शनिवार, 28 जुलाई 2012

यथार्थ से असंतुष्टि, नवीन रचने को प्रेरित करती है

हे मानवश्रेष्ठों,

कुछ समय पहले हमारे प्रिय एक विशिष्ट मानवश्रेष्ठ से मेल के जरिए, सुंदर चरित्र रचने की प्रवृति तथा दिखने और दिखाने की चाहत पर किए गए उनके प्रश्न पर एक संवाद स्थापित हुआ था। यह संवाद, उन मानवश्रेष्ठ ने भी अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत किया था। इस बार वही संवाद यहां भी प्रस्तुत किया जा रहा है।

वह कथन फिर से रख देते हैं कि आप भी इससे कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



यथार्थ से असंतुष्टि, नवीन रचने को प्रेरित करती है

आप के ब्लॉग आलेख पढ़ता रहता हूँ और पसन्द करता हूँ, भले उपस्थिति का पता न चले। चरित्र पर ताज़े आलेख से एक विचार आया। सिने, काव्य और अन्य अभिव्यक्ति माध्यमों में नायक/नायिका अक्सर ही चरित्र और काया दोनों पक्षों से सुन्दर दिखाये जाते हैं। दिखाने और देखने की इस इंसानी चाहत के पीछे जाने कितने आयाम छिपे हैं। उनके मनोवैज्ञानिक पक्ष पर प्रकाश डालते कुछ लिखेंगे क्या?

आपने एक सुझाव पेश किया है, अच्छा लगा। इस पक्ष की गंभीरता से विस्तृत विवेचना तो फिर कभी हो जाएगी, अभी इस पर आपके चिंतन के लिए हम भी प्रत्युत्तर में सिर्फ़ कुछ सुझाव पेश किए दे रहे हैं। जरूरी लगे तो संवाद आगे भी बढ़ाया जा सकता है।

पहले दिखाने और देखने की इस चाहत पर। इसके पीछे के आयामों पर कुछ विवरणात्मक भावप्रधान साहित्यिक सा लिखने की हमारी सीमाएं हैं, हम तो सिर्फ़ कुछ नीरस विचारात्मक सुझाव ही पेश कर सकते हैं।

मनुष्य का अस्तित्व उसके सामाजिक सार से ही है। यानि कि उसके अस्तित्व की सारी सक्रियता समाज के साथ अंतर्गुथित है। वह दूसरों के साथ अपनी अंतर्क्रियाओं में अपने को सामाजिकतः उपयोगी साबित करने और इसमें बेहतर सिद्ध करने की कवायदों में रहता है। वह औरों के सामने अपने को व्यक्तिगत तौर पर भी, सौन्दर्य और सामूहिक मूल्यों के मामलों में भी बेहतर साबित करना चाहता है। उसकी महत्त्वांकाक्षाएं, अपने सामाजिक महत्त्व को विस्तार देने में फलीभूत होती हैं। यही दिखाने के पीछे का महत्त्वपूर्ण आयाम है, वह बेहतर बनने, होने की कोशिश करता है। नहीं हो पा रहा है तो बेहतर दिखने की कोशिश करता है, इसके लिए वह आदर्शों को सिर्फ़ ओढ़ता-बिछाता है और उनका प्रदर्शन करने लगता है।

मनोविज्ञान में देखने और दिखाने की इस प्रवृति को ‘अहम्’ के बोध से भी जोड़कर देखा जाता है। सामाजिक संबंधों की पद्धति का अंग बनकर और अन्य लोगों से अन्योन्यक्रिया व संप्रेषण करते हुए मनुष्य अपने को परिवेश से अलग करता है, अपनी शारीरिक तथा मानसिक अवस्थाओं, क्रियाओं तथा प्रक्रियाओं के कर्ता के रूप में अपनी एक छवि बनाता है और दूसरों के अहम् के मुकाबले में खड़े, किंतु साथ ही उनसे अभिन्नतः जुड़े हुए अपने अहम् ( ‘आत्म’, ‘स्व’ ) के रूप में सामने आता है।

मनुष्य द्वारा अपने अहम् का बोध या अपने आत्म की चेतना व्यक्तित्व-निर्माण की एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है, जो शैशवावस्था में आरंभ होती है। आत्मचेतना के विकास की प्रक्रिया ‘अहम्’ के एक आधारभूत और निश्चित बिंब के निर्माण के साथ पूरी होती है, जिसमें मनुष्य अपने बारे में विचारों और अन्य व्यक्तियों के प्रति अपने रवैयों के बारे में एक अपेक्षाकृत स्थिर और सचेतन मानसिक निर्मिति बना लेता है। इसके संज्ञानमूलक घटकों में मनुष्य का अपने प्रति, यानि अपनी योग्यताओं, शक्ल-सूरत, सामाजिक महत्त्व, आदि से संबंधित मूल्यांकन शामिल होते हैं। जैसे कि यदि किसी मनुष्य का लालन-पालन जीवन के भौतिक पक्ष को ही सब-कुछ माननेवाले परिवार में हो रहा है तो यह बहुत संभव है कि वह अपने छैल-छबीले रूप को ही जो उसके अनुसार उसके महंगे, फ़ेशनेबुल कपड़ो का परिणाम है, को ही अपनी आत्म-धारणा में सर्वोच्च महत्त्व देगा। ‘अहम्’ के व्यवहारमूलक घटक में अपने को समझने, अन्य व्यक्तियों से सहानुभूति तथा आदर पाने, अपना दर्जा बढ़ाने की इच्छा अथवा, इसके विपरीत, आड में रहने, मूल्यांकन तथा आलोचना से बचने, अपनी कमियां छिपाने, आदि की इच्छा शामिल रहती हैं।

अहम् के बिंब के दो पक्ष हुआ करते हैं, एक ‘वास्तविक अहम्’ जिसमें मनुष्य अपनी आत्मधारणा को यथार्थ वस्तुगत आलोचना के साथ परिपक्व करता है और अपने बारे में एक वास्तविक छवि बनाता है और उसकी बेहतरी के प्रयास रचता है। दूसरा ‘कल्पित अहम्’ भी होता है, यानि वह अपने को किस रूप में देखना चाहता है, उसके आधार पर वह अपनी सक्रियता को क्रियाबद्ध करना चाहता है। यदि यह नहीं हो पाता है, जो कि अक्सर ही हुआ करता है, तो फिर वह इस ‘कल्पित अहम्’ की धारणा के अनुसार अपनी दिखावटी छवि रचने और प्रस्तुत करने को प्रवृत्त रहता है।

बाद में ब्लॉग पर व्यक्तित्व के ऊपर विस्तार से एक श्रृंखला शुरू करने का भी विचार है, तब इस पर विस्तार से और भी सामग्री प्रस्तुत करने की संभावना बनेगी। बातें कई और भी हैं. अभी इस पर इतना ही, इनसे काफ़ी इशारे मिल सकते हैं।

अब कुछ बातें अन्य कला माध्यमों में नायक/नायिका के चरित्रों को आदर्श रचने की प्रवृत्ति पर। इन्हें वही मनुष्य रच रहा है जिसकी कुछ प्रवृत्तियों की बात हम ऊपर कर चुके हैं। उसी को आगे बढ़ाते हैं। सिने, साहित्य या कला माध्यम अंततोगत्वा अपने आपको अभिव्यक्त करने के, अपने आपको दूसरों में विस्तार देने के, अपनी सामाजिक उपयोगिता साबित करने और इसी ज़रिए एकसामाजिक मूल्य पैदा करने की प्रक्रियाएं मात्र हैं जिससे कि अंततः एक व्यक्तिगत संतुष्टि, एक सामाजिक संतुष्टि, या अभी के दौर में जो अधिक देखा जा रहा है, श्रेष्ठता बोध की तुष्टि और भौतिक पूंजी प्राप्त की जा सकती है।

आगे बढ़ते हैं, अब प्रश्न यह उठता है कि व्यक्ति ऐसा करना ही क्यों चाहता है, यानि कि अपने आपको अभिव्यक्त ही क्यूं करना चाहता है?

मनुष्य जब भी अपने परिवेश के साथ अंतर्क्रियाओं में कुछ नया ( यह हो सकता है कि व्यक्तिगत तौर पर उसके लिए नया हो ) अनुभव करता है ( आत्मपरक सामान्य था विशिष्ट अनुभव ), यह नया पन इसमें भी हो सकता है कि इन्हीं अंतर्क्रियाओं में वह यह महसूस करता है कि वर्तमान में कुछ ठीक नहीं है, इसे और बेहतर तरीक़े से किया जा सकता है ( यथार्थ का चित्रण तथा बेहतरी के विकल्पों की तलाश की आवश्यकता और इस हेतु सुझाव), या जब वह तय कर लेता है कि वर्तमान में कुछ निश्चित खराबियां हैं और उन्हें कुछ निश्चित तरीक़ो से ही ठीक किया जा सकता है ( यथार्थ की विकृतियों का निरूपण एवं विश्लेषण और निश्चित विकल्पों का प्रस्तुतिकरण ), तोमनुष्य के लिए यह आवश्यकता पैदा होती है कि वह इसे, अपने द्वारा अनुभूत किए हुए को औरों के साथ बांटे, दूसरों को बताए, यानि इसे अभिव्यक्त करे।

यथार्थ से असंतुष्टि, नवीन रचने को प्रेरित करती है। नवीन रचने के लिए मनुष्य एक महत्त्वपूर्ण मानसिक उपागम ‘कल्पना’ का सहारा लेता है, जिसके ज़रिए वह यथार्थ के उपलब्ध संज्ञान की सीमाओं में ही, कुछ निश्चित परिणाम प्राप्त करने के लिए यथार्थ में विभिन्न बदलावों की कल्पना करता है, योजना बनाता है। यदि इस प्रक्रिया का विषय मानसिक सामग्री है, तो जाहिरा तौर परइसके परिणाम मानसिक यानि वैचारिक ही होते हैं, जिन्हें वह भाषा के जरिए, बोल कर या लिखकर या अन्य कला माध्यमों के ज़रिए अभिव्यक्त करता है।

यानि कि कला माध्यमों में व्याक्ति यथार्थ की विकृतियों का निरूपण करता है, उन्हें सही किए जाने की आवश्यकता महसूस करता, करवाता है और फिर वैकल्पिक कल्पनाएं प्रस्तुत करता है। ग़लत को सही करवाने के लिए, कमियों को दूर करवाने के लिए, चरित्रों को बुनता है और उनकीअंतर्क्रियाओं के ज़रिए एक कथा का वितान रचता है जिनमें वह उसकी कल्पना के आदर्श चरित्रों के ज़रिए यथार्थ में कुछ आदर्श बदलावों का आख्यान प्रस्तुत करता है।

यहां आदर्शों का चुनाव किए जाने की बात परिदृश्य पर उभरती है। निश्चित तौर पर हर व्यक्ति अपने अनुभव, अपने ज्ञान और समझ, अपने दृष्टिकोणों, अपनी मान्यताओं और आस्थाओं केदायरे में ही, उनके हिसाब से ही अपनी कल्पना में आदर्श के चुनाव और उसकी प्रस्तुति की प्रक्रियाको संपन्न कर सकता है।

यथास्थिति में बड़े परिवर्तनों की आकांक्षाओं से विरत व्यक्ति, यथास्थिति में ही उपलब्ध और उसके दृष्टिकोणों से मेल खाते आदर्श चरित्र के मानदंड़ों को ही, अपनी रचना में प्रस्तुत किए जानेवाले आदर्श चरित्रों पर आरोपित करता है। उसके सही लगने के, सौन्दर्यबोध के, आदर्शों के मानंदड़, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसके परिवेश पर ही, यानि कि उसके सामाजिक यथार्थ पर ही निर्भर हुआ करते हैं।

मनुष्य का सौन्दर्य बोध ( सौन्दर्य को इस तरह से भी देखा जा सकता है, कि यह चीज़ों का सही तरीक़े से, सलीके से, व्यवस्थित होना ही है, जो उसे प्रिय लगते हैं, किसी तरह की अप्रिय प्रतिक्रिया नहीं जगाते ) सब कुछ सही देखना चाहता है, सही करना चाहता है, सही के साथ होनाचाहता है। यह इसलिए कि अपने विकास क्रम में इसकी चेतना और इसे श्रम-प्रक्रियाओं के ज़रिएभौतिक रूप से किए जाने की संभावनाएं और क्षमताएं मनुष्य में ही विकसित हुई हैं। वह कर सकता है, इसीलिए चीज़ों को अपने उपयोग की बनाना, सही करना चाहता है और करता है।

एक और बात, मनुष्य अक्सर अपने अभावों, अप्राप्यों, असुरक्षाओं, आदि कमियों के बीच ( जिनके कि विकल्प भी यथार्थ में मौजूद होते हैं, जो किसी और के पास हैं, पर वह जिनसे वंचित है ) उनकी पूर्ति की आकांक्षाओं में कल्पनाओं में रहता है। ( इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि किसी अन्य के पास उपस्थिति ही किसी में उसकी वंचना, अभाव पैदा करती है ) वह इन्हें पाने के स्वप्नों में रहता है। अब यह भी होता है कि ये सभी जहां है, वे व्यक्ति, उनका चरित्रअवचेतन-चेतन रूप से उसके मस्तिष्क में आदर्शों के मानदंड़ के रूप में स्थापित होता रहता है ( इसी से यह भी समझा जा सकता है कि क्यों प्रभुत्वशाली शासक, साधनसंपन्न वर्गों के दृष्टिकोणऔर मानदंड आम चेतना का हिस्सा बनते जाते हैं )।

तो इसलिए जब व्यक्ति रचता है, तो वह इन्हीं मानदंड़ो से निदेशित हो रहा होता है। कथा या सिनेमा की उसकी नायिका सुंदर देहयष्टि की मालिक होने के साथ-साथ उन चारित्रिक गुणों से भीसंपन्न होती है जिन्हें वह उचित और बेहतर समझता है। सुंदर देहयष्टि के मानक भी समय केसाथ इसीलिए बदलते रहते हैं, क्योंकि परिवेश में उपलब्ध मानक भी बदलते रहते हैं। कभी का मांसलता प्रधान स्वाभाविक देह सौंदर्य अभी छरहरी सुगठित काया के अंदर ढूंढा जाता है। पहले कीनायिकाओं के स्वभावों तथा चरित्रों का मूल स्वभाव भी अब वैसा नहीं रह गया है। इसी तरह नायक के आदर्श चरित्र का गठन भी किया जाता है और इसके मानदंड़ भी परिवर्तित होते रहे हैं। वह सर्वगुणसंपन्नता और उत्तम चरित्र से लैस होकर, यथार्थ की बुराइयों के ख़िलाफ़ संघर्ष करताहै, विजयी होता है। कुलमिलाकर वह अपने रचे में आदर्श और सौंदर्य का एक काल्पनिक संसार रचना चाहता है जो उसे वास्तविकता में उपलब्ध नहीं है और जिसे पाना उसकी मुक्तिकामी आकांक्षाओं और स्वप्नों से नाभिनालबद्ध है।

श्रेष्ठ आदर्शों का, श्रेष्ठ मूल्यों का, श्रेष्ठ चरित्रों का चित्रण हर सृजनधर्मा व्यक्ति की अभिव्यक्तियों के मूल में होता है और जाहिरा-तौर पर इनके मानदंड उसके दृष्टिकोणों, उसकी मान्यताओं, उसकी आकांक्षाओं तथा स्वप्नों पर निर्भर किया करते हैं।

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सौन्दर्यबोध की अवधारणाएं आसमान से नहीं उतरती, ये ज़िंदगी से ही उभरती हैं, आकार लेती हैं। मनुष्य की सक्रियता संबंधी आवश्यकताएं इसके मूल में होती हैं। आवश्यकताओं की समुचित तुष्टि प्रस्तुत करनेवाली और उसकी परिचित तथा सुरक्षित परिस्थितियां उसके सौन्दर्यों के मानदण्ड़ों में शामिल होती जाती हैं। मनुष्य के विकास को समग्रता में देखने पर और ज़िंदगी की वास्तविकताओं में गहराई से झांकने पर हमें अपने सौन्दर्यबोधों के मूल समझ में आसानी से समझ में आ सकते हैं।

काटने की आवश्यकता की पूर्ति करने वाली तीखी धार, पुराने अनघढ़ पत्थरों से लेकर आज के चाकुओं के सौन्दर्य में परिलक्षित होती है। रहने और चलने वाले स्थानों पर, वस्तुओं और विभिन्न सामग्रियों का यत्र-तत्र बिखराव इसमें बाधा पैदा करता है और जोखिमभरा हो सकता है, इसलिए उनके व्यवस्थित होने और सक्रियता में बाधा नहीं पहुंचाने की आवश्यकता, सामग्रियों और वस्तुओं को सही तरतीब और व्यवस्थित रूप से रखने के सौन्दर्य से जुड़ती हैं। जोखिम भरा, डरावना मौसम या शरीर को असहज करने वाले मौसम के सापेक्ष साफ़ और शांत या शरीर के लिए मुफ़ीद रहने वाला मौसम सहज रूप से ही हमारे सौन्दर्यबोधों से जुड़ता जाता है।

रंगों का हमारा परिचित परिवेश, हमारे मन में देखा-भाला सुरक्षित दायरा रचता है और कुछ रंग हमारे सौन्दर्य बोध में शामिल होते जाते हैं। हरा और आसमानी नीला रंग सभी के लिए सौन्दर्य पैदा करता है। अगर नासिका की जगह हमारे चेहरों पर सूअर जैसी एक लंबी थूथन होती, तो सारे श्रृंगार-काव्य इसी की सौन्दर्य विमाओं से भरे होते। चीज़ें जब होती है तभी उनकी उपयोगिता की व्यावहारिकता उनके सही अनुपातों के सौन्दर्य के रचे जाने की आवश्यकता पैदा करती है। चाय की केतली के सौन्दर्य में पांच मीटर लंबी टौंटी की कल्पना, सोच की व्यर्थता ही साबित होगी, आदि-आदि।

इन्हीं सबसे हुई शुरुआतें, इसी तरह की प्रक्रियाएं आगे के और भी, तथा विशिष्ट सौंदर्यबोधों की जटिलताओं में परवान चढ़ती है।

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सौन्दर्यबोध पर यह एक काफ़ी पुराना संवाद भी देखा जा सकता है :
सौन्दर्यबोध और व्यवहार
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

रविवार, 22 जुलाई 2012

खुश/उदास होने की प्रक्रिया पर संवाद

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक मानवश्रेष्ठ से मेल के जरिए, उनके प्रश्न पर एक संवाद स्थापित हुआ था। यह संवाद खुश/उदास होने की प्रक्रिया को समझने के लिए इस बार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रश्नकर्ता के स्तरानुसार ही यह थोड़ा सहज भी है।

वह कथन फिर से रख देते हैं कि आप भी इससे कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



खुश/उदास होने की प्रक्रिया पर संवाद

मैं जल्दी जल्दी खुश/उदास काहे हो जाता हूं....

आपके इस प्रश्न में खुश/उदास होने को फिर भी सामान्य प्रक्रिया मान कर, आपकी जिज्ञासा इतनी है कि ‘जल्दी-जल्दी’ काहे। यही आपकी जिज्ञासा का सामान्य उत्तर भी है कि आप जल्दी-जल्दी में रहते हैं, इसीलिए खुश/उदास भी जल्दी-जल्दी होते हैं, इसको समझने में समस्या क्या है?

देखिए, खुश या उदास होना मनोविज्ञान की भाषा में भावनात्मक संवेगों का मामला है। हमारी आवश्यकताओं की तुष्टि, इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति, अनुकूल परिस्थितियां हमारे मस्तिष्क में सकारात्मक संवेगों के पैदा होने का कारण बनते हैं और हम खुश महसू्स करते हैं, अपनी बारी में इन्हीं का अभाव उदासी और दुख का कारण बनता है। इसे आप समझ ही सकते हैं।

हमारी खुशी या उदासी की तीव्रता, इनकी आवृत्ति, इनके पैदा होने की बारंबारता, हमारे व्यक्तित्व और उसके विकास के साथ जुडी हुई है। हमारे ज्ञान और समझ की अवस्थाएं क्या है, हमारी चीज़ों को विश्लेषित करने की क्षमताएं कितनी सटीक हैं, हमारी आत्म-मूल्यांकन की पद्धतियां और निरपेक्षता का स्तर कैसा है, हमारी महत्त्वाकांक्षाओं का स्तर क्या है, और हमने अपनी आवश्यकताओं और लक्ष्यों के साथ अपने को भावनात्मक रूप से कितना जोड कर रखा हुआ है। ये सब चीज़ें मिलकर इसका निर्धारण करते हैं, कि हमारे भावनात्मक संवेगों का स्तर ( तीव्रता, इनकी आवृत्ति, इनके पैदा होने की बारंबारता, आदि ) क्या होगा।

अगर हम अपने व्यक्तित्व का विकास कर रहे हैं, ज्ञान और समझ को, विश्लेषण क्षमताओं को बढ़ा रहे हैं, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित करना और अपनी आवश्यकताओं और लक्ष्यों के साथ भावनात्मक जुड़ाव को कम करते जा रहे हैं तो निश्चित ही, हम अपने संवेगों के नियंत्रण और नियमन में सक्षम बनते जाते हैं। और इसके विपरीत होने पर हम अपने संवेगों के दास होते जाते हैं।

और समझने की कोशिश करते हैं।

साधारणतः मनुष्य अपने दैनन्दिनी जीवन में रोज कई तरह की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं से दो चार होता है। उसकी कई आवश्यकताएं वह महसूस करता है, कई इच्छाएं पैदा करता है और उनकी पूरी होने की आकांक्षाएं करता है। वह कई क्रियाएं करता है, और उनके लक्ष्य निश्चित करता है। इन सब के लिए वह यथाशक्ति अपनी परिस्थितियों का विश्लेषण करता है, अपने लक्ष्यों के अनुकूल परिस्थितियां पैदा करने की कोशिश करता है, जिन परिस्थितियां का नियंत्रण उसके हाथ में नहीं होता, वहां वह उनके सांयोगिक रूप से अपने पक्ष में होने की कल्पनाएं करता है, और क्रियाएं करता हुआ या सिर्फ़ संयोगों ( प्रचलित भाषा में कहें तो भाग्य ) के सहारे लक्ष्यों की प्राप्ति का इंतज़ार करता है। लक्ष्य प्राप्त होते हैं तो खुश होता है, लक्ष्य प्राप्त होने की संभावनाएं कम होती जाती हैं तो उदासी महसूसता है, और जब प्राप्त नहीं होते तो दुखी भी होता है।

यदि व्यक्ति परिस्थितियों का सही विश्लेषण कर, अपनी क्षमताओं का उनके सापेक्ष सही मूल्यांकन कर, सांयोगिक परिस्थितियों का पहले से परिकल्पन कर उनके हिसाब से अपनी योजना में तदअनुकूल सुनिश्चित परिवर्तनों की संभावना का सवावेश कर, लक्ष्य निश्चित करता और उसके अनुसार ही योजना बना कर सक्रिय होता है तो उसके लक्ष्य प्राप्ति की संभावनाएं बढ़ जाती है, फलतः आनंद की भी। इसके विपरीत यदि वह अपना अतिमूल्यांकन करता है, परिस्थितियों का सही विश्लेशण नहीं कर पाता, असंभाव्य लक्ष्य चुन लेता है, सही योजनाएं नहीं बना पाता, संयोगों या भाग्य के भरोसे रहता है, तो जाहिर है वह अपने लिए उदासी और दुखों को ही बुन रहा होता है।

यदि वह अपने इन लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रति भावनात्मक रूप से ज़्यादा जुड जाता है, इनकी प्राप्ति को अपने दूसरी चीज़ों जैसे कि प्रतिष्ठा, सम्मान, अस्तित्व आदि के साथ और जोड लेता है तो जाहिरा तौर पर खुश, उदासी और दुख की तीव्रता को और बढ़ा लेता है। वह ज़्यादा ही खुश होता है, ज़्यादा ही उदास हो सकता है, ज़्यादा ही दुख और अवसाद में घिर सकता है।

यदि वह, दैनंदिनी, अपने रोजमर्रा की छोटी-छोटी चीज़ों, गैरमहत्त्वपूर्ण चीज़ों के साथ भी ऐसे ही बंधनों में बंध जाता है तो जाहिरा तौर पर ऐसे खुशी या अवसाद के क्षणो की अवस्थाएं ज़्यादा सामान्य और नियमित सी हो जाती हैं। छोटी-छोटी चीज़ों के मामलों में ना केवल ये बार-बार होने लगता है, बल्कि क्योंकि उनके परिणाम प्राप्त होने का समय का अंतराल भी कम होता है, यह जल्दी-जल्दी भी होने लगता है। जल्दी-जल्दी खुश होना, या जल्दी-जल्दी उदास और दुखी होते रहना।

जल्दी-जल्दी होने का एक और मतलब यह भी है कि हम चीज़ों को वस्तुगत ( objective ) रूप से कम, तथा आत्मपरक ( subjective ) रूप से देखने के ज़्यादा आदी हैं। मतलब हम चीज़ों को  अपने हितों के सापेक्ष तौलने लगते हैं, हितानुकूल आकांक्षाएं पालने लगते हैं। हम चीज़ों से भावनात्मक रूप से ज़्यादा जुड जाते हैं, और उनके प्रति निस्पृह रहने की बजाए उन्हें खुश या दुखी होते रहने का जरिया सा बना लेते हैं।

जैसे जल्दी से बिना महनत किये अमीर बनने का लक्ष्य चुनकर हम लॉटरी का टिकट खरीद लेते हैं, निकल जाने पर खुशी से पागल से हो सकते हैं, और नहीं निकलने पर बेहद उदास हो सकते हैं। यहां लक्ष्य ही पहली बात गलत चुना गया है, बिना महनत किये अमीर बन जाने का, इसके साथ हम पैसे के ज़रिए मिलने वाली प्रतिष्ठा, सम्मान की आकांक्षा को भी जोड़े रखते हैं, दूसरी बात परिणाम की आकांक्षा में सांयोगिक अवसरों या भाग्य का सहारा लेते हैं। सही तरीके से देखा जाए तो इस परिणाम प्रप्त होने के बहुत ही कम अवसर हैं कई लाखों में एक, जाहिर है हम अपने लिए नकारात्मक संवेगों का जखीरा ही खड़ा कर रहे हैं।

जैसे कि किसी संवेगवश, हम अपने काम या नौकरी से घर आते वक़्त पत्नी के साथ कुछ एकांतिक पलों की कल्पना कर उसके साथ इन्हें गुजारने की आकांक्षाएं लिए हो सकते हैं। हम कल्पना करते हुए आ सकते हैं कि पत्नी घर में अकेली ही हो, बच्चे कहीं बाहर खेलने गये हों, कोई घर ना आया हुआ हो, आदि-आदि, और फिर हम घर पर पहुंच कर देखते है कि किसी कारण से यह संभव नहीं हो पाया क्योंकि आपकी चाही हुई कुछ परिस्थितियां विपरीत निकली, या कुछ नई परिस्थितियां पैदा हो गईं। अब चूंकि हमने इसके परिणाम के साथ अपने को बेहद आत्मपरक कर रखा था, हम उदास हो जाते हैं, चिड़चिडे हो जाते हैं। जबकि मामला हमने ख़ुद ही सांयोगिक बनाया हुआ था, हम पहले से कुछ परिस्थितियों के लिए तैयार नहीं थे, हमने पहले से ही यह तय नहीं किया हुआ था कि परिस्थितियों को देख कर ही यह पूर्वनिश्चित कदम उठाएं जाएंगे। किन्हीं और संयोगों के पैदा होने की संभावनाएं ज़िंदगी में हमेशा रहती ही हैं, इसलिए आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने को इसके साथ इतना भावनात्मक रूप से ना जोड़ा जाए। हो जाए तो ठीक, नहीं तो ठीक, आदि।

आपकी समस्या भी ऐसी ही कुछ हो सकती है। यहां कुछ इशारे लिये गये हैं, इनके बरअक्स आपको अपनी मानसिकताओं और वास्तविकताओं को टटोलना चाहिए। अपना मूल्यांकन करना चाहिए और तदानुकूल व्यवहार में परिवर्तन करने चाहिए।

हमको अपने व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए। अध्ययन करना चाहिए, अपने ज्ञान औए समझ को बढ़ाना चाहिए, अपनी विश्लेषण क्षमताओं को सटीक बनाना चाहिए, ज़िंदगी को उसकी वास्तविकताओं के साथ समझना सीखना चाहिए, तभी हम अपने संवेगों के नियमन और नियंत्रण के लक्ष्यों को बेहतर कर सकते हैं।

शायद यह सब आपके किसी काम का निकले। आगे के आपके संवाद से चीज़ें और साफ़ होंगी।
शुक्रिया।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 14 जुलाई 2012

फोबिया क्या है और क्यों होता है?


हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक मानवश्रेष्ठ से मेल के जरिए, फोबिया पर किए गए उनके प्रश्न पर एक संवाद स्थापित हुआ था। यह संवाद फोबिया को समझने के लिए एक आलेख के रूप में समेकित कर दिया गया है। इस बार यही संक्षिप्त आलेख प्रस्तुत किया जा रहा है।

वह कथन फिर से रख देते हैं कि आप भी इससे कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



फोबिया

फोबिया किसी भी चीज़ के प्रति अनजाने से भय से ग्रसित होना है। एक अतार्किक सा भय, जो हमें किसी चीज़ या स्थिति विशेष के प्रति इतना संवेदनशील और प्रतिक्रियात्मक बना देता है कि हम उनका सामना करना तो दूर, उनकी कल्पना मात्र से असामान्य हो जाते हैं। यह कुछ वास्तविक चीज़ों या स्थितियों के प्रति भी हो सकता है और कुछ काल्पनिक चीज़ों या स्थितियों के प्रति भी। कभी किन्हीं ख़ास चीज़ों या स्थितियों के प्रति यह कभी गंभीर भय का रूप ले लेता है, और कभी किन्हीं ख़ास चीज़ों या स्थितियों के प्रति यह बेचैनी मात्र के रूप में हो सकता है।

इनके मूल में कुछ आधारभूत जैविक सहजवृत्तियां और बाद की सक्रियता के दौरान विकसित हुए अनूकूलित प्रतिवर्तों की श्रृंखलाएं होती हैं। और इनके बने रहने के मूल में सक्रियता और व्यवहारों के उचित संगठन की कमी, परिवेश के वस्तुगत संज्ञान में कमी तथा सक्रियता के कौशलों में तथा परिस्थितियों और संभावनाओं के आकलन और तदनुकूल व्यवहार के निर्धारण की योग्यताओं का समुचित विकास की कमी होता है।

जैविक आधारों के नाते जीवन को नुकसान पहुंच सकने या मृत्यु की संभावनाओं के प्रति सहज रूप से ही एक विशेष प्रतिक्रियात्मक व्यवहार हमारे पास होता ही है, ऐसे में चीज़ों या स्थितियों के प्रति संसर्ग के हमारे पहले अनुभव जिनके कि आधार पर हमारे मस्तिष्क में प्राथमिक अनुकूलित प्रतिवर्त बन रहे होते हैं, बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। यदि इनके परिणामस्वरूप किन्हीं बेहद अप्रिय परिस्थितियों का सांयोगिक निर्माण हो जाता है तो यह हमारी चेतना में गहरे पैठ कर बेहद तीव्र और संवेदनशील अनुकूलित प्रतिवर्तों का निर्माण कर देते हैं, इनके प्रति एक भय पैदा हो जाता है और हमारा आगे का व्यवहार इनसे बचने या सामना होने पर इन्हीं के अनुसार बेहद असामान्य रूप से प्रतिक्रियात्मक और रक्षात्मक हो जाता है। जैसे कि कुछ सक्रियता संबंधी व्यक्ति विशेष के भय, झूलना, सायकल या गाड़ी चलाना, सड़क पर जाना, किसी कीड़े या जानवर विशेष से ड़रना, ऊंचाई से कूदना, किसी उपकरण या औजार विशेष के उपयोग संबंधी, आग, रंग संबंधी, आदि-आदि।

कई बार ऐसा भी होता है कि इन फोबिया के पीछे कोई प्रत्यक्ष अनुभव ना जुड़ा हुआ हो, बल्कि अपने परिवेश के व्यक्तियों से किसी चीज़ या स्थिति के बारे में भय पैदा करती सूचनाओं का अपने पूर्व के भय और असुरक्षाओं के साथ गहन आत्मसातत्करण, उस चीज़ या स्थिति विशेष के प्रति काल्पनिक भय का जखीरा इकट्ठा कर लेता है और इनके प्रति हम एक अनजाने से भय का संचार महसूस करते है और तदअनुसार अपनी सक्रियता को सीमित कर लेते है। जैसे कि व्यक्ति, स्थिति, जानवर या जगह विशेष, भगवान, भूत-प्रेत, आदि संबंधी भय।

ऐसा भी हो सकता है कि जब हम ऐसी स्थितियों में होते हैं जिसके कारण हमारा संज्ञान क्षेत्र या सक्रियता क्षेत्र सीमित हो जाता है और हम परिवेश का तत्काल विश्लेषण और संभावनाओं का आकलन करने में अक्षम हो जाते हैं, तब हमारे काल्पनिक भय उभर आते हैं और हम इनसे बचने के कोशिश और सापेक्षतः सुरक्षित परिवेश में रहना पसंद करते हैं। जैसे कि अंधेरे, बंद जगहों, अकेलेपन, तेज़ गति, अत्यधिक ऊंचाई आदि सबंधी भय।

कई बार ऐसा भी होता है कि जब हम अपने श्रेष्ठता-बोध या सफलता के लिए कुछ ज़्यादा ही सचेत रहते हैं और अपमान या असफलता के प्रति अधिक ही संवेदनशील हो उठते है और इन्हें अपने संपूर्ण अस्तित्व से जोड कर देखने लगते हैं तथा जीवन-मरण का प्रश्न बना लेते हैं, तो यह सचेतनता हमें ऐसी सक्रियताओं के प्रति एक भय उत्पन्न करती है और हम इनसे बचने और कतराने में ही अपना श्रेष्ठ समझने लगते हैं। जैसे संवाद, प्रतियोगी सक्रियताओं, आदि के भय।

ऐसी ही कई मानसिक संक्रियाएं और अन्योन्यक्रियाएं, ऐसे कई घालमेल कर सकती है कि अनोखे ही घटाघोप भी पैदा हो सकते हैं। कई तरह के अंतर्गुथित भय और प्रतिक्रियाएं व्यवहार का अंग बन सकती हैं।

कुलमिलाकर यह एक मानसिक भय की तरह है जो व्यवहार और सक्रियता के दौरान किन्हीं वास्तविक या काल्पनिक अप्रिय अनुभवों के कारण विकसित होता है। जाहिर है इससे मुक्ति के स्रोत भी व्यवहार और सक्रियता की उन नियंत्रित प्रक्रियाओं में ही उभर सकते हैं जो हमें इन अप्रिय अनुभवों के बारे में हमारी राय, प्रवृत्ति और रवैये में आमूलचूल परिवर्तन ला सकती हो, जो हमें इन फोबियाओं के प्रति हमारी प्रतिक्रिया को नियंत्रण में रखने और इनसे निबट सकने का आत्मविश्वास पैदा कर सकती हो, जो हमें काल्पनिकताओं के असुरक्षित घटाघोप से वास्तविकता की सुरक्षित ज़मीन दिखा सकती हो।



इस बार इतना ही।

आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 7 जुलाई 2012

ज़िदगी मानसिक प्रलापों से नहीं चला करती

हे मानवश्रेष्ठों,

कुछ समय पहले एक मानवश्रेष्ठ से उनकी कुछ समस्याओं पर एक संवाद स्थापित हुआ था। कुछ बिंदुओं पर अन्य मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण करने के उद्देश्य से, पिछली बार संवाद के कुछ अंश प्रस्तुत किए गए थे। इस बार भी उसी संवाद से कुछ और सामान्य अंश यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



( संवाद में उन मानवश्रेष्ठ की बातों को एकाध जगह अलग रंग में सिर्फ़ संक्षिप्त रूप में दिया जा रहा है, ताकि बात का सिरा थोड़ा पकड़ में आ सके। बाकी जगह सिर्फ़ समय  के कथनों के अंश है। कुछ जगह संपादन भी किया गया है अतः लय टूट सकती है। )

आजकल मैं कोई काम नहीं कर रहा हूं सिवाय आराम के.....सब कुछ रुका पड़ा है....बिलकुल भी कुछ नहीं कर रहा हूं..... 

अभी कोई निष्कर्ष निकालने की अवस्था नहीं है। परंतु यह कहा जाना ही चाहिए कि जब अंतर्विरोध इतने हावी हो जाते हैं, कि कुछ राह नहीं सूझती, या यूं कहे, सूझी हुई राह या तय की गई सक्रियताएं भी जब बेमानी सी लगने लगती हैं, तो सिर्फ़ दो ही राह होती हैं : या तो व्यक्ति इन बेमानी सी क्रियाओं को यंत्रवत करता जाए या फिर कुछ ना करे। सामान्यतयः व्यक्ति इस दूसरी राह की ओर ज़्यादा प्रवृत्त होता है क्योंकि यह उसे अपनी मानसिकता के ज़्यादा अनुकूल लगती है, उसकी सोच को सिद्ध करती सी लगती है। परंतु यह बहुत ही गंभीर नशा पैदा करने वाली होती है, यह उसकी आदत का हिस्सा बनने लग सकती हैं। उसकी सक्रियता और सीमित होने लगती है, मानसिक घटाघोप और हावी होने लगता है, वह और अंतर्मुखी होने लगता है और फिर इसके जस्टिफ़िकेशन की प्रक्रिया भी साथ-साथ शुरू होती है, जो अंततः उसे एक निष्क्रिय प्राणी में बदलने लगती है, उसकी मनुष्यता खोने लगती है

जाहिर है, भावी राह पहले विकल्प को चुनने में ही निकल सकती है, भले ही वहां यंत्रवत सी बेमानी सक्रियता ही क्यूं ना लग रही हो, उसका मतलब कुछ भी निकलता सा ना लग रहा हो। जब वह कुछ करने की तरफ़ प्रवृत्त रहेगा, तो हो सकता है कुछ मानी भी निकलने शुरू हों. जो भी तक उसमे मानसिक परिदृष्य में शामिल ही ना रहे हों, हो सकता है इसी सक्रियता से कुछ ऐसे रास्ते सूझें जहां कुछ मानी सा महसूस होने लगे। मनुष्य अपनी सक्रियता से ही अपनी आभा बना और बेहतर कर सकता है, निष्क्रियता तो इन्हें खोने की राह ही प्रशस्त करती है

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ये जो वस्तुस्थितियां हमारे पास हैं, ये हैं। इनके अतीत के कारण और उनकी व्याख्याएं हमारे पास हैं। परंतु अतीत को बदला नहीं जा सकता, यह आप जानते ही हैं। जाहिर है परिवर्तनों और बदलावों की संभावना अभी वर्तमान में ही है, और इसी वर्तमान की सक्रियता में ही हमारे बेहतर भविष्य की संभावनाएं शामिल होती हैं

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एक बात तो हुई होगी, जब हम इस तरह से अपने दिमाग़ की वस्तुस्थिति को अभिव्यक्त करते हैं, और वह भी ख़ासकर लिखित रूप में, एक अनोखा सा सुकून मिलता है। दिमाग़ से एक बड़ा बोझ सा उतरता सा लगता है। आप अपनी इस कहानी या कहें संक्षिप्त सी आत्मकथा को लिखने में ही काफ़ी मज़ा सा लिए होंगे, समस्या की बात करते करते ऐसा लगा होगा कि जैसे आप किसी और की समस्या पर बात कर रहे हैं, उससे दूर सा हो रहे हैं

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आप मानसिक उद्वेलन में है, चिताओं में है, अनिर्णय की स्थितियों में है। समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करना चाहिए? कैसे करना चाहिए? जाहिर है कोई रास्ता नहीं सूझ पा रहा है। इसलिए जाहिरा तौर पर कुछ नहीं कर रहे हैं। और जब आदमी वस्तुगत रूप से कुछ नहीं कर पा रहा होता है, तो आत्मगत यानि मानसिक प्रक्रियाओं में होता है, सोचता है

जब सोचता है, और यह साफ़ दिख रहा हो कि उसे अपनी आकांक्षाओं के विपरीत निर्णय लेने की वास्तविक परिस्थितियां मौजूद है, और उसे इन्हीं के अनुसार अनुकूलित होना होगा, यानि निर्णय क्या होना है, वस्तुगत रूप से क्या होना है, यह निश्चित सा होता है। तब उसकी सोच की दिशा और मानसिक दशा यही हो सकती है, कि वह कभी जुंझलाए, कभी अपने पर गुस्सा हो, कभी परिवेश पर हो, कभी अपनी स्थिति को विश्लेषित करे, कभी विद्रोह की सोचे, कभी अपनी स्थिति को जस्टीफ़ाई करे, कभी अपने को, होने वाले निश्चित निर्णय और कार्यवाहियों के लिए तैयार करे, आदि-आदि।

विद्रोह की भावना, अक्सर ऐसी ही परिस्थितियों में पैदा होती है और जब विद्रोह वस्तुगत रूप नहीं ले सकता हो, तो मनुष्य अपने आपको सामाजिक परिवेश के सामने शहीद की तरह पेश आने, सामाजिकता के लिए अपनी व्यक्तिगतता का बड़ा सा त्याग करने का सा मूल्यगत अहसास पाने के जरिए, वह अपने आत्म को, अपने अहम को संतुष्ट करने की भी कोशिश करता है। सामान्य लोग इसे ज़्यादा सामान्य तरीके से कर पा लेते हैं, विशेष लोग इसे विशेष तरीके से प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। आप यही सब सा कर रहे है।

आपने जो कुछ अध्ययन किया है, आपने जो सतही सी अंतर्दृष्टि पाई है, उसके जरिए आप अपनी इन परिस्थितियों से पैदा हुई वास्तविक भावानुभूतियों के यथासंभव विश्लेषण में लगे हैं, उनका उत्स ढूंढ़ रहे हैं। और यह सब भी इसलिए हो सकता है कि अभी आपको अपने व्यक्तित्व के नकारात्मक से लगते पहलुओ ( जिनके कि कारण आप निर्णय लेने और उस पर चलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं ) के कारणों का उत्स अपनी सामाजिक परिवेशीय स्थितियों में निकाल कर अपने आपको एक तसल्ली सी दे सकें, अपनी स्थिति और मानसिकता को जस्टीफ़ाई कर सकें, अपने अहम को इसकी जिम्मेदारियों से मुक्त कर सकें।

इसीलिए आप अपने द्वारा पढ़ी जा रही पुस्तक की ही भाषाई शब्दावली और पद्धति के अनुसार ही इन सबका उत्स, बचपन, अपराधबोध, इमोशनल सपोर्ट की कमी, आदि के हिसाब से ही देखने की कोशिश कर रहे हैं और इसका बहुत प्रभाव आप द्वारा प्रस्तुत अपने आत्मकथ्य में दिखाई देता है, जहां आप इन्हीं बिंदुओं के सापेक्ष अपने अतीत को खंगाल रहे हैं।

अपने आपको देखना, अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं को पहचानना, ताकि उनका समुचित संधान किया जा सके। उनके कारणो को समझना ताकि इस संधान में मदद हो सके, फिर इस संधान के साये में हम अपने आप में, अपनी सक्रियता में, अपनी परिस्थितियों में बदलाव कर सकें। ज़िंदगी से और बेहतर तरह से जूझ सकें, यह एक अलग बात है। और इन चीज़ों को उपरोक्त अस्थिर मानसिकता के जस्टिफ़िकेशन के लिए इस्तेमाल कर, अपनी अकर्मण्यता को बनाए रखना, यह अलग बात है। हालांकि शुरूआत इसी फ़ेज से होती है पर दोस्त हमे इसको ऊपर वाले फ़ेज तक ले आना है, वरना हम जैसे कि जैसे बने रहेंगे। किसी भी मानसिक प्रक्रिया का कोई खास मतलब नहीं, यदि वह ठोस वस्तुगत परिणाम देने में असमर्थ रहे।

यह थोड़ा सा अधिक ही कठोर विश्लेषण है, पर वास्तविकता से रूबरू होना बेहद आवश्यक है। क्योंकि रास्ते इसी से निकलेंगे। मानसिक प्रक्रिया को एक झटका जरूरी है, उसका अनुकूलित तारतम्य तोड़ने के लिए।

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ज़िदगी, मानसिक प्रलापों से नहीं चला करती। ज़िंदगी ठोस चीज़ है, और उसको ठोस आर्थिक आधार चाहिए। यह पहली और सबसे आवश्यक जरूरत है। आपके पास कुछ नया करने को अभी समय और मानसिकता, दोनों नहीं है। फिलहाल जो आप कर सकते हैं जिसकी काबिलियत आपके पास है, उसको ही अपने जीवनयापन का आधार बनाईये। इसको गंभीरता से लीजिए। यह आवश्यकता है, इसलिए इसे अभी अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरी करने का जरिया ना समझिए। इसे शुरू कीजिए, जैसा कि आपने कहा भी है। धीरे-धीरे कदम जमाइए, आय का जरिया स्थापित कीजिए, अपना एक आधार स्थापित कीजिए फिर आने वाला समय नये आयाम ले कर आ सकता है। आपने काफ़ी समय नष्ट कर लिया है।

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जब इतनी ज़िंदगी पिताजी के बलबूते, उन पर निरभरता के साथ गुजार ली है ( और ऐसा ही हुआ करता है, यह शर्म की इतनी बात नहीं। जितना कि यह कि आप इसे छोटा बता कर, अपनी राह बनाना चाह रहे हैं और अभी आपकी जिसकी सामर्थ्य भी नहीं है और फलतः कुछ कर भी ना रहे हैं )  तो इसी आधार पर अपने आगे के कदम उठाईये, और फिर जैसा कि आपने खु़द समझा और कहा है कि बाद में आपके पास अवसर होंगे, जब आपके पैर किसी एक जगह तो टिके होंगे कि आप अपने आधारों को बढ़ा सकें।

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अभी वही चल रहा है, यह इसलिए नहीं, वह इसलिए नहीं, कुलमिलाकर कुछ भी नहीं। यह अच्छी स्थिति नहीं है। समाज ऐसे अकर्मण्यवादियों से धीरे-धीरे पीछा छुड़ा लेता है, जब तक जुंबिशों की आस बाकी रहती हैं, वह फिर भी लगा रहता है

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काश इच्छाएं करना ही पर्याप्त होता, काश कल्पनाएं ही पेट भर दिया करतीं। क्षमा कीजिएगा, आपने अपने गुरू जी, कुछ सीखा ही नहीं, सिर्फ़ पूजा करने से, विचार और गुण प्राप्त नहीं हो जाते। काश सभी को ऐसे प्रेरणास्रोत मिले होते, आपको सभी कुछ सहज सुलभ हो रहा है, आपके पिताजी की कृपा से, इसलिए आपको इनका मूल्य मालूम नहीं।

दुनिया में सबसे आसान काम होता है, अपने माता-पिता को गालियां देना। सबसे सोफ़्ट टार्गेट हैं, सबसे निकट भी, और इसलिए भी कि वे झेल भी जाते हैं। अधिकतर मां-बाप अपने पास उपलब्ध संसाधनों, परिस्थितियों और जैसी भी समझ है, उसके साथ अपने बच्चों को, उनके हिसाब से बेहतर या कहें श्रेष्ठ देने की कोशिश करते है।

अब ये परस्थितिगत अभिशप्तताएं है, जैसी भी हमारे पास है, ये है। पहले भी कहा था, अतीत और उसके प्रभावों को बदला नहीं जा सकता पर वर्तमान की जुंबिशों से प्रभावों को कम किया जा सकता है, आप अपना भविष्य जरूर बदल सकते हैं।

माता-पिता ने अपनी जैविक जिम्मेदारी निभाई, आप इसी का परिणाम हैं, वरना आप ही नहीं होते। जैसा बन पड़ा और आपकी बातें सुन कर लग रहा है काफ़ी बेहतर जीवन परिस्थितियां आपको उपलब्ध कराई हुई हैं। चलिए आपके हिसाब से वे नामुराद हैं यानि कि आप इतने समझदार और जिम्मेदार हो गये हैं कि अपने माता-पिता द्वारा प्रदत्त वस्तुस्थिति की आलोचना कर सकते है, क्या होना चाहिए यह समझ रखते हैं, कैसा होना चाहिये था यह जानते हैं।

तो फिर आप ही अपनी जिम्मेदारियां निभाईए। जब आप यह जानते हैं कि एक पिता को कैसा होना चाहिए तो आप यह भी जानते-समझते होंगे कि एक अच्छे बेटे को कैसा होना चाहिए। उसे अपने माता-पिता के साथ कैसे भाव रखने चाहिए, कैसा व्यवहार करना चाहिए, अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियां क्या होती हैं, उन्हें कैसे निभाया जाता है, उसकी जैविक और सामाजिक जिम्मेदारियां क्या है, बगैरा-बगैरा।

अपनी नाकामियों और अपनी अकर्मण्यता के लिए किसी और की तरफ़ उंगली उठाना सबसे आसान कार्य है, आप इसे शौक से करते रह सकते हैं आखिर अभी भी पिताजी की कृपा से बढ़िया ज़िंदगी चल ही रही है या फिर व्यवहारिक रास्ते निकालकर, कुछ करना शुरू कर सकते हैं और अपनी ज़िंदगी को आनंद से भर सकते हैं।

अभी आपका चिंतन, मूलतः इस दिशा में है कि वस्तुस्थिति का जिम्मेदारी किस पर थोपी जाए। वस्तुस्थिति के कारकों की समझ पैदा करना इसलिए आवश्यक होता है कि ताकि उसे बदलने की संभावनाएं तलाशी जा सकें। आपको जरूरत चिंतन को यह दिशा देने की है कि वस्तुस्थिति जैसी भी है उसमें से क्या राहें निकाली जाए और जैसा चाहते हैं, उन परिस्थितियों का निर्माण कैसे किया जाए

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दो टूक निर्णय लीजिए, उनके हिसाब से चलिए पूरी ईमानदारी से। आगे का आगे देखा जाएगा, जैसे अभी राह निकाल रहे हैं वैसे ही बाद में भी कोई बेहतर उपलब्ध राह निकाल ली जाएंगी। वगरना जैसे अभी कुछ नहीं कर रहे हैं, कभी भी कुछ भी नहीं कर पाएंगे।

अनिर्णय की स्थिति बेहद खतरनाक होती है। लीजिए, कैसा भी निर्णय लीजिए। अगर आने वाले समय में निर्णय गलत भी ठहरता है, तो कोई बात नहीं उसे दुरस्त करेंगे, नये निर्णय करेंगे और हम देखेंगे के हमारे निर्णय बेहतर होते जा रहे हैं। असफ़लता के ड़र से, प्रयासों को, सक्रियता को बंद नहीं किया जा सकता। लड़ेंगे, जूझेंगे। ज़िंदगी से, जितना आता है, जैसी परिस्थितियां है उसी के साथ संघर्ष करेंगे। जीत की राह इन्हीं से निकलेगी



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय
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