शनिवार, 27 सितंबर 2014

अनिवार्यता और संयोग - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे और देखेंगे कि इन प्रवर्गों पर विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण क्या कहते हैं।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग - २
( necessity and chance ) - 2

हमारे परिवेशी विश्व में अनिवार्यता और संयोग के बीच आपस में क्या संबंध है?

एक उत्तर इस प्रकार है : ऐसा कुछ नहीं है, जिसे अवश्यमेव घटना है, और ऐसा भी कुछ नहीं है, जो घट न सके। सब कुछ, सभी घटनाएं, चाहे वे हमें कितनी भी असंभाव्य क्यों न लगें, घट सकती है और ऐसे भी घट सकती हैं और वैसे भी। इस दृष्टि से यथार्थ वास्तविकता में कुछ भी असंभव नहीं है : अनिवार्य ( necessary ) नाम की कोई चीज़ नहीं है और विश्व में जो कुछ भी घटता है, वह नितांत संयोग ( chance ) है।

इस दृष्टिकोण के सार को एक उपन्यास, जिसका नायक कान से पैदा हुआ था, के इन शब्दों में लेखक ने सटीक ढंग से व्यक्त किया है : "मुझे लगता है कि आपको इतने अजीब जन्म पर विश्वास नहीं हो रहा है....आप कहेंगे कि इसमें तनिक भी सच नहीं है....किंतु अगर भगवान ने ऐसा ही चाहा था, तो क्या आप कहेंगे कि वह ऐसा नहीं कर सकता था?....इसीलिए मैं आपसे कह रहा हूं कि भगवान के लिए कुछ भी असंभव नहीं है और अगर वह चाहता है, तो सभी औरतें कानों से ही बच्चे पैदा करतीं।"

जो व्यक्ति अनिवार्यता को नहीं मानता और सोचता है कि दुनिया में सब कुछ संभव है ( इस दृष्टिकोण को अनियतत्ववाद indeterminism कहते हैं ), उसे यह भी मानना होगा कि वह जिस पत्थर पर बैठा था, वह हालांकि अभी तो ख़ामोश है, मगर सर्वथा यह संभव है कि कभी शास्त्रीय गीत गाने लगे, या यह कि यद्यपि कुत्ता चौपाया जानवर है, मगर बिल्कुल मुमकिन है कि उसका पिल्ला बीस पैरोंवाला होगा, या यह कि दो और दो अभी तो चार होते हैं, मगर शायद शाम तक दो और दो एक भी हो सकता है।

अनियतत्ववादी ( indeterminists ) कहने को तो अनिवार्यता और प्रकृति के नियमों को नहीं मानते, मगर व्यवहार में उन्हें अनिवार्यता और प्रकृति के नियमों को मानना ही पड़ता है। यह दिखाता है कि उपरोक्त सिद्धांत कितना अयुक्तिसंगत ( irrational ) है। यहां तक कि धर्म के सरमायेदार भी, जो यह दोहराते नहीं थकते कि ईश्वर के लिए अनिवार्यता कुछ नहीं है, कि उसके लिए सब कुछ संभव है, क़दम-क़दम पर अपने अनियतत्ववाद से पीछे हटते हैं। उन्हें यह मानने पर मज़बूर होना पडा है कि वास्तविकता के बहुत से क्षेत्रों में अनिवार्यता का ही राज है और ‘सर्वशक्तिमान’ ईश्वर भी उसे नहीं बदल सकता : ईश्वर अतीत को नष्ट नहीं कर सकता, वह ऐसा नहीं कर सकता कि त्रिभुज के तीनों कोणों का योग दो समकोणों के बराबर न हो या झूठ सच बन जाये, वग़ैरह-वग़ैरह।

अनियतत्ववाद का विरोध यांत्रिक नियतत्ववाद ( mechanical determinism ) के समर्थक भी करते हैं। वे कहते हैं कि धार्मिक विश्वास में प्राकृतिक नियमों के सभी तरह के उल्लंघनों और सभी तरह के चमत्कारों के लिए जगह है, जबकि विज्ञान सिद्ध करता है कि विश्व में सब कुछ प्रकृति के नियमों और अपरिहार्य अनिवार्यता के अनुसार घटता है। घटनाएं जिस रूप में घटती हैं, उससे भिन्न रूप में वे नहीं घट सकती। यदि एक भी घटना नियमों के विपरीत घटती या ऐसी एक भी घटना होती, जो नहीं घट सकती थी ( संयोग ), तो वह कारणहीन तथ्य या चमत्कार ही होता। किन्तु चमत्कार न तो होते हैं और न हो ही सकते हैं। इस प्रकार की तर्कणा के आधार पर स्पिनोज़ा  ने निष्कर्ष निकाला कि प्रकृति में कुछ भी सांयोगिक नहीं है, कि विश्व में केवल अनिवार्यता है और सब कुछ पूर्वनिर्धारित है।

क्लासिक यांत्रिकी ( classical mechanics ) से इस दृष्टिकोण की पुष्टि हुई। क्लासिक यांत्रिकी के नियम पृथक पिण्ड की गति के प्रक्षेप-पथ को पूर्ण परिशुद्धता ( accuracy ) और अचूक अपरिहार्यता के साथ पूर्वनिर्धारित करते हैं, इस मान्यता के आधार पर वैज्ञानिक आश्चर्यजनक यथातथ्यता ( preciseness ) के साथ आकाशीय तथा पार्थिव पिण्डों के स्थान-परिवर्तन की भविष्यवाणी किया करते थे। किन्तु जब विज्ञान का पृथक पिण्डों की गति के प्रक्षेप-पथ से कहीं अधिक जटिल परिघटनाओं से वास्ता पड़ा, तो स्पष्ट हो गया कि यांत्रिक नियतत्ववादियों का दृष्टिकोण भी अयुक्तिसंगत है।

जैसे कि जीवों तथा वनस्पतियों के संबंध में प्रकृति का नियम है कि उनमें से कोई भी नित्य नहीं है। किंतु कुछ ऐसे नियम है, जिनके अनुसार कतिपय जीव तथा वनस्पति जातियों का जीवन अत्यधिक लंबा होता है। बरगद के वृक्ष हज़ारों वर्ष जीवित रह सकते हैं, मगर बरगद के हर अलग पौधे के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती : वह दूसरे, बीसवें या हज़ारवें दिन ही मर सकता है। ऐसा कोई नियम नहीं है, जो हर अलग पौधे या जीव की मृत्यु के दिन या घंटे को पूर्वनिर्धारित कर सके।

हर घटना अनिवार्य रूप से पूर्वनिर्धारित है और उसके घटने में, उसकी ‘घड़ी आने’ में कुछ भी बाधक नहीं बन सकता, यह स्वीकृति हमें नियतिवाद ( fatalism ) पर ले आती है। एक उपन्यास के नायक ने तब इसी तरह सोचा था, जब उसने अपनी कनपटी पर पिस्तौल तानते हुए कहा था कि यदि यह अनिवार्य रूप से पूर्वनिर्धारित है कि मैं इसी क्षण मर जाऊं, तो यह होकर ही रहेगा, चाहे मैं गोली चलाऊं या नहीं, और अगर यह पूर्वनिर्धारित है कि आज मुझे ज़िंदा बचना है, तो मैं घोड़ा दाबूं या नहीं, इसके बावजूद मैं ज़िंदा रहूंगा ही। नियतिवाद लोगों के रोजमर्रा के व्यवहार से इतना असंगत है कि उसे स्वीकार करने को यांत्रिक नियतत्ववाद के घोरतम समर्थक भी तैयार न हुए। किंतु घटनाओं को अपरिहार्य रूप से पूर्वनिर्धारित मानने के बाद नियतिवाद से कैसे बचा जा सकता है, यह कोई भी यांत्रिक नियतत्ववादी नहीं बता सका। नियतिवाद, यांत्रिक नियतत्ववाद का अनिवार्य परिणाम है

कभी-कभी प्राकृतिक वरण ( natural selection ) के महत्त्वपूर्ण जीववैज्ञानिक नियम का यह अर्थ लगाया जाता है कि हर प्राणी भाग्य के हाथ की कठपुतली है : यदि उसने अपने को जीवन के लिए औरों से कम अनुकूल बनाया है, तो वह जल्दी मर जायेगा और उसका वंश नहीं बढ़ पायेगा, और यदि उसने अपने को जीवन के लिए औरों से बेहतर अनुकूल बनाया है, तो वह बहुत समय तक जियेगा और उसका वंश ख़ूब बढ़ेगा। किंतु इस नियम की ऐसी व्याख्या सरासर ग़लत है। औरों से कम अनुकूलित अकेला प्राणी अपनी जाति के अन्य प्राणियों जितने लंबे समय तक ज़िंदा भी रह सकता है और जन्म के तुरंत बाद मर भी सकता है। उसके सामने बहुत सी दूसरी संभावनाएं भी है। नियम यह पूर्वनिर्धारित नहीं करता कि उस प्राणी के मामले में इनमें से कौनसी संभावना पूरी होगी। जड़ प्रकृति में भी नियम इसी तरह काम करते हैं।

कुछ दार्शनिक अनियतत्ववाद और यांत्रिक नियतत्ववाद की त्रुटिपूर्णता को देखकर मध्यम मार्ग अपनाते हैं। वे कहते हैं कि हर घटना या तो अनिवार्यता है या संयोग। छोटी, अमहत्त्वपूर्ण घटनाएं संयोग हैं और बड़ी महत्त्वपूर्ण घटनाएं अपरिहार्यता, अनिवार्यता। सांयोगिक घटनाओं में कोई अनिवार्यता नहीं होती, इसलिए वे किन्हीं भी नियमों से नियंत्रित नहीं हैं और उन्हें चमत्कार ही माना जाना चाहिए। जहां तक अनिवार्य घोषित घटनाओं का संबंध है, तो इन दार्शनिकों के अनुसार उनमें से हर एक अपरिहार्य रूप से पूर्वनिर्धारित है और हम नियतिवादियों की तरह अवश्यंभाविता के मूक दर्शक ही बन सकते हैं। मध्यमार्गी दृष्टिकोण में पूर्वोक्त दो दृष्टिकोणों जैसी त्रुटियां तो हैं ही, पर इसके अलावा वह इसका निर्धारण पूरी तरह मनुष्य की मर्ज़ी पर छोड़ देता है कि कौन सी घटनाएं चमत्कार है और कौन सी अवश्यंभावी।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

शनिवार, 20 सितंबर 2014

अनिवार्यता और संयोग - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘कार्य-कारण संबंध’ के प्रवर्गों पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग - १

( necessity and chance ) - 1

सामान्यतः संयोग ( chance ) उसे कहते हैं, जो घट भी सकता है और नहीं भी घट सकता है तथा ऐसे भी घट सकता है और वैसे भी घट सकता है। अनिवार्य ( necessary ) उसे कहते हैं, जिसे अवश्यमेव घटित होना है या जो घटे बिना नहीं रह सकता। जब तेज़ हवा के झोंके से कुकरौंधे के बीज हर दिशा में उड़ते हैं, तो पहले से ही यह कहना असंभव होता है कि वे कहां गिरेंगे। इस स्थिति में हम कहते हैं कि उनके गिरने की जगह नितांत सांयोगिक ( coincidental ) होती है। साथ ही बीजों का बिखरना कुकरौंधे के अस्तित्व ( existence ) की एक अनिवार्य शर्त है। इसके बिना पौधों की यह जाति धरती से लुप्त हो सकती है। ऐसे और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं।

हम आसानी से अपने गिर्द की दुनिया में अल्पकालिक, अस्थायी, बाह्य, परिवर्तनीय तथा शीघ्रता से ग़ायब होने वाले ऐसे संयोजनों को देख सकते हैं, जिनके बिना भी कोई एक घटना विद्यमान तथा विकसित हो सकती है। उन्हें "संयोग" कहा जाता है। परंतु प्रत्येक प्रणाली और प्रत्येक घटना में ऐसे संयोजन, अंतर्क्रियाएं और संबंध, तत्व और उपप्रणालियां होती हैं, जिनके बिना वह अस्तित्वमान और विकसित नहीं हो सकती। उन्हें "अनिवार्य" कहा जाता है। अनिवार्यता ( necessity ) और संयोग, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रवर्ग ( category ) हैं। वे प्रत्येक भौतिक प्रणाली के प्रमुख लक्षण होते हैं।

अनिवार्यता की संकल्पना ( concept ) कुछ संयोजनों ( connections ) तथा अनुगुणों ( properties ) की समुचित दशाओं के अंतर्गत अवश्यंभावी उत्पत्ति को परावर्तित ( reflect ) करती है। अनुगुण और संयोजन तब अनिवार्य कहे जाते हैं, जब उनके अस्तित्व के कारण उन्हीं के भीतर निहित हों और जब वे एक घटना की रचना करने वाले घटकों की आंतरिक प्रकृति पर निर्भर हों। परंतु जिन अनुगुणों और संयोजनों के अस्तित्व के कारण उनसे बाहर स्थित होते हैं, यानी जो बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर होते हैं, उन्हें सांयोगिक कहा जाता है। अनिवार्य अनुगुण और संयोजन अवश्यंभाव्यतः कुछ निश्चित दशाओं में ही उत्पन्न होते हैं, जबकि सांयोगिक अनुगुण और संयोजन अवश्यंभावी नहीं होते और वे उत्पन्न हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते।

वस्तुगत जगत में घटनाओं के विकास की अवश्यंभावी शक्ति के रूप में अनिवार्यता का ही बोलबाला होता है, क्योंकि यह उनके सार ( essence ) से उपजती है और उनके संपूर्ण पूर्ववर्ती विकास और अंतर्क्रिया ( interaction ) पर आश्रित होती है। अनिवार्यता का प्रवर्ग प्राकृतिक और सामाजिक विकास के नियमबद्ध स्वभाव को अभिव्यक्त करता है।

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि सांयोगिक घटनाओं के, अनिवार्य घटनाओं की ही तरह, अपने ही कारण ( cause ) होते हैं। यह सोचना ग़लत होगा कि संयोग और कारणहीनता एक ही चीज़ है। कारणहीन घटनाएं क़तई नहीं होती। अनिवार्यता की ही भांति संयोग भी वस्तुगत ( objective ) है और उसका अस्तित्व इस पर निर्भर नहीं है कि हम उसके कारण को जानते हैं या नहीं। संयोग की वस्तुगत प्रकृति को अस्वीकार करने से सामाजिक इतिहास तथा मनुष्य के अस्तित्व को भाग्यवादी, रहस्यमय प्रकृति प्रदान करने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

शनिवार, 13 सितंबर 2014

कारण और कार्य - ३

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘कार्य-कारण संबंध’ के प्रवर्गों पर चर्चा को आगे बढ़ाया था, इस बार हम उसका समापन करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
कारण और कार्य - ३
( Cause and Effect ) - 3

जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, कार्य-कारण संबंध की एक लाक्षणिक विशेषता यह है कि कारण और कार्य आपस में स्थान-परिवर्तन कर सकते हैं। कोई घटना, जो एक स्थिति में किसी कारण का परिणाम है, किसी दूसरी स्थिति या काल में एक कारण भी हो सकती है। मसलन, वर्षा निश्चित मौसमी दशाओं का परिणाम होने के साथ ही अच्छी फ़सल का कारण भी हो सकती है और अच्छी फ़सल ख़ुद अर्थव्यवस्था में सुधार का कारण हो सकती है, आदि, आदि।

सारी घटनाओं के, मुख्यतः पेचीदा ( complicated ) घटनाओं के कई कारण होते हैं। लेकिन कारणों के महत्त्व में अंतर होता है। कारण बुनियादी ( basic ), निर्णायक हो सकते हैं या ग़ैर-बुनियादी, सामान्य हो सकते हैं या प्रत्यक्ष। बुनियादी कारणों को अन्य सारे कारणों में से यह ध्यान में रखते हुए खोज निकालना महत्त्वपूर्ण है कि वे आम तौर पर भीतरी होते हैं। वैज्ञानिक संज्ञान ( scientific cognition ) तथा परिवर्तनकामी व्यवहार के लिए उनकी निश्चित जानकारी का बहुत महत्त्व है।

कार्य-कारण संबंधों में एक और बात की जानकारी आवश्यक है, वह इस प्रेक्षण से संबंधित है कि एक ही कारण हर बार एक ही निश्चित कार्य को उत्पन्न कर पाये यह जरूरी नहीं होता। एक कारण कार्य को उत्पन्न कर सके इसके लिए कुछ निश्चित पूर्वापेक्षाएं ( prerequisites ), कुछ निश्चित परिस्थितियों का संयोग आवश्यक हो सकता है, जिन्हें पूर्वावस्थाएं ( preconditions ) कहा जाता है। "कारण" और "कार्य" के प्रवर्ग, "पूर्वावस्था" के साथ घनिष्ठता से संबंधित हैं। पूर्वावस्था, विविध भौतिक घटनाओं और प्रक्रियाओं का ऐसा समुच्चय होती है, जिसके बिना एक कारण, कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता है। किंतु इसके बावजूद पूर्वावस्थाएं कार्य की उत्पत्ति में सक्रिय ( active ) और निर्णायक ) decisive ) नहीं होती हैं। पूर्वावस्थाओं, कारणों और कार्यों के अंतर्संयोजनों ( interconnections ) की समझ घटनाओं के सही-सही मूल्यांकन ( evaluation ) के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है।

प्रकृति में हर चीज़ प्राकृतिक, वस्तुगत नियमों के अनुसार और ख़ास तौर से घटनाओं की कारणात्मक निर्भरता ( causal dependence ) के अनुसार चलती है। प्रयोजन ( goal, purpose ) केवल वहीं पर उत्पन्न होता है, जहां मनुष्य जैसा बुद्धिमान प्राणी काम करना शुरू करता है, यानी सामाजिक विकास के दौरान। परंतु यद्यपि लोग अपने लिए विभिन्न लक्ष्य नियत करते हैं, तथापि इससे सामाजिक विकास की वस्तुगत, कारणात्मक तथा नियमबद्ध प्रकृति का निराकरण ( obviate ) नहीं हो सकता। हम कार्य-कारण संबंध की सटीक जानकारियों के उपयोग से अपने इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति के पूर्वाधारों के निर्माण के प्रयास कर सकते हैं, अपनी सफलताओं की गुंजाइश बढ़ा सकते हैं।

कार्य-कारण संबंध सार्विक हैं। लेकिन वास्तविकता के सारे संयोजन इसी तक सीमित नहीं हैं, क्योंकि यह सार्विक संयोजनों का एक छोटा अंश मात्र हैं। विश्व में कारणात्मक संबंधों के जटिल जाल ( intricate network ) में आवश्यक और सांयोगिक संयोजन सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। अगली बार हम इन्हीं "आवश्यकता और संयोग" के प्रवर्गों पर चर्चा करेंगे।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 6 सितंबर 2014

कारण और कार्य - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववादपर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘कार्य-कारण संबंध’ के प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू किया था, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
कारण और कार्य - २
( Cause and Effect ) - 2

कार्य-कारण संबंध के कई मूलभूत लक्षण ( basic features ) होते हैं। सबसे पहले, घटनाओं की कारणात्मक निर्भरता ( causal dependence ) सार्विक है। ऐसी कोई भी घटना या वाक़या नहीं होता है, जिसका कोई कारण न हो। वस्तुओं और घटनाओं के बीच अंतर्संबंधों की अपरिमित श्रृंखला ( infinite chain ) में कारणात्मक संपर्क एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। दूसरे, कारणात्मक संबंध वस्तुगत ( objective ) होता है, यानी यह भौतिक जगत की घटनाओं के अंदर निहित होता है। इसका मुख्य लक्षण यह है कि निश्चित दशाओं के अंतर्गत, एक निश्चित कारण अनिवार्यतः एक निश्चित कार्य तक पहुंचायेगा। मसलन, लोहे के टुकड़े को गर्म करने पर वह निश्चय ही फैलेगा, लेकिन स्वर्ण में परिवर्तित नहीं होगा। यदि अन्न का एक दाना उपयुक्त मिट्टी पर गिरता है, तो समुचित दशाओं ( appropriate conditions ) के अंतर्गत वह उस अन्न के पौधे को तो निश्चय ही जन्म देगा, लेकिन किसी अन्य पौधे को नहीं।

कार्य-कारण संबंध का एक अन्य प्रमुख लक्षण इसकी अनम्य कालक्रमिकता ( strict sequence in time ) है। यानी जो घटना कारण बनती है, वह उसके कार्य से हमेशा पहले होती है और वह कार्य उस घटना से पहले या उसके साथ-साथ कभी भी नहीं हो सकता है, लेकिन कुछ समय बाद होता है। किसी घटना को किसी कार्य का कारण मानने के लिए कालक्रम में पूर्ववर्तिता आवश्यक तो है, लेकिन एक अपर्याप्त ( inadequate ) शर्त है। किसी घटना से पहले होने वाली हर चीज़ उस घटना का कारण नहीं होती, केवल वे ही पूर्ववर्ती घटनाएं कारण हो सकती हैं जो कार्य के साथ संपर्क ( contact ) और संबद्धता ( association ) में हो, और जिनके पास उस कार्य को उत्पन्न करने के समुचित पूर्वाधार और नियमितताएं मौज़ूद हों।

जब विज्ञान अपर्याप्त रूप से विकसित था और वैज्ञानिक ज्ञान अधिकांश लोगों की पहुंच से बाहर था, तब वे कालक्रम और कारणात्मक संबंध को स्पष्टतः समझने में अक्सर असफल हो जाते थे और फलतः कई असंबद्ध कारणात्मक धारणाएं प्रचलित हो जाती थीं। यह उन अंधविश्वासों तथा पूर्वधारणाओं का एक उद्‍गम ( source ) था, जिनके अवशेष किसी न किसी रूप में आज भी विद्यमान हैं। आज भी समुचित वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव, इस तरह की कई भ्रांतियां पैदा करता है और लोगों द्वारा ऐसी भ्रांतियों को मानने तथा मानते रहने के आधार पैदा करता है, जहां कि सिर्फ़ कालक्रम के आधार पर किन्हीं पूर्ववर्ती असंबद्ध घटनाओं या परिस्थितियों को प्रदत्त घटनाओं का कारण समझ लिया जाता है।

कारणात्मक संबंध पर विचार करते समय यह ध्यान में रखना चाहिये कि कारण बाहरी भी हो सकते हैं और भीतरी भी। किसी वस्तु के परिवर्तन के भीतरी कारण उसके पक्षों की एक अंतर्क्रिया ( interaction ) होने के सबब से उस वस्तु के अपने स्वभाव में ही बद्धमूल ( rooted ) होते हैं। भीतरी कारण बाहरी कारणों से अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। यह हम अंतर्विरोधों ( contradictions ) की विवेचना के अंतर्गत भली-भांति देख ही चुके हैं।

किसी बाहरी कारण से उत्पन्न कार्य, कारण तथा उस घटना के बीच अंतर्क्रिया का परिणाम होता है, जिस पर कारण की क्रिया होती है। फलतः एक ही कारण विभिन्न कार्यों को उत्पन्न कर सकता है। मसलन, एक ही समय में धूप के कारण बर्फ़ पिघलती है, पौधों में कार्बन डाइआक्साइड का स्वांगीकरण ( assimilation ) व वृद्धि होती है, किसी आदमी की त्वचा का रंग गहरा हो जाता है और उसके शरीर में जटिल शारीरिक क्रियाएं होती हैं। ऐसा भी हो सकता है कि भिन्न-भिन्न कारणों का फल एक ही कार्य हो। मसलन, ख़राब फ़सल सूखे का परिणाम हो सकती है या खेती की त्रुटिपूर्ण विधियों का, यथा, फ़सलों का ग़लत हेरफेर, बीजों का अच्छा न होना, ग़लत समय में बोआई करना, आदि, या ये सभी या कुछ एक साथ भी। अतः किसी एक घटना का कारण या तो विभिन्न वस्तुओं की अंतर्क्रिया या एक ही वस्तु के विभिन्न पक्षों की आपसी अंतर्क्रिया, अथवा ये दोनों साथ-साथ भी हो सकते हैं, यानी बाहरी और भीतरी कारकों का सम्मेल ( combination ) हो सकता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय
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