रविवार, 29 दिसंबर 2013

द्वंद्ववाद

हे मानवश्रेष्ठों,

जैसा कि पिछली बार कहा गया था, हम यहां द्वंद्ववाद पर एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं। इस बार यहां विषय-प्रवेश हेतु एक संक्षिप्त भूमिका प्रस्तुत की जा रही है, अगली बार ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास पर चर्चा शुरू करेंगे और इस तरह से श्रृंखला चल निकलेगी।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद - भूमिका
( Dialectics - a preface )

मानवजाति के सर्वोत्तम चिंतक ब्रह्मांड़ को समझने, प्राकृतिक व सामाजिक प्रक्रियाओं तथा घटनाओं के नियामकों का पता लगाने के लिए शताब्दियों से प्रयत्न करते रहे। विश्व की वैज्ञानिक समझ तक पहुंचने का रास्ता लंबा और टेढ़ा-मेढ़ा था। अज्ञान के ख़िलाफ़, संज्ञान-विरोध के ख़िलाफ़, युगों-पुराने धार्मिक मतों तथा प्रत्ययवादी ( भाववादी idealistic ) दृष्टिकोणों के ख़िलाफ़ कटु संघर्ष करते हुए, मानवजाति वास्तविक ज्ञान के कणों को चुनते हुए, अपने परिवेशी विश्व, यानि प्रकृति, समाज तथा संज्ञान ( cognition ) के सच्चे वैज्ञानिक स्पष्टीकरण के निकटतर पहुंचती गई, मनुष्य के आंतरिक सार और विश्व में उसकी स्थिति की यथार्थ ( real ) और वस्तुगत ( objective ) समझ के निकटतर पहुंचती गई। आज मानवजाति के पास, संज्ञान के एक शक्तिशाली साधन के रूप में द्वंदात्मक तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद ( dialectical and historical materialism ) का दर्शन है। यह सिर्फ़ विश्व को समझने की एक कुंजी के रूप में ही नहीं, विश्व के और विशेषतः समाज के रूपांतरण की, बदलने की एक पद्धति के रूप में भी मानवजाति के हाथ में एक महत्त्वपूर्ण सैद्धांतिक उपकरण है।

दर्शन और उसके बुनियादी प्रश्नों पर हम यहां पहले ही विचार कर चुके हैं। भूतद्रव्य ( matter सरलतः पदार्थ ) और चेतना ( consciousness ) के बीच, भौतिक और प्रत्ययिक ( सरलतः वैचारिक ) के बीच के अंतर्संबंधों के सार का प्रश्न, दर्शन का बुनियादी प्रश्न है। इसके दो पक्ष या पहलू हैं, पहला विश्व के स्वरूप, उसके सारतत्व के बारे में है कि प्राथमिक क्या है - भूतद्रव्य या चेतना, कि क्या भूतद्रव्य चेतना को जन्म देता है अथवा चेतना भूतद्रव्य को। दूसरा, इस बारे में प्रश्न है कि यह विश्व संज्ञेय ( cognizable ) है या नहीं, यानि मानव मस्तिष्क अपने आस-पास के जगत को समझ सकता तथा उसके विकास के नियमों को जान सकता है अथवा नहीं। हम यहीं पर अपने पूर्व की ‘दर्शन’ वाली श्रृंखला में, इन प्रश्नों पर विस्तार से विवेचना कर चुके हैं। इन प्रश्नों के अपने उत्तरों के हिसाब से ही दर्शन की दुनिया दो खेमों में बंटी है, प्रत्ययवादी ( भाववादी, अध्यात्मवादी idealistic ) तथा भौतिकवादी ( materialistic )। भौतिकवाद प्रकृति का, आस-पास के जगत का सही और वैज्ञानिक स्पष्टीकरण देता है, लेकिन प्रत्ययवाद मिथ्या और अवैज्ञानिक।

प्रत्ययवादी दार्शनिक चेतना को प्राथमिक मानते हैं, उनके विचारों के अनुसार चेतना भूतद्रव्य से स्वाधीनतः अलग अस्तित्वमान है और वही भौतिक जगत की ‘रचना करती है’ तथा उस पर नियंत्रण रखती है, साथ ही इसकी मुख्य धाराओं के अनुसार विश्व मूलतः संज्ञेय नहीं है, या सीमित रूप से संज्ञेय है, यानि कि विश्व और इसके विकास के नियमों को जाना-समझा नहीं जा सकता, अतएव इसके बजाए वे स्वयं अपने विचारों व अनुभूतियों के तथा किसी अस्तित्वहीन अलौकिक ‘विश्वात्मा या परमात्मा’ के, किसी रहस्यमय ‘परम प्रत्यय’ आदि के संज्ञान की ओर उन्मुख होने की ओर जोर देते हैं।

भौतिकवादियों के अनुसार भूतद्रव्य शाश्वत और प्राथमिक है, चेतना इसी के ऐतिहासिक विकास का उत्पाद है, यह मनुष्य के उद्‍भव के साथ प्रकट और विकसित होती है। भूतद्रव्य चेतना से स्वतंत्र रूप से विद्यमान है, वहीं चेतना भूतद्रव्य से विलग कहीं विद्यमान नहीं हो सकती, वह भूतद्रव्य पर निर्भर है। भौतिकवाद के अनुसार विश्व संज्ञेय है, मानव मस्तिष्क परिवेशी जगत की वस्तुओं, प्रक्रियाओं तथा घटनाओं के मूलतत्व का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, समझ सकता है, नियमों का संज्ञान हासिल करके इसका रूपांतरण कर सकता है, इसे बदल सकता है। विश्व के व्यावहारिक रूपांतरण में मानवजाति की उपलब्धियां सर्वोत्तम ढंग से यह दर्शाती हैं कि वह विश्व का सही ज्ञान हासिल कर रहा है और उस ज्ञान का उपयोग कर रहा है।

दर्शन के मूल प्रश्न के साथ ही दार्शनिकों, वैज्ञानिकों ने एक और प्रश्न का भी उत्तर देने की हमेशा कोशिश की है। यह प्रश्न है कि विश्व को क्या हो रहा है? क्या यह सर्वदा ऐसा ही रहा है, जैसा कि आज है, या किसी प्रकार से यह प्रकट होता, बदलता, पुनर्नवीकृत तथा विकसित होता रहता है? इतिहास में इस प्रश्न के जितने भी उत्तर दिए गए हैं, वे दो विरोधी समूहों में शामिल हैं : द्वंद्वात्मक ( dialectic ) और अधिभूतवादी ( metaphysical ), इनकी दो तदनुरूप पद्धतियां द्वंद्ववाद ( dialectics ) तथा अधिभूतवाद ( metaphysics ) कहलाती हैं। 

अधिभूतवाद की वकालत करनेवाले मानते हैं कि प्रथमतः, विश्व मूलतः अपरिवर्तनीय है, कि प्रकृति कभी बदलती नहीं ; और, द्वितीयतः, वस्तुओं तथा घटनाओं का एक दूसरे से संबंध नहीं होता, कि उनका अलग-अलग अस्तित्व है। वे परिवर्तन और विकास को महज़ उसकी घटती-बढ़ती मानते हैं, जो पहले से विद्यमान है। उनके लिए विकास का उद्‍गम या तो विभिन्न वस्तुओं के बाहरी टकराव में निहित है, या अलौकिक, दैवीय शक्तियों में।

विश्व के स्पष्टीकरण में द्वंद्ववाद के पक्षधर यह मानकर चलते हैं कि, पहला, सारी वस्तुएं, प्रक्रियाएं तथा घटनाएं एक दूसरे से अंतर्संबंधित हैं, कि वे परस्पर क्रिया करती हैं तथा एक दूसरे को दशानुकूलित करती हैं और दूसरा, कि वे अविरल गतिमान व विकासमान हैं। वे विकास को मात्रात्मक ( quantitative ) परिवर्तनों के संचयन तथा गुणात्मक ( qualitative ) परिवर्तनों में उनके रूपांतरण की प्रक्रिया के रूप में, कुछ वस्तुओं तथा घटनाओं के अन्य में रूपातंरण की शक्ल में देखते हैं, पुरातन व मरणासन्न के विनाश तथा नूतन के उद्‍भव व दृढ़ीकरण के रूप में देखते हैं। द्वंद्ववादियों के अनुसार विकास का स्रोत आंतरिक अंतर्विरोध ( contradictions ) हैं, प्रत्येक विषय तथा घटना में अंतर्निहित ( inherent ) विरोधी पक्षों या प्रवृत्तियों के बीच संघर्ष है। द्वंद्ववाद यह कहता है कि प्रकृति और समाज के विकास का कारण या स्रोत बाहर से लाया नहीं जाता, बल्कि उन्हीं के अंदर निहित होता है।

द्वंद्ववाद विश्व को ठीक वैसा ही देखता है, जैसा कि वह वस्तुतः ( literally ) है। विकास की प्रक्रियाओं, उनके कारणों और रूपों का स्पष्टीकरण देते तथा नूतन की अवश्यंभावी विजय को दर्शाते हुए द्वंद्ववाद समाज के अंदर प्रगतिशील विकास ( progressive development ) के लिए निरंतर चलने वाले संघर्ष में प्रगतिशील शक्तियों की सेवा करता है। इसके विपरीत अधिभूतवाद विकास की प्रगतिशील प्रकृति और नूतन की अवश्यंभावी विजय को मान्यता नहीं देता और इस प्रकार प्रगति के ख़िलाफ़ संघर्ष में रूढ़िवादी तथा प्रतिगामी ( orthodox and regressive ) शक्तियों का हितसाधन करता है।

दैनिक जीवन, विज्ञान, तथा सामाजिक व्यवहार द्वंद्ववाद की सचाई की तथा उसे संज्ञान की वैज्ञानिक पद्धति व व्यवहार के रूप में इस्तेमाल करने की आवश्यकता की पुष्टि करते हैं। द्वंद्ववाद की जीवंतता आज के सामाजिक विकास के द्वारा सर्वोत्तम ढंग से प्रदर्शित होती है। राष्ट्रीय स्वाधीनताओं की प्राप्ति, राष्ट्रीय विकास के नियत कार्यों की पूर्ति, भौतिक व आत्मिक जीवन में गहन परिवर्तन, अनेक जनगणों का युगों पुराने पिछड़ेपन से निकलकर स्वाधीन तथा प्रगतिशील विकास के आधुनिक रूपों की ओर क़दम बढ़ाना - ये सभी इसके सुस्पष्ट उदाहरण हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।
समय

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

एक नई श्रृंखला की शुरूआत

एक नई श्रृंखला की शुरूआत

हे मानवश्रेष्ठों,

हम यहां काफ़ी समय पहले दर्शन पर एक श्रृंखला प्रस्तुत कर चुके हैं। दर्शन की उस प्रारंभिक यात्रा में हमने दर्शन की संकल्पनाओं तथा दर्शन और चेतना के संबंधों को समझने की कोशिश की थी। वह सामग्री यहां उपलब्ध है ही, साथ ही उसका एक पीडीएफ़ डाउनलोड़ लिंक ‘दर्शन और चेतना’ भी साइड़बार में प्रदर्शित है। इच्छुक मानवश्रेष्ठ उससे पुनः गुजर सकते हैं। अब हमारी योजना है कि दर्शन पर उस श्रृंखला को आगे बढ़ाया जाए और वहां प्रयुक्त संकल्पना द्वंद्ववाद ( dialectics ) को जिसे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ( dialectical materialism ) के अंतर्गत समझा जाता है, आगे बढ़ाया जाए और इसे जानने, समझने और द्वंद्वात्मक पद्धतियों ( dialectical methods ) के प्रयोग से परिचित होने की कोशिशें शुरू की जाएं।

हम इस श्रृंखला में द्वंद्ववाद, द्वंद्वात्मक पद्धतियों और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तथा इससे संबंधित विभिन्न संकल्पनाओं/अवधारणाओं को समझने की कोशिश करेंगे। हम देखेंगे कि सामान्य जीवन में हम इन दार्शनिक अवधारणाओं से अपरिचित होते हुए भी, जीवन से मिली सीख के अनुसार ही द्वंद्वात्मक चिंतन और पद्धतियों का प्रयोग करते हैं, निर्णय और तदनुकूल व्यवहार भी करते हैं। परंतु यह भी सही है कि कई बार, कई जगह हम अपने वैचारिक अनुकूलनों के प्रभाव या सटीक विश्लेषण-संश्लेषण के अभाव के कारण कई परिघटनाओं की समुचित व्याख्या नहीं कर पाते, सही समझ नहीं बना पाते और तदनुकूल ही हमारे निर्णय और व्यवहार भी प्रभावित होते हैं। इस श्रृंखला से गुजरकर हम निश्चित ही, अपनी चिंतन प्रक्रिया और व्यवहार को अधिक सटीक तथा अधिक बेहतर बनाने में अधिक सक्षम हो पाएंगे, अपने व्यक्तित्व और समझ का परिष्कार कर पाएंगे।

अगली बार से इसकी औपचारिक प्रस्तुति शुरू की जाएगी।

आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत रहेगा ही।

शुक्रिया।


समय

शनिवार, 31 अगस्त 2013

आस्तिकता के सामाजिक-पारिस्थितिक पूर्वाधार

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



आस्तिकता के सामाजिक-पारिस्थितिक पूर्वाधार

एक सवाल जो मुझे अक्सर परेशान करता है वह यह है कि कैसे कोई अपने द्वारा अर्जित ज्ञान को व सामने दिख रहे सबूतों को पूरी तरह नकार कर काल्पनिक अवधारणाओं को ही सच मान लेता है... और क्यों यह दोहरापन उसे परेशान नहीं करता...मिसाल के तौर पर एक मॉलीक्युलर बायोलॉजिस्ट लैब में तो डीएनऐ व आरएनऐ से छेड़छाड़ कर कई मामलों में एक नया जीव पैदा करने की सामर्थ्य रखता है, और अक्सर ऐसा करता भी है दूसरी तरफ वह यह भी दिल से मानता है कि सब कुछ 'ऊपरवाले' ने ऐसा ही बनाया जैसा आज दिख रहा है... जैव विकास हुआ ही नहीं...या एक पुरातत्वविद् और इतिहासवेत्ता जो अपने प्रोफेशनल अवतार में तो दुनिया को यह बताता-पढ़ाता है महज चंद हजार साल पहने आदमी पाषाण-कांस्य-लौह युग में था... पर साथ ही अपने धर्मग्रंथों पर भी अगाध विश्वास रखता है जो कई हजार ईश्वर के दूतों या लाखों साल चलने वाले युगों के बारे में बताते हैं...क्या यह भी दिमाग की सीमाओं के कारण होता है ?

इस पर हम कुछ इशारे उस ‘नास्तिकता और वैज्ञानिकता’ वाली पोस्ट में किए ही हैं। फिर भी लग रहा है कि शायद उन्हें पकड़ने और एक्सप्लोर करने में आपको कुछ आधारभूत समस्या आ रही है। चलिए कुछ गहराई में उतरने और आधारभूत रूप से समझने की कोशिश करते हैं।

हमारे परिवेश मे सामान्यतः अधिकतर व्यक्तित्व इन्हीं काल्पनिक अवधारणाओं के गहरे अनुकूलन के साथ बड़े होते हैं। उनका शारीरिक और मानसिक क्रिया-तंत्र, प्रतिक्रिया प्रणाली इनके प्राथमिक अनुकूलन में होती है। प्राथमिक अनुकूलन अत्यधिक प्रभावी होता है, क्योंकि यह मस्तिष्क और तंत्रिका-तंत्र के न्यूरानों के साथ प्राथमिक रूप से एक निश्चित संबंध बनाता है. और आगे की अनुकूलन की कार्यवाहियां इन प्राथमिक प्रतिक्रिया संबंधों का प्रबलन ही करती चलती हैं। यानि कि व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक प्रतिक्रिया, प्राथमिक रूप से इन्हीं प्रबलित अनुकूलित संबंधों के आधार पर ही रूढ़ रूप से सामने आया करती है।

जैसे कि यदि नवजात बच्चा जब दिखती हुई चीज़ों के प्रति प्रतिक्रिया देने की कोशिश शुरू करता है, एक विशिष्ट उदाहरण लें, कोई वस्तु, जो उसके सामने लाई गई है, को देखकर उसमें दिलचस्पी जागती है और वह उसे पकड़ने की कोशिश करता है, ऐसे में इस तरह की सबसे पहली कोशिश में, जिसमें स्थितियों का संयोग भी है, मान लीजिए वस्तु बांये हाथ के करीब थी ( इसीलिए अक्सर वे बुजुर्ग जो इसके परिणामों से परिचित हैं, या इसे परंपरा का अंग मानते हैं, यह कहते हुए मिल जाएंगे कि अरे सीधे हाथ की तरफ़ से दिखाओ, सीधे हाथ की तरफ़ से पकड़ाओ), वह अपना बांया हाथ आगे बढ़ाता है और वस्तु को छूने-पकड़ने की कोशिश करता है, तो ऐसे में उसके तंत्रिका-तंत्र में सूचना-संकेतों की यह पूरी प्रक्रिया, न्यूरानों के एकरेखीय आबंधन के जरिए एक प्रतिवर्त ( reflex ) के रूप में दर्ज़ हो जाती है। यानि दूसरी बार, जब उसके सामने कोई वस्तु रखी जाएगी, तो यह प्रतिक्रिया का प्रतिवर्त काम करेगा और सहज रूप से ही बांया हाथ आगे बढ़ जाएगा। यदि ध्यान नहीं रखा जा रहा है तो सूचना-संकेत का यह आरेखन और अधिक प्रबलित होता जाएगा और एक आदत के रूप में व्यष्टि का विशिष्ट गुण बन जाएगा। यानि कि धीरे-धीरे बच्चे की अधिकतर क्रियाएं इस बाये हाथ के जरिए संपन्न होने लगेंगी, इसी हाथ का प्रयोग उसे सहज लगेगा, दक्षता इसी में सिमटती जाएगी और अंततः वयस्क उस बच्चे को बांये हाथ का, लेफ़्ट-हेंडी ( प्रकृति या ईश्वर :-) द्वारा प्रदत्त जन्मजात गुण ) मानकर सामान्य हो जाएंगे।

इसी तरह शारीरिक व्यवहार के, तंत्रिका-तंत्र में बहुत सारे प्रतिवर्त बना करते हैं जो व्यष्टि के शारीरिक प्रतिक्रिया प्रणाली को सुनिश्चित सा करते चलते हैं। जैसे कुछ निश्चित आकृतियां, आकारों को देखते ही जय-जय करने और हाथ जोड़ना, कुछ स्थलों को देखते ही सिर झुकाना, आदि। इस तरह ही अपने वयस्कों से सीखते हुए उनके कुछ निश्चित व्यवहारसंरूप भी बन जाया करते हैं जो वयस्कों की तरह ही उनकी भी दैनंदिनी का बिना सवाल का हिस्सा बनते जाते हैं। वे भी कृत्रिम रूप से इनकी आदत और सहजता का क्षेत्र बन जाते हैं। कई सारे और व्यवहार संरूपों की तरह ही, जैसे दिया-बाती करना, पूजा-अर्चना, ट्विंकल-ट्विंकल की तरह ही आरतियां सुनना-सुनाना, छाप- तिलक, त्यौहारी परंपराएं, शुभ-कार्यों के आरंभ संबंधी परंपराएं - नारियल फोड़ना - पूजा-स्थलों से शुरुआत करना - नई वस्तुओं की पूजा-अर्चना, घरों में पूजा के कोने, बाहरी परिवेश में पूजा-स्थलों पर आवागमन, बाहरी सक्रियता का धर्म के दायरे में ही परवान चढ़ना आदि-आदि। ये सब व्यष्टि के व्यवहार संरूपों, आदतों में इतने गहराई से पैबस्त हो जाता है वह इन्हीं में सहज महसूस करता है, इन्हें आवश्यक समझने लगता है, इनको बिना सवाल या नागा किए करते चले जाने में ही अपना भला समझता है, इनकी तार्किकी के बारे में कभी नहीं सोचता, इन्हें अपने अस्तित्व के साथ जोडकर देखने लगता है। इन सबके नहीं होने से उसे अपने अस्तित्व पर खतरा नज़र आने लगता है, जीवन से संबंधित एक असुरक्षाबोध घेरने लगता है।

मानसिक-वैचारिक क्रियातंत्र भी इन्हीं के आधारों पर और कुछ इसी तरह परवान चढ़ा करते हैं। आसपास के परिवेश और स्वयं व्यष्टि के अपने बारे में जानकारियों, ज्ञान के बारे में विज्ञान प्रदत्त समझ, तार्किकी, वास्तविकताएं तो उसके विकास-क्रम में बहुत बाद में, यानि कि जब वह विद्यालय में उच्च-प्राथमिक कक्षाओं ( छठी से ) में अध्ययन करता है। इससे पहले की कक्षाओं में भी शुरू हो जाता है, पर वह आधारभूत रूप से होता है और वह भी उसे जैसा है वैसा ही स्मृति का हिस्सा बना लेने और तार्किकी के बगैर होता है। इसका मतलब यह हुआ कि व्यष्टि की उम्र के, विकास के शुरुआती आठ-दस साल, अपने परिवेश में स्थित व्यक्तियों द्वारा प्रदत्त जानकारियों, समझ और तार्किकी पर आधारित हुआ करते हैं। ( यहां इस बहुप्रचारित बात को भी ध्यान में रख लिया जाए कि सामान्यतः मस्तिष्क के विकास के लिए शुरुआती पांच वर्ष बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं ) यानि कि उसकी भाषा, सीखी जा रही भाषा में अमूर्त चिंतन, चिंतन के विषय, विचारों की उत्पत्ति, उनकी अंतर्संबंधताएं, तार्किकी, अभिव्यक्ति, आदि-आदि परिवेश के वयस्कों पर निर्भर हुआ करती है। यही सब मिलकर उसके वैचारिक आधारों, चिंतन-प्रक्रिया के आधारभूत आदर्शों और आधारों, काल्पनिक-भ्रामिक ( जैसी भी परिवेश से मिल रही हैं, जहां परिवेश में तार्किक वयस्क हैं वहां थोड़े बेहतर आधार बनने की संभावनाएं हैं ही ) तार्किकियों की परिवेश द्वारा प्रदत्त उस आधारभूत वैचारिक ढाचे का निर्माण करते हैं जिसके अनुसार ही उसका चिंतन, विचार और तर्क श्रृंखलाएं आगे परवान चढ़ा करती हैं। यानि कि प्राथमिक रूप से वैचारिक और तार्किक प्रक्रिया का हुआ यह अनुकूलन उस मस्तिष्क विशेष के आधारभूत ढांचे के मूल में होता है जिसके दायरे में ही सोच-विचार करने और इसी के अनुरूप बने रहने में वह मानसिक रूप से अधिक सहज महसूस करता है। अब आप यह जानते ही है कि हमारे यहां का धार्मिक, आध्यात्मिक ( भाववादी-प्रत्ययवादी idealistic दृष्टिकोण आधारित ), ढोंगी, काल्पनिक, भ्रामिक, व्यक्तिवादी, लोलुप, लालची परिवेश किस तरह का ढांचा निर्मित करने को अभिशप्त है, इसी प्रक्रिया को आप संस्कारीकरण जैसा कह सकते हैं। यह उसके व्यक्तित्व का आधारभूत ढांचा होता है जो उसके वास्तविक और सामान्य व्यवहार को प्राथमिक रूप से निश्चित और निर्देशित कर रहा होता है। यानि समान परिस्थितियां पैदा होने पर उनका यह ढांचा ही, अपने इन्हीं अनुकूलित प्रतिवर्तों के अनुसार ही इसी तरह की प्राथमिक प्रतिक्रिया देने को अभिशप्त होता है। 

जैसा कि शिक्षा-प्रणाली सिर्फ़ जीवन की आर्थिकी से संबंधित है, सामान्यतः आगे की शिक्षा, बिना सोच-समझ का हिस्सा बने सिर्फ़ रटने, परीक्षाएं पास करके नौकरियों के लिए आधारभूत डिग्रियां प्राप्त करने के लिए सीमित होती है, और इस आधारभूत ढांचे में कोई विशिष्ट छेड़छाड़ नहीं हो पाती, यही उसका मूल बना रहता है। ऐसे में कुछ व्यक्ति जो वैज्ञानिक उच्च शिक्षा की सीढ़ीया चढ़ते हैं, जिनके लिए ज्ञान की तार्किकी में  उतरना उनके व्यवसाय से गहराई से संबंधित होता है, जिस ज्ञान की व्यवहारिक सफलता ( डॉक्टर, वैज्ञानिक क्षेत्रों से जुड़े व्यवसाय आदि जिनका कि जिक्र आपने किया है ) उस विषय से संबंधित विज्ञान और तार्किकी से जुड़ी और निर्भर होती है, वहां भी सामान्यतः यह होता है कि जीवन में विशिष्ट रूप से आई इस आवश्यकता से निपटने के विशिष्ट प्रयास किए जाते हैं, अपने आपको जीवन की सामान्यता से विलगित करके इसी पर केन्द्रित किया जाता है। यानि कि सामान्य जीवन, उसकी सभी अंतर्क्रियाओं से लगभग विलगित स्थितियों के बीच इस नई समझ और तार्किकी के परवान चढ़ने की प्रक्रिया चलती है और उसमें विशिष्ट रूप से प्रयास करके दक्षता हासिल करना प्राथमिक उद्देश्य बनता है ताकि उस विषय-विशेष से संबंधित केरियर में ऊंचे पायदान चढ़े जा सकें। इसके कारण अक्सर इस विशिष्ट तार्किकी का जीवन के साथ सामान्यीकरण संभव नहीं हो पाता। यह नया ज्ञान, नई समझ और तार्किकी जीवन से जुड़ी अन्य चीज़ों के साथ अंतर्संबंधित नहीं हो पातीं। इस विशिष्ट प्रयोजन के लिए उनके मस्तिष्क में जैसे एक अलग ही होना अनुकूलित हो जाता है। यूं भी कह सकते हैं, कि तार्किकी-विश्लेषण-वैज्ञानिक पद्धति आदि के लिए यह विशिष्ट व्यावसायिक प्रयोजन आरक्षित हो जाता है।

इस तरह वे इस विशिष्ट प्रयोजन के लिए इस नये अलग विकसित हुए ढांचे का प्रयोग करते हैं और सामान्य जीवन में, कई मान्यताओं-विश्वासों-आस्थाओं में, व्यवहारों में, आदर्शों में अपनी उसी प्राथमिक ढांचे के अनुसार कार्य करते रहते हैं, सहज रहते हैं। दोनों क्षेत्रों को आपस में घुलने मिलने की आवश्यकता और जरूरत ही पेश नहीं आती, और वे इन दोनों को अलग-अलग जी रहे होते हैं। कभी-कभी अंतर्विरोध या अंतर्द्वंद पैदा भी होते हैं तो इससे पैदा होने वाली असहजता और तकलीफ़ों से बचने के लिए वे इनका विलगन और बढ़ाते हैं। अपनी दोनों तरह की तार्किकताओं को, आपस में इस्तेमाल कर दोनों क्षेत्रों से संबंधित मान्यताओं को और पुष्ट करने में लगा देते हैं। वैज्ञानिक तार्किकता का प्रयोग, धार्मिकता के अनुकूलन को पुष्ट करने में, और धार्मिक-आध्यात्मिक तार्किकताओं का प्रयोग, वैज्ञानिक क्रियाकलापों के लक्ष्यों, रहस्यों और लूप-होल्स की जगह को भरने में लगा देते हैं।

तो कुलमिला कर बात कुछ इस तरह की ही हुआ करती है। अब आप चाहे तो इसे दिमाग़ की सीमाओं के कारण भी कह सकते हैं। क्योंकि दिमाग और तंत्रिकातंत्र के अनुकूलित प्रतिवर्त जब प्रबलित हो जाते हैं, स्थिर से हो जाते हैं तो उनमें परिवर्तन करके नये तरह के प्रतिवर्त बनाना एक मुश्किल और तंत्रिकातंत्र की बनावट की सीमाओं के कारण मुश्किल तो होता ही है, और समय गुजरते जाने पर तो कई चीज़ें असंभव सी भी होती जाती हैं। इसी तरह विचार की अमूर्तन तार्किकताओं के भी सहसंबध प्रबलित और स्थिर से होते जाते हैं। दिमाग़ उसी पद्धति से स्मृति और विश्लेषण की प्रक्रिया का उपयोग करना आसान और सहज पाता है जिसकी उसे आदत है।

या इसे महान विकासक्रम से प्राप्त दिमाग की असीम संभावनाओं का, अभिशप्त परिवेश द्वारा सीमित दायरे का अनुकूलन ( conditioning ) भी कह सकते हैं जो इन असीम संभावनाओं को सीमित, दमित करता है और परंपरा के दायरे से बाहर ही जाने नहीं देता। एक वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण ही निर्मित नहीं होने देता। व्यष्टि को इस व्यवस्था के मुफ़ीद बनाता है, गुलाम मानसिकताएं तैयार करता है जो कि बिना सवाल उठाए, प्रतिरोध किए अनुकरणीय भीड़ की जमात में शामिल हो जाए और प्रभु वर्ग उनका जैसा चाहे अपने हितों के लिए इस्तेमाल करते रह सकें, और मज़ेदार बात साथ यह भी हो कि वे इसी में जीवन की सफलता, ख़ुशी और आनंद महसूस करें। अपनी स्थितियों के लिए कृतज्ञ महसूस करते रहें। उनकी और व्यवस्था के, तथा उनके दृष्टिकोण और तार्किकता के गुणगान गाते रहें, उसे और अधिक पुष्ट करते रहें।

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असली नास्तिकता भौतिकवादी ( materialistic ) दर्शन, द्वंदवादी विश्लेषण पद्धति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के ज़रिए ही उभर सकती है। फिर यह ईश्वर, अंधविश्वास और आस्थाओं के मामले भी द्वितीयक हो जाते है या अपना महत्त्व खो देते हैं। इन सबका मूलाधार ही ख़त्म हो जाता है, इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है तो इन पर अलग से विचार करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। समझने और समझाने के लिए ही इन पर विचार किया जाता है। इनकी समाज में यथार्थता के भौतिक कारणों और आधारों का विवेचन किया जाता है।

गहरी बात, पर इस स्थिति तक भौतिकवादी ( materialistic ) दर्शन, द्वंदवादी विश्लेषण पद्धति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने/बरतने वाला कोई स्वयंमेव ही पहुंच जाता है या उसे प्रयास करने होते हैं यहाँ तक पहुंचने के लिये ?

भौतिकवादी दर्शन को आत्मसात करने की प्रक्रिया, वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करने और वैज्ञानिक-तार्किक पद्धतियों का इस्तेमाल करना सीखने की प्रक्रिया से गुजरकर ही कोई इस स्थिति तक पहुंच सकता है। इनसे संबंधित सामग्री सामान्यतः उपलब्ध नहीं हो पाती, अतएव सामग्री तक पहुंचने के लिए भी प्रयास करने होते हैं, इनको ह्र्दयंगम करने, अपने अनुभवजगत का हिस्सा बनाने और व्यवहार में ढालने के लिए तो विशिष्ट प्रयत्न करने ही होंगे।

अगर कोई भी इस प्रक्रिया का अंग है तो उसे ऐसा लग सकता है कि जैसे स्वयंमेव ही पहुंचा जा रहा है, परंतु वहां भी, और सामान्यीकरण करें तो कहीं भी, प्रयास करने से ही पहुंचा जा सकता है। और जाहिरा तौर पर, अपने परिवेशगत पारंपरिक अनुकूलनों से आगे निकलना है तो यह प्रयास काफ़ी कठिन और कष्टकर भी होते हैं।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 24 अगस्त 2013

अध्यात्मवादी घटाघोप और भावी संभावनाएं

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



अध्यात्मवादी घटाघोप और भावी संभावनाएं

यह घटाघोप बहुत बड़ा और ताकतवर हो चुका है आज... पर आज तो अतिरिक्त उत्पादन, अतिरिक्त उपभोग, अतिरिक्त पूंजी, अतिरिक्त पूंजी संग्रहण आदि आदि के रूप में ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद हैं जिसमें एक बड़ा तबका जो कुछ आज उसके पास है उसे बचाये रखने और उसे ज्यादा बढ़ाने के लिये 'दुनिया चलाने वाले' को येन-केन-प्रकारेण खुश करने/रखने का यत्न कर रहा है... और उसकी इस चाह ने उन लोगों की भी बाढ़ ला दी है जो इस घटाघोप को और बड़ा, चमकदार व रहस्यमयी बना/दिखा कर ही अपना ऐशोआराम व सामाजिक स्थिति पाते हैं... तो क्या यह माना जाये कि आज के इस दौर में यह घटाघोप और गहराता जायेगा ?... इस घटाघोप से उबरने या कम से कम इसको अधिसंख्य द्वारा समझ पाने लायक परिस्थतियाँ कैसे बनेंगी, बन भी पायेंगी या नहीं, और यह सब सायास होगा या अनायास ही...

निराशाजनक परिस्थितियां तो है ही, पर इतने अवसाद की बात भी नहीं है। माना अभी इनसे फायदा उठाने वाले वर्ग प्रभुत्व में है, पर उत्पादन प्रक्रियाओं की आवश्यकता, शिक्षा और लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया, समस्याओं का अहसास और उनके प्रति सचेत होने और प्रतिरोध तथा समाधान तलाशने की आवश्यकता, आधुनिकीकरण की परिस्थितियां आदि भी अपना काम कर ही रही हैं। शनैः शनैः ही सही पर घटाघोप को समझने, इससे मुक्ति की छटपटहाट रखने वालों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है। जहां ऐसे लोग पहले इक्का-दुक्का मिला करते थे, अब गाहे-बगाहे मिल जाया करते हैं। एक आधार, एक ज़मीन तो तैयार हो ही रही है, जैसे ही परिस्थितियां अनुकूल होंगी, स्थितियां गुणात्मक रूप से परिवर्तित होंगी, आशा रखी जा सकती है। सायास प्रयासों के साथ, जब पारिस्थितिक अनुभवों का दायरा संबद्ध होता है, तभी बदलाव की प्रक्रिया संपन्न होती है।

परिवर्तन अब धीरे-धीरे लाजिमी होता जा रहा है। सामाजिक और राजनैतिक संस्थाओं का विकास, उत्पादन प्रणालियों के विकास के साथ-साथ चलता है। उत्पादन प्रणालियों और उत्पादक शक्तियों का आपसी द्वंद और संघर्ष तब अपने चरम पर पहुंचता है, जब उत्पादन प्रणालियां, उत्पादन शक्तियों के विकास में बाधा बन जाती हैं और उनके लिए उपयुक्त और समर्थ नहीं रहती। ऐसे में ढांचा गिर जाता है, गिरा दिया जाता है और नई जरूरतों के हिसाब से नया ढांचा आकार लेने लगता है।

यह थोडी भारी सी बात हो सकती है। दूसरे तरीक़े से भी समझने की कोशिश करते हैं। जब हम उत्पादन के ढांचे में सभी कुछ अतिरिक्त पा रहे हैं, इतना अतिरिक्त कि संभाले नहीं संभलता है, और अतिरिक्त इकट्ठा करने का ज़रिया बनता जाता है। यानि इस व्यवस्था में जमकर अतिरिक्त है, इतना कि अभी से भी कई गुना आबादी को भी समुचित जीवनयापन के साधन आसानी से जुटाए जा सकते हैं। फिर भी वर्तमान मनुष्य जाति का बहुल हिस्सा जीवन की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ रखा जा रहा है, जो हिस्सा सारे उत्पादन और पूंजी का जनक है, वह उसके लाभ प्राप्त करने से वंचित है। छोटा हिस्सा उस पर कब्जा जमाए है, अपने लिए सुख-सुविधाओं के नये-नये आयाम ढूंढ रहा है, अघाए हुए है और दूसरी ओर बड़े हिस्से के लिए दो जून की रोटी भी जुगाड़ पाना मुश्किल हुआ जा रहा है।

यह प्रभुत्व प्राप्त तबका जाहिरा तौर पर अपने हितबद्ध यथास्थिति को बनाए रखना चाहता है, और इसके लिए इस घटाघोप को बनाए रखना उसकी जरूरत है। वह नई-नई सैद्धांतिकियां गढ़ेगा, व्यवहारिकियां गढ़ेगा, भ्रम बनाए रखेगा, उलझाए रखेगा, कानूनों के ज़रिए विरोध को गैर-कानूनी बनाएगा, सत्ता के ज़रिए उनका दमन करेगा, कि येन-केन प्रकारेण यथास्थिति बनाए रखी जा सके और उसके ऐशो-आराम की सामाजिक और राजनैतिक स्थितियां जस-की-तस बनी रहे। दूसरी ओर जिनके लिए इस व्यवस्था में जीने की परिस्थितियां बदतर होती जा रही हैं, वे अपने प्रतिरोधों को संघर्षों का रूप देंगे, विरोधों को संगठित करने की कोशिश करते रहेंगे। यह द्वंद, यह अंतर्विरोध, यह संघर्ष इनके समाधान तक निरंतर चलता रहेगा। ये परिस्थिति-जनित सचेत और सायास प्रयासों की श्रृंखलाएं है।

यह हुई एक बात, दूसरी तरफ़ से नज़र डालें कि सायास सचेत रूप से किए जाने के बावज़ूद परिस्थितियां किस तरह अपनी राह चला करती हैं। अभी वर्तमान में, उत्पादन प्रणालियां पूंजी-मुनाफ़ा आधारित हैं। उत्पादन समाज की जरूरतॊं के हिसाब से नियोजित रूप में नहीं होता, बल्कि पूंजी का प्रवाह मुनाफ़े की दिशा में होता है। यानि जहां सबसे अधिक मुनाफ़े की गुंजाइश दिखती है, या खाए-अघाए लोगों की क्रय-शक्ति को देखते हुए, उनके लिए ऐशो-आराम के नये तरीके विकसित करके अधिकतम मुनाफ़े को, पूंजी को अपनी तरफ़ समेट लेने की संभावनाएं जहां दिखती है, पूंजी का प्रवाह उसी दिशा में होने लगता है। कुछ ही सालों में उस मुनाफ़े वाले क्षेत्र में, अतिशय पूंजी निवेश हो जाता है, अतिरिक्त उत्पादन का ढेर लग जाता है। उत्पादन का ढ़ेर और मांग-खपत की कमी, क़ीमतों को तोड़ देती है, मंदी का तूफ़ान घेर लेता है। पूंजी के प्रवाह का भट्टा बैठ जाता है, छोटे और मध्यम दर्जे के पूंजीपति, दीवालिया हो जाते है, साथ ही इनके व्यापार पर निर्भर बिचौलियों, दुकानदारों, मजदूरों का भी भट्टा बैठ जाता है। उत्पादन-बाजार-उपभोक्ता का ढांचा बिखर जाता है, बेरोजगारी बढती है, क्रय-शक्ति और कम होती है, मांग कम होती है और मंदी और भी व्यापक रूप लेती हुई और भी क्षेत्रों में फैल जाती है। साथ ही, एक तरफ़ अनावश्यक वस्तुओं का अतिरिक्त उत्पादन और दूसरी तरफ़ आवश्यक चीज़ों में, मुनाफ़े की कम संभावना के चलते घटते निवेश के कारण उत्पादन में कमी, आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता में कमी लाती है, महंगाई बढ़ाती है। अभावों और अकालों का वायस बनती है।

इसलिए मुनाफ़ा आधारित पूंजीवादी अनियोजित उत्पादन प्रणाली अपनी इस नियति से निपटने में अक्षम रहती है, कुछ दसेक वर्षों के निश्चित से अंतराल में निरंतर मंदी के चक्रों से गुजरती रहती है और उत्पादक शक्तियों के भारी विनाश का कारण बनती रहती है।

तो जब ऐसी परिस्थितियां है, ये यथार्थ है, तो जाहिर है इससे उबरने की आवश्यकता भी पैदा होती है। और इसीलिए इनसे उबरने के सायास प्रयास भी होंगे। सायास प्रयासों की सफलता भी इन्हीं परिस्थितियों पर निर्भर होगी। जब तक ये व्यवस्था येन-केन प्रकारेण इनसे निपटने का सामर्थ्य रखती है, मंदियों के दौरों से उबर पाने के लिए, पूंजी-प्रवाह के वैकल्पिक वैश्विक रास्ते, नये बाजार और लूट के अवसर निकाल पाने में सक्षम रहती है, प्रतिरोध के सायास प्रयास असफल होते रहने को अभिशप्त होते रहेंगे। पर ये संघर्ष चलते रहेंगे, प्रतिरोधी और क्रांतिकारी चेतना का इन्हीं संघर्षों के ज़रिए विकास होता रहेगा, प्रतिरोध भी और अधिक संगठित और वैश्वीकृत होता रहेगा। और इस घटाघोप के ऐसे ही किसी समय भरभराकर ढहने की परिस्थितियों में, कभी कुछ स्थानीय तौर पर और अंततः व्यापक रूप से व्यवस्था परिवर्तन की परिस्थितियां बनेंगी और उत्पादन प्रणालियों का, समाज की जरूरतों पर आधारित एक नियोजित ढांचा खड़ा करना आवश्यक हो जाएगा जो कि उत्पादक शक्तियों और उत्पादक साधनों-प्रणालियों के इस द्वंद, अंतर्विरोधों के सामाधान के रूप में अस्तित्व में आएगा। और तभी यह संभव हो सकेगा, कि उत्पादक शक्तियों यानि अधिसंख्य लोगों के सर्वांगीण विकास की संभावनाएं मूर्त रूप लेंगी और वे अपने को कई भ्रमों से मुक्त कर पाने, समझ को बढ़ाने और पुराने घटाघोपों से मुक्त कर पाने की अवस्थाओं में, वास्तविक पारिस्थितिक रूप से होंगे।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 17 अगस्त 2013

पृथ्वी से परे - ईश्वरीय संकल्पनाओं की संभावनाएं

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



पृथ्वी से परे - ईश्वरीय संकल्पनाओं की संभावनाएं


पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति होना एक विलक्षण, अति दुर्लभ संयोग सा था... पर अथाह बृह्माँड में हो सकता है कि यह विलक्षण, दुर्लभ संयोग कुछ या अनेक जगहों पर हुआ या हो रहा हो... मानवीय दर्शन शास्त्र के अनुसार इस सभी जगहों की चेतना भी अपने अपने विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुसार ही रूप लेगी... यह भी हो सकता है कि इनमें से कुछ, कई या सभी में ईश्वर की संकल्पना ही न उभरे... ऐसा ही होगा भी, संभावना यही है... पर, केवल तर्क के लिये ही मान लें, यदि भविष्य में मानव जाति बृह्माँड के अन्य हिस्सों में पनप रही कुछ जातियों के संपर्क में आये व उनमें भी किसी परम चेतना की संकल्पना मिलती है, तो यह मामला थोड़ा पेचीदा हो सकता है...

आपने एकदम सही कहा है, जीवन की उत्पत्ति के लिए आवश्यक संयोग, अभी तक उपलब्ध विपुल जानकारी में, इतने सारे है कि अभी तक ब्रह्मांड़ में जहां तक हमारी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष पहुंच संभव हो पाई है, जीवन की उत्पत्ति की संभावनाएं बहुत कम ही हैं। यह लगभग सुनिश्चित सा ही लगता है इतने सारे संयोगों का एक साथ होना असंभव सा है। इस नीले ग्रह पर हुआ है तो, और साथ ही ब्रह्मांड़ की असीमता को देखते हुए, इसे तार्किक रूप से, सिरे से ही नकारा तो नहीं जा सकता लेकिन फिर भी, इस मामले में हमारी कल्पनाशीलता की भी कुछ सीमाएं तो होनी ही चाहिएं।

हमारा ब्रह्मांड, पदार्थ की उपस्थिति और उसका विस्तार ही है और जाहिरा तौर पर वह इसी के कुछ मूलभूत नियमों से सक्रिय है। तो इसके विकास स्वरूप अस्तित्व में आए जटिल प्रोटीन अणुओं ( जो कि जीवन का मूल हैं ) के निर्माण और उसके विकसित होने की प्रक्रिया और नियम भी सभी जगह एक जैसे ही होंगे। जीवन के विकास की हर जगह, कुछ पारिस्थितिक विशिष्टताएं तो होंगी, पर उसके आधारभूत गुणधर्म, संरचना और नियमसंगतियां एक समान ही होंगी। भूतद्रव्य और उसके बहुत ही जटिल विकास से उत्पन्न जैव-कोशिकाओं की प्रतिक्रियात्मकता के भी जटिल विकास के रूप में ही, विभिन्न इन्द्रियों और चेतना का सफ़र तय हुआ है। जीवन के साथ, चेतना ( जिसे हम मनुष्य का विशिष्ट लक्षण ) की उत्पत्ति के लिए तो और भी कई विशिष्ट संयोगों की उपस्थिति जुड़ी हुई है।

इसलिए हमें तो यह लगता है कि चेतना के विकास और उससे संबद्ध क्रियाविधियों की नियमसंगतियां भी लगभग एक जैसी ही रहने की संभावनाएं हैं। तार्किक रूप से हम कल्पना भी करना चाहें, कि कहीं और भी इसी तरह के चेतना संपन्न प्राणी हो सकते हैं, तो जाहिरा तौर पर चेतना की उपस्थिति भय के आधारों पर ही ख़ड़ी मिलेगी। जीवनीय द्रव अपने को बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहता है, जाहिर है कि वह उसको नष्ट कर सकने वाली परिस्थितियों से दूर रहने को गतिशील करता है। यानि उसका रासायनिक और भौतिक संघटन, स्वयं को विघटित कर सकने वाले कारकों के प्रति प्रतिक्रिया करता है। ये कारक उसके लिए खतरे के रूप में उपस्थित होते हैं। और यदि साथ में चेतना होगी, तो ये खतरे उसके लिए चेतन भय का रूप लेंगे, और इसी भय और अज्ञान से वही प्रक्रिया चल निकलेगी जो अंततः इसी तरह की किसी अलौकिक अवधारणाओं का, कोई विशिष्ट पारिस्थितिक रूप लेने को अभिशप्त होगी।

यह उनके विकास और परिस्थितियों की अवस्थाओं पर निर्भर करेगा कि ईश्वर की अवधारणा उनमें किस रूप में होगी। पर यदि चेतना विकसित होगी तो जाहिरा तौर पर वह ऐसी ही क्रम-प्रक्रिया से गुजरने को अभिशप्त होगी। हां उसका रूप थोड़ा या अधिक भिन्न हो सकता है, बिल्कुल उसी तरह, जिस तरह से हमारी पृथ्वी पर भी अलग-अलग चेतना-विकास की धाराओं के कारण, इसमें भिन्नताएं पाई जाती हैं। अब चूंकि हम यह कल्पना करना चाह ही रहे हैं, तो फिर उनमें भी उनकी परिस्थितियों के अनुसार ही इस तरह की अवधारणाएं मिलना सुनिश्चित सी ही लगती है। बजाए ऐसा कहने के, कि इसकी संभावनाए ही नहीं है।

अतएव, मामला स्पष्ट नहीं हुआ। अब जैसा कि आपने कहा है, हम मान रहे हैं कि उनमें भी परम चेतना की संकल्पना मिलती है, तो इसमें मामला थोड़ा पेचीदा कैसे हुआ...? हमें तो लगता है, मामला तब पेचीदा होगा, जब उनमें इस तरह की अवधारणाएं नहीं मिलें। :-)

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क्या ध्यान लगाने व चित्त को एकाग्र करने के लिये बताये गये आध्यात्मिक तरीके जिनमें सामान्यत: स्वचालित श्वसन क्रिया को नियंत्रित करने पर जोर दिया जाता है के दौरान, या कीर्तन-सत्संग-समागम-गुरू दर्शन के दौरान कुछ लोगों को हुऐ अलौकिक अनुभवों को Hypo या Hyper Ventilation के कारण हुऐ अथवा उनके दिमाग की कंडिशनिंग के कारण हुऐ आनुभाविक भ्रम कहा जा सकता है... :)

सही है :-)। इस तरह के आनुभाविक भ्रमों के आधार में दिमाग के अनुकूलन साथ ही, दिमाग़ की क्रियाशील कमजोरी भी है। दिमाग़ के काम करने की अपनी सीमाएं हैं। अनुभवों की सीमाओं, अज्ञान, और कई सारे नये अनुभवों के दिमाग़ में पूर्व-संदर्भ नहीं होने के कारण, व्यक्ति इन्हें मिलते-जुलते से काल्पनिक, अवास्तविक, अनुकूलित संदर्भों के साथ जोड़ लेता है। इन्हीं क्रियात्मक सीमाओं के कारण, दिमाग़ को आसानी से भ्रम हो सकता है, भ्रमित किया जा सकता है।

पर दिमाग को भ्रमित कर पाने की इस क्षमता का अभी तक नकारात्मक प्रयोग ही दिखा है, सकारात्मक प्रयोग के उदाहरण नहीं दिखते ज्यादा... :(

भ्रम अपने आप में ही एक नकारात्मक अवधारणा है, तो जाहिरा तौर पर इसके नकारात्मक प्रयोग ही अस्तित्व में होंगे और दिखेंगे। :-) अभी के यथार्थ में, कुछ मानसिक समस्याओं के समाधानों में कुछ लोग इसका सकारात्मक सा प्रयोग कर लिया करते हैं। जैसे कि अधिक गंभीर से दिखते भ्रमों के ईलाज के लिए उसके समक्ष उसके मूल सरोकारों से अलग कम गंभीर और नये भ्रमों की रचना का ताना-बाना उसके सामने बुन देते हैं। मानसिक अपरिपक्व व्यक्ति नये भ्रमों में उलझ जाता है और पुराने भ्रमों से तात्कालिक राहत सी पा लेता है। :-)



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 10 अगस्त 2013

ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - ४

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - ४

( पिछली बार से जारी..........)

अब थोड़ा सा, प्राचीन अवस्थितियों का पुनर्कल्पन करने की सरलीकृत सी कोशिश करें, शायद यह रोचक और समीचीन रहे :-)। जैसा कि आप भली-भांति जानते हैं, और आपने कहा भी है, जीवन के लिए प्रकृति के साथ के सघर्षों, उसकी हारों, विवशताओं, अभिशप्तताओं ने प्रकृति में किसी अलंघ्यनीय चमत्कारी शक्तियों के वास की कल्पना, साथ ही उसकी बढ़ रही, प्रकृति की नियंत्रक क्षमताओं से उत्पन्न चेतना से, इनके भी नियंत्रण के लिए किये गये मानव के कर्मकांड़ी प्रयासों से, जादू-टोने-टोटकों की क्रियाविधियां विकसित हुईं। जीवन की किसी पशु-शिकार पर विशेष निर्भरता ने टोटेमवादी अवधारणाओं को उत्पन्न किया। जातीय निरंतरता की चेतना ने पूर्वजों और उनके प्रति कृतज्ञता, पूजा-आदि की परंपराओं को विकसित किया, टोटेम और पूर्वजों की अवधारणाओं को अंतर्गुथित किया। मृतकों के साथ जीवित व्यक्तियों के साम्य और विरोधी तुलना ने, मानव में उपस्थित किसी चेतना या आत्मा के विचार तक पहुंचाया। और इन सबका बेहद जटिल अंतर्गुंथन अपने विकास-क्रम में अंततः परमचेतना, परमात्मा, ईश्वर की अवधारणाओं और धर्मों के वर्तमान सांस्थानिक रूप तक विकसित हुआ।

जादू-टोने-टोटकों और कई अन्य आद्य धार्मिक क्रियाओं को किए जाने की आवश्यकता ने, जब श्रम-प्रक्रियाएं विशिष्ट रूप ले रही थी, श्रम-विभाजन संपन्न हो रहा था, समूहों में इनके भी विशेषज्ञ व्यक्तियों, ओझाओं के उभार का रास्ता प्रशस्त किया। चमत्कारी शक्तियों को नियंत्रित करने की क्रियाविधियों ने उन्हें भी अंततः बेहद चमत्कारी, विशेष व्यक्तियों में तब्दील कर दिया। अतिरिक्त उत्पादन ने ऐसी परिस्थितियां पैदा की इन विशिष्ट व्यक्तियों का श्रम-उत्पादन प्रक्रियाओं में बिना शामिल हुए ही, जीवनयापन के लिए साधन उन लोगों के श्रम-उत्पादों के आधारों पर जुटने लगे। जाहिरा-तौर पर अब ऐसे आधार मौजूद थे, कि वह अपनी इस स्थिति को बनाए रखने, उसे समृद्ध करने की उधेड़-बुन कर सके, उसके पास अतिरिक्त समय था कि वह कई नये काल्पनिक आभामंड़लों का विस्तार कर सके। लोगों की जिज्ञासू प्रवृत्तियों, सवालों के उत्तर के लिए वह जैसे अधिकृत सा होता गया, वैसे ही इनकी संतोषप्रद व्याख्याओं, जवाबों के लिए वह अपनी कल्पनाशक्ति दौड़ाने को मजबूर हुआ। शनै-शनै ऐसा घटाघोप विकसित हुआ जिसका कि परिणाम हमारे सामने है।

शिकार, आपसी कबायली संघर्षों तथा युद्धों ने इसी तरह लड़ाका समूहों को विकसित किया जो कि अंततः श्रम-उत्पादन प्रक्रियाओं में लगे सामान्य व्यष्टियों से विलगित होते गये, जिनका कि भी विशिष्टीकृत कार्य यही होता गया। ये भी शनैः शनैः बिना उत्पादन प्रक्रिया में शामिल हुए ही, अतिरिक्त उत्पादन पर निर्भर होते गये। समाज को अपनी इन्हीं विशिष्ट आवश्यकताओं के लिए, ओझाओं और इन लड़ाका सैनिकों के विशिष्ट समूहों को अपने पर ही अवलंबित करना पड़ा। अपनी इसी सापेक्षतः मजबूत और निर्णायक स्थिति के कारण, धीरे-धीरे ये समूह समाज में प्रभुत्व प्राप्त करते गये। प्रभुत्व प्राप्ति के लिए इनके बीच भी संघर्ष होना लाजिमी था, हुए भी, पर अंततः दोनों की पृथक विशिष्टताओं और समाज को इनकी आवश्यकताओं ने इन्हें नाभिनालबद्ध कर दिया। ये आपसी सहयोग की राह पर आए और सत्ता के सुखों के एक निश्चित बंटवारे की जोड़-तोड में आपस में घुल-मिल गये। पुजारियों-ब्राह्मणों और क्षत्रियों की जुगलबंदी के नये रूप विकसित हुए। अतिरिक्त उत्पादन से पैदा हुई, अतिरिक्त संपत्ति इनके पास केंद्रित होती गई और यह अधिक से अधिक ताकतवर होते गये। उत्पादन-प्रक्रियाओं, प्रणालियों, तकनीकों के विकास के साथ उत्पादन बढ़ता गया, संपत्ति बढ़ती गई, निजी संपत्ति के ढेर लगने लगे, व्यापार बढ़ा, एक अधिक व्यापक व्यवस्था की आवश्यकता बढ़ी और अंततः बड़े-बड़े राज्य अस्तित्व में आए। इस राज्य के विकास के साथ, इसके आधारों को बनाए रखने के लिए, राज्य को बनाए रखने के लिए, धर्म के सांस्थानिक रूप विकसित हुए। राज्य और धर्म नाभिनालबद्ध हो गये।

अभी इतना ही, बाकी कि कहानी फिर कभी।


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इस अंतर्विरोध को भी देखिए, जो कि आपके कहे से उत्पन्न हो रहा है। इसको समझने की प्रक्रिया शायद आपके संशयों, कहे गये से ध्वनित हो सकने वाले गूढ़ार्थों को निश्चित करने और समझने में आपकी मदद करे।

आपकी यह बात कि, ‘क्या यह समूहों के नेतृत्व का अपनी नाकामियों के लिये ठीकरा फोड़ने व अपने नेतृत्व को एक लेजिटिमेसी देने के लिये गढ़ा मिथक नहीं था...’ ईश्वर की अवधारणा के संदर्भ में यह इशारे कर रही है कि कुछ विशिष्ट मस्तिष्कों ने इसे सचेतन रूप से गढ़ा, इसे विशिष्ट रूप दिया और फिर इसे योजनाबद्ध रूप से व्यापक बनाया।

वहीं आपका यह कहना कि, ‘हर दौर का मानव यह बात कर कहीं न कहीं अपनी बेबसी में संतोष सा ही कर रहा होता है, खास कर उन चीजों के लिये जिन को वह कंट्रोल नहीं कर पा रहा होता या जिन पर उस का जोर नहीं चलता... चाहे यह प्राकृतिक आपदायें हों या असाध्य बीमारी... वह अपनी हार को परम आत्मा के परम नियंत्रणाधीन एक वृहद योजना का हिस्सा सा मान स्वयं को सांत्वना सी देता है...’ ईश्वर की अवधारणा के संदर्भ में यह इशारे कर रहा है कि मानव के हालात और प्रकृति के सापेक्ष उसकी कमजोर स्थिति के कारण सभी मानव-मस्तिष्कों के लिए यह एक सामान्य परिघटना थी और इसी एक जैसे अनुभवों, विवशताओं तथा आवश्यकताओं ने इसे व्यापक आधार प्रदान किए।

हालांकि, सामान्य रूप से आपका कहना काफ़ी हद तक सही है, पर शायद इसे इस तरह से कहना अधिक सही रहे, कि क्रमिक-विकास की प्रक्रिया में, सामान्यतः समान और व्यापक, ऐतिहासिकतः परिस्थितियों में उत्पन्न इन धर्म और ईश्वर संबंधी अवधारणाओं के क्रम विकास में, ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न हुई कि कुछ व्यक्ति या समूह विशेष इसके कारण शनैः शनैः सामाजिक सोपानक्रम में ऊपर की स्थिति प्राप्त करते गए, और फिर इन्हीं व्यक्ति-समूह विशेषों ने अपनी इस स्थिति को बनाए रखने और निरंतर समाज में प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए सचेतन, षाडयंत्रिक रूप से भी, ठीकरा फोड़ने, लेजिटिमेसी देने, मिथक गढ़ने, काल्पनिक-कथाएं, पुराणों की रचनाएं करने, अलौकिक और रहस्यमयी प्राकृतिक शक्तियों संबंधी सामान्य अवधारणाओं को ईश्वर संबंधी विशिष्ट रूप देने, ईश्वर और धर्म को सांस्थानिक रूप देने में अपनी एक विशिष्ट भूमिका निभाई।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 3 अगस्त 2013

ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - ३

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - ३

( पिछली बार से जारी..........)

इसलिए यह निष्कर्ष निकालना क्या उचित नहीं होगा, मानव-मस्तिष्क और उसके समस्त क्रियाकलाप अंततः इसी प्रक्रिया से गुजरे हैं, और इसीलिए मूलभूत रूप से जिस तरह मानव-मस्तिष्क, उसके विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज है, अंततः मूल रूप से मानव-मस्तिष्क के सभी क्रियाकलाप भी इन्हीं ऐतिहासिक परिस्थितियों की पैदाइश हैं। यानि कि ऐसा कहा जाना अधिक उचित नहीं रहेगा, कि अन्य विचारों या अवधारणाओं की तरह ही, ईश्वर की अवधारणा भी, ऐतिहासिकतः विकसित हुए मानव मस्तिष्क और चेतना की पैदाइश ही है, जो कि अंततः उसके विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों की स्वाभाविक परिणति या उपज है।

इसीलिए इतिहास में हम पाते हैं, कि जिस तरह से स्वयं मानव का क्रम-विकास हुआ है, उसके मस्तिष्क और चेतना का क्रमिक विकास हुआ है, उसके समाज और संस्थाओं का क्रम-विकास हुआ है, उसकी भाषा और चिंतन का क्रम-विकास हुआ है, उसके अन्य विचारों और अवधारणाओं का क्रम-विकास हुआ है, ईश्वर और धर्म से संबंधित अवधारणाओं का भी एक समुचित क्रम-विकास संपन्न हुआ है। और यह भी कि क्रमिक रूप से, सरल रूपों से जटिलतर रूपों में विकसित हुई चीज़ों के लिए, कोई सरलीकृत, विशिष्टीकृत आधार, कोई विशिष्ट जनक ढूंढ़ना, ऐतिहासिकतः और वस्तुगत वैज्ञानिकतः रूप से अधिक समीचीन नहीं है। इस तरह की कार्यवाहियां ही, अपनी विशिष्ट परिणति में मानव जाति को एक विशिष्ट जनक आदम-ईव या मनु-शतरूपा के मिथकों और साथ ही सृष्टि की रचयिता किसी परम चेतना की काल्पनिकता तक ले गई थीं।

आप भले ही समाधान के लिए शब्दावली कुछ भी काम में ले रहे हैं पर आप भी इस विकास प्रक्रिया से इतनी भली-भांति मुतमइन हैं कि यह निष्कर्ष निकाल पा रहे हैं कि ‘मुझे यह भी लगता है कि क्रमिक विकास होते होते एक दिन मानव जाति इस अवधारणा को नकार भी देगी’। जिस तरह से आप इस निष्कर्ष तक पहुंचे हैं, उसी तरह से मानवजाति का अद्यानूतन दर्शन भी इसी निष्कर्ष तक पहुंचता है। वह इसे इस शब्दावली में कहता है कि, जिस तरह ईश्वर की अवधारणा एक निश्चित और विशिष्ट परिस्थितियों की उपज है, उसी तरह से विकास-क्रम में इन निश्चित और विशिष्ट परिस्थितियों का लोप होने पर, ईश्वर की अवधारणा स्वतः ही लुप्त हो जाएगी, इतिहास की चीज़ हो जाएगी। यह कई अन्य अवधारणाओं की तरह सिर्फ़ अध्ययन और आश्चर्य मिश्रित हास्यबोध का विषय रह जाएगी कि क्रम-विकास में मनुष्य का ज्ञान, एक समय में इन अवस्थाओं में था कि वह इस तरह के काल्पनिक समाधानों की दुनिया में विचरण किया करता था, और धर्म तथा ईश्वर की इन अवधारणाओं को अपने हितार्थ नाना-रूपों में पल्लवित कर कुछ व्यक्ति या समूह एक लंबे समय तक समाज में अपने-आप को प्रभुत्व प्राप्त स्थिति में बनाए रखने में सफल रहे थे। :)

ऐसा होना भी सिर्फ़ इसलिए संभव नहीं हो गया कि यह किसी विशिष्ट मस्तिष्क या चेतना की, या विशिष्ट समूहों के सचेतन प्रयासों से निगमित हुआ हो, ऐसा होना इसलिए भी संभव हो पाया कि ऐसा होने के निश्चित भौतिक पूर्वाधार मौजूद थे। भौतिक-जीवनीय परिस्थितियां, तद्‍अनुकूल चेतना और परिवेश के ज्ञान का स्तर, जीवनयापन हेतु उत्पादन प्रक्रिया और प्रणालियों का स्तर, प्रकृति के सामने असहायता और विवशता, जीवन के सामने प्रस्तुत ख़तरों से उत्पन्न भय, प्राकृतिक शक्तियों के बारे में उसका अज्ञान, उनसे बचने-निपटने, उन्हें अपने वश में नियंत्रित करने की महती आवश्यकता, आदि-आदि, ये सब आपस में अंतर्गुथित हैं और इस तरह की अवधारणाओं के विकास के भौतिक आधारों की पूर्वपीठिका निर्धारित करती हैं।

हालांकि हम इस बात को समझ रहे हैं कि आपके ‘ईश्वर मानव मस्तिष्क की पैदाईश है।' कहने का मंतव्य दरअसल, यह स्थापित करना है कि ईश्वर का यथार्थ अस्तित्व नहीं है और यह मनुष्यों के दिमाग़ की परिकल्पना मात्र है। पर चूंकि हमारे संवाद का प्राथमिक उद्देश्य नास्तिकता के आधारों को समृद्ध करना था, इसलिए हम इस बात पर इतना जोर दे रहे हैं कि चेतना को ( जो जाहिरा तौर पर मानव-मस्तिष्क की प्रक्रियाओं का विशिष्ट उत्पाद है ) प्राथमिक समझना, उसे मूल कर्ता, कारण के रूप में स्थापित करना अंततः अपनी तार्किक परिणति में उसी भाववादी विचारधारा तक पहुंचता है, कि जिस तरह मनुष्य द्वारा सृजित परिवेश के पीछे उसकी चेतना मूलभूत है, पदार्थ और इस विश्व के सृजन के पीछे भी, किसी चेतना, परम चेतना का मूलभूत होना स्वाभाविक और आवश्यक है। यही तो ईश्वर तथा धर्म की अवधारणाओं और उसके सांस्थानिक रूपों का मूलाधार है।

( अगली बार लगातार.....)



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 27 जुलाई 2013

ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - २

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - २

हाँ, निश्चित रूप से समाज, सामाजिक संगठन, संस्थाएं, व्यवस्थाएं, आदि सरल रूप से कठिनतर की ओर विकसित हुऐ हैं...
ईश्वर की अवधारणा का सामान्यीकृत रूप निश्वित रूप से सभी मानव समूहों व धर्मों में एक ही सा है... पर जब आप कहते है कि 'एक अलौकिक शक्ति, परम चेतना, परम आत्मा, जिसने इस ब्रह्मांड़, दुनिया को रचा' तब कभी कभी एक सवाल यह भी कौंधता है मेरे दिमाग में कि पृथ्वी पर उपस्थित प्राणियों में एकमात्र मानव ही तो है जिसने कुछ रचा-बनाया... और तभी से वह 'हर चीज को किसने बनाया-रचा ? 'यह सवाल भी पूछने लगा... अगर मानव कुछ रचना नहीं कर पाता तो शायद यह सवाल भी उसके पास नहीं होता... तो क्या यह 'रचनाकार कौन ?' सवाल मानव मस्तिष्क का एक विशिष्ट फितूर सा नहीं माना जाना चाहिये... रही बात 'परम नियंत्रण' की... तो हर दौर का मानव यह बात कर कहीं न कहीं अपनी बेबसी में संतोष सा ही कर रहा होता है, खास कर उन चीजों के लिये जिन को वह कंट्रोल नहीं कर पा रहा होता या जिन पर उस का जोर नहीं चलता... चाहे यह प्राकृतिक आपदायें हों या असाध्य बीमारी... वह अपनी हार को परम आत्मा के परम नियंत्रणाधीन एक वृहद योजना का हिस्सा सा मान स्वयं को सांत्वना सी देता है...

निश्चित रूप से ईश्वर की अवधारणा में परिवर्तन हुऐ हैं और इसका क्रमिक विकास भी हो रहा है... मुझे तो अपेक्षाकृत नये सिख धर्म  में भी इस अवधारणा का थोड़ा परिष्कृत रूप दिखता है... और मुझे यह भी लगता है कि क्रमिक विकास होते होते एक दिन मानव जाति इस अवधारणा को नकार भी देगी...

हमारे द्वारा उछाले गये कई सवालों पर आपकी प्रतिक्रिया ने अधिकतर चीज़ें साफ़ कर दी हैं। यह भी साफ़ हुआ कि आपकी इस मामले पर समझ के बारे में हमारे पूर्वाग्रह कुछ ग़लत अनुमानों की दिशा ले रहे थे। जाहिर हुआ कि आपके पास, अपने अध्ययनों, तार्किक चिंतन के परिप्रेक्ष्य में चीज़ों की एक साफ़ और बेहतर समझ मौजूद है।

जाहिरा-तौर पर यह निश्चित हुआ कि ईश्वर की अवधारणा, आद्यरूपों से इसके क्रमिक विकास, और आगे की परिणतियों की संभावनाओं पर भी आपकी समझ एकदम अद्यतन और साफ़ है और हमारे द्वारा संवाद को इस दिशा में मोड़ने की कोई जरूरत नहीं थी। जहां से बात शुरू हुई थी, बात फिर वहीं पहुंच जाती है कि ईश्वर का जनक कौन है? आपने एक सरलीकृत समाधान पेश किया था, जिसको ही आगे बढ़ाते हुए हमने भी एक सरलीकृत समाधान पेश किया था। दोनों ही अलग-अलग छोरों को व्यक्त करते से लग रहे थे, परंतु वस्तुस्थिति यह है कि दोनों ही सारतः कहीं ना कहीं आपस में जुडते हैं। दरअसल चीज़ें हमेशा द्वंद में होती हैं, और उनके अंतर्विरोधों, संघर्षों और एकता में ही चीज़ों का वस्तुगत ज्ञान प्राप्त हो सकता है। हम शनैः शनैः इसको समझने की कोशिश करेंगे ही।

चूंकि, सहज रूप से समस्याओं के वैचारिक समाधान, मस्तिष्क की पैदाइश लगते हैं, और यह पूर्णतः ग़लत भी नहीं होता, परंतु यदि हम प्राथमिक मूल पर जाने की, उसे तय करने की कोशिश करते हैं तो शायद वस्तुस्थिति थोड़ी सी अलग हो उठती है। चलिए, आपने जो बात कही है, उसी को उदाहरणस्वरूप उठाते हुए, इसे आगे बढ़ाते हैं। आपने जो कहा था वह यह था, "कभी कभी एक सवाल यह भी कौंधता है मेरे दिमाग में कि पृथ्वी पर उपस्थित प्राणियों में एकमात्र मानव ही तो है जिसने कुछ रचा-बनाया... और तभी से वह 'हर चीज को किसने बनाया-रचा ? 'यह सवाल भी पूछने लगा... अगर मानव कुछ रचना नहीं कर पाता तो शायद यह सवाल भी उसके पास नहीं होता... तो क्या यह 'रचनाकार कौन ?' सवाल मानव मस्तिष्क का एक विशिष्ट फितूर सा नहीं माना जाना चाहिये..."

ईश्वर दुनिया का रचियता है, यह जवाब इस सवाल से पैदा होता है कि इस दुनिया का रचयिता कौन है? इस आत्मसात्कृत संज्ञान से प्रेरित होते हुए कि हर रचना या सृजन का एक कर्ता होना चाहिए, यह सवाल कि ‘दुनिया का रचयिता कौन है?’, मानव मस्तिष्क में इस आनुभाविक तथ्य और चेतना से पैदा होता है, कि प्रकृति से अलग उसके आसपास की कई चीज़ों की रचना के कर्ता के रूप में वह स्वयं को अपने मस्तिष्क में प्रतिबिंबिंत करता है। मस्तिष्क में इस प्रतिबिंबन का मतलब यह हुआ कि वास्तव में भौतिक रूप से वे क्रियाएं संपन्न हो रही थी ( जैसा कि आपने कहा भी है, अगर मानव कुछ रचना नहीं कर पाता तो शायद यह सवाल भी उसके पास नहीं होता...)। चीज़ों की रचना, प्रकृति में सचेत परिवर्तन के यह क्रियाकलाप, विशुद्ध रूप से उसकी पारिस्थितिक, जीवनीय आवश्यकताओं से संबंधित थी। यानि कि फिर क्या यह नहीं कहा जा सकता कि यह उसकी यथार्थ परिस्थितियां ही थीं, जो उसकी इस वैचारिक श्रृंखला और निष्कर्षों के मूलभूत कारणों में थीं? क्या इस सवाल को मानव मस्तिष्क का ‘एक विशिष्ट सा फितूर’ मानने की बजाए, हमें इस ओर नहीं देखना चाहिए, नहीं सोचना चाहिए कि अपनी रचना और उसके कर्ता के रूप में उसकी स्वयं की उपस्थिति की, यानि ‘यह सवाल’ उसके विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों की एक स्वाभाविक परिणति सा लगता है, ना कि उसके मस्तिष्क में अचानक से उठे एक फितूर का परिणाम।

यानि की इसे इस तरह भी क्या नहीं देखा जाना चाहिए कि मानव के क्रम-विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों में उपजे और विकसित हुए उसके इसी रचनात्मक क्रियाकलापों, उनका मस्तिष्क में प्रतिबिंबन, इनसे उत्पन्न मानसिक क्रियाकलाप, बिंबों के लिए निश्चित ध्वनियां, और फिर इन्हीं शब्दों और छायाबिंबों के जरिए किया जाने वाला मूर्त चिंतन, और क्रियाकलापों के परिणामों की चेतना प्राप्त करते हुए, अपनी क्रियाओं के भावी परिणामों का पूर्वकल्पन, फिर प्राप्त कल्पना की क्षमता से अमूर्त चिंतन की संभावनाओं की दुनिया में प्रवेश, जो सामने नहीं है उसकी कल्पना, उस पर विचार, सवाल, संभावित-काल्पनिक जवाब, ये प्रक्रियाएं चल निकलती हैं।

दार्शनिक तौर-तरीक़ो से इसे ऐसा भी कहा जाता है कि पदार्थ मूलभूत है, उसके विकास की उच्चतर और जटिल अवस्थाओं में चेतना उत्पन्न और विकसित होती है। चेतना का विकास होने के बाद, यह अपने आगे के विकास क्रम में, स्वयं पदार्थ को नियंत्रित करने का प्रयास करती है। यानि कि अब एक द्वंद का रिश्ता बन जाता है। परिस्थितियों के प्रतिबिंबन से उनकी चेतना प्राप्त होती है, और यह चेतना अपने क्रम में अपने हितार्थ परिस्थितियों का नियमन तथा नियंत्रण करने की कोशिश करती है, परिस्थितियों को बदलने की कोशिश करती है। फिर परिस्थितियों में परिवर्तनों के प्राप्त परिणामों से पुनः चेतना समृद्ध होती है, परिस्थितियों में और अनुकूल परिवर्तनों को प्रेरित होती है, कोशिश करती है। यह प्रक्रिया अपने विकास-क्रम पर चल निकलती है और निरंतर बेहतर, विकसित और परिष्कृत होती रहती है।

( अगली बार लगातार.....)



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 20 जुलाई 2013

ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - १

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - १

आप जब कहते हैं, कि, "ईश्वर की अवधारणा, मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की परिस्थितियों की स्वाभाविक उपज है, जिस तरह की मनुष्य का मस्तिष्क भी इन्हीं की उपज है।" तो मुझे आपसे असहमत होना पड़ेगा... मानव मस्तिष्क का विकास नि:संदेह मानव के विकास का स्वाभाविक परिणाम है... जैव विकास के सर्वोच्च स्तर पर खड़ा मानव... प्रकृति से व जैविक शत्रुओं से अपनी रक्षा करने में अक्षम... यह दिमाग ही था, जो वह पूरी दुनिया पर छा गया... और यह भी उतना ही सही है कि पूरी दुनिया पर छा जाने की उसकी कोशिशों के चलते ही उसका दिमाग भी विकसित हुआ... सोचा जाये तो मानव जैविक विकासक्रम की उस शाखा के शिखर पर है जो अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये अपने दिमाग पर निर्भर है... एक कपि का चार पैरों से चलना छोड़ दो पैरों पर खड़ा होना... अगले दो पैरों का हाथ बन बारीक कामों के लिये मुक्त होना... हाथों के अंगूठे का उंगलियों से ९० डिग्री के कोण पर आ जाना ताकि चीजों पर बेहतर पकड़ और पकड़ी चीजों पर बेहतर नियंत्रण हो सके... सामूहिक शिकार व भोजन संग्रह करना... इस काम की आवश्यकताओं के चलते भाषा का विकसित होना... समूह में रहने के कारण नियमों का बनना आदि आदि... मस्तिष्क निश्चित रूप से मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की परिस्थितियों की स्वाभाविक उपज है... पर यही बात ईश्वर की अवधारणा के लिये कहना, जो यकीनी तौर पर मानव विकासक्रम में बहुत बाद में आयी... भाषा के विकसित हो जाने के बाद... और अलग अलग मानव समूहों में अलग अलग तरीके से आयी... कितना सही है यह... क्या यह समूहों के नेतृत्व का अपनी नाकामियों के लिये ठीकरा फोड़ने व अपने नेतृत्व को एक लेजिटिमेसी देने के लिये गढ़ा मिथक नहीं था...

यह बात निश्चित हुई कि आप जैव-अजैव जगत के क्रम-विकास की अवधारणाओं से भली-भांति परिचित हैं और उनसे संजीदगी के साथ मुतमइन हैं। ईश्वर की अवधारणा के संदर्भ में आप असहमत हैं और इसके पीछे आपके पास इसके वाज़िब कारण हैं। अपनी बात को हम शनैः शनैः रखेंगे ही, आपके साथ बातचीत को आगे बढ़ाते हुए। असहमति संवाद के लिए एक आवश्यक तत्व है। अपने भावी संवाद की जुंबिशें इसी से तय होंगी। आप असहमतियों को इसी तरह, और सहमति के बीच के संशयों को भी इसी स्पष्टता के साथ रखते रहिए।

इसी संदर्भ में, जैव-अजैव जगत के क्रम-विकास का तो तय हुआ पर हम आपके विचार, जैव जगत से विकसित हुए मानव-समाज के विकास के बारे में भी जानना चाहेंगे। क्या आपको लगता है कि समाज, सामाजिक संगठनों, संस्थाओं, व्यवस्थाओं, आदि का भी क्रमिक विकास हुआ है? क्या ये भी सरल रूप से कठिनतर रूपों की ओर विकसित हुए हैं?

आपने सही कहा है, यह एक तथ्य है ही कि वर्तमान रूप में अस्तित्वमान ईश्वर की अवधारणा निश्चित ही विकास-क्रम में बहुत बाद की चीज़ है। आपने ईश्वर की अवधारणा को अलग-अलग मानव समूहों में अलग-अलग तरीके से आया हुआ कहा है, जो कि इसके विशिष्ट स्वरूपों के संदर्भ में पूरी तरह ग़लत भी नहीं है। पर यदि हम इसके विशिष्ट स्वरूपों यानि कि नामों, संज्ञाओं, विशेष परंपराओं और आस्थाओं को कुछ देर के लिए त्याज्य दें, और फिर इसके सामान्य स्वरूप को देखें, इसका सामान्यीकरण करें तो हमारे पास क्या बचता है? एक अलौकिक शक्ति, परम चेतना, परम आत्मा, जिसने इस ब्रह्मांड़, दुनिया को रचा इसकी सारी विशेषताओं के साथ, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, जिसके कि पास दुनिया के सारी चीज़ों का, उनके व्यवहारों और भाग्यों का, परम नियंत्रण है। जिसे आराधना से खुश किया जाना चाहिए, उसकी कृपा के लिए प्रार्थना में रहना चाहिए। क्या अब यह सामान्यीकृत रूप भी आपको अलग-अलग मानव-समूहों में अलग-अलग ही लगता है? क्या यही रूप कमोबेश रूप से हर समूह और इसके सांस्थानिक रूपों यानि धर्मों में लगभग समान रूप से ही नहीं पाया जाता है?

इस बारे में भी आपसे जानना है कि क्या ईश्वर की अवधारणा अलग-अलग समूहों में लगभग ही स्थिर रही है या इसमें भी परिवर्तन हुए हैं? क्या यह इसी वर्तमान रूप में अस्तित्व में आई और स्थिर हो गई? क्या ऐसा हो सकता है कि किन्हीं और आद्य रूपों से इसका विकास हुआ हो? क्या आज भी उपस्थित कई आदिवासी समूहों में, जनजातियों में ईश्वर की अवधारणाओं के ऐसे ही रूप अस्तित्वमान दिखते हैं? क्या इस बात की जरा सी भी संभावना हो सकती है कि इस अवधारणा का भी क्रमिक-विकास हुआ हो?

आप जरा उपरोक्त सवालों पर थोड़ा सा अपने विचार रखिए। फिर चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 13 जुलाई 2013

ईश्वर की अवधारणा की व्यापक स्वीकार्यता

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ईश्वर की अवधारणा की व्यापक स्वीकार्यता

आप सही समझे, कि, मैं अपने इर्द गिर्द की दुनिया में ईश्वर नाम की इस अवधारणा की सर्वव्यापी व सबको प्रभावित करती उपस्थिति पाता हूँ... मैंने इस अवधारणा के बारे में जो नतीजा निकाला है वह भी आपको बता ही दिया है मैं जब भी ईश्वर के बारे में सोचता हूँ तो मुझे यही नतीजा मिलता है, पर आपके समक्ष यह जिज्ञासा रखने का कारण यह है कि मैं संशय में हूँ... कारण कई हैं... पहला, मुझे कुछ और मजबूत आधार व तर्क चाहिये... दूसरा, ठीक अपनी ही जैसी पृष्ठभूमि, शिक्षा, सामाजिक परिवेश व अनुभव रखने वाले अधिकाँश को मैं आस्तिक पाता हूँ व उनमें से कोई ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में कोई प्रश्न या द्वंद भी नहीं रखता, उनके लिये ईश्वर ठीक उसी तरह साफ साफ मौजूद है जैसे सूर्य,तारे, समंदर और आसमान, मेरे परिवार में भी सभी ऐसे ही हैं, मुझमें इन लोगों से यह भिन्नता क्यों है, क्या मेरी विचार प्रक्रिया सामान्य से हट कर तो नहीं...क्यों जो मैं देख-समझ पाता हूँ वह नहीं देख-समझ पाते, और, क्यों जिस तरह के अनुभवों की बात वे करते हैं, मुझे नहीं मिलते... विचार प्रक्रियाओं में इतनी बड़ी भिन्नता क्यों...

हम इसी मंतव्य के साथ संवाद शुरू कर ही चुके हैं, जाहिरा-तौर पर हम निश्चित ही इस मामले में और समृद्ध होंगे। यह और भी आसान हो जाएगा, यदि आप अपने संशयों, आधारों एवं तर्कों की कमी-बेशी पर, जहां आपको लगता है कि यहां इसे और मजबूत होना चाहिए, या इस बारे में कुछ और अधिक जानने-समझने की आवश्यकता है। और यह आप चलते हुए संवाद के बीच में अलग से भी प्रस्तुत करते रहें तो बेहतर, जैसे भी जब भी किसी बात पर कुछ सूझे, आप पेश कर सकते हैं।

हालांकि यह भली-भांति परिलक्षित हो रहा है कि आप चीज़ों को बेहतरी से देखने और उनके पीछे झांकने का एक उम्दा सामर्थ्य रखते हैं, फिर भी हम चाहेंगे कि इन लिंको पर की हल्की-फुल्की सामन्यीकृत सामग्री से एक बार गुजर लें। हो सकता है आपको वहां कुछ इशारे मिलें, जो कि इन सवालों से जूझने के लिए कुछ सामान्यीकृत आधार पैदा कर सकें।


मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने जीवन-यापन के लिए, सहजवृत्तिक व्यवहार-संरूपों पर अवलंबित नहीं है। वह लगभग शून्य से शुरू करता है, और सभी चीज़ें, जैसे चलना, बोलना, व्यवहार के तरीकें, आदि, अपने परिवेशगत लोगों से सीखता है। इन्हीं से वह आस्थाओं, परंपराओं, विचारों आदि को भी ग्रहण करता है। उसके पास अपना कुछ नहीं होता, इसी पृष्ठभूमि से प्राप्त यही व्यवहार-संरूप उसके अपने बन जाते हैं। सामान्यतः सभी अपने परिवेश के अनुकूलन में होते हैं, इसीलिए सामान्यतः सभी आस्तिक आधारों के साथ होते हैं।

एक और बात साथ चल रही होती है। व्यष्टि, अपने आसपास की चीज़ों के प्रति असीम जिज्ञासाओं से भरा, हर चीज़ को जांचने-परखने, जानने-समझने की प्रक्रिया में होता है। यह अनुकूलन की प्रक्रिया के साथ ही चल रही होती है। बोलना शुर करते ही, यानि भाषा के साथ परवान चढ़ते हुए, उसके सवाल परिवेश के माथे चढ़कर बोलने लगते हैं। सामान्यतः हर परंपरा पर, आस्था के हर आधारों पर सवाल उठाए जाते हैं। परिवेश विभिन्न तरीकों से इसका कठोर निपटारा करता रहता है। समान्यतः मनुष्य के जिज्ञासू स्वभाव को कुचल दिया जाता है, या जिज्ञासाओं को तात्कालिकऔर काल्पनिक समाधानों की श्रृंखलाओं से लबरैज कर दिया जाता है और उसे अनुकूलित होने को अभिशप्त कर दिया जाता है। कहने का मतलब यह है कि परिवेश द्वारा आस्तिक, बाक़ायदा तैयार किए जाते हैं।

अब एक और बात परिदृश्य में उभरती है। आधुनिक हालात में, बात यहीं नहीं रुकती, मानवजाति के अद्युनातन ज्ञान के साथ कदमताल बैठाने के लिए, एक औपचारिक शिक्षा प्रणाली अस्तित्व में है। इसके लिए वह बाहर निकलता है, परिवेश व्यापक बनता है, समाज की परिधियों में पहुंचता है। साथ ही आधुनिक शिक्षा प्रणाली के साये में पहुंचता है। ये सब मिलकर उस पर अपना प्रभाव डालते हैं। यह आप जानते ही हैं कि सामान्यतः यह सब बाहरी प्रभाव भी उसके आस्तिक अनुकूलन में मदद ही करते हैं। बाहरी समाज, शिक्षक सब इसी आस्तिक अनुकूलनता के साथ होते हैं। यहां भी शुरुआती तौर पर उसी तरह सवाल उठाए जाते हैं, मिल रही शिक्षा के साथ दुनिया से तालमेल मिलाने की कोशिश की जाती हैं, पर इस बाहरी परिवेश द्वारा भी, और साथ ही आंतरिक परिवेश द्वारा भी सवालों पर बरगलाने का रास्ता अख़्तियार किया जाता है। अधिक से अधिक यह हो पाता है कि व्यक्ति के दिमाग़ में दो खाने बन जाते है, एक शिक्षा-विज्ञान को ऊपरी तरह रट-रटाकर अपने लिए रोजगार पाने के जरिए का, और दूसरा उसी सामंती, आस्तिक संस्कारों से लबरैज जिनसे कि वास्तविक दुनियादारी चल रही है, आपसदारी चल रही है। जहां सभी के जैसा ही होना अधिक सहज और आसान हो उठता है, स्वाभाविक सा हो उठता है।

उपरोक्त बात से अब यह निकालना और समझना शायद आसान हो उठे, कि जिज्ञासा और दमन-अनुकूलन के इस अंतविरोध के बीच, शिक्षा की इस परिपाटी और वास्तविक ज्ञान के आत्मसात्करण के इस द्वंद में, कुछ विशिष्ट, विरल पारिस्तिथिक, और वयक्तिगत अवदान ऐसे भी संभव हो सकते हैं जो इस अनुकूलन में व्यवधान पैदा करते हों, जिज्ञासाओं के वैज्ञानिक शमन और शिक्षा को ज्ञान से जोड़ने तथा व्यवहार में परखने की राह से जोड़ते हों। ऐसे में ही इस तरह की वैयक्तिक जुंबिशे भी परवान चढ़ सकने की संभावनाएं भी हो सकती हैं जो इस प्रक्रिया को और आगे भी परवान चढ़ाए, अपने को अधिक अद्यतन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस करने की राह पर ले जाएं। यानि कि इन परिस्थितियों में ही इसके बीज मौजूद होते हैं, क्योंकि समाज में , परिवेश में, सभी तरह की धाराएं प्रवाहित हो रही हैं। कौन किससे अछूता रह जाए, और कौन कब किसके चपेट में आ जाए, यह उसकी विशिष्ट पारिस्थितिकी और संयोगों पर निर्भर करता है।

आप इसमें से अपनी अवस्थिति को देख-परख सकते हैं। आप अपनी ज़िंदगी में बारीकी से झांककर, शायद उन तत्वों, व्यक्तियों, परिस्थितियों, संयोगों की पहचान कर सकते हैं जो कि आपकी इस सामान्य से हटकर विचार प्रक्रिया के आधार रखने में अपना योगदान कर चुकी हैं। जिनकी विशिष्टता और आपके लिए सांयोगिक उपलब्धता ने, आपको अपने जैसी लगभग समान पृष्ठभूमि, शिक्षा, सामाजिक परिवेश व अनुभव रखने वाले हमसायों से थोड़ा भिन्न बना दिया है। सामान्यतः एक जैसी लगती परिस्थितियों के बीच भी, कई विशिष्ट सक्रियताएं और प्रभाव एवं इनसे पैदा हो गई कई वैयक्तिक विशिष्टताएं, इन्हें आदर्श रूप में इतना भी एक जैसा नहीं रख पाती, और इतने भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व गढ़ा करती हैं।

सामान्यतः यह पारिस्थितिक अनुकूलन ही, किसी भी व्यक्ति की, उसके व्यक्तित्व की पहचान बन जाता है। वह इसी अनुकूलन के साथ रहने और जीने का आदी हो जाता है, उसकी यह अनुकूलित विचार-प्रक्रिया, इसी अनुकूलन के साथ सहजता अनुभव करती है। उसके जैसे ही बहुत से लोगों के बीच, एक सांमजस्यता, एक जैसी आपसदारी पैदा करती है। साथ ही जीवन की आर्थिकी और सामाजिकता उनके बीच इस तरह की नाभीनालबद्धता पैदा कर देती है कि वह अपने संशयों को ( अगर उठते भी हैं तो ) तिलांजलि देना, या व्यक्तिगतता के साथ दबाए रखने को अभिशप्त होता है। उनको अभिव्यक्त करना सामाजिक रूप से उसके लिए फायदे का सौदा नहीं रहता, ना ही सामान्य रूप से इन संशयों के समाधान उपलब्ध होते हैं जिनसे कि वह दो चार हो कर इन्हें सुलझाने की कोशिश भी कर सके। वह रूढ़ होता जाता है, और सामान्य सामूहिक चेतना के हिसाब से ही अपनी व्यवहार-सक्रियता को ढ़ाल लेता है। ऐसे में यदि यह सब उसके जीवन की गणित में भी जुड़ता है, उसके वैयक्तिक अहम् का हिस्सा भी बन जाता है तो वह सचेतन रूप से ऐसी धाराओं के विरोध में भी उतरता है जो इन संशयों को उभारते हैं, इस अनुकूलनता के खिलाफ़ विचार व्यक्त करते हैं। वह उनके खिलाफ़ अपनी तार्किकी गढ़ता है, विशिष्ट अनुभवों का घटाघोप भी रचता है।

इसीलिए हम अपने चारों तरफ़ ऐसे प्रयासों को देखते हैं जो अपनी इस आस्तिकता, अपने इस अनुकूलन पर आंच आते देखते ही सचेत हो उठते हैं। यह सहज भी है, व्यक्ति को अपनी वैयक्तिकता और व्यक्तिगत पहचान के आधारों पर जब चोट पहुंचती दिखती है तो वह इन्हें अपने संपूर्ण अस्तित्व पर ही खतरा समझता है, उसे अपना अस्तित्व ही खतरे में नज़र आने लगता है और वह भरसक, येन-केन प्रकारेण इसका प्रतिकार करने की कोशिशे करता है। यह उसका अधिकार भी है। इसीलिए वह अपनी इसी ऊलजलूली में कैसी भी तार्किकी गढ़ सकता है, अनुकूलित तर्क प्रणाली को काम में ले सकता है, इस तरह के कई आनुभाविक भ्रमों की रचना और अभिव्यक्ति कर सकता है जो कि, जैसा कि आपने कहा भी है वे आपसे नहीं मिलते। जब लक्ष्य अनुकूलन तथा अस्तित्व को बचाने से जु़ड जाते हैं, तो जाहिरा तौर पर उनकी और इस अनुकूलन के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले लोगों की विचार-प्रक्रियाएं भी अलग-अलग दिशा अख़्तियार कर लेती हैं। भिन्नताएं पैदा कर लेती हैं।

आपने काफी विस्तार से उत्तर दिया है, मेरे अधिकतर सवालों का जवाब मिला मुझे... मैं कुछ बेहतर अनुभव कर रहा हूँ...

आप चाहे तो इस मामले में रह गये संशयों को, सवालों को, अधिक मुतमइन ना कर सक पाने वाले समाधानों की कमजोरियों को, अधिक खोल कर रख सकते हैं। इस पर संवाद को आगे बढ़ा सकते हैं।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय
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