। कुछ जगह संपादन भी किया गया है अतः लय टूट सकती है। )

मैं भी एक हिंदी ब्‍लॉगर हूं और नेट पर मनोविज्ञान से संबंधित सामग्री सर्च करते हुए आपके ब्‍लॉग तक पहुंचा.....मैं स्‍वयं भी बड़ी भयंकर मानसिक समस्‍याओं से जूझ रहा हूं.....क्‍या आप मेरी कुछ मदद कर सकते हैं....

यह कहा जा सकता है, कि आप मानसिक समस्याओं से नहीं जूझ रहे हैं। मतलब यह है कि आप इसे गलत ही मानसिक समस्याओं की संज्ञा दे रहे हैं। आपकी अभी तक की सक्रियता और चिंतन से प्राप्त समझ के कारण आपके मन में परंपरा से प्राप्त कई चीज़ों के प्रति कई अंतर्विरोध पैदा हो गये हो सकते हैं। और इसी वज़ह से हो सकता है ये आपकी मनुष्य को, विश्व को, उनके सापेक्ष अपने आप को और अधिक तथा बेहतरी से समझने की पैदा हो गई भूख और जिज्ञासा से संबंधित हो।

इसमें शायद हम एक-दूसरे की कुछ मदद कर सकते हैं, जरूर कर सकते हैं और करनी ही चाहिए। आखिर आपसदारी और सहकार ही नई राह निकालने की संभावनाएं रखते हैं।

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आप कहीं से भी, कैसे भी संवाद शुरू करिए। लंबे मेल भी लिख सकते हैं। कई बार तो अपनी गुत्थियों को लिखते समय ही, उनसे तरतीबी से जूझने से ही, उन्हें पेश करने की जद्दोज़िहद में ही हम ऐसा महसूस कर सकते हैं कि कुछ गुत्थियां अपने आप सुलझ रही हैं, उन्हें देखने की नई दृष्टि मिल रही है।

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साधारण हो जाना ही, सबसे असाधारण घटना होती है और हमें हमेशा इसका मुरीद तथा इस हेतु प्रवृत्त रहना चाहिए।

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मानसिकताओं में परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया है और व्यवहार में बदलाव और भी धीमी प्रक्रिया। और यह भी कि, यह हमेशा ही सही भी नहीं होता, कभी-कभी कोई अचानक सी चिलकन भी हमारी सोच प्रक्रिया और व्यवहार को अच्छा ख़ासा सा झटका दे जाती है।

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आप व्यवसायिक विशेषज्ञों से राय लेते रहने में कोई कोताही ना बरते, जब भी मौका मिलता है मिलते रहने में कोई हर्ज़ नहीं। हां, यह बात जरूर कहना चाहेंगे कि इस हेतु किसी भी तरह की  गोली-दवाइयों से बचें। इनकी व्यर्थता आप जानते ही हैं, मनोविशेषज्ञ आधारभूत रूप से मौखिक काउनस्लिंग के लिये होते हैं, परंतु अधिकतर ख़ुद ही मानसिक परिपक्वता की पहुंच से दूर होते हैं तथा ना उनके पास और नाही उनके मरीज़ों के पास इतना समय होता है कि वे लंबी मनोवैज्ञानिक परामर्श प्रक्रियाओं में इसे जाया कर सकें। साथ ही अक्सर मरीज भी अपनी मानसिक अवस्थाओं की वास्तविकताओं को नंगा करने में परहेज बरतते हैं। इन सब परिस्थितियों के चलते गोली-दवाइयों से काम चलाते रहना उनका व्यवसायिक हथकंड़ा हो जाता है। उद्देश्य साफ़ है, मानसिक समस्या है, मतलब दिमाग चलता है, ज़्यादा सोचता है, उसे ही सुन्न कर दिया जाए। अधिकतर समय मस्तिष्क सुन्न रहेगा, इस तरह उसकी प्रक्रियाएं शांत या धीमी रहेंगी और फलस्वरूप व्यक्ति अपने आप को ठीक सा महसूस करेगा और अंततः इन ड्र्ग्स का आदी हो जाएगा। व्यवसाय फलीभूत होता रहेगा।

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जब सवाल एक दम तय और सुनिश्चित नहीं होते तो उनके जवाबों की प्रक्रिया का भी अनिश्चित होना लाजमी है। हमें धेर्य बनाए रखना होगा। ज़िंदगी के इतने लंबे अनुकूलन की समस्याओं के बाद तुरत निपटारे की मांग कभी जायज़ नहीं होती और संभव भी। हमारी सचेत सक्रियता ही राह निकालेगी।

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ब्‍लॉग को मेरे व्‍यक्तित्‍व में झांकने का कोई बहुत बड़ा जरिया ना समझें....

सही कहा आपने, कि यह बहुत बड़ा जरिया नहीं है। कितु यह भी हमारी सक्रियता का हिस्सा है, और यहां उद्धृत्त विचार और समझ हमारे इसी मस्तिष्क से निसृत होते हैं। अतएव यह हमारे कुल का परावर्तन भले ही ना हो, परंतु हमारी समझ के एक कोने का परावर्तन तो है ही। इसलिए यह हमारा ही हिस्सा होता है। अतएव आप इसमें अभिव्यक्त हिस्से को अपने उस हिस्से के बरअक्स रखकर देखें जिसे आप अपनी समस्या समझते हैं। प्राथमिकताएं तय करने में मदद मिलेगी।

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हमारी ज़िंदगी में यह बहुत ही बड़ा अंतर्विरोध होता है। हमारे पास आदर्शों की अलग फहरिस्त होती है, और व्यवहारिकता की अलग। हम इनके अलग-अलग कोने बना लेते हैं, और इनके बीच अंतर्संबंध ( co-relation ) विकसित होने ही नहीं देते। और यही हमारे व्यवहार के अंतर्विरोधों को जन्म देती हैं। जीवन की ठोस परिस्थितियों के बीच की व्यवहारिकता के मानदंड हमारी व्यक्तिगतता को सुनिश्चित करते हैं, और अव्यवहारिक आदर्शों का आभामंड़ल हमारे सार्वजनिक व्यवहार के दिखावटी आलोक को तय करता है।

जो इन चीज़ों को समझने लगते हैं, अपने व्यवहार के इन अंतर्द्वंदों को देखने की क्षमताओं में आ जाते हैं, उनकी चेतना की ईमानदारी इस कारण एक क्षोभ पैदा करने लगती है।

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मैं कुछ समय से पाजिटिव थिंकिंग पर एक पुस्तक पढ़ रहा हूं.....

यह हमने नहीं पढ़ी है इसलिए इस पर कुछ खास नहीं कह सकते। पर यह हम जरूर जानते हैं कि व्यवसायिकता और व्यक्तिवादिता के इस माहौल में जो ऊपर उल्लिखित अंतर्द्वंद हमारी ज़िंदगी में पैदा होते हैं, इस तरह की पुस्तकें उनका तथ्यात्मक चित्रण तो भली-भांति करती हैं ( और इसीलिए हमें यह सत्य के आलोक से भरी नज़र आती हैं और प्राथमिकतः बड़ी ही प्रभावित करती हैं ) पर परिस्थितियों के वस्तुपरक विश्लेषण की जगह यह आत्मपरक विश्लेषण की राह पकड़ती हैं और व्यक्ति को अंतर्निरीक्षण की आत्मगत राह सुझाती है और सफ़लताओं के अपवादों के बरअक्स हमें काल्पनिक प्रभामड़लों में उलझाती हैं और हमारे व्यक्तित्व को सच्चाईयों को स्वीकारने और परिस्थितियों को बदलने की राह दिखाने की बजाए, सिर्फ़ उनसे पेश आने का तरीका सीखाना चाह कर हमारे व्यक्तित्व के दोगलेपन को और उभारती हैं।

मानसिकताएं परिस्थितियों और व्यवहारिक सक्रियता की उपज होती हैं, जाहिर है परिस्थितियों और व्यवहारिक सक्रियता में बदलाव के जरिए ही उनमें ठोस परिवर्तन देखा जा सकता है।

सकारात्मक दृष्टिकोण रखने का मतलब सिर्फ़ बेहतर परिस्थितियों का चुनाव और विपरीत परिस्थितियों से भी सकारात्मक पहलुओं का चुनाव ही नहीं होता। वरन निरंतर अध्ययन और व्यवहारिक चिंतन के जरिए अपने व्यक्तित्व और समझ का परिष्कार करते रहना भी है ताकि हम परिस्थितियों का सही विश्लेषण करना सीख सकें, सही लक्ष्यों का चुनाव कर सकें, बेहतर योजनाएं बना सकें जिससे हम अपने जीवन में इच्छित परिणाम प्राप्त करने की संभावनाएं बढ़ाते रह सकें।

सिर्फ़ परिस्थितियों के गुलाम और उन पर निर्भर रहने के बजाए, अनुकूल परिवेश और परिस्थितियों का निर्माण करना सीखना भी सकारात्मक दृष्टिकोण का महती लक्ष्य होता है।



इस बार इतना ही। अगली बार इसी संवाद के कुछ और अंश प्रस्तुत किए जाएंगे।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 16 जून 2012

और तब ईश्वर का क्या हुआ? - 4


और तब ईश्वर का क्या हुआ?
स्टीवन वाइनबर्ग



( 1933 में पैदा हुए अमेरिका के विख्यात भौतिक विज्ञानी स्टीवन वाइनबर्ग, अपनी अकादमिक वैज्ञानिक गतिविधियों के अलावा, विज्ञान के लोकप्रिय और तार्किक प्रवक्ता के रूप में पहचाने जाते हैं। उन्होंने इसी संदर्भ में काफ़ी ठोस लेखन कार्य किया है। कई सम्मान और पुरस्कारों के अलावा उन्हें भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है।

प्रस्तुत आलेख में वाइनबर्ग ईश्वर और धर्म पर जारी बहसों में एक वस्तुगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बखूबी उभारते हैं, और अपनी रोचक शैली में विज्ञान के अपने तर्कों को आगे बढ़ाते हैं। इस आलेख में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण प्रसंगों का जिक्र करते हुए, अवैज्ञानिक तर्कों और साथ ही छद्मवैज्ञानिकता को भी वस्तुगत रूप से परखने का कार्य किया है तथा कई चलताऊ वैज्ञानिक नज़रियों पर भी दृष्टिपात किया है। कुलमिलाकर यह महत्त्वपूर्ण आलेख, इस बहस में तार्किक दिलचस्पी रखने वाले व्यक्तियों के लिए एक जरूरी दस्तावेज़ है, जिससे गुजरना उनकी चेतना को नये आयाम प्रदान करने का स्पष्ट सामर्थ्य रखता है। )



अंतिम भाग
( और तब ईश्वर का क्या हुआ : पहला भागदूसरा भागतीसरा भाग )

कट्टरपंथियों और धार्मिक रूढ़िवादियों की अपेक्षा उदारपंथी, वैज्ञानिकों से अपने रुख़ में एक मायने में ज़्यादा दूर हैं। धार्मिक रूढ़ीवादी, वैज्ञानिकों की तरह, कम से कम जिन चीज़ों पर विश्वास करते हैं, उसके बारे में बतायेंगे कि ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि वही सत्य है, न कि इसलिए क्योंकि वह अच्छा है या ख़ुश करता है। लेकिन, बहुत सारे धार्मिक उदारपंथी यह सोचते हैं कि अलग-अलग लोग अलग-अलग परस्पर सम्बद्ध चीज़ों पर विश्वास कर सकते हैं, और उनमें से कोई भी गलत नहीं होता जब तक कि उनका विश्वास उनके काम आता है। एक पुनर्जन्म में विश्वास करता है तो दूसरा स्वर्ग और नरक में, तीसरा यह मान सकता है कि मृत्यु के बाद आत्मा समाप्त हो जाती है। लेकिन कोई भी तब तक गलत नहीं कहा जा सकता जब तक कि उन्हें इन विश्वासों में आध्यात्मिक संतोष की तेज़ धार मिलती है। सुसान सॉनटैग के मुहावरे में कहें- यह मुझे बर्ट्रेड रसेल के उस अनुभव की कहानी की याद दिलाता है, जब् १९१८ में युद्ध का विरोध करने पर उन्हें जेल में डाल दिया गया था। जेल के नित्यकर्म के बाद जेलर ने रसेल से उनका धर्म पूछा। रसेल ने जवाब दिया कि वे अज्ञेयवादी हैं। कुछ क्षण के लिए जेलर भौंचक्का रह गया, फिर उसका चहरा खिला और वह बोल पड़ा- मेरा अनुमान है यह एकदम ठीक है। हम सभी एक ही ईश्वर की पूजा करते हैं। क्या ऐसा नहीं है?

वुल्फगैंग पॉली से एक बार पूछा गया कि क्या वे सोचते हैं कि वह अमुक अत्यंत कुविचारित शोध-पत्र गलत था। उन्होंने जवाब दिया कि ऐसा वर्णन उसके लिए काफ़ी नर्म होगा। वह शोध-पत्र तो गलत भी नहीं था। मैं सोचता हूं कि रूढ़ीवादी जिस पर विश्वास करते हैं वह गलत है। लेकिन कम से कम, विश्वास करने का मतलब क्या है, वे यह तो नहीं भूले। धार्मिक उदारवादी तो मुझे गलत भी नहीं लगते।

हम प्रायः सुनते हैं कि धर्म के संबंध में धर्मतत्व शास्त्र उतना महत्वपूर्ण नहीं है- महत्वपूर्ण है कि यह हमें जीवन में कैसे मदद करता है। घोर आश्चर्य। ईश्वर का अस्तित्व और उसकी प्रकृति, दया और पाप तथा स्वर्ग और नरक महत्वपूर्ण नहीं है। मेरा अंदाज़ है कि लोग अपने माने हुए धर्म के धर्मतत्वशास्त्र को इसलिए महत्वपूर्ण नहीं मानते क्योंकि वे ख़ुद यह स्वीकार नहीं कर पाते कि वे किसी में विश्वास नहीं करते। लेकिन पूरे इतिहास के दौरान और आज भी दुनिया के कई हिस्सों में लोगों ने एक् धर्मतत्वशास्त्र या दूसरे में विश्वास किया है और उनके लिए यह बहुत महत्वपूर्ण रहा है।

धार्मिक उदारपंथ के बौद्धिक निस्तेज से कोई निराश हो सकता है, लेकिन यह रूढ़ीवादी कट्टर धर्म है जिसने क्षति पहुंचाई है। निस्संदेह इसके महान नैतिक और कलात्मक योगदान भी हैं। लेकिन मैं यहां यह तर्क नहीं करूंगा कि एक तरफ़ धर्म के इन अवदानों और दूसरी तरफ़ धर्मयुद्ध और ज़िहाद एवं धर्म परीक्षण और सामूहिक हत्या की लंबी निर्मम कहानी के बीच हमें किस प्रकार संतुलन बैठाना चाहिए। लेकिन इस बात पर मैं अवश्य जोर देना चाहूंगा कि इस तरह से संतुलन बैठाते हुए यह मान लेना सुरक्षित नहीं है कि धार्मिक अत्याचार और पवित्र धर्म युद्ध सच्चे धर्म के विकृत रूप हैं। मेरे विचार से यह धर्म के प्रति उस मनोभाव का दुष्परिणाम है, जिसमें गहरा आदर और ठोस निष्ठुरता का सम्मिश्रण है। दुनिया के महान धर्मों में से कई यह सिखाते हैं कि ईश्वर एक विशेष धार्मिक विश्वास रखने और पूजा के एक खास रूप को अपनाने का आदेश देता है। इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कुछ लोग जो इन शिक्षाओं को गंभीरता से लेते हैं वे किन्हीं धर्मनिरपेक्ष मूल्यों जैसे सहिष्णुता, करुणा या तार्किकता की तुलना में इन दैनिक आदेशों को निष्ठापूर्वक सबसे ज़्यादा महत्व दें।

एशिया और अफ्रीका में धार्मिक उन्माद की काली ताकतें अपनी जड़ मजबूत करती जा रही है और पश्चिम के धर्मनिरपेक्ष राज्यों में भी तार्किकता और सहिष्णुता सुरक्षित नहीं है। इतिहासकार ह्यू ट्रेवर-रोपर ने कहा कि सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में यह विज्ञान के उत्साह का फैलाव ही था जिसने अंततोगत्वा यूरोप में डायनों का जलाना समाप्त कर दिया। हमें एक स्वस्थ दुनिया के संरक्षण के लिए फिर से विज्ञान के प्रभाव पर भरोसा करना होगा। वैज्ञानिक ज्ञान की निश्चितता नहीं बल्कि अनिश्चितता ही उसे इस भूमिका के लिए अनुकूल बनाती है। वैज्ञानिकों द्वारा पदार्थ के बारे में अपनी समझ, जिसका प्रत्यक्ष अध्ययन प्रयोगशाला में प्रयोगों द्वारा हो सकता है, बार-बार बदलते हुए देखने के बावज़ूद, धार्मिक परम्परा या पवित्र ग्रंथों द्वारा पदार्थ के उस ज्ञान, जो मानवीय अनुभव से परे है, के दावे को गंभीरता से कौन लेगा?

निश्चित रूप से, दुनिया की तकलीफ़ों को बढ़ाने में विज्ञान का भी अपना योगदान है। लेकिन सामान्य तौर पर विज्ञान एक दूसरे को मारने का साधन भर उपलब्ध कराता है, उद्देश्य नहीं। यहां विज्ञान के प्राधिकार का उपयोग आतंक को जायज ठहराने के लिए होता रहा है जैसे कि नाज़ी वंशवाद या सुजनन-विज्ञान ( ऎउगेन्-इच्स् ), वहां विज्ञान को भ्रष्ट किया गया है। कार्ल पॉपर ने कहा है-  यह एकदम स्पष्ट है कि तार्किकता नहीं बल्कि अतार्किकता, धर्मयुद्धों के पहले और बाद में, राष्ट्रीय शत्रुता और आक्रमण के लिए जिम्मेदार रही है। लेकिन कोई युद्ध वैज्ञानिक के लिए वैज्ञानिकों की पहल पर लड़ा गया हो, यह् मुझे नहीं मालूम।

दुर्भाग्यवश, मुझे नहीं लगता कि युक्तिसंगत दलील पेश करने से तार्किकता की वैज्ञानिक पद्धति को स्थापित करना संभव है। डेविड ह्यूम ने बहुत पहले बताया था कि सफल विज्ञान के पुराने अनुभवों के समर्थन में हम बहस की उस तर्क पद्धति की प्रामाणिकता मानकर चलते हैं जिसे हम स्थापित करना चाहते हैं। इस प्रकार सभी तर्कपूर्ण बहसों को केवल तर्कपद्धति को अस्वीकार कर मात दिया जा सकता है। इसलिए. अगर हमें प्रकृति के नियमों में आध्यात्मिक सुख नहीं मिलता, तो भी हम इस प्रश्न से नहीं बच सकते हैं कि इसकी खोज अन्य जगहों पर एक या दूसरे प्रकार के आध्यात्मिक प्राधिकार में या धार्मिक विश्वास को स्वतंत्र रूप से बदल कर हम क्यों नहीं कर सकते?

विश्वास करना है या नहीं करना है, इसका निर्णय पूरी तरह हमारे हाथ में नहीं है। अगर मैं सोचूं कि यदि मैं चीन के बादशाह का उत्तराधिकारी होता तो मैं ज़्यादा सुखी और सभ्य होता, लेकिन मैं अपनी इच्छाशक्ति पर चाहे जितना जोर डालूं मुझे यह विश्वास नहीं हो सकता, ठीक उसी तरह जैसे मेरे दिल की धड़कन को रोकने की चाहत ऐसा नहीं कर सकती। तब भी, ऐसा लगता है कि बहुत सारे लोग अपने विश्वास को थोड़ा नियंत्रित करते हैं और उन्हीं विश्वासों को चुनते हैं जो उन्हें लगता है कि उन्हें अच्छा और खुश रखेगा।

यह नियंत्रण कैसे कार्यान्वित होता है, इसका मेरी जानकारी में सबसे दिलचस्प वर्णन जार्ज ऑरवेल के उपन्यास १९८४ में मिलता है। नायक विन्सटन स्मिथ अपनी डायरी में लिखता है- दो धन दो चार होता है, यह कहने की छूट की मुक्ति है। धर्म परीक्षक ओब्रायन इसे एक चुनौति के रूप में लेता है और उसकी सोच को मजबूरन बदलने के लिए उपाय करता है। उत्पीड़न में स्मिथ यह कहने के लिए पूरी तरह तैयार है कि दो धन दो पांच होता है, लेकिन ओब्रायन केवल यह नहीं चाहते थे। अंत में जब दर्द बर्दाश्त के बाहर हो जाता है, तो उससे बचने के लिए स्मिथ अपने को आप को एक क्षण के लिए यह विश्वास दिलाता है कि दो धन दो पांच ही होते हैं। ओब्रायन उस क्षण संतुष्ट हो जाते हैं और उत्पीड़न रोक दिया जाता है। ठीक इसी प्रकार अपने और अपने चहेतों की संभावित मृत्यु से सामना होने का दर्द् हमें अपने विश्वासों में फेरबदल के लिए मजबूर करता है, ताकि हमारा दर्द कम हो जाए। पर सवाल उठता है कि अगर हम अपने विश्वासों में इस तरह से समझौता करने में सक्षम हैं, तो ऐसा क्यों ना किया जाए?

मुझे इसके खिलाफ़ कोई वैज्ञानिक या तार्किक कारण नहीं दिखलाई पड़ता कि हम अपने विश्वासों में समझौता करके- नैतिकता और मर्यादा के लिए, कुछ सांत्वना हासिल क्यों ना करें! हम उसका क्या करें जिसने खुद को यह विश्वास दिला दिया हो कि उसे तो एक लॉटरी मिलनी ही है क्योंकि उसे रुपयों की बहुत-बहुत जरूरत है? कुछ लोग भले उसके क्षणिक विशाल ख्वाब से ईर्ष्या रखते हों पर ज़्यादातर लोग यह सोचेंगे कि वह एक वयस्क और तार्किक मनुष्य की सही भूमिका में, चीज़ों को वास्तविकता की कसौटी पर देख पाने में, असफल है। जिस प्रकार उम्र के साथ बढ़ते हुए, हम सभी को यह सीखना पड़ता है कि लॉटरी जैसी साधारण चीज़ों के बारे में ख्वाबपूर्ण सोच के लोभ से कैसे बचा जाए, ठीक उसी प्रकार हमारी प्रजाति को उम्र के साथ बढ़ते हुए यह सीखना पड़ेगा कि हम किसी प्रकार के विराट ब्रह्मांड़ीय नाटक में किसी हीरो की भूमिका में नहीं हैं।

फिर भी, मैं एक मिनट के लिए भी यह नहीं सोचता कि मृत्यु का सामना करने के लिए धर्म जो सांत्वना देता है, विज्ञान वह उपलब्ध कराएगा। इस अस्तित्ववादी चुनौति का मेरी जानकारी में सबसे बढ़िया विवरण ७०० ईस्वी के आसपास पूज्य बेडे द्वारा रचित पुस्तक् द इक्लेजियास्टिक हिस्ट्री ऑफ द इंग्लिश ( अंग्रेजों का गिरजा-संबंधी इतिहास ) में है। बेडे ने लिखा है कि नॉर्थम्ब्रीया के राजा एडविन ने ६२७ ईस्वी में यह तय करने के लिए कि उनके राज्य में कौनसा धर्म स्वीकारा जाए, एक परिषद की बैठक बुलाई, जिसमें राजा के प्रमुख दरबारियों में से एक ने निम्नलिखित भाषण दिया:
    
   " हे महाराज! जब हम पृथ्वी पर मनुष्य के आज के जीवन की तुलना उस समय से करते हैं जिसकी कोई जानकारी हमारे पास नहीं है, तो हमें लगता है जैसे एक अकेली मैना, शाही-दावत वाले हॉल में द्रुत उड़ान भर रही हो, जहां आप किसी जाड़े की रात में अपने नवाबों और दरबारियों के साथ दावत में बैठे हों। ठीक बीच में, हॉल में आनन्दमयी गर्मी प्रदान करने के लिए आग जल रही हो और बाहर जाड़े की तूफ़ानी बारिश या बर्फ का प्रकोप हो। मैना हॉल के एक दरवाज़े से होते हुए दूसरे दरवाज़े तक द्रुत उड़ान भर रही है। जब तक वह अंदर है, बर्फीले तूफ़ान से सुरक्षित है। लेकिन कुछ क्षणों के आराम के बाद, वह उसी कड़ाके की ठंड़ वाली दुनिया में, जहां से वह आई थी, हमारी दृष्टि से ओझल हो जाती है। इसी तरह, आदमी थोड़े समय के लिए पृथ्वी पर दिखता है। इस जीवन के पहले क्या हुआ और बाद में क्या होगा, इसके बारे में हम कुछ नहीं जानते।"

बेडे और एडविन की तरह इस विश्वास से बच पाना मुश्किल है कि उस दावत वाले हॉल के बाहर हम लोगों के लिए कुछ अवश्य होगा। इस ख्याल को तिलांजलि देने का साहस ही उस धार्मिक सांत्वना का छोटा सा विकल्प है और यह भी संतुष्टि से विहीन नहीं है।


स्टीवन वाइनबर्ग का यह संपूर्ण आलेख एक साथ यहां से डाउनलोड़ किया जा सकता है:
और तब ईश्वर का क्या हुआ? - स्टीवन वाइनबर्ग
aur tab ishwar ka kya hua - steevan wienberg, free downloadable pdf file, size-167 kb


इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 9 जून 2012

और तब ईश्वर का क्या हुआ? - 3

और तब ईश्वर का क्या हुआ?
स्टीवन वाइनबर्ग
     


( 1933 में पैदा हुए अमेरिका के विख्यात भौतिक विज्ञानी स्टीवन वाइनबर्ग, अपनी अकादमिक वैज्ञानिक गतिविधियों के अलावा, विज्ञान के लोकप्रिय और तार्किक प्रवक्ता के रूप में पहचाने जाते हैं। उन्होंने इसी संदर्भ में काफ़ी ठोस लेखन कार्य किया है। कई सम्मान और पुरस्कारों के अलावा उन्हें भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है।

प्रस्तुत आलेख में वाइनबर्ग ईश्वर और धर्म पर जारी बहसों में एक वस्तुगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बखूबी उभारते हैं, और अपनी रोचक शैली में विज्ञान के अपने तर्कों को आगे बढ़ाते हैं। इस आलेख में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण प्रसंगों का जिक्र करते हुए, अवैज्ञानिक तर्कों और साथ ही छद्मवैज्ञानिकता को भी वस्तुगत रूप से परखने का कार्य किया है तथा कई चलताऊ वैज्ञानिक नज़रियों पर भी दृष्टिपात किया है। कुलमिलाकर यह महत्त्वपूर्ण आलेख, इस बहस में तार्किक दिलचस्पी रखने वाले व्यक्तियों के लिए एक जरूरी दस्तावेज़ है, जिससे गुजरना उनकी चेतना को नये आयाम प्रदान करने का स्पष्ट सामर्थ्य रखता है। )



तीसरा भाग
( और तब ईश्वर का क्या हुआ : पहला भागदूसरा भाग )

कुछ वैज्ञानिक इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि कुछ मौलिक स्थिरांकों का मान विश्व में बुद्धियुक्त जीवन की मौजूदगी के अनुकूल है। अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इस अवलोकन के पीछे कुछ ठोस आधार हैं, लेकिन अगर ऐसा हो तो भी यह आवश्यक रूप से किसी दैवीय उद्देश्य के क्रियान्वयन की ओर इंगित नहीं करता। बहुत सारे आधुनिक ब्रह्मांड़-विज्ञान के सिद्धांतों में प्रकृति के ये तथाकथित स्थिरांक ( जैसे कि प्राथमिक कणों की मात्रा ) स्थान और समय के साथ, और यहां तक कि विश्व के तरंग फलन के पद से दूसरे पद तक में बदल जाते हैं। अगर यह सही भी है, तो जैसा कि हम देख चुके हैं, एक वैज्ञानिक विश्व के उसी हिस्से में रहकर प्रकृति के नियमों का अध्ययन कर सकता है जहां स्थिरांकों को बुद्धियुक्त जीवन के क्रमिक विकास के अनुकूल मान प्राप्त होते हैं।

सादृश्य के लिए हम एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि एक ग्रह है जिसका नाम है प्राइम पृथ्वी। यह हमारी पृथ्वी से हर तरह से अभिन्न है, सिर्फ़ इसके अलावा कि उस ग्रह के मनुष्यों ने बिना खगोल विज्ञान को जाने भौतिकी के विज्ञान को विकसित किया है जैसे कि हमारी पृथ्वी पर है ( उदाहरण के लिए, कोई यह कल्पना कर सकता है कि प्राइम पृथ्वी की सतह शाश्वत रूप से बादलों से घिरी रहती है )। प्राइम पृथ्वी के छात्र भौतिक विज्ञान की की पाठ्‍यपुस्तक के पीछे भौतिक स्थिरांकों की सारणी अंकित पाएंगे। इस सारणी में प्रकाश की गति, इलेक्ट्रॉन की मात्रा, आदि-आदि लिखी होंगी। और एक अन्य मौलिक स्थिरांक लिखा होगा जिसका मान १.९९ कैलोरी उर्जा प्रति वर्ग सेंटीमीटर होगा जो प्राइम पृथ्वी की सतह पर किसी अनजान बाह्य स्रोत से आने वाली उर्जा की माप होगी। पृथ्वी पर यह सूर्य-स्थिरांक कहलाती है क्योंकि हम जानते हैं कि यह उर्जा हमें सूर्य से प्राप्त होती है।

लेकिन प्राइम पृथ्वी पर किसी के पास यह जानने की विधि नहीं होगी कि यह उर्जा कहां से आती है और यह स्थिरांक यही मान क्यों ग्रहण करता है। प्राइम पृथ्वी के कुछ वैज्ञानिक इस पर जोर दे सकते हैं कि स्थिरांक का मापा गया यह मान जीवन के प्रकट होने के लिए अत्यंत अनुकूल है। अगर प्राइम पृथ्वी २ कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर से ज़्यादा या कम उर्जा प्राप्त करता तो समुद्रों का पानी या तो भाप या बर्फ होता और प्राइम पृथ्वी पर द्रव जल या अन्य उपयुक्त विकल्प जिसमें जीवन विकसित हो सके, की कमी हो जाती। भौतिक विज्ञानी इससे यह निष्कर्ष निकाल सकते थे कि १.९९ कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर का यह स्थिरांक ईश्वर द्वारा मनुष्यों की भलाई के लिए किया गया है। प्राइम पृथ्वी के कुछ संशयवादी भौतिक विज्ञानी यह तर्क कर सकते थे कि ऐसे स्थिरांकों की व्याख्या अंतत्वोगत्वा भौतिकी के अंतिम नियमों से की जा सकेगी और यह एकमात्र संयोग है कि वहां इसका मान जीवन के अनुकूल है। वास्तव में दोनों ही गलत होते।

जब प्राइम  पृथ्वी के निवासी आखिर में खगोल विज्ञान विकसित कर लेते, तब वे जानते कि उनका ग्रह भी एक सूरज से ९.३ करोड़ मील दूर है जो प्रति मिनट ५६ लाख करोड़ कैलोरी उर्जा उत्सर्जित करता है। और वे यह भी देखते कि दूसरे ग्रह जो उनके सूरज से ज़्यादा निकट हैं इतने गर्म हैं कि वहां जीवन पैदा नहीं हो सकता तथा बहुत सारे ग्रह जो उनके सूरज से ज़्यादा दूर हैं वे इतने ठंड़े है कि वहां जीवन की संभावना नहीं है। और इसीलिए दूसरे तारों का चक्कर लगा रहे अनन्त ग्रहों में से एक छोटा अनुपात ही जीवन के अनुकूल है। जब वे खगोल वोज्ञान के बारे कुछ सीखते तभी प्राइम पृथ्वी पर तर्क करने वाले भौतिक वैज्ञानी यह जान पाते कि जिस दुनिया में वे रह रहे हैं वह लगभग २ कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर ऊर्जा प्राप्त करती है क्योंकि कोई और तरह की दुनिया नहीं हो सकती जिसमें वे रह सकें। हम लोग विश्व के इस हिस्से में प्राइम पृथ्वी के उन निवासियों की तरह हैं जो अब तक खगोल विज्ञान के बारे में नहीं जान पाए हैं, लेकिन हमारी दृष्टि से दूसरे ग्रह और सूरज नहीं बल्कि विश्व के अन्य हिस्से ओझल हैं।

हम अपने तर्क को और आगे बढायेंगे। जैसा कि हमने पाया है कि भौतिकी के सिद्धांत जितने ज़्यादा मौलिक होते हैं उसका ताल्लुक हमसे उतना ही कम होता है। एक उदाहरण लें, १९२० के प्रारंभ में ऐसा सोचा जाता था कि केवल इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन ही प्राथमिक कण हैं। उस समय यह माना जाता था कि ये ही घटक है जिससे हम और हमारी दुनिया बनी है। जब नये कण जैसे न्यूट्रॉन की खोज हुई तो पहले यह मान लिया गया कि वे इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन से ही बने होंगे। लेकिन आज के तत्व बिल्कुल भिन्न हैं।
     
अब हम यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि प्राथमिक कणों से हमारा क्या तात्पर्य है, पर हमने यह महत्त्वपूर्ण सीख ली है कि सामान्य पदार्थों में इन कणों की उपस्थिति उनकी मौलिकता के बारे में कुछ नहीं बताती। लगभग सभी कण प्रभाव क्षेत्र ( फ़िएल्द् ) जो आधुनिक कणों और अंतर्क्रियाओं के मानक मॉडल में प्रकट होते हैं, का इतनी तेजी से ह्रास होता है कि सामान्य पदार्थ में वे अनुपस्थित होते हैं और मानव जीवन में कोई भूमिका अदा नहीं करते। इलेक्ट्रॉन हमारी दैनन्दिनी दुनिया का एक आवश्यक हिस्सा हैं, जबकि म्यूऑन और रॉउन नामक कण हमारे जीवन में कोई महत्त्व नहीं रखते, फिर भी सिद्धांतों में उनकी भूमिका के अनुसार इलेक्ट्रॉन को म्यूऑन और रॉउन से किसी भी प्रकार से ज़्यादा मौलिक नहीं कहा जा सकता और व्यापक रूप में कहा जाए तो किसी वस्तु का हमारे लिए महत्व और प्रकृति के नियमों के लिए उसके महत्व के बीच सहसंबंध की खोज किसी ने कभी नहीं की है।

वैसे, विज्ञान की खोजों से ईश्वर के बारे में जानकारी हासिल करने की उम्मीद ज़्यादातर लोगों ने नहीं पाली होगी। जॉन पॉल्किंगहाम ने एक ऐसे धर्म-विज्ञान के पक्ष में भावपूर्ण तर्क दिये हैं जो मानव विवेचना की परिधि के अंदर हों, पर जिसमें विज्ञान का भी घर हो। यह धर्म विज्ञान धार्मिक अनुभवों, जैसे रहस्य का उद्‍घाटन ( ज्ञान प्राप्ति ), पर आधारित हो, ठीक उसी तरह जैसे विज्ञान प्रयोग और अवलोकन पर आधारित होता है, उन्हें उन अनुभवों की गुणात्मकता का आत्म-परीक्षण करना होगा। लेकिन दुनिया के धर्मों के अनुयायियों का बहुतायत ख़ुद के धार्मिक अनुभवों पर नहीं बल्कि दूसरों के कथित अनुभवों द्वारा उद्‍घाटित सत्य पर निर्भर करता है। ऐसा सोचा जा सकता है कि यह सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानियों के दूसरों के प्रयोगों पर निर्भरता से भिन्न नहीं है। लेकिन दोनों में एक महत्वपूर्ण अंतर है। हजारों अलग-अलग भौतिक विज्ञानियों की अंतर्दृष्टि भौतिक वास्तविकता की एक संतोषजनक ( पर अधूरा ) समान समझ पर अभिकेन्द्रित हुई है। इसके विपरीत, ईश्वर या अन्य चीज़ों के बारे में धार्मिक रहस्योद्‍घाटनों से उपजे विवरण एकदम भिन्न दिशाओं में संकेत करते  हैं। हम आज भी, हजारों सालों के ब्रह्मवैज्ञानिक विश्लेषण के बावज़ूद, धार्मिक उद्‍घाटनों से मिली शिक्षा की किसी साझा समझ के निकट भी नहीं है।

धार्मिक अनुभवों और वैज्ञानिक प्रयोग के बीच एक और फर्क है। धार्मिक अनुभव से प्राप्त ज्ञान काफ़ी संतोषप्रद हो सकता है। इसके विपरीत, वैज्ञानिक पर्यवेक्षण से प्राप्त विश्व-दृष्टिकोण अमूर्त और निर्वैयक्तिक होता है। विज्ञान से इतर, धार्मिक अनुभव जीवन में एक उद्देश्य के विशाल ब्रह्मांडीय नाटक में अपनी भूमिका निभाने के लिए सुझाव पेश कर सकते हैं। और जीवन के पश्चात एक निरन्तरता को बनाए रखने के लिए ये हनसे वादा करते हैं इन्हीं कारणों से मुझे लगता है कि धार्मिक अनुभव से प्राप्त ज्ञान पर इच्छाजनित सोच की अमिट छाप होती है।

१९७७ की अपनी पुस्तक द फर्स्ट थ्री मिनट्‍स ( पहले तीन मिनट ) में मैंने एक अविवेकपूर्ण टिप्पणी की थी कि जितना ही हम इस विश्व को समझते जाते हैं, उतना ही यह निरर्थक लगता है। मेरा यह मतलब नहीं था कि विज्ञान हमें सिखाता है कि यह विश्व निरर्थक है, बल्कि यह बताना था कि विश्व ख़ुद किसी लक्ष्य की ओर इशारा नहीं करता। मैंने तत्काल यह जोड़ा था कि ऐसे रास्ते हैं जिसमें हम अपने आप अपने जीवन के लिए एक अर्थ ढूंढ़ सकते हैं, जैसे कि विश्व को समझने का प्रयास, लेकिन क्षति तो हो चुकी थी। उस मुहावरे ने तब से मेरा पीछा किया है।

हाल में एलन लाइटमैन और रॉबर्ट ब्रेबर ने सत्ताइस ब्रह्मांड़ विज्ञानियों और भौतिकी विज्ञानियों के साक्षात्कार प्रकाशित किये हैं। इनमें से ज़्यादातर विज्ञानियों से अपने साक्षात्कार के अन्त में पूछा गया कि वे उस वक्तव्य के बारे में क्या सोचते हैं? विभिन्न विशेषणों के साथ, दस साक्षात्कार देने वाले मुझसे सहमत थे और तेरह असहमत। लेकिन इन तेरह में से तीन इसलिए असहमत थे क्योंकि वे नहीं समझ पाए कि विश्व में कोई किसी अर्थ की आशा क्यों करेगा? हॉवर्ड के खगोलविज्ञानी मारग्रेट गेलर ने पूछा - ....इसका कोई अर्थ क्यों होना चाहिए? कौन सा अर्थ? यह तो एकमात्र भौतिक प्रणाली है इसमें अर्थ कैसा? मैं उस वक्तव्य से एकदम अचंभित हूं। प्रिन्सटन के खगोलविज्ञानी जिम पीबल्स ने उत्तर दिया मैं यह मानने को तैयार हूं कि हम बहते हुए और फैंके हुए हैं। ( पीबल्स को भी अंदाज़ था कि मेरे लिए वह एक बुरा दिन था ) प्रिन्सटन के दूसरे खगोलविज्ञानी एडविन टर्नर मुझसे सहमत थे, किंतु उनका अनुमान था कि मैंने यह टिप्पणी पाठक को नाराज़ करने के उद्देश्य से की थी। एक अच्छी प्रतिक्रिया टेक्सस विश्वविद्यालय के मेरे सहकर्मी, खगोलविज्ञानी गेरार्ड द वाकोलियर्स की थी। उन्होंने कहा कि वे सोचते हैं कि मेरा उत्तर नोस्टालजिया पैदा करने वाला था। कि वास्तव में यह वैसा ही था- उस दुनिया के लिए जहां स्वर्ग ईश्वर के गौरव की घोषणा करते हैं, वह् नोस्टालजिया पैदा करने वाला ही था।


लगभग एक सौ पचास वर्ष पहले मैथ्यू आर्नोल्ड ने समुद्र की लौटती हुई लहरों में धार्मिक विश्वास के पीछे हटते कदमों के दर्शन किये थे और जल की ध्वनि में उदासी का गीत सुना था। प्रकृति के नियमों में किसी चिन्तित सृष्टिकर्ता द्वारा तैयार योजना, जिसमें मनुष्य कुछ खास भूमिका में होते, को देख पाना कितना दिलचस्प होता। लेकिन ऐसा कर पाने में अपनी असमर्थता में मुझ उस उदासी का अहसास हो रहा है। हमारे वैज्ञानिक सहकर्मियों में से कुछ ऐसे हैं जो कहते हैं कि उन्हें प्रकृति के चिंतन से उसी आध्यात्मिक संतोष की प्राप्ति होती है जो औरों को परम्परागत रूप से किसी हितबद्ध ईश्वर में विश्वास से मिलता है। उनमें से कुछ को तो ठीक वैसा ही अहसास भी होता होगा। मुझे नहीं होता और मुझे नहीं लगता कि यह प्रकृति के नियमों की पहचान करने में सहायक होगा, जैसा कि आइन्सटाइन ने एक प्रकार के दूरस्थ और निष्प्रभावी ईश्वर को मानकर किया। इस धारणा को युक्तिसंगत दिखाने के लिए ईश्वर की समझ को हम जितना परिमार्जित करते हैं, यह उतना ही निरर्थक लगता है।

आज के वैज्ञानिकों में इन मसलों पर सोचने वालों में मैं शायद कुछ लीक से हटकर हूं। चाय या दोपहर के भोजन के चन्द मौकों पर जब बातचीत मुद्दों को छूती है, तो मेरे मित्र भौतिक विज्ञानियों में से ज़्यादातर की सबसे तीखी प्रतिक्रिया हल्के आश्चर्य और मनोविनोद के रूप में व्यक्त होती है जिसमें यह भाव होता है कि अब भी कोई क्या इन मुद्दों को गंभीरता से लेता है। बहुत सारे भौतिक विज्ञानी अपनी नृजातीय पहचान बनाए रखने के लिए, और विवाह और अंत्येष्टि के मौकों पर इसका उपयोग करने के लिए, अपने अभिभावकों के विश्वास से नाममात्र का नाता जोड़े रहते हैं लेकिन इनमें से शायद ही कोई उसके धर्मतत्व पर विचार करता है। मैं ऐसे दो व्यापक सापेक्षता पर काम करने वाले वैज्ञानिकों को जानता हूं जो समर्पित रोमन कैथोलिक हैं। बहुत सारे सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी हैं जो यहूदी रिवाजों के अनुपालक हैं। एक प्रायोगिक भौतिक विज्ञानी हैं जिनका ईसाई-धर्म में पुनर्जन्म हुआ है। एक सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी जो समर्पित मुस्लिम हैं, और एक गणितज्ञ भौतिक विज्ञानी हैं जिनका इंगलैंड के गिरजाघर में पुरोहिताभिषेक हुआ है। निस्संदेह अन्य अत्यंत धार्मिक भौतिक विज्ञानी होंगे जिन्हें मैं नहीं जानता या जो अपना मत ख़ुद तक ही सीमित रखते हैं। लेकिन मैं इतना अपने अवलोकनों के आधार पर कह सकता हूं कि आज ज़्यादातर भौतिक विज्ञानी धर्म में पर्याप्त रुचि नहीं रखते और उन्हें व्यावहारिक नास्तिक कहा जा सकता है।

( क्रमशः )



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

अगली बार इस आलेख का अंतिम भाग प्रस्तुत किया जाएगा।
शुक्रिया।


समय

शनिवार, 2 जून 2012

और तब ईश्वर का क्या हुआ? - 2


और तब ईश्वर का क्या हुआ?
स्टीवन वाइनबर्ग
      


( 1933 में पैदा हुए अमेरिका के विख्यात भौतिक विज्ञानी स्टीवन वाइनबर्ग, अपनी अकादमिक वैज्ञानिक गतिविधियों के अलावा, विज्ञान के लोकप्रिय और तार्किक प्रवक्ता के रूप में पहचाने जाते हैं। उन्होंने इसी संदर्भ में काफ़ी ठोस लेखन कार्य किया है। कई सम्मान और पुरस्कारों के अलावा उन्हें भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है।

प्रस्तुत आलेख में वाइनबर्ग ईश्वर और धर्म पर जारी बहसों में एक वस्तुगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बखूबी उभारते हैं, और अपनी रोचक शैली में विज्ञान के अपने तर्कों को आगे बढ़ाते हैं। इस आलेख में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण प्रसंगों का जिक्र करते हुए, अवैज्ञानिक तर्कों और साथ ही छद्मवैज्ञानिकता को भी वस्तुगत रूप से परखने का कार्य किया है तथा कई चलताऊ वैज्ञानिक नज़रियों पर भी दृष्टिपात किया है। कुलमिलाकर यह महत्त्वपूर्ण आलेख, इस बहस में तार्किक दिलचस्पी रखने वाले व्यक्तियों के लिए एक जरूरी दस्तावेज़ है, जिससे गुजरना उनकी चेतना को नये आयाम प्रदान करने का स्पष्ट सामर्थ्य रखता है। )



दूसरा भाग
( और तब ईश्वर का क्या हुआ : पहला भाग )

आज क्रमिक विकास के सबसे ज़्यादा सम्माननीय अकादमिक आलोचक कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ लॉव’ के प्रोफ़ेसर फिलीप जॉनसन माने जा सकते हैं। जॉनसन स्वीकार करते हैं कि क्रमिक विकास हुआ है और यह कभी-कभी स्वाभाविक चयन प्रक्रिया द्वारा होता है, लेकिन वे तर्क पेश करते हैं कि ऐसा कोई ‘अकाट्य प्रायोगिक प्रमाण’ नहीं है जिससे यह साबित हो कि क्रमिक विकास किसी ईश्वरीय योजना से निर्देशित नहीं होता। वास्तव में यह प्रमाणित करने की आशा करना मूर्खता होगा कि ऐसी कोई अलौकिक शक्ति नहीं है जो कुछ उत्परिवर्तनों ( म्यूटेशन ) के पक्ष में और कुछ के विरोध में पलड़ा नहीं झुका देती। लेकिन ठीक यही बात किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत के लिए कही जा सकती है, न्यूटन या आइन्सटीन के गति के नियमों से सौरमंड़ल पर सफलतापूर्वक लागू करने में ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमें यह मानने से रोके कि कुछ धूमकेतु बीच-बीच में किसी अलौकिक शक्ति से हल्का सा धक्का पा लेते हैं। यह अत्यंत स्पष्ट है कि जॉनसन यह मुद्दा निष्पक्ष उदारमति सोच के तहत नहीं उठाते हैं बल्कि उन धार्मिक कारणों से उठाते हैं जिनका जीवन के लिए तो वे महत्त्व समझते हैं पर धूमकेतु के लिए नहीं। लेकिन किसी भी प्रकार का विज्ञान इसी तरह आगे बढ़ सकता है कि पहले यह मान लिया जाए कि कोई अलौकिक हस्तक्षेप नहीं है और फिर यह देखा जाए कि इस मान्यता के तहत हम कितना आगे बढ़ सकते हैं।

जॉनसन का तर्क है कि प्राकृतिक क्रम-विकास, वह क्रमिक-विकास जो प्रकृति की दुनिया से बाहर किसी सृष्टिकर्ता के निर्देशन या हस्तक्षेप को शामिल नहीं करता, वास्तव में, जीव-जातियों ( स्पीसीज ) की उत्पत्ति की बहुत अच्छी व्याख्या प्रस्तुत नहीं करता। मुझे लगता है कि वे यहां गलती कर बैठते हैं क्योंकि वे उन समस्याओं को महसूस नहीं कर रहे हैं जिनका सामना किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत को हमारे अवलोकनों का स्पष्टीकरण देते हुए हमेशा करना पड़ता है। स्पष्ट गलतियों को छोड दिया जाए, तो भी हमारी गणनाएं और अवलोकन कुछ ऐसी मान्यताओं पर आधारित होती हैं जो उस सिद्धांत, जिसकी परीक्षा की हम कोशिश कर रहे होते हैं, की वैधता की सीमा से बाहर होती हैं। कभी ऐसा नहीं था जब न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत या अन्य किसी भी सिद्धांत पर आधारित गणनाएं सभी अवलोकनों से पूरी तरह मेल खाती हों। आज के जीवाश्म विज्ञानियों और क्रमिक विकासपंथी जीवविज्ञानियों के लेखन में हम उस स्थिति को पहचान सकते हैं जिससे भौतिक विज्ञान में हम वाकिफ़ हैं, यानि की प्राकृतिक क्रमिक-विकास के सिद्धांत जीव विज्ञानियों के लिए अत्यंत ही सफल सिद्धांत हैं, फिर भी इसके स्पष्टिकरण का कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ है। मुझे लगता है यह सिद्धांत एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण खोज है जिससे हम जीवविज्ञान और भौतिकविज्ञान दोनों ही क्षेत्रों में बिना किसी अलौकिक हस्तक्षेप की परिकल्पना के दुनिया की व्याख्या बहुत आगे तक कर सकते हैं।

दूसरे संदर्भ में, मैं सोचता हूं जॉनसन सही हैं। उनका तर्क है, जैसा कि सभी समझते हैं, कि प्राकृतिक क्रमिक विकास के सिद्धांत और धर्म में एक विसंगति है, और जो वैज्ञानिक और शिक्षाविद इससे इनकार करते हैं उनके सामने वे चुनौती पेश करते हैं। वे आगे शिकायत करते हैं कि प्राकृतिक क्रमिक विकास और ईश्वर के अस्तित्व में तभी तालमेल संभव है, अगर ईश्वर शब्द का अर्थ हम उस प्रथम कारण से ज़्यादा न लें जो प्रकृति के नियमों को स्थापित करने और स्वाभाविक प्रक्रिया को लागू करने के बाद आगे की गतिविधियों से विरत हो जाता है।

आधुनिक क्रमिक विकास के सिद्धांत और हितबद्ध ईश्वर में विश्वास के बीच की विसंगति मुझे तर्क की विसंगति नहीं लगती। कोई यह कल्पना कर सकता है कि ईश्वर ने प्रकृति के नियमों को रचा और क्रमिक विकास की प्रक्रिया को इस उद्देश्य से स्थापित किया कि एक दिन स्वाभाविक चयन प्रक्रिया के द्वारा आप और हम प्रकट होंगे। वास्तविक विसंगति दृष्टि की है। आखिर ईश्वर उन नर नारियों के दिमाग़ की पैदाइश नहीं है जिन्होंने अनन्त दूरदर्शी प्रथम कारणों की परिकल्पना की, बल्कि उन दिलों की खोज है जो हितबद्ध ईश्वर के लगातार हस्तक्षेप के लिए लालायित थे।

धार्मिक रूढ़ीवादी यह समझते हैं, जैसा कि उनके उदारवादी विरोधी नहीं समझ पाते, कि विद्यालयों ( पब्लिक स्कूल ) में क्रमिक विकास के शिक्षण की बहस में कितनी बड़ी चीज़ दाव पर लगी है। १९८३ में, टेक्सस से आने के थोड़े दिनों बाद, उस अधिनियम पर टेक्सस सीनेट के समक्ष गवाही देने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया, जिसके अनुसार राज्य द्वारा खरीदी हुई माध्यमिक विद्यालयों की पाठ्‍य-पुस्तकों में क्रमिक विकास के सिद्धांत के पठन-पाठन की तब तक मनाही थी, जब तक उतना ही महत्त्व सृष्टिवाद को न दिया जाए। समिति के एक सदस्य ने मुझसे पूछा कि राज्य क्रमिक विकास जैसे वैज्ञानिक सिद्धांत के शिक्षण को कैसे मदद दे सकता है जो धार्मिक विश्वासों से इतना खिलवाड़ करता है। मैने जवाब दिया कि नास्तिकता से भावनात्मक रूप से जुडे लोगों के लिए जीव-विज्ञान में शिक्षण के लिए उपयुक्त महत्त्व से ज़्यादा महत्त्व क्रमिक विकास पर कम महत्त्व देने में है। यह जन विद्यालयों का काम नहीं है कि वे वैज्ञानिक सिद्धांतों के धार्मिक प्रभावों के पक्ष या विपक्ष में अपने को शामिल करें। मेरे उत्तर ने सीनेटर को संतुष्ट नहीं किया क्योंकि वह मेरी तरह, जानता था कि जीव विज्ञान के पाठ्‍यक्रम में क्रमिक विकास के सिद्धांत पर उपयुक्त जोर देने का क्या प्रभाव पड़ेगा। ज्योंही मैंने समिति कक्ष से बाहर कदम रखा, वह बुदबुदाया-"अभी ईश्वर स्वर्ग में है।" ऐसा हो सकता है, लेकिन लड़ाई में जीत हमारी हुई। टेक्सस के माध्यमिक स्कूल की पाठ्‍यपुस्तकों में केवल आधुनिक क्रमिक विकास के सिद्धांत को शामिल करने की छूट ही नहीं मिली बल्कि इसे शामिल करना अब अनिवार्य हो गया है और वह भी सृष्टि के बारे में बकवास के बिना। लेकिन ऐसी बहुत सी सारी जगहें हैं ( खासकर आज के इस्लामिक देशों में ) जहां यह लड़ाई अभी जीती जानी है और कहीं भी यह गारंटी नहीं है कि यह जीत कायम रहेगी।

हम प्रायः सुनते हैं कि विज्ञान और धर्म में कोई विरोध नहीं है। उदाहरण के लिए जॉनसन की पुस्तक की विवेचना करते हुए स्टीफन गोल्ड कहते हैं कि ‘विज्ञान और धर्म एक-दूसरे के विरोध में खड़े नहीं होते, क्योंकि विज्ञान तथ्यात्मक सच्चाइयों से नाता जोड़ता है, जबकि धर्म मानव को नैतिकता से’। बहुत सी बातों पर में गोल्ड़ से सहमत हूं किंतु मुझे लगता है वे दूसरी दिशा में चले गये हैं। धर्म के अर्थ की परिभाषा, धार्मिक लोगों के वास्तविक विश्वास की परिधि में ही की जा सकती है और दुनिया के धार्मिक लोगों को के विशाल बहुमत को यह जानकर आश्चर्य होगा कि धर्म का तथ्यात्मक सच्चाइयों से कुछ लेना-देना नहीं है।

लेकिन गोल्ड़ के विचार वैज्ञानिकों और धार्मिक उदारपंथियों के बीच बहुत प्रचलित हैं। लेकिन मुझे लगता है कि यह धर्म के उस स्थान से जहां कभी वह विराजमान था, पीछे हटने का महत्त्वपूर्ण संकेत है। एक समय था जब हर नदी में बिना एक जलपरी के और हर पेड़ में बिना एक वन देवी के प्रकृति की व्याख्या नहीं की जा सकती थी। उन्नीसवीं शताब्दी तक भी पेड़ और जंतुओं की संरचना सृष्टिकर्ता के प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखी जाती थी। आज भी प्रकृति की ऐसी अनंत वस्तुएं हैं जिनकी व्याख्या हम नहीं कर सकते, लेकिन हम उन सिद्धांतों को जानते हैं जो उनकी कार्य-पद्धति को नियंत्रित करते हैं। आज वास्तविक रहस्यों के लिए हमें ब्रह्मांड विज्ञान औए प्राथमिक-कण भौतिकी की तह में जाना पड़ेगा। उन लोगों के लिए जो धर्म और विज्ञान में कोई विरोध नहीं देखते, विज्ञान द्वारा कब्जा की गई ज़मीन से धर्म के पीछे हटने की प्रक्रिया लगभग पूरी हो चुकी है।

इस ऐतिहासिक अनुभव से सीख लेते हुए, हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि यद्यपि प्रकृति के अंतिम नियमों में हमें विशेष सौन्दर्य के दर्शन् होंगे, लेकिन जीवन या बुद्धि के लिए यहां कोई विशेष जगह नहीं होगी। आगे चलकर, मूल्य या नैतिकता के मापदंड़ नहीं बनेंगे और इसीलिए हमें ईश्वर का कोई संकेत नहीं मिलेगा, जो इन चीज़ों पर ही टिके हुए हैं। यह चीज़े कहीं और भले मिल जाएं, पर प्रकृति के नियमों में नहीं।

मुझे यह स्वीकार करना होगा कि प्रकृति कभी-कभी जरूरत से ज़्यादा खूबसूरत लगती है। मेरे घर के कार्यालय की खिड़की के सामने एक हैकबेरी का पेड़ है। उस पर बार-बार आयोजित सुसभ्य पक्षियों का समारोह - नीलकंठ, पीले गले वाले वाईरोज और सबसे प्यारे कभी-कभी पहुंचने वाले लाल कार्डिनल। यद्यपि मैं अच्छी तरह समझता हूं कि किस प्रकार चमकीले रंग की पंखुड़ियां अपने साथी जोड़े को आकर्षित करने की प्रतिद्वंदता में विकसित हुए, फिर भी यह कल्पना किये बिना नहीं रहा जा सकता कि यह सारा सौन्दर्य हमारी सुविधा के लिए बनाया गया है। लेकिन यह भी तय है कि पक्षियों और पेड़ों के ईश्वर को, जन्म से ही अंग-भंग करने वाले या कैंसर देने वाला ईश्वर भी बनना पड़ेगा।

सहस्त्राब्दियों से धार्मिक लोग ईशशास्त्र में उलझे हुए हैं। उनके सामने वह समस्या खड़ी है कि एक अच्छे ईश्वर द्वारा शासित मानी जाने वाली दुनिया में दुखों का अस्तित्व क्यों है। अलग-अलग दैनिक योजनाओं की कल्पना कर उन्होंने इस समस्या के कई विलक्षण हल निकालें हैं। इन समाधानों पर मैं तर्क नहीं करूंगा और न ही अपनी ओर से एक और समाधान प्रस्तुत करूंगा। विध्वंस की यादों ने मुझे ईश्वर के मनुष्यों के प्रति रवैयों को नयायपूर्ण बताने की कोशिशों से विमुख कर दिया है। अगर कोई ईश्वर है जिनके पास मनुष्यों के लिए खास योजनाएं हैं तो हमारे लिए अपने इस भाव को छिपाये रखने के लिए वे इतना कष्ट क्यों मोल ले रहे हैं? मुझे तो यह अगर अपवित्र नहीं तो कठोर लगेगा कि ऐसे ईश्वर की हम अपने प्रार्थनाओं में फिक्र करें।

अंतिम नियमों के प्रति मेरे कठोर दृष्टिकोण से सभी वैज्ञानिक सहमत नहीं होंगे। मैं किसी को नहीं जानता जो स्पष्ट रूप से यह कहे कि देवता के अस्तित्व के प्रमाण हैं। लेकिन बहुत सारे वैज्ञानिक प्रकृति में बुद्धियुक्त जीवन की एक विशेष स्थिति के लिए अवश्य तर्क देते हैं। वस्तुतः यह तो हर कोई जानता है कि जीवविज्ञान और मनोविज्ञान का अध्ययन अपनी-अपनी परिधि में होना चाहिए, न कि प्राथमिक-कण-भौतिकी के संदर्भ में। लेकिन यह बुद्धि या जीवन के लिए किसी विशेष स्थिति का द्योतक नहीं है, क्योंकि यही बात रसायन विज्ञान और द्रवगति विज्ञान के संबंध में भी सही है। दूसरी ओर, यदि हम अभिमुखी व्याख्याओं के मिलनबिंदु पर अंतिम नियमों में बुद्धियुक्त जीवन की विशेष भूमिका खोजें तो हम यह निष्कर्ष निकालेंगे कि वे सृष्टिकर्ता, जिन्होंने ये नियम बनाए, हमलोगों में खास दिलचस्पी रखते थे।

जॉन व्हीलर इस तथ्य से काफ़ी प्रभावित हैं कि क्वान्टम यांत्रिकी की मानक कोपेनहेगन व्याख्या के अनुसार किसी भौतिक प्रणाली में स्थान, ऊर्जा का संवेग जैसे गुणमापकों ( तत्वों ) का एक निश्चित मान तब तक नहीं बताया जा सकता जब तक कि किसी पर्यवेक्षक के यंत्र से इन्हें माप न लिया जाए। व्हीलर के लिए क्वांटम यांत्रिकी सार्थकता के लिए एक प्रकार के बुद्धियुक्त जीवन को विश्व में दिखना ही नहीं बल्कि उसके हर हिस्से में फैल जाना चाहिए ताकि विश्व की भौतिक स्थिति के बारे में सूचना का हर बिट प्राप्त किया जा सके। मेरे हिसाब से व्हीलर के निष्कर्ष प्रत्यक्षवाद के मत को अत्यंत गंभीरता से लेने के खतरे का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। प्रत्यक्षवाद का तर्क है कि विज्ञान को उन्हीं चीज़ों तक अपने आपको सीमित रखना चाहिए जिनका हम अवलोकन कर सकते हैं। मैं और मेरे अन्य भौतिक विज्ञानी क्वान्टम यांत्रिकी की दूसरी यथार्थवादी पद्धति को वरीयता देते हैं जो तरंग फलन के आधार पर प्रयोगशालाओं और पर्यवेक्षकों, साथ ही साथ, अणुओं और परमाणुओं की व्याख्या कर सकता है, जो नियमों द्वारा नियंत्रित होते हैं और इस बात पर वस्तुगत रूप से निर्भर नहीं रहते कि पर्यवेक्षक मौजूद है या नहीं।

( क्रमशः )



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

अगली बार इस आलेख का तीसरा भाग प्रस्तुत किया जाएगा।
शुक्रिया।


समय
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