शनिवार, 13 अप्रैल 2013

भाषा और रोटी के मुद्दे की प्राथमिकता

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



भाषा और रोटी के मुद्दे की प्राथमिकता

भारत की 40-50 करोड़ की अनुमानित आबादी के अनुमानित समस्या को लेकर हम 60 करोड़ हिन्दी भाषियों को धूल चटाएँ और एकता का गीत गाते रहें? हालांकि भाषा का मुद्दा हमने शुरू में अंग्रेजी से मुक्ति के लिए था लेकिन अब वह रोटी से जुडती है और यह मुख्य बात है। अब ये बचकाना या चाहे जैसा लगे।

जब ये बचकाना या चाहे जैसा भी लगे तो फिर हर्ज़ ही क्या बचता है।

यह बात जरूर समझने की कोशिश की जानी चाहिए कि भाषा का मुद्दा रोटी से जुड़ता है, या रोटी के मुद्दे से जाकर सारे मुद्दे जुड़ जाते हैं। यानि महत्त्वपूर्ण क्या है? रोटी या भाषा? पहले पेट या पहले भजन? रोटी के लिए, हमने फारसी सीखी, अंग्रेजी सीखी, क्योंकि सत्ता इनमें आसानी से रोटी दे रही थी। रोटी के लिए हम अमेरिका, इंगलैंड, कनाड़ा, दुबई जाने कहां-कहां पहुंच जाते हैं। राजस्थानी बंगाल जा पहुंचता है, बिहारी महाराष्ट्र, बंगाली गुजरात में, मराठी कश्मीर में नज़र आ सकता है, केरली दिल्ली में, तमिल पंजाब में, सब इधर-उधर छितराये रहते हैं। हमारे आदिवासी जब रोटी के लिए गांवों या शहरों में पहुंचते हैं तो स्थान के हिसाब से कोई हिंदी बोलने लगता है, कोई बांग्ला, कोई मराठी अपनाने को मजबूर होता है, तो कोई अन्य भाषा। नेपाली हमारे बंगलों पर जी साब जी कर रहा हो सकता है, जापानी हिंदी सीख रहे हो सकते हैं, या राजस्थानी चीनी पर्यटकों के लिए चीनी, आदि-आदि।

हम तो बाबूजी तभी से रोटी के लिए लगे रहते थे जबकि हम बंदर जैसे ही थे और खौं-खौं किया करते थे, इसी रोटी के चक्कर ने हमें कहां से कहां पहुंचा दिया, कितनी नस्लें, कितने देश, कितने धर्म बगैरा। इसी रोटी के चक्कर में हमने बोलना भी सीखा बाबूजी और इतनी सारी भाषाए भी रच डालीं। अभी अधिकतर और बढ़िया रोटी अंग्रेजी में मिल रही है तो पूरा देश अंग्रेजी सीखने लगा है। पहले यही फारसी में हो रहा था, तो फारसी सीखने में लगा था, उससे पहले प्राकृत भी, संस्कृत भी। अंग्रेजों को यहां से रोटी समेटनी थी, तो वे यहां आकर हिंदी बोलने लगे, आदि-आदि। रोटी जहां मिल रही होगी, जिस भी भाषा में मिल रही होगी, हम तो वहीं के और उस भाषा के ही हो जाएंगे बाबूजी। आप हिंदी में दे दीजिए, सिर्फ़ इसी में दिया जाना सुनिश्चित कर दीजिए बाबूजी, देखिएगा पूरा देश हिंदीमय हो जाएगा। आपको किसी से कहना भी नहीं पड़ेगा बाबूजी। ( मुस्कुराहट )

"रोटी के लिए हम अमेरिका, इंगलैंड, कनाड़ा, दुबई जाने कहां-कहां पहुंच जाते हैं।..." मैं नहीं मानता कि रोटी कारण है कम से कम इतनी दूर जाने वालों के लिए। वे रोटी से कम लुटेरेपने के लिए अधिक जाते हैं।...इनके मामले में तो रोटी के तर्क को खारिज करेंगे हम। ये अथाह पूँजी के लिए जाना चाहते हैं। कम से कम इनमें से 95 प्रतिशत लोग तो ऐसे होते ही हैं।

थोड़ा अधिक ही पूर्वाग्रही हो रहे हैं। कुछ ज़्यादा ही प्रतिशत पकड़ा दिया इस तरह के लोगों को। हमें लगता है पढ़े-लिखे, डिग्रीधारियों के सापेक्ष, कुशल-अर्धकुशल-अकुशल-हैल्पर आदि के लिए जाने वाले मज़दूरों की संख्या कहीं अधिक है। जिनकी की शुरुआत रोटी की वज़हों से होती हैं, भले ही उनके मन में बड़ी आमदनी के सपने कुलबुला दिये गए हों, जो कि मुद्रा के मूल्यों में अंतर की वज़ह से सामने दिखते भी हों। नेपाल से आने वाले चौकीदारों और नौकरों के सापेक्ष शायद इसे और बेहतरी से समझा जा सके।

बात इसको यह दिशा देने के लिए नहीं कही गई थी, वह प्राथमिकता के सवाल पर मन का अलोड़न-विलोड़न करने के लिए उकसावा था।

प्राथमिक तो यह है ही। आप स्वयं बताइए कि रोटी-कपड़ा-मकान-शिक्षा-बिजली-पानी-सड़क-स्वास्थ्य से प्राथमिक क्या होता है? जिस आबादी के पास रहने-खाने के लिए ही नहीं है, हम उसे एकता का पाठ पढ़ाएँ तो एक शेर है:

मुझे उस वैद्य की विद्या पे तरस आता है, जो भूखों को सेहत की दवा देता है। - नीरज

एकदम सही कहा है आपने। सही कहा कि जिसके पास रहने-खाने के लिए ही नहीं है, उसके लिए क्या किया जाए। अब उसकी रोटी-पानी का इंतज़ाम कैसे हो? कुछ दान-दक्षिणा के प्रबंध किए जा सकते हैं। उनके लिए चंदा इकट्ठा किया जा सकता है। अमीरों से उनके लिए दया की भीख मांगी जा सकती है। हम लोग कुछ अपने पुराने-सुराने कपड़े इकट्ठे करके उन तक पहुंचा सकते हैं। यानि कि कुलमिलाकर अकेले-अकेले अस्सी-नब्बे करोड़ लोगों के लिए यह करना होगा। फिर यह क्या एकाध-दिन के लिए किया जाएगा या हमेशा का इंतज़ाम करना है? कितने साधन, कितने लोग, कितना पैसा चाहिए होगा। फिर यह सब आएगा कहां से, और इतना सारा होगा तो हम कितने अमीरों को उनकी संपत्ति लुटवाने को तैयार कर पाएंगे। और लगातार यदि इंतज़ाम हमेशा के लिए करना हुआ तो। खैर, सोच लिया जाए तो क्या नहीं किया जा सकता, हमारे कुछ महान कवि कह गये हैं - कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा। आप बताइये, आपके पास कोई उचित योजना हो तो इसे करना भी बुरा नहीं लगता।

एक अकेला मनुष्य शिकार नहीं कर सकता था, एक अकेला ज़िंदा नहीं रह सकता था, एक अकेला कुछ भी नहीं कर सकता था, यहां तक कि अपनी संतति को भी आगे नहीं बढ़ा सकता था, उसके लिए भी दो यानि एक नर और एक मादा की जरूरत पड़ती थी। कुछ भी नहीं हो सकता था, यदि मनुष्य अकेला ही हुआ करता, उसने साथ रहना और साथ लड़ना नहीं सीखा होता।

कुछ सनकी लोग यह भी कह गए हैं कि इतनी बड़ी आबादी को यदि पेट भरने तक का जुगाड़ नहीं है तो सिर्फ़ इसीलिए कि वह अलग-अलग विभाजित है। धर्म, जाति, भाषा, लिंग, आदि-आदि में। रोटियां गोदामों में बंद है, अकेले-अकेले जाकर दया की भीख मांगी जा सकती है, दुत्कार खाई जा सकती है, पर अकेले उन्हें छीन के लिया नहीं जा सकता। पूंजी की सत्ता की इकट्ठा ताकत से, इसके लिए इकट्ठा होकर ही, मिलकर ही कुछ किया जाना होगा। पर अब किया क्या जा सकता है? आप और नीरज जी मना कर गये हैं एकता का पाठ पढ़ाने के लिए। ( मुस्कुराहट )

नीरज कितना सही सा कह गये हैं कि समाज के ऐसे वैद्यों के ज्ञान और विद्या पर तरस आना चाहिए जो कि भूख का इलाज़ सेहत की दवाइयों में देखते हैं। इसका ईलाज़ सिर्फ़ रोटियां हैं, और इसी की व्यवस्था यह तंत्र नहीं कर पा रहा है।

हमने ऐसी कोई बात न कही थी, न कोई संकेत ऐसे थे कि दान-दक्षिणा से काम चलाएंगे। या फिर हम कपड़े बांटकर इन समस्याओं को सु्लझाएंगे।

सही कह रहे हैं कि आपने सीधा ऐसा कुछ नहीं कहा था, पर अप्रत्यक्ष रूप से उसका मतलब यही निकलता सा लगा, इसलिए वह गु्स्ताखी हुई। आपने कहा था, "जिस आबादी के पास रहने-खाने के लिए ही नहीं है, हम उसे एकता का पाठ पढ़ाएँ तो एक शेर है..."। इसको आगे बढ़ाएं, रहने-खाने के लिए नही है इसका मतलब रहने-खाने का प्रबंध पहले करना होगा ( एकता की बात करना इसीलिए बेमानी है ), अब बात यह कि इतनी बड़ी आबादी के रहने-खाने का प्रबंध कैसे किया जाए, यह काम वर्तमान पूंजीवादी मुनाफ़ाखोर व्यवस्था को करना होता, या कर सकती तो अपने मुनाफ़ों को छोड़कर, उनका शोषण छोड़कर, कर ही रही होती, यानि कि वह करेगी नहीं, फिर कैसे किया जा सकता है, व्यवस्था से छीनने, लड़ने के लिए, उसे बदल ड़ालने के लिए तो इकट्ठा होकर लड़ाई छेड देनी होगी, यह अभी करना नहीं है क्योंकि लड़ने या एका बनाने का सवाल से अधिक महत्त्वपूर्ण सवाल, अभी की भूखी-नंगी आबादी को रहने-खाने का प्रबंध करना है, एकता का पाठ पढ़ाने वाले अपने सीमित संसाधनों से तो यह नहीं कर सकते, तो फिर रास्ता बचता क्या है, वही जिसकी परिकल्पना हमारे महान मानवश्रेष्ठों ने पहले से ही तैयार कर रखी है, और जैसा कि हमने लिखा था, हम चंदा इकट्ठा करें, दान-दक्षिणा मांगे, सेठों से अपील करें, कि भई आबादी भूखी-नंगी है, उनके रहने-खाने का प्रबंध कीजिए, दान दीजिए, फिर यह सब इकट्ठा करके खाना-साना खरीदा जाए, मकान-बकान बनाए जाएं, कपड़े-सपड़े लाए जाएं, आदि-आदि।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

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