रविवार, 12 जनवरी 2014

द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - २
( a brief history on the concept of dialectics - 2 )


विश्व में हर चीज़ परिवर्तित, गतिमान और विकसित हो रही है, इस तथ्य को कई प्राचीन दार्शनिक पहले ही जान चुके थे। इस संदर्भ में यूनानी भौतिकवादी हेराक्लितस  ने, जिन्हें एक महान द्वंद्ववादी माना जाता है, अत्यंत स्पष्ट विचार प्रस्तुत किए। उनका कहना था कि विश्व एक असीम आदिकारण तथा चिरंतन अग्नि की वज़ह से लगातार परिवर्तन की स्थिति में है। प्रत्येक वस्तु गतिमान है, प्रकृति चिरंतन गति से भरी है। हेराक्लितस के द्वंद्ववाद में विश्व विरोधी तत्वों की अंतर्क्रिया के, उनकी एकता और संघर्ष के रूप में प्रकट होता है। सत्य का ज्ञान विरोधियों के पारस्परिक परिवर्तन की, उनके संघर्ष की समझ से उत्पन्न होता है। इस तरह हेराक्लितस का द्वंद्ववाद एक भिन्न आशय ग्रहण कर चुका था, जो कि विश्व की एक प्रकार की व्याख्या, उसकी गति का, क्रमविकास का अनुचिंतन है।

पूर्व के महान चिंतकों इब्न रूश्द और इब्न सिना ( अविसेना ) के दृष्टिकोण भी इसी प्रकार के थे। इब्न रुश्द यह मानते थे कि गति चिरंतन और अविनाशी है। उत्पत्ति, परिवर्तन तथा विनाश सभी भूतद्रव्य ( matter ) में संभावना के रूप में निहित हैं, क्योंकि विनाश पुनरुत्पत्ति की ही श्रेणी की एक क्रिया है। प्रत्येक गर्भस्थ सत्व में उसका अपना पतन एक संभावना के रूप में निहित होता है। अविसेना, जिन्हें उनके समकालीन ‘दर्शन का राजा’ कहते थे, भी यह समझते थे कि गति भूतद्रव्य में निहित एक क्षमता के रूप में होती है और रूपांतरण की उसकी योग्यता के समकक्ष होती है। प्राचीन चीनी दार्शनिक ज़ाङ्‍ त्ज़ाङ्‍  ने गति में उस भौतिक शक्ति त्सी को आरोपित किया, जो चक्रों में कंपित होती है और बारी-बारी से विखंडित होकर महाशून्य में लौटती है और फिर सांद्रित ( concentrate ) होकर सारे दृश्य जगत को साकार बनाती है।

भारत में सर्वाधिक प्राचीन भौतिकवादी दार्शनिक प्रवृत्ति लोकायत ( या चार्वाकों की विचार-पद्धति ) है, जिसकी स्थापना बृहस्पति  ने की माना जाता है। इसके अनुयायियों का विश्वास था कि विश्व भौतिक है और पांच प्राथमिक भूतों - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश - से निर्मित है। सारे जीवित प्राणी भी इन्हीं भूतों से निर्मित होते हैं और मृत्यु पर इन्हीं में विखंडित हो जाते हैं। उन्होंने अनश्वर आत्मा, ईश्वर तथा परलोक की धार्मिक धारणाओं की आलोचना की और यह साबित करने का प्रयत्न किया कि शरीर की मृत्यु के बाद चेतना ( consciousness ) भी नष्ट हो जाती है। इसी वज़ह से उन्होंने पुनर्जन्म की मान्यता को भी ठुकरा दिया। चार्वाकों का भौतिकवाद उनके अनीश्वरवाद के साथ घनिष्ठता से जुडा हुआ था और उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करते हुए यह स्थापित करने की कोशिश की भौतिक जगत किसी भी दैवी अनुकम्पा से स्वतंत्र ( independent ) है और अंतर्निहित ( inherent ) कार्य-कारणता के संबंधों के अनुसार विकसित होता है।

प्राचीन भारतीय उपनिषदों में भी कई जगह इस तरह के विचार व्यक्त किए गए है कि भौतिक प्रक्रियाएं परिवर्तनीय और अस्थिर हैं। कई अन्य विचार-पद्धतियों में भी भौतिकवादी ( materialistic ) रुझान अभिव्यक्त हुए हैं। कपिल द्वारा संस्थापित सांख्य दार्शनिक मत में विश्व को भौतिक तत्वों की संख्या से स्पष्ट किया गया है। इसके प्रतिनिधि विश्व को एक सार्विक प्राथमिक पदार्थ ( प्रकृति ) से शनैः शनैः विकसित भौतिक जगत मानते थे। इस प्राचीन मत की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह स्थापना थी कि गति, देश और काल भूतद्रव्य के गुण हैं तथा उससे अविभाज्य हैं। बाद में प्रत्ययवाद ( idealism ) के विरुद्ध संघर्ष में यह पद्धति पीछे हट गई और समझौते के बतौर उसने भूतद्रव्य से पृथक आत्मा ( पुरुष ) के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया।

न्याय और वैशेषिक  दर्शन की विचार-पद्धति ने इन प्रत्ययों का विकास किया कि विश्व जल, वायु, अग्नि और पृथ्वी के आकाश, देश तथा काल में विद्यमान गुणात्मकतः विविध कणों ( अणुओं ) से बना है। उनके लिए ‘अणु’ शाश्वत, अनादि और अविनाशी थे, जबकि उनसे निर्मित वस्तुएं परिवर्तनशील, अस्थिर थीं। मीमांसा संप्रदाय के कुमारिल  तथा प्रभाकर  ने इस मत की स्थापना की कि इस विश्व में ‘उत्पत्ति तथा विनाश की प्रक्रियाएं सतत ( continuous ) चलती रहती हैं। भारतीय दर्शन के अंतर्गत बौद्ध दर्शन में द्वंद्वात्मक चिंतन के प्रथम बीज पाए जाते हैं। ‘प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत’, अर्थात यह सिद्धांत कि प्रत्येक वस्तु अपनी उत्पत्ति के लिए किसी दूसरी वस्तु पर निर्भर है, तथा ‘अनित्यतावाद तथा अनात्मवाद’, अर्थात यह सिद्धांत कि प्रत्येक वस्तु अनित्य है तथा यह सिद्धांत कि स्थायी आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं, में यह देखा जा सकता है।


इस तरह हम देखते हैं कि यूनान, मध्यपूर्व, भारत और चीन के कई प्राचीन दार्शनिकों ने गति के असीम परिवर्तन तथा विश्व के क्रमविकास को मान्यता दी थी।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

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