रविवार, 29 दिसंबर 2013

द्वंद्ववाद

हे मानवश्रेष्ठों,

जैसा कि पिछली बार कहा गया था, हम यहां द्वंद्ववाद पर एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं। इस बार यहां विषय-प्रवेश हेतु एक संक्षिप्त भूमिका प्रस्तुत की जा रही है, अगली बार ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास पर चर्चा शुरू करेंगे और इस तरह से श्रृंखला चल निकलेगी।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद - भूमिका
( Dialectics - a preface )

मानवजाति के सर्वोत्तम चिंतक ब्रह्मांड़ को समझने, प्राकृतिक व सामाजिक प्रक्रियाओं तथा घटनाओं के नियामकों का पता लगाने के लिए शताब्दियों से प्रयत्न करते रहे। विश्व की वैज्ञानिक समझ तक पहुंचने का रास्ता लंबा और टेढ़ा-मेढ़ा था। अज्ञान के ख़िलाफ़, संज्ञान-विरोध के ख़िलाफ़, युगों-पुराने धार्मिक मतों तथा प्रत्ययवादी ( भाववादी idealistic ) दृष्टिकोणों के ख़िलाफ़ कटु संघर्ष करते हुए, मानवजाति वास्तविक ज्ञान के कणों को चुनते हुए, अपने परिवेशी विश्व, यानि प्रकृति, समाज तथा संज्ञान ( cognition ) के सच्चे वैज्ञानिक स्पष्टीकरण के निकटतर पहुंचती गई, मनुष्य के आंतरिक सार और विश्व में उसकी स्थिति की यथार्थ ( real ) और वस्तुगत ( objective ) समझ के निकटतर पहुंचती गई। आज मानवजाति के पास, संज्ञान के एक शक्तिशाली साधन के रूप में द्वंदात्मक तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद ( dialectical and historical materialism ) का दर्शन है। यह सिर्फ़ विश्व को समझने की एक कुंजी के रूप में ही नहीं, विश्व के और विशेषतः समाज के रूपांतरण की, बदलने की एक पद्धति के रूप में भी मानवजाति के हाथ में एक महत्त्वपूर्ण सैद्धांतिक उपकरण है।

दर्शन और उसके बुनियादी प्रश्नों पर हम यहां पहले ही विचार कर चुके हैं। भूतद्रव्य ( matter सरलतः पदार्थ ) और चेतना ( consciousness ) के बीच, भौतिक और प्रत्ययिक ( सरलतः वैचारिक ) के बीच के अंतर्संबंधों के सार का प्रश्न, दर्शन का बुनियादी प्रश्न है। इसके दो पक्ष या पहलू हैं, पहला विश्व के स्वरूप, उसके सारतत्व के बारे में है कि प्राथमिक क्या है - भूतद्रव्य या चेतना, कि क्या भूतद्रव्य चेतना को जन्म देता है अथवा चेतना भूतद्रव्य को। दूसरा, इस बारे में प्रश्न है कि यह विश्व संज्ञेय ( cognizable ) है या नहीं, यानि मानव मस्तिष्क अपने आस-पास के जगत को समझ सकता तथा उसके विकास के नियमों को जान सकता है अथवा नहीं। हम यहीं पर अपने पूर्व की ‘दर्शन’ वाली श्रृंखला में, इन प्रश्नों पर विस्तार से विवेचना कर चुके हैं। इन प्रश्नों के अपने उत्तरों के हिसाब से ही दर्शन की दुनिया दो खेमों में बंटी है, प्रत्ययवादी ( भाववादी, अध्यात्मवादी idealistic ) तथा भौतिकवादी ( materialistic )। भौतिकवाद प्रकृति का, आस-पास के जगत का सही और वैज्ञानिक स्पष्टीकरण देता है, लेकिन प्रत्ययवाद मिथ्या और अवैज्ञानिक।

प्रत्ययवादी दार्शनिक चेतना को प्राथमिक मानते हैं, उनके विचारों के अनुसार चेतना भूतद्रव्य से स्वाधीनतः अलग अस्तित्वमान है और वही भौतिक जगत की ‘रचना करती है’ तथा उस पर नियंत्रण रखती है, साथ ही इसकी मुख्य धाराओं के अनुसार विश्व मूलतः संज्ञेय नहीं है, या सीमित रूप से संज्ञेय है, यानि कि विश्व और इसके विकास के नियमों को जाना-समझा नहीं जा सकता, अतएव इसके बजाए वे स्वयं अपने विचारों व अनुभूतियों के तथा किसी अस्तित्वहीन अलौकिक ‘विश्वात्मा या परमात्मा’ के, किसी रहस्यमय ‘परम प्रत्यय’ आदि के संज्ञान की ओर उन्मुख होने की ओर जोर देते हैं।

भौतिकवादियों के अनुसार भूतद्रव्य शाश्वत और प्राथमिक है, चेतना इसी के ऐतिहासिक विकास का उत्पाद है, यह मनुष्य के उद्‍भव के साथ प्रकट और विकसित होती है। भूतद्रव्य चेतना से स्वतंत्र रूप से विद्यमान है, वहीं चेतना भूतद्रव्य से विलग कहीं विद्यमान नहीं हो सकती, वह भूतद्रव्य पर निर्भर है। भौतिकवाद के अनुसार विश्व संज्ञेय है, मानव मस्तिष्क परिवेशी जगत की वस्तुओं, प्रक्रियाओं तथा घटनाओं के मूलतत्व का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, समझ सकता है, नियमों का संज्ञान हासिल करके इसका रूपांतरण कर सकता है, इसे बदल सकता है। विश्व के व्यावहारिक रूपांतरण में मानवजाति की उपलब्धियां सर्वोत्तम ढंग से यह दर्शाती हैं कि वह विश्व का सही ज्ञान हासिल कर रहा है और उस ज्ञान का उपयोग कर रहा है।

दर्शन के मूल प्रश्न के साथ ही दार्शनिकों, वैज्ञानिकों ने एक और प्रश्न का भी उत्तर देने की हमेशा कोशिश की है। यह प्रश्न है कि विश्व को क्या हो रहा है? क्या यह सर्वदा ऐसा ही रहा है, जैसा कि आज है, या किसी प्रकार से यह प्रकट होता, बदलता, पुनर्नवीकृत तथा विकसित होता रहता है? इतिहास में इस प्रश्न के जितने भी उत्तर दिए गए हैं, वे दो विरोधी समूहों में शामिल हैं : द्वंद्वात्मक ( dialectic ) और अधिभूतवादी ( metaphysical ), इनकी दो तदनुरूप पद्धतियां द्वंद्ववाद ( dialectics ) तथा अधिभूतवाद ( metaphysics ) कहलाती हैं। 

अधिभूतवाद की वकालत करनेवाले मानते हैं कि प्रथमतः, विश्व मूलतः अपरिवर्तनीय है, कि प्रकृति कभी बदलती नहीं ; और, द्वितीयतः, वस्तुओं तथा घटनाओं का एक दूसरे से संबंध नहीं होता, कि उनका अलग-अलग अस्तित्व है। वे परिवर्तन और विकास को महज़ उसकी घटती-बढ़ती मानते हैं, जो पहले से विद्यमान है। उनके लिए विकास का उद्‍गम या तो विभिन्न वस्तुओं के बाहरी टकराव में निहित है, या अलौकिक, दैवीय शक्तियों में।

विश्व के स्पष्टीकरण में द्वंद्ववाद के पक्षधर यह मानकर चलते हैं कि, पहला, सारी वस्तुएं, प्रक्रियाएं तथा घटनाएं एक दूसरे से अंतर्संबंधित हैं, कि वे परस्पर क्रिया करती हैं तथा एक दूसरे को दशानुकूलित करती हैं और दूसरा, कि वे अविरल गतिमान व विकासमान हैं। वे विकास को मात्रात्मक ( quantitative ) परिवर्तनों के संचयन तथा गुणात्मक ( qualitative ) परिवर्तनों में उनके रूपांतरण की प्रक्रिया के रूप में, कुछ वस्तुओं तथा घटनाओं के अन्य में रूपातंरण की शक्ल में देखते हैं, पुरातन व मरणासन्न के विनाश तथा नूतन के उद्‍भव व दृढ़ीकरण के रूप में देखते हैं। द्वंद्ववादियों के अनुसार विकास का स्रोत आंतरिक अंतर्विरोध ( contradictions ) हैं, प्रत्येक विषय तथा घटना में अंतर्निहित ( inherent ) विरोधी पक्षों या प्रवृत्तियों के बीच संघर्ष है। द्वंद्ववाद यह कहता है कि प्रकृति और समाज के विकास का कारण या स्रोत बाहर से लाया नहीं जाता, बल्कि उन्हीं के अंदर निहित होता है।

द्वंद्ववाद विश्व को ठीक वैसा ही देखता है, जैसा कि वह वस्तुतः ( literally ) है। विकास की प्रक्रियाओं, उनके कारणों और रूपों का स्पष्टीकरण देते तथा नूतन की अवश्यंभावी विजय को दर्शाते हुए द्वंद्ववाद समाज के अंदर प्रगतिशील विकास ( progressive development ) के लिए निरंतर चलने वाले संघर्ष में प्रगतिशील शक्तियों की सेवा करता है। इसके विपरीत अधिभूतवाद विकास की प्रगतिशील प्रकृति और नूतन की अवश्यंभावी विजय को मान्यता नहीं देता और इस प्रकार प्रगति के ख़िलाफ़ संघर्ष में रूढ़िवादी तथा प्रतिगामी ( orthodox and regressive ) शक्तियों का हितसाधन करता है।

दैनिक जीवन, विज्ञान, तथा सामाजिक व्यवहार द्वंद्ववाद की सचाई की तथा उसे संज्ञान की वैज्ञानिक पद्धति व व्यवहार के रूप में इस्तेमाल करने की आवश्यकता की पुष्टि करते हैं। द्वंद्ववाद की जीवंतता आज के सामाजिक विकास के द्वारा सर्वोत्तम ढंग से प्रदर्शित होती है। राष्ट्रीय स्वाधीनताओं की प्राप्ति, राष्ट्रीय विकास के नियत कार्यों की पूर्ति, भौतिक व आत्मिक जीवन में गहन परिवर्तन, अनेक जनगणों का युगों पुराने पिछड़ेपन से निकलकर स्वाधीन तथा प्रगतिशील विकास के आधुनिक रूपों की ओर क़दम बढ़ाना - ये सभी इसके सुस्पष्ट उदाहरण हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।
समय

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