शनिवार, 29 दिसंबर 2012

कुछ भी मौलिक नहीं होता

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



कुछ भी मौलिक नहीं होता
( संदर्भ के लिए पिछली प्रविष्टि ‘सतही वाद-विवाद से मानसिकता नहीं बदलती’ देखें )

'कोई मौलिक विचार बूझ पाना या कुछ मौलिक रच पाना बहुत ही दुष्कर कार्य है, सामान्य प्रयासों और परिस्थितियों में लगभग असंभव। आप धीरे-धीरे यह समझेंगे। ' यह कुछ समझ आता है।

इसकी पृष्ठभूमि में एक और महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि मौलिकता की अवधारणा को अधिकतर वैयक्तिकता के साथ जोडकर देखा जाता है, परंतु यह पूरा सच नहीं हैं। कुछ भी मौलिक नहीं होता, ऐसा भी कहा जाता है।

सभी भौतिक और वैचारिक अवस्थाएं एक क्रमिक विकास में होती हैं। यानि मानवजाति अपने अनुभव और ज्ञान को संचित करते हुए, उसे आगे की पीढ़ी को अंतरित करते हुए, उसका क्रमिक विकास करती हुई यहां तक पहुंची है, और यही अभी भी जारी है। यानि कि हर स्तर का ज्ञान, अपने पूर्व के ज्ञान पर ही अवलंबित होता है। हर नया विचार या खोज, मानवजाति की पूर्व के अनुभवों के इसी संचय पर निर्भर करती है।

इसका मतलब यह हुआ कि किसी ज्ञान, विचार या खोज के पीछे पूरी मानवजाति के ज्ञान की थाति अपना काम कर रही होती है, अपना योगदान कर रही होती है, उस खोज की पूर्वपीठिका तैयार करती है। कोई भी व्यक्ति शून्य से शुरू करके, मानवजाति के संचित ज्ञान से अपने को अद्यतन किए बगैर कुछ नहीं कर सकता। यानि क्या वैयक्तिकता का दावा ( यहां आप पेटेंट बगैरा को रख सकते हैं, वैयक्तिक अश्लील रॉयल्टीज़ को रख सकते हैं ) बिल्कुल ही गैरवाज़िब नहीं होना चाहिए ?

नितांत नवीन और मौलिक कार्यों के व्यक्तिगत प्रयासों के लिए थोड़ा-बहुत वैयक्तिक श्रेय दिया जा सकता है, ज्ञान की इसी क्रमबद्धता में उनके पड़ाव को उनसे जोड़कर देखा जा सकता है, उनकी सांयोगिक ऐतिहासिकता को दर्ज़ किया जा सकता है। परंतु संपूर्ण मानवसमाज के क्रमिक रूप से संचित ज्ञान और अनुभवों के आधारों पर परवान चढ़ सके इस वैयक्तिक अवदान के लिए उन्हें असामाजिक और अश्लीलता के स्तर तक पहुंचे, किन्हीं विशेष फायदों के लिए लाइसेंस नहीं दिया जा सकता।

परंतु अभी यही हो रहा है, बाज़ारवाद ऐसे वैयक्तिक अवदानों को अपने हित में प्रोत्साहित करता है, उन्हें एक भरपूर हिस्सा देता है, और उन्हें और खोजों को अपने मुनाफ़ों की सेवा में लगाए रखता है। चारों तरफ़ लूट मची है, और उस लूट में अपनी हिस्सेदारी के लिए अफरातफरी भी। पूरे मानवसमाज के क्रमिक प्रयासों से निर्मित उसकी इस दुनिया को कुछ मानवसमूह अपने हितार्थ जमकर दोहन करने में लगे हैं।

'यानि क्या वैयक्तिकता का दावा बिल्कुल ही गैरवाज़िब नहीं होना चाहिए ?' यह सवाल...

अगर इस प्रश्न का जवाब दें तो शायद यह हो, ‘ हां, वैयक्तिकता का दावा बिल्कुल ही गैरवाज़िब होना चाहिए।’ यही मंतव्य था।

यह अश्लील रॉयल्टी क्या है, समझ नहीं आया।

वैयक्तिक पेटेंट या व्यक्तिगत श्रेयों के लिए, उस का व्यवसायिक प्रयोग करके उसके ज़रिए अकूत मुनाफ़ा कमाने वाले व्यक्ति, समूह अथवा कार्पोरेट्स काफ़ी बड़ी मात्रा में रॉयल्टी के रूप में मुनाफ़े का हिस्सा पहुंचाते हैं, या वह ख़ुद इसे मोटी रकमें लेकर बेचते हैं।

इसे अश्लील, इन श्रेयों के पीछे के सामाजिक अवदानों के सापेक्ष कहा गया है जिसको पिछली बार विस्तार देने की कोशिश की गई थी। यानि जिसके पीछे पूरी मानवजाति, समाज का अवदान हो, उसे भुलाकर, या कहे नकार कर अपने लिए वैयक्तिक रूप से अय्याशी के महल खड़े कए लेना हमें तो अश्लील ही लगता है, खासकर इन हालात में जबकि मानव-समाज का बहुल हिस्सा जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति से भी महरूम है।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

सतही वाद-विवाद से मानसिकता नहीं बदलती

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। इस बार संवादों के बीच का एक दोस्ताना लानत-मलामती पत्र प्रस्तुत किया जा रहा है। संवादों के अंश आगे जारी रहेंगे।

आप भी इससे कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



सतही वाद-विवाद से मानसिकता नहीं बदलती

आज थोड़ा आप पर आपकी बातों पर संदर्भ से हट कर कुछ कहने का इरादा है। आपको बुरा लग सकता है, पर यही फिलहाल हमारा लक्ष्य है, ताकि अच्छा लगने की शुरुआत हो सके। बुरा लगना, पहला कदम है चिंतन को नवीन दिशा देने के लिए।

लगता है, हमारी बातचीत की दिशा, जैसा कि हम लक्षित करके शुरू हुए थे, थोड़ी अलग हो गई है। हमारा मकसद आपसी संवाद के जरिए, आपकी जिज्ञासाओं और सैद्धांतिक उलझनों पर कुछ इशारे करना था, ताकि आप अपनी सक्रियता के लक्ष्य इस वैयक्तिक और वैचारिक विकास हेतु प्रवृत्त कर सकें। पर अभी ऐसा लग रहा है कि संवाद बहस का रूप ले रहा है। निरर्थक बहसों, सहमति या असहमति के पायदानों पर पहुंचना या पहुंचाना हमारा मंतव्य नहीं रहा है। आपको सोचने और पुनर्विचार करने का अवसर पैदा करना लक्ष्य है, उसी हेतु हम कुछ गंभीर इशारे आपकी ओर उछालते रहते हैं, और उम्मीद करते हैं कि वे आपकी चिंतन प्रक्रिया में कुछ हलचल कर सकें।

आप बहुत ज़ल्दी में लगते हैं, प्रतिक्रियात्मक हैं, निष्कर्षात्मक बैचैनी से भरे हुए हैं। अहम् और श्रेष्ठता बोध से भरे हुए। यह आपकी यहां की बातचीत के अलावा भी नेट पर यत्र-तत्र देखे गए बहस-मुहाबिसों के संदर्भ में भी कहा जा रहा है। आपकी बातों में मैं, मेरा इतना होता है कि, वह भी इतना दंभ और अतिआत्मविश्वास से भरा हुआ कि हमें बैचैनी होने लगती है। सही होना ही महत्त्वपूर्ण है, वह भी अपने नज़रिए और मान्यताओं के हिसाब से नहीं, वरन् वृहत्तर मानवजाति के हितों के सापेक्षतः। सही साबित होना, गलत साबित करना या सही दिखना कोई मायने नहीं रखता। ये तात्कालिक सीमाओं में होने वाले वैयक्तिक मामले हैं, जिनके तात्कालिक परिणाम उस वक़्त की आपकी अपनी सीमाओं पर निर्भर होते हैं। जो जितना झख मारने की स्थिति में होता है, उतना ही वह टिका रहता है और टिके रहने को ही अपनी वैयक्तिक जीत समझने को अभिशप्त होता है।

विचार और बात पृष्ठभूमि में चली जाती है, और वैयक्तिकता हावी हो जाती है। श्रेष्ठताबोध हावी हो जाता है। वैसे भी, छोटे से समय के सतही वाद-विवाद से कभी भी किसी की मानसिकता नहीं बदली जा सकती, और यह बहस का रूप लिये हो तो कतई भी नहीं। इसलिए हमें गलतफहमियां नहीं पालनी चाहिए कि हम कुछ बहसों से, कुछ तथ्यों से, मनमर्जी व्याख्याओं और तर्कों से किसी के व्यक्तित्व और विचारों पर बड़ा असर डाल सकते हैं। थोड़ा बहुत असर की भी संभावनाएं भी वहीं रहती हैं जहां कि यह संवाद और आपसी विश्वास के साथ हुई ठंड़ी बातचीत में के दौरान हुआ हो।

हम किसी भी तरह के श्रेष्ठताबोध को पसंद नहीं करते, इसलिए नहीं कि यह हमारी पसंद-नापसंद का मामला है, वरन् इसलिए कि यह मनुष्यता के लिए बेहतर नहीं है। श्रेष्ठताबोध, किसी की कमतरी पर टिका हुआ होता है। यह मनुष्य-मनुष्य के बीच में गैरबराबरी, अलगाव, नफ़रत का वायस है, इसीलिए अननुकरणीय है, त्याज्य है। इसलिए धार्मिक, नस्लीय, वैयक्तिक, भाषीय, राष्ट्रीय आदि श्रेष्ठताबोधों के चश्में आधारित विचारधाराएं, मानसिकताएं हमें प्रभावित नहीं करती। किसी भी आत्मपरक लक्ष्य और रूप से व्याख्यायित की गई तथ्यात्मकता बेहतर नहीं है।

हमने आपके सामने कई गंभीर चीज़ें भी रखी, क्लिष्ट संकल्पनाएं भी। और उम्मीद की आप शायद उनसे गुजर कर थोड़ा आंदोलित होंगे, समझ नहीं आने पर उन्हीं के आसपास अपनी जिज्ञासाएं पेश करेंगे। पर ऐसा नहीं हो पा रहा है, आप सिर्फ़ तात्कालिक रूप से प्रतिक्रिया देते हैं, अपनी मान्यताओं के साथ उन पर कोई गंभीर आलोड़न-विलोड़न नहीं करते। आप सिर्फ़ उन्हें अपने चश्में से देखते हैं, तुरंत ही सहमत या असहमत होते हैं और अपनी मान्यताओं की खिलाफ़त सूंघते ही तुरंत बहस-मुहाबिसे के लिए उद्यत हो जाते हैं।

आपने अपने जरा से अनुभवों और जरा से अध्ययन से प्राप्त छुटपुट, भावुक, सतही और सामान्य से विचारों को, इतना मौलिक, इतना क्रांतिकारी, इतना जरूरी समझ लिया है कि आप इस श्रेष्ठताबोध के घटाघोप से बाहर आना ही नहीं चाहते। आपको जिस तरह यह अनोखा और नवीन सा लग रहा है, उतना ही यह एक सामान्य परिघटना है। सभी ऐसे आवेगों से गुजरते हैं, सभी को ऐसा लगता है कि उसके अनुभव, उत्पन्न विचार नितांत मौलिक और अनोखे हैं। परंतु जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते जाते हैं, पता चलता जाता है कि ये एक सामान्य परिघटना ही थे, सभी ऐसे ही आवेगों से गुजरते हैं, सभी ऐसा ही समझते भी हैं। दुनिया बहुत बड़ी है मित्र। हम जब तक किसी भी क्षेत्र में अपने से पहले रचे गए, बुने गए, कहे गए, समझे गए, स्थापित को जान और समझ नहीं लेते, आत्मसात् नहीं कर लेते, तब तक कुछ नया रच ही नहीं सकते। कोई मौलिक विचार बूझ पाना या कुछ मौलिक रच पाना बहुत ही दुष्कर कार्य है, सामान्य प्रयासों और परिस्थितियों में तो लगभग असंभव। आप धीरे-धीरे यह समझेंगे। अगर आपने समझना चाहा तो, वरना अपने श्रेष्ठताबोध के घेरे में अधिकतर सभी ही जीते ही रहते हैं, अपना पूरा जीवन निकाल देते हैं।

जो कौम ऐसी श्रेष्ठताबोधों से निकलने को राजी ही नहीं होती, निकलना ही नहीं चाहती वह कुछ भी नया और वास्तविक श्रेष्ठ रच ही नहीं सकती। यही हमारी टिपिकल सामान्य भारतीय मानसिकता है। धार्मिकता और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण से लबालब, सामंती प्रवृत्तियों से लबरैज, अपने ही बुने-चुने श्रेष्ठताबोधों से भरी-उफनी हुई। यही कारण रहा है, और है कि प्राचीन समय को छोड़कर अभी तक ना तो कुछ नया रच पाये हैं, ना कुछ नया कर पाये हैं। हमारे पास एक भी मौलिक वैज्ञानिक नहीं है, ढंग का टेक्नोक्रेट नहीं है। इसलिए इससे मुक्ति पाना, और दिलाना हमारा अभीष्ट होना चाहिए। ना कि इसी मानसिकता को तुष्ट करता कोई नया सा घटाघोप।

यह बहस करने के लिए, आपके विचार जानने के लिए, आपकी राय, आपकी सहमति या असहमति प्राप्त करने के लिए लिखा दस्तावेज़ नहीं है। अगर आपको इसमें कुछ ठीक लगे तो इसे छोड़कर आगे बढ़ना, गलत लगे तो भी छोड़ कर आगे बढ़ना। क्योंकि यह जरूरी नहीं कि यह आपके सापेक्ष सही ही हो, बस यह है और आवेग में लिख दिया गया है। कुछ आपके सापेक्ष सही हो तो बेहतर करने की चेष्टा, कुछ नहीं हो तो उसको दिल सा ना लगाने की प्रवृत्ति, हमें विकसित करनी चाहिए।

हम आपमें इसे समझ पाने और अन्यथा नहीं लेने की क्षमता महसूस करते हैं, आपमें संभावनाएं देखते हैं, इसीलिए यह जरूरी समझ रहे हैं और लिख पा रहे हैं। आगे भी जब भी जरूरी लगा, कुछ ऐसा-वैसा लिखते रहेंगे। उम्मीद है कि हमेशा की तरह ही आप आपकी शान में की गई इन गुस्ताखियों को आया-गया करते रहेंगे।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

हिप्नोटिज़्म और होम्योपैथी

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



हिप्नोटिज़्म और होम्योपैथी

पहले जानना चाहता हूँ कि ये हिप्नोटिज्म क्या है और इसके लाभ क्या हैं? मुझे तो ये कुछ अजब और चमत्कारी किस्म का लगता है क्योंकि कोवूर सहित तर्कशील सोसाइटी हरियाणा और पंजाब के लोगों की किताबों में बहुत से मानसिक रोगों खासकर भूत आदि का वर्णन मिलता है जिन्हें वे हिप्नोटिज्म से ठीक करते हैं। ये कैसे सम्भव है? क्या इसका लाभ इतना है कि व्यक्ति अपने पर और  कुछ समस्याओं में दूसरों की सहायता कर सकता है? अगर हाँ तो कैसे? क्या इसे सीखना होता है और कैसे होगा ये? बार-बार पढ़ने से इसके बारे में सवाल करने की इच्छा हुई इसलिए पूछा।

हमें इसके बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है। पर यह तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपना कर जाना ही जा सकता है कि प्राकृतिक नियमों से परे के चमत्कारों के दावे खोखले होते हैं। सम्मोहन ( हिप्नोटिज़्म ) की अवधारणा, जैसा कि चमत्कारी रूप में इसे प्रचारित किया जाता है, सभव नहीं है। हां, दिमाग़ की कार्यपद्धतियों की अपनी सीमाएं हैं और इसे जानकर दिमाग़ को बखूबी भ्रमित किया जा सकता है। इसी का फायदा उठाकर इससे हो सकता है कुछ सकारात्मक क्रियाएं भी संपन्न की जा सकती हैं। पर यह भ्रम ऐसा भी नहीं होता, जैसा कि समझा जाता है या बताया जाता है कि कोई व्यक्ति कुछ रहस्यमयी हरकतें करके किसी दूसरे की चेतना पर अपना संपूर्ण नियंत्रण स्थापित करले कि वह उसके निर्देशानुसार कार्य करने को मजबूर हो जाए।

सम्मोहन इसके शाब्दिक अर्थ में ही अधिक उचित जान पड़ता है। यानि कि किसी व्यक्ति को, दूसरे व्यक्ति के गुण, उसकी सुंदरता, उसका व्यक्तित्व, उसका ज्ञान इतना प्रभावित करले कि यह कहा जा सके कि उसने मुझे मोह लिया है, मोहित कर लिया है।

अविकसित, अपरिपक्व चेतनाओं को, किसी विशेष लक्ष्यों या सिद्धांतों के लिए, उसके विश्वासों से, उसकी आस्थाओं से, उसके अज्ञान का फ़ायदा उठाते हुए अनुकूलित कर लेना भी सम्मोहन की श्रेणी में रखा जा सकता है। इसी तरह के सम्मोहित करने वाले प्रभावों और कार्यवाहियों से ही अंधराष्ट्रवादी, धार्मिक कट्टरता, आतंकवाद जैसी मानवविरोधी कार्यवाहियों के लिए किसी को उकसाया या तैयार किया जा सकता है। शायद यही सम्मोहन है।

किसी मानसिक अपरिपक्व और अस्थिर व्यक्ति को, मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग के जरिए जिस तरह से विकसित और स्थिर करने की कोशिश की जाती है, यह भी एक तरह का सम्मोहन ही है। अपने से अधिक जानकार से लगते, चमत्कारी से लगते व्यक्ति के सामने, या अपनी समस्याओं से मुक्ति की संभावनाओं के चमत्कारों के मद्देनज़र, अक्सर सापेक्षतः अपरिपक्व व्यक्तियों को मानसिक और यदि यह असर अधिक गहरा गया हो तो शारीरिक समर्पण करते हुए देखा जा सकता है। धार्मिक और योगी बाबाओं के यहां जुटती और मरती भीड़ में क्या यही सम्मोहन का मनोविज्ञान नहीं काम करता है।

आगे आप ख़ुद दिमाग़ लड़ाएं, इस पर और जानें।

एक जिज्ञासा है, लेकिन विषय से बाहर। होमियोपैथी को अवैज्ञानिक और झूठा कहा जाता है। इसका सत्य क्या है?…प्रतीक्षारत आपके दिशा-निर्देश के लिए।

फिलहाल के विषय से बाहर की जिज्ञासा को अभी छोड़ ही दिया जाए तो ठीक रहेगा। यह तो कहा ही जा सकता है कि चीज़ों को समझने के लिए उनकी ऐतिहासिकता को ध्यान में रखा जाना अत्यावश्यक होता है। यानि उनके कालखण्ड़ और उस काल की सामान्य अभिलाक्षणिकताओं के साथ ही उनका विश्लेषण और संश्लेषण किया जाना चाहिए।

अब आप खु़द इसे समझने की कोशिश कर सकते हैं कि होम्योपैथी पद्धति का काल क्या था, उस वक़्त मनुष्य के ज्ञान और समझ की अवस्थाएं क्या थीं, विज्ञान के विकास का आलम क्या था। यानि कि किसी काल खण्ड़ की उपलब्धियों में उतनी ही वैज्ञानिकता हो सकती है जितना कि उस वक़्त के विज्ञान का स्तर था। लगता है यह इशारा काफ़ी है।

जहां तक उन उपलब्धियों से समस्याओं के निस्तारण की बात है, तो जिन सामान्य समस्याओं का बखूबी निस्तारण उनसे उस कालखण्ड़ में किया जा सकता था, यदि उस जैसी ही सामान्य समस्याएं आधुनिक कालखण्ड़ में भी हैं तो उनका निस्तारण अभी भी उन्हीं के ज़रिए भी किया ही जा सकता है। व्यावहारिक प्रभाव और संतुष्टि का स्तर उनकी आगे की उपयोगिता या प्रांसगिकता को तय कर ही देगा। कहने या मानने के लिए भले ही कुछ भी हो, परंतु वास्तविक दैनंदिनी जीवन-व्यवहार में तो निश्चित ही इसका असर दिखेगा।

होमियोपैथी या अन्य चिकित्सा विधियों में ऐसी दवाएँ क्यों हैं जो असहज लक्षणों को दूर करने में सहायक बताई जाती हैं। खासकर होमियोपैथी में ऐसी दवाएँ बताई जा रही हैं। उन्हें हम क्या समझें। जैसे वह भीड़ वाली असहजता के लिए भी वहाँ उपाय बताए जाते हैं। ऐसी दवाएँ कारगर नहीं होतीं? माजरा समझ नहीं आता। कुछ बताइए।

होमियोपैथी पर शायद हम पहले भी कुछ कह चुके हैं। ये पद्धतियां भी अपने तात्कालिक ज्ञान और सीमाओं के अंतर्गत मनुष्य की व्याधियों से पार पाने की कोशिश कर रही थीं, और अपनी तात्कालिकता में उन्होंने कई सामान्य चीज़ों के लिए कारगर समाधान प्रस्तुत भी किए। व्याधियां यदि वैसी ही हैं तो उसी तरह के समाधान ये अभी भी प्रस्तुत करेंगी ही, इसमें हर्ज़ क्या है। यदि नहीं कर पाती हैं तो मनुष्य वैकल्पिक रास्ते भी तलाशता ही है।

असहज लक्षणो के लिए, चूंकि ये वास्तविकताओं की सही पहचान करवा पाने में असक्षम होते हैं, अधिकतर मानसिक अपरिपक्वताओं से संबंधित होते हैं, रहस्यमयी से हो उठते हैं, अक्सर इनके मानसिक सलाहिक उपचारों से समाधान की कोशिशे की जानी चाहिए। कई चीज़ें समय के साथ, मानसिक परिपक्वताओं और समझ के साथ, परिस्थितियों से निपटारे के साथ स्वतः समाप्त हो जाती है, पर इस दौर के लिए मानसिकतः अपरिपक्व मनुष्य को एक मानसिक सहारे की जरूरत होती है। ऐसी ही परिस्थितियों में इस तरह की कई दवाएं कारगर साबित होती दिखती हैं, कारगर रहती हैं। जो शरीर में वास्तव में कुछ कर रही होती हैं वे भी, और अन्य कई तरह के टोटके भी, मसलन पूजापाठ, पत्थर-नगीने, धागे-तावीज़, झाड़-फूंक आदि भी, कारगर महसूस किए जाते हैं।

अब यदि कोई व्यक्ति कुछ परिस्थितियों में असहजता महसूस करता है, और उनके बीच सक्रियता की हिम्मत नहीं जुटा पाता, उनके बीच किसी रहस्यमयी कारणों की उपस्थिति महसूस करता है, तो ऐसे में उपरोक्त सभी उसे एक हिम्मत देते हैं, मानसिक आधार देते हैं, उसे यह आभास देते हैं कि उसने उनसे निपटने का एक उपाय कर लिया है इसलिए उनका भय समाप्त हो जाता है, और वह उन परिस्थितियों में अधिक सहजता के साथ सक्रिय होता है और अपने भयों और असहजता पर वास्तविक रूप से काबू पा लेता है, और इसका श्रेय वह उन्हीं टोटकों को दे दिया करता है।

सामान्यतः मनुष्य समझ में आती सामान्य व्याधियों के लिए उपलब्ध इंतज़ामों पर ही भरोसा करता है, पर जब कुछ असहज और असामान्य सा घटाघोप महसूस करता है तभी वह अपनी असहज समस्याओं के लिए इसी तरह के किसी असहज समाधानों की तरफ़ मुड़ता है और इनका प्रयोग करने में कुछ हर्ज़ नहीं समझता।

होमियोपैथी और अन्य प्राचीन पद्धतियां जो कि तात्कालिक सीमित रूप के विज्ञान आधारित ही है, ( जहां तथा जिन मामलों ये कई तरह के भाववादी प्रक्षेपणों और व्याख्याओं से जुडी हुई हैं, उन्हें छोड दिया जाए ) कई सामान्य मामलों में, और कई तरह के मानसिक असहजताओं के मामले में कारगर रहती ही हैं। खासकर उन लोगों के लिए तो यह एक वास्तविकता ही है जो इनमें मानसिक गहराइयों से विश्वास भी करते हैं। जो समझते हैं कि इसके पीछे की वास्तविकताएं क्या है, वे तो अपने आप ही अपनी मानसिक उलझनों से लड ही लेते हैं, उन्हें किसी तरह के काल्पनिक सहारे की क्या आवश्यकता हैं और इन पद्धतियों का प्रयोग कई तरह की सामान्य व्याधियों में कर भी लिया करते हैं।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

कोरी भावुक राष्ट्रीयता

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



कोरी भावुक राष्ट्रीयता

एक जानकारी के तहत मैकाले ने कहा था कि पूरे भारत और अरब की सारी किताबें यूरोपियन पुस्तकालय के एक शेल्फ़ इतनी भी काम की नहीं है। अब बताइए कि यह बात क्या अपमान नहीं है।....ब्रूनो और गैलीलियो को कहाँ जलाया या जान से मार दिया गया। यूरोप में या भारत में? यह कोई लफ़्फ़ाजी नहीं है, यह तो इतिहास ही बताता है। क्या अपने अतीत की खोज का काम बुरा है?

वही प्रवृत्तियां जिन्होंने हमारे यहां वस्तुगत ज्ञान का भरसक रास्ता रोका, बाहर भी, हर जगह हावी हैं। उनमें से कुछ लोग अपने श्रेष्ठताबोधों, दंभों में हैं और हम भी इसके जवाब में अपने श्रेष्ठताबोधों, दंभों से उनका सामना करना चाहते हैं। यानि कि जो प्रवृत्तियां हमें खु़द बुरी लग रही हैं, हम भी वैसे ही हो जाना चाहते हैं। शायद बेहतर हो, आप स्वयं देखिए।

जो धार्मिक-भाववादी प्रवृत्तियां यहां चार्वाकों और लोकायतिकों को नष्ट कर रही थी, बौद्धों का अपने उत्स देश से ही समूल नाश कर रह थीं, वही प्रवृत्तियां वहां भी ब्रूनों, गैलीलियों की राह का नाश करना चाहती थी। पर यह तो तथ्य हैं ही, अंतत्वोगत्वा वहां वस्तुगत वैज्ञानिक प्रवृत्तियों ने लड़ाई लड़ी और अपनी सीमाओं को लांघते हुए अपनी उपस्थिति भी दर्ज़ करवाई। वहां की भौतिक परिस्थितियों ने जो जरूरत पैदा की उसकी वज़ह से इनकी राह थोड़ा आसान हुई, और धीरे-धीरे जीवन के साधन जुटाने की मानवाकांक्षा निर्णायक साबित हुई। धर्म को उन्हें राह देनी ही पड़ी।

अपने अतीत की खोज जरूरी है, पर यह प्रश्न अपनी जगह है कि, क्या यह खोज सिर्फ़ गौरवगान के आत्मपरक लक्ष्यों तक ही सीमित होनी चाहिए?

भाषाओं का इतिहास समझने की बात तो है ही। वैज्ञानिक भी स्वीकारने लगे हैं कि संस्कृत भाषा कम्प्यूटर के लिए सर्वाधिक उचित है......यह समझ नहीं आता कि वह कौन से कारक थे जिसके चलते भारत में नागरी लिपि या भाषा पैदा हुई और अब तक की समृद्धतम और वैज्ञानिक लिपि क्यों है?.........अगर आप बता सकें तो कृपा कर के कुछ कहें वरना भाषा विज्ञान का इतिहास आदि देखना पड़ेगा।

आप जानते ही हैं कि कंप्यूटर की अपनी कोई भाषा नहीं होती। वह उर्जा की उपलब्धता या अनुपलब्धता ( वोल्टेज नहीं हैं या हैं, यानि ० या १ ) के आधार पर इसी भाषा में समझता और काम करता है। अब आप कंप्यूटर की इस भाषा को किसी भी निर्गम ( output ) संकेतों, भाषाओं में कोडित कर लें जो आपको समझ में आता हो। इसी तरह इसे उसकी भाषा में कोडित करके उसे देदें, वह अपना काम अपनी ही भाषा में करेगा। तो अब यह कहने की क्या उपयोगिता होगी कि कौनसी भाषा उसके लिए अधिक या कम उचित होगी, यह आप ही ज़्यादा बेहतर से समझ सकते हैं।

हमारे पास ऐसी कोई आत्मपरकता नहीं थी कि हम इस श्रेष्ठताबोधी सवाल पर कि ‘भारत में ही नागरी लिपि या भाषा पैदा हुई और अब तक की समृद्धतम और वैज्ञानिक लिपि क्यों है?’ पर माथापच्ची करना चुनते, इसलिए इसके बारे में हमारी सीमाएं हैं। आपको भाषावैज्ञानिक अध्ययनों से गुजरना होगा। और यदि आपको वाकई इस सवाल से इसी नज़रिए के साथ जूझना हो तो वैज्ञानिक अध्ययन को नहीं बल्कि किसी ऐसे ही नज़रिए वाले विद्वान का शोध चुनना होगा जिसने भाषाई श्रेष्ठता के आधारों को ढूढ़ने के आधार पर काम किया हो नाकि वस्तुगत वैज्ञानिक आधारों पर।

विज्ञान पर या मानव के किसी खोज पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता लेकिन पेटेंट जैसी व्यवस्था भी पश्चिम की है जिसके चलते लोगों का शोषण आज भी किया जाता है। वैज्ञानिक आविष्कारों को भी पैसों से तौलने का काम भी पश्चिमी देन है।

विज्ञान खोजें करता है, उनका उपयोग करना और उनमें उद्देश्य भरना मानवजाति का काम है। और स्पष्ट कहें तो समाज के प्रभुत्व प्राप्त वर्गों का काम है। यानि कि विज्ञान की सार्विकता को यदि कुछ समूह इस तरह नियंत्रित कर पाते हैं तो यह उनकी पूंजीगत साम्राज्यवादी व्यवस्था की देन है। सारी ताकत का पूंजी में सिमटा होना है। यानि कि मुख्य लड़ाई इसी पूंजीवादी साम्राजी व्यवस्था से होनी चाहिए जो पूरी मानवजाति की थाति को अपने नियंत्रण में रख कर इसे मनुष्य द्वारा मनुष्य का, और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण का साधन बनाए हुए है। और यही प्रवृत्तियां हमारे यहां भी काम कर रही हैं, उनसे भी। यानि इस साझा दुश्मन को पहचानना और उससे संघर्ष करना हमारा ध्येय होना चाहिए। वह देश के बाहर हो या देश के अंदर। सिर्फ़ कोरी भावुक राष्ट्रीयता देश के अंदर की इसी पूंजीवादी और साम्राजी प्रवृत्ति को नहीं देख पाती, जो आजकल धार्मिक-भाववादी शक्तियों के साथ नाभिनालबद्ध हुई पड़ी है और प्रभुत्व में है, निर्णायक बनी हुई है।

एक बात और जानने की इच्छा है। यूरोप की संस्कृति पर कहा गया है कि वहाँ दास जैसी अमानवीय प्रथा रही है।.............यूरोप में स्त्री को आत्माहीन माना गया। हमारे यहाँ भी बहुत कुछ कहा गया। लेकिन मेरा सवाल है कि यूरोप में ऐसी संस्कृति रही तो इसे क्या कहें?

अगर आप पूरी मानवजाति के इतिहास को वस्तुगत रूप से समग्रता से देखने की कोशिश करेंगे तभी आप यह समझ पाएंगे। लगभग समान रूप से ही, थोड़े से अंतरों के साथ सभी जगह इसी तरह के विकास संस्तरों से मानवजाति गुजरी है। आज की नैतिकता और मूल्यों के सापेक्ष जब हम इतिहास पर नज़र डालते हैं तो सभी संस्कृतियों में ऐसी अवस्थाएं रही हैं।

यूरोप में अमानवीय दासप्रथा रही, तो हमारी संस्कृति में शुद्रों, दलितों और महिलाओं के हालात भी मानवीय नहीं रहे हैं। अभी भी हमारे यहां के सामाजिक जातीय संस्तरों के हालातों से आप भली-भांति परिचित ही होंगे। जो बुरा है, सभी जगह बुरा है, उसे सभी जगह ही बदल देना, त्याज्य देना चाहिए। जो अच्छा है, वह कहीं का भी है, उसे अपना ही लेना चाहिए।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

भाववादी-आध्यात्मिक घटाघोप

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



भाववादी-आध्यात्मिक घटाघोप

मेरा मतलब यही है। आखिर हम उस वजह को जानना चाहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? मध्यकालीन भारत के बाद अचानक भारत में 5-700 वर्षों तक किस वजह से यह सब होता है? मैं मानता हूँ कि गुलाम मानसिकता और देश नया चिन्तन कम करते हैं या नहीं करते या नयी खोज नहीं ही करते। पूरा इतिहास इसका साक्षी है। यह कोई काल्पनिक बात नहीं है।

उसी बात में इसके कारणों की तरफ़ भी इशारा था, पर आपने ध्यान नहीं दिया। ‘इस लौकिक ज्ञान की परंपराओं और धाराओं पर, काल्पनिक, अलौकिक तथा आध्यात्मिक चिंतन और ज्ञान हावी हो गया।’ आपको अभी इतिहास के वस्तुगत ( objective ) से गुजरना होगा, तभी आपको वस्तुस्थिति का पता चल पाएगा। हमने जिस प्रक्रिया का जिक्र किया है, वह अभी ५-७०० वर्ष पूर्व की नहीं है, जैसा कि आप इसे ‘गुलामी की मानसिकता’ वाली बात के साथ जोड़ कर देखना चाहते हैं।

जगत का वस्तुगत ज्ञान प्राप्त करने की ओर लक्षित यह भौतिकवादी धारा शुरुआत से ही साथ चली है। जब से समाज में वर्ग संरचना उभरना शुरु हुआ, यानि ऐसे वर्गों का उभार होना शुरु हुआ जो समाझ में प्रभुत्व प्राप्त करते जा रहे थे, और श्रम प्रक्रिया से विलग रहकर भी साधनों का उपभोग करने में सक्षम थे, और इसीलिए उनके पास अवसर था कि वह जगत की दार्शनिक संकल्पनाओं के लिए काल्पनिक चिंतन की उड़ान भर सकें, तभी से यथास्थिति बनाए रखने और उसे धार्मिक जामा पहनाने की कवायदें शुरू हुई और साथ ही लोक की इस भौतिकवादी समझ और व्याख्याओं पर अवरोध डालना शुरू कर दिया गया।

बाद का इतिहास इनके विरोधों से भरा हुआ है। चार्वाकों, लोकायतों, न्याया-वैशेषिकों, योग आदि की भौतिकवादी धाराओं का या तो समूल नाश कर दिया गया, या उन्हें भाववाद के मुलम्मे में प्रक्षिप्त। बुद्ध और बाद के काल में यह धारा और परंपरा थोड़ा सापेक्षतः अधिक विकसित हुई, परंतु बौद्धों के सांस्थानिक नाश के बाद से, गुप्त काल में, ब्राह्मण पुनरुत्थान में इन पर सर्वाधिक हमले हुए और इन धाराओं का यह हाल बना दिया कि इनका विकास अवरुद्ध हो गया या ये भाववादी मुलम्मे के साथ ही अपने-आपको छुटपुट रूप से बनाए रखने में बमुश्किल सफल रह पाई।

तभी तक जो काम बमुश्किल हो चुका था, वही हो पाया, उसके बाद तो जो कूपमंडूकता के हालात चले वे कमोबेश अभी तक जारी हैं। धार्मिकता और भाववादी काल्पनिक ज्ञान ने, जगत के वस्तुगत ज्ञान को परवान चढ़ने ही नहीं दिया, सर्वत्र आध्यात्मिकता हावी हो गई। हर जिज्ञासा का समाधान काल्पनिक चिंतन प्रस्तुत करने लगा, हर मुसीबत और जरूरत के लिए अलौकिक शक्तियों के आगे गुहार करने की प्रवृत्ति चला दी गई। आदमी के सारे प्रयास इसी पूजा-पाठ, ताबीज़-डोरों, ग्रह-शांतियों में ही खपने लगे। कुछ ठीक हो जाए तो प्रभु की कृपा, और ना हो तो प्रभु की लीला, पूर्वजन्मों के कर्मों का खेल। अब खाक कुछ हो पाने की संभावनाएं बची। आप जिस अकर्मण्यता का उत्स ‘गुलाम मानसिकता’ में देखना चाहते हैं, हम उन्हें इसी भाववादी-आध्यात्मिक घटाघोप में देखा करते हैं।

खैर, आपको अध्ययन करना चाहिए। अगर आप वाकई वस्तुगत रूप से चीज़ों को समझना चाहते हैं तो जिस तरह, हर तरह की धाराओं का विपुल लेखन सहज रूप में अधिक उपलबध है, वैसे ही इस भौतिकवादी धारा का भी विपुल लेखन उपलब्ध है, बस वह सामान्य रूप से पहुंच में नहीं रह पाता है, उसके कारण भी उपरोक्त परिस्थितियों में ही छुपे हैं कि समाज के प्रभुत्व प्राप्त वर्ग, समूह यथास्थिति को बनाए रखने के लक्षित इसी भाववादी विचारधारा को बनाए रखना चाहते हैं, और भौतिकवादी धारा को सामने आने नहीं देना चाहते।

लेकिन जब अमेरिका या जर्मनी का आदमी आइंस्टाइन पर या अन्य वैज्ञानिकों पर गर्व कर सकता है तो हम आर्यभट्ट और अन्य पर नहीं कर सकते? इस गर्व से निश्चय ही नुकसान नहीं है।

क्यों नहीं कर सकते। करना ही चाहिए, करते ही हैं। हमें आर्यभट्ट पर भी गर्व होना चाहिए, और अन्य महानुभावों पर भी जो कहीं के भी हों, पर जिनके प्रयासों ने पूरी मानवजाति को फायदा पहुंचाया है। इसे भी राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरे में बांधने की क्या जरूरत है। पर सिर्फ़ गर्व करने से ज़िंदगी नहीं चला करती, विकास नहीं हुआ करता। उनका उपयोग करना, उनके सिरे को पकड़कर आगे तक पहुंचाने काम, उनके आगे बढ़ने का काम होना चाहिए। वह नहीं हुआ, और हम क्या चाहते हैं आगे भी ना हो। हमारे अपने ही वैज्ञानिक मनीषियों, उनकी विचारधाराओं को हमने जानबूझकर ( हमारे समाज में प्रभुत्व प्राप्त विचारधारा ने ) भुला दिया, इनके ज्ञान की धाराओं को रोक दिया, सिर्फ़ उन्हें कुछ किताबों में जिक्र करके गर्व की चीज़ बनाए रखा, वह भी सिर्फ़ उनके नामों को, नाकि उनके काम और विचारों को सामने लाया गया ( जैसा कि एक उदाहरण, अभी भगतसिंह के साथ है, उनके नाम का ढिंढोरा तो बहुत पीटा जाता है, उनके विरोधी भी पीटते हैं, पर उनके विचारों, विचारधारा पर कोई बात नहीं होती, बल्कि उसे और दबाया, बरगलाया जाता है ) ।

हम इसी में लगे रहे, और बाकी दुनिया ने इसी ज्ञान और परंपरा को अपने में समेटते हुए, उससे लाभांवित होते हुए इसे आगे बढ़ाया और वैज्ञानिक प्रगतियां दर्ज़ की। हम ज़ीरो-ज़ीरो गाते रहे, और उन्होंने इस ज़ीरो का सदुपयोग करते हुए पूरी मानवजाति को कई अनोखी चीज़ों से भर दिया।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय
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