शनिवार, 27 दिसंबर 2014

तत्वमींमासीय भौतिकवाद की ज्ञानमीमांसा

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान सिद्धांत पर संक्षिप्त विवेचना प्रस्तुत की थी, इस बार हम तत्वमींमासीय भौतिकवाद की संज्ञान विषयक अवधारणा पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



तत्वमींमासीय भौतिकवाद की ज्ञानमीमांसा
( epistemology of metaphysical materialism )

१७वीं सदी से लेकर १९वीं सदी के आरंभ तक प्रकृतिविज्ञान ( natural science ), परिघटनाओं के अध्ययन की विधियों ( methods ) के प्रश्न पर यंत्रवाद ( mechanism ) का ही अनुसरण करता रहा। यंत्रवाद, यांत्रिकी ( mechanics ) के नियमों के निरपेक्षीकरण के परिणामस्वरूप विश्व का एक यांत्रिकवादी चित्र प्रस्तुत करता था, जिसके अनुसार, समस्त ब्रह्मांड ( परमाणुओं से लेकर ग्रहों तक ) ऐसे अपरिवर्तनीय तत्वों से युक्त एक बंद यांत्रिक प्रणाली है, जिनकी गति क्लासिकीय यांत्रिकी से निर्धारित होती है। परंतु कालान्तर में प्राकृतिक विज्ञानों की उपलब्धियों ने यंत्रवाद की संकीर्णता को स्पष्ट कर दिया। तत्कालीन तत्वमीमांसीय या अधिभूतवादी भौतिकवाद के संज्ञान सिद्धांत की मूलभूत विशेषताएं काफ़ी कद तक इसी यांत्रिकवादी दृष्टिकोण की उपज थीं।

इस सिद्धांत के मूल में यह धारणा निहित थी कि मनुष्य परिवेशी विश्व का काफ़ी-कुछ सही संज्ञान प्राप्त कर सकता है। संज्ञान का आधार, या यह कहें कि भौतिक वास्तविकता के साथ मनुष्य के संपर्क का साधन अनुभूतियां ( sensations ) हैं। तत्कालीन भौतिकवादी दार्शनिकों के अनुसार, ये अनुभूतियां बाह्य विश्व की छवियां ( images ), प्रतिकृतियां ( replicas ) या दर्पण में दिखायी देनेवाली छायाओं ( shadows ) की तरह हैं। संज्ञान की प्रक्रिया में अनुभूतियों की भूमिका से संबंधित यह दृष्टिकोण न केवल सामान्य व्यक्ति में पायी जानेवाली सामान्य बुद्धि, बल्कि तत्कालीन प्रकृतिविज्ञान के भी अनुरूप था। आत्मपरक प्रत्ययवादी ( subjective idealistic ) और अज्ञेयवादी ( agnostic ) अनुभूतियों की भूमिका की ऐसी व्याख्या का ही घोर विरोध करते थे।

तत्वमीमांसीय भौतिकवाद की ज्ञानमीमांसा ( epistemology ) का कमज़ोर पहलू यह था कि वह निष्क्रिय प्रेक्षण ( passive observation ), यानी प्रेक्षणाधीन वस्तुओं में होनेवाले परिवर्तनों से असंबंधित प्रेक्षण पर आवश्यकता से अधिक ज़ोर देती थी। इस तरह प्रेक्षण को इतना महत्त्व दिया जाना इस प्रकृतिवैज्ञानिक सिद्धांत को परम सत्य मानने का परिणाम था कि वैज्ञानिक का कार्य प्रकृति का प्रेक्षण करना है, न कि उसे बदलना। यह नियम प्रायोगिक प्रकृतिविज्ञान के अपेक्षया आरंभिक चरण, तथ्य सामग्री के संचय और वर्गीकरण के अनुरूप था। हालांकि १७वीं-१९वीं सदियों में प्रयोगात्मक संज्ञान ( experimental cognition ) की संज्ञेय परिघटनाओं पर प्रभाव डालने से संबंधित विधियों का भी शनैः शनैः विकास और परिष्करण ( refinement ) हुआ, किंतु तत्वमीमांसीय भौतिकवाद उनके महत्त्व को पूरी तरह ह्रदयंगम नहीं कर पाये।

चिन्तनपरकता और संज्ञान की सक्रिय भूमिका के अपूर्ण मूल्यांकन का एक कारण यह भी था कि तत्वमीमांसीय भौतिकवादी, चिन्तन की नियमसंगतियों के विश्लेषण के महत्त्व को पूरी तरह आंक नहीं सके थे। यही पूर्ववर्ती भौतिकवाद की मुख्य कमज़ोरी थी, कि तत्वमीमांसीय भौतिकवादी विश्व के संज्ञान को एक ऐसी प्रक्रिया मानते थे, जो निष्क्रिय प्रेक्षण पर आधारित है न कि प्रकृति और समाज के सक्रिय रूपांतरण ( active transformation ) पर। वे इस तथ्य को पहचान नहीं पाये कि सही वैज्ञानिक ज्ञान विश्व के सक्रिय रूपांतरण के दौरान ही पाया जा सकता है।

यह स्वीकार करने के बावजूद, कि हमारे संप्रत्यय ( concepts ) और अनुभूतियां भौतिक वस्तुओं और प्रक्रियाओं के बिंब ही है, तत्वमीमांसीय भौतिकवाद तो चिंतन के विकास के नियमों की व्याख्या कर पाया और संज्ञान के परिवर्तन के आधारों का अध्ययन ही कर सका, क्योंकि वह संज्ञान के मुख्य तरीक़ो और रूपों को स्थायी ( permanent ) और अपरिवर्तित मानता था। इसी बात ने उसे दोषपूर्ण और उन बहुत से प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ बनाया, जो समाज और विज्ञान के विकास द्वारा उठाये गये थे। यह आवश्यक था कि लोगों के संज्ञानकारी कार्यकलाप के अध्ययन के सिलसिले में पैदा हुए प्रश्नों के प्रति सिद्धांततः नया रवैया ( attitude ) अपनाया जाये। इस समस्या का समाधान द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ( dialectical materialism ) के संज्ञान सिद्धांत ने प्रस्तुत किया।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -२

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान सिद्धांत पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -२
( theory of knowledge by classical idealism - 2 )

काण्ट का दर्शन अंतर्विरोधों ( contradictions ) से भरपूर था। एक ओर, प्रकृतिविज्ञान के सामने झुकते हुए वह यथार्थ ( real ) वस्तु-निजरूपों के अस्तित्व ( existence ) को स्वीकार करते थे और उन्हें अनुभूतियों का स्रोत ( source ) मानते थे। मगर दूसरी ओर, तर्कबुद्धिवाद के सिद्धांतों पर अडिग रहने की कोशिश में वह इस बात से इनकार करते थे कि अनुभूतियां और इन्द्रियजन्य कल्पनाएं यथार्थ विश्व का काफ़ी-कुछ सही प्रतिबिंब करती हैं, और इसलिए वह निर्णायक स्थान संज्ञान के प्रागनुभव रूपों को ही देते थे। काण्ट की ज्ञानमीमांसा ( epistemology ) की इस विरोधपूर्णता का उल्लेख करते हुए जर्मन दार्शनिक फ़्रीडरिख़ जैकोबी ( १७४३-१८१९ ) ने लिखा कि ‘वस्तु-निजरूप’ के बिना काण्ट के दर्शन में प्रवेश नहीं किया जा सकता, किंतु उसी ‘वस्तु-निजरूप’ के साथ इस दर्शन के अंदर रहा भी नहीं जा सकता।

महान जर्मन द्वंद्ववादी हेगेल ने काण्ट के दर्शन के अंतर्विरोध को ख़त्म करने और उसे अधिक सुसंगत बनाने की कोशिश में जर्मन क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान के सिद्धांत को ‘वस्तु-निजरूप’ से और उसके साथ ही प्रकृतिविज्ञान पर आधारित भौतिकवाद के तत्वों से भी पूर्ण मुक्ति दे दी। हेगेल के अनुसार, आंतरिक विरोधों से प्रेरित होकर, मानव संज्ञान निरंतर विकास करता रहता है। विश्व संज्ञेय है किंतु हमारा चिंतन, सत्ता के रहस्यों में जितना ही गहरा पैठेगा, उतना ही अधिक यह स्पष्ट होगा कि संज्ञान की प्रक्रिया की सहायता से परम चित् परिवेशी विश्व में ख़ुद अपने नियमों को उद्घाटित करता है। दूसरे शब्दों में, विश्व के संज्ञान का मतलब है उसके आध्यात्मिक, प्रात्ययिक अन्तर्य का संज्ञान करना।

मानव संज्ञान की सक्रिय और द्वंद्वात्मक प्रकृति के निरूपण में हेगेल के बहुत बड़े योगदान के बावजूद उनका संज्ञान सिद्धांत आदि से लेकर अंत तक प्रत्ययवादी ( idealistic ) था और इसलिए प्रायोगिक प्रकृतिविज्ञान को वह मान्य नहीं हुआ। इसके अलावा, चूंकि हेगेल को अपने काल की भौतिकी और गणित की उपलब्धियों का भरपूर ज्ञान नहीं था, इसलिए प्रकृति विकास के नियमों के बारे में उनके निष्कर्ष प्रायः १९वीं सदी के वैज्ञानिकों की अवधारणाओं से मेल नहीं खाते थे।

प्रत्ययवादी दार्शनिक ऐसा संज्ञान सिद्धांत न बना सके, जो सैद्धांतिक और प्रायोगिक प्रकृतिविज्ञानों की आवश्यकताओं और निष्कर्षों के अनुरूप होता। ऐसा सिद्धांत तत्कालीन भौतिकवादी ( materialistic ) दार्शनिक भी न बना पाये, यद्यपि उनके बीच कई प्रतिभाशाली विचारक थे। व्यापक प्रसार तथा विज्ञान और संस्कृति के विकास पर अपने बड़े प्रभाव के बावजूद ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ ( dialectical materialism ) से पूर्व का भौतिकवाद भी संज्ञान प्रक्रिया की समझ के मामले में कई दोषों से मुक्त नहीं था।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -१

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान विषयक तर्कबुद्धिवाद के विचारों पर संक्षिप्त विवेचना प्रस्तुत की थी, इस बार हम क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान सिद्धांत पर चर्चा शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -१
( theory of knowledge by classical idealism - 1 )

अज्ञेयवाद ( agnosticism ) और तर्कबुद्धिवाद ( rationalism ) में से कोई भी संज्ञान का एकीभूत, संपूर्ण चित्र प्रस्तुत न कर सका। दोनों में से प्रत्येक ने अनुभूति ( sensation ) या तर्कबुद्धि ( reason ) के महत्त्व को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हुए उन्हें एक दूसरे के मुक़ाबले में रखा और उस संबंध को अनदेखा किया, जो संज्ञान की प्रक्रिया में इन दोनों पहलुओं ( aspects ) के बीच मौजूद रहता है।

उदाहरण के लिए, भौतिकीवेत्ता यंत्र की मापनी पर सूई के इन्द्रियगोचर दोलनों ( sensible oscillations ) को देखते हुए उन्हें विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र के परिवर्तनों ( changes ) से जोड़ता है और इस तरह तार्किक व्याख्या ( logical explanation ) और दृश्यानुभूति ( visual sensation ) को एकीभूत प्रक्रिया में संयुक्त ( unified ) बनाता है। किंतु जो संज्ञान की प्रक्रिया के अनुभूतिमूलक ( sense-oriented ) और तर्कमूलक ( logic-oriented ) पक्षों को एक दूसरे के मुक़ाबले में रखता है, वह संज्ञान की प्रक्रिया ( process of cognition ) का अति सरलीकरण करता है और संज्ञानकारी कार्यकलाप की असली तथा जटिल प्रकृति को बिगाड़कर दिखाता है।

जर्मन क्लासिकी प्रत्ययवाद के प्रवर्तक एमानुएल काण्ट ने अज्ञेयवाद और तर्कबुद्धिवाद के वैपरीत्य ( contrariety ) को ख़त्मकर संज्ञान सिद्धांत को तत्कालीन प्रकृतिविज्ञान और गणित के निष्कर्षों के अनुरूप बनाने की कोशिश की थी। जैसा कि ज्ञात है, प्राकृतिक विज्ञान प्रेक्षणों और प्रयोगों का सहारा लेता है। किंतु इस तरीक़े से पाया गया ज्ञान परिवेशी विश्व की घटनाओं के बाह्य, परिवर्तनशील और सांयोगिक पक्ष की ही सूचना देता है।

काण्ट के शब्दों का इस्तेमाल करें, तो बाह्य, प्रतीयमान और दृश्य पक्ष अर्थात परिघटना के पीछे यथार्थ वस्तुएं या ‘वस्तु-निजरूप’ ( ‘thing in itself’ ) छिपे होते हैं। ये वस्तु-निजरूप ही परिघटनाओं ( phenomena ) को जन्म देते हैं। किंतु परिघटना और वस्तु-निजरूप के बीच बहुत बड़ी खाई है। परिघटना अनुभूतिगम्य है, जबकि वस्तु-निजरूप केवल मन ( मस्तिष्क ) द्वारा ही जाना जा सकता है। मन में अनुभवनिरपेक्ष प्रवर्ग होते हैं, जिनकी संख्या १२ है, जैसे अनिवार्यता, कारण, आदि। विज्ञान के नियमों की रचना में ये प्रवर्ग ( categories ) ही भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार काण्ट के अनुसार इन्द्रियबोध हमें वस्तु-निजरूपों की जानकारी नहीं देता और इस प्रश्न को असमाधित ( unresolved ) ही छोड़ देता है कि हम उनके अस्तित्व के बारे में कहां से जानते हैं।

काण्ट ने संज्ञान के अनुभवनिरपेक्ष या प्रागनुभव रूपों ( pre-experience forms ) में दिक् और काल ( space and time ) को भी सम्मिलित किया था, जिनकी सहायता से ही अनुभूतियों पर आधारित अनुभवसिद्ध ज्ञान को क्रमबद्ध और व्यवस्थित किया जाता है। किंतु काण्ट का दर्शन इसका कोई उत्तर नहीं दे पाता कि प्रवर्गों तथा अन्य अनुभवनिरपेक्ष रूपों को, इन्द्रिय दत्त रूपों ( sensuous forms ) के अनुरूप कैसे और क्यों बनाया जाता है। और साथ ही यह भी कि इन्द्रिय दत्त रूप, सिद्धांततः असंज्ञेय ( non-cognizable ) वस्तु-निजरूपों के बारे में क्या सूचना देते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

तर्कबुद्धिवाद और विश्व का संज्ञान

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा पर संक्षिप्त विवेचना का समापन किया था, इस बार हम संज्ञान विषयक तर्कबुद्धिवाद के विचारों पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



तर्कबुद्धिवाद और विश्व का संज्ञान
( rationalism and cognition of the world )

संज्ञान के सिद्धांत के विकास को दार्शनिक तर्कबुद्धिवाद ( rationalism ) ने काफ़ी प्रभावित किया है। तर्कबुद्धिवादी (rationalist ) मानते हैं कि ज्ञान का सामान्य तथा आवश्यक स्वरूप तर्कबुद्धि से हासिल किया जा सकता है, इसलिए यह मत अनुभववाद ( empiricism ) के प्रतिकूल है जो कि इसे सिर्फ़ अनुभव ( experience ) से हासिल किये जाने योग्य मानता है। इसी तरह तर्कबुद्धिवाद जो कि विवेक, चिंतन की शक्ति प्राथमिकता देता है, अतर्कबुद्धिवाद ( irrationalism ) के भी प्रतिकूल है जो कि संज्ञान में अंतःप्रज्ञा ( intuition ), अनुभूति, सहजबोध आदि को प्रधानता देता है।  गणित संबंधी तार्किक विशेषताओं का स्पष्टीकरण करने के प्रयास के रूप में तर्कबुद्धिवाद की उत्पत्ति हुई। १७वीं शताब्दी में उसके प्रतिपादक देकार्त, स्पिनोज़ा, लेइब्नित्स, तथा १८वीं शताब्दी में कांट, फ़िख्टे, शेलिंग तथा हेगेल थे।

तर्कबुद्धिवाद के अनुसार सच्चे ज्ञान के तार्किक लक्षणों का निगमन केवल स्वयं मन से किया जा सकता है, या तो मन में जन्म से विद्यमान संकल्पनाओं ( concepts ) से, अथवा केवल मन के रुझानों ( trends ) के रूप में विद्यमान संकल्पनाओं से उनका निगमन किया जा सकता है। तर्कबुद्धिवादी मानते थे कि अनुभूतियों ( sensations ) और इन्द्रियबोधों ( senses ) की भूमिका गौण है और संज्ञान के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति, यानी जिन वस्तुओं का अध्ययन किया जा रहा है, उनके नियमों, मुख्य गुणों और संबंधों की खोज केवल तर्कबुद्धि ( reason ) की सहायता से और तार्किक विवेचनाओं के आधार पर संभव है। किंतु हर विवेचना ( deliberation ) के लिए कोई आरंभबिंदु तो होना ही चाहिए।

यह आरंभबिंदु वे अभिगृहीत, स्वयंसिद्धियां या सिद्धांत ( axioms or theory ) हैं, जिनका संबंध सारे विश्व या उसके अलग-अलग हिस्सों से होता है। किंतु स्वयं उनका मूल क्या है? तर्क के वे नियम और मापदंड़ ( criteria ) कहां से लिये जाते हैं, जो सिद्धांतों के आधार पर क़दम-क़दम करके वैज्ञानिक ज्ञान पाने की संभावना देते हैं? धार्मिक रुझान वाले तर्कबुद्धिवादियों की धारणा थी कि कोई दैवी शक्ति दार्शनिकों और विचारकों को उनका उद्घाटन करती है। इसके विपरीत अनीश्वरवादी तर्कबुद्धिवादी सोचते थे कि विचारक इन सिद्धांतों, अभिगृहीतों और नियमों का ज्ञान तर्कबुद्धि के निरन्तर प्रशिक्षण ( training ) के ज़रिये पा सकता है, जिसके फलस्वरूप सीधे सहजबुद्धि की सहायता से उसे आवश्यक जानकारी मिल जायेगी। यह आरंभिक जानकारी स्पष्ट, सुनिश्चित और निर्विवाद होनी चाहिये। मानव की तर्कबुद्धि सर्वोच्च निर्णायक है और यदि वह उसके उसके द्वारा सृजित ( created ) संप्रत्ययों तथा सिद्धांतों ( concepts and theories ) में विरोधाभास नहीं पाती, तो यह उनकी सत्यता का सर्वोत्तम प्रमाण है। तर्कबुद्धिवादियों के इन विचारों पर गणित और विशेषतः ज्यामिति संबंधी विचारों और विधियों की स्पष्ट छाप थी। यह संयोग नहीं है कि तर्कबुद्धिवाद के एक प्रवर्तक फ्रांसीसी दार्शनिक देकार्त ( १५९६-१६५० ) आधुनिक विश्लेषणात्मक ज्यामिति के पितामहों में भी गिने जाते हैं।

ज्ञात है कि यूक्लिड की ज्यामिति सदियों तक विज्ञान की रचना का आदर्श मानी जाती थी। अतीत के विचारकों की दृष्टि में उसकी एक सबसे आकर्षक विशेषता यह थी कि वह कुछ इने-गुने स्वयंसिद्ध तथ्यों की प्रस्थापना से शुरू होती है, जिनसे फिर क़दम-क़दम करके, तर्कसंगत ढंग से अकाट्य प्रमाणों की सहायता से नये-नये प्रमेय ( theorem ) निकाले जाते हैं। तर्कबुद्धिवादियों ने, जो प्राप्त ज्ञान की तार्किक निर्दोषिता को सर्वाधिक महत्त्व देते थे, इस स्वयंसिद्धिमूलक विधि ( axiom oriented method ) को ही अपने आदर्श के रूप में स्वीकार किया।

किंतु यदि स्वयंसिद्धियां दैवी देन नहीं है, तो वे कहां से आयीं? हमारी सहजबुद्धि यथार्थ विश्व का साफ़-साफ़ ज्ञान कैसे दे पाती हैं और यदि अनुभूतियां सूचना का विश्वसनीय स्रोत नहीं हैं, तो भौतिक वस्तुओं के विश्व के साथ स्वयंसिद्धियों से प्राप्त परिणामों के संबंध को कैसे परखा जा सकता है? तर्कबुद्धिवाद इन प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाया। १९वीं सदी में स्वयं विज्ञान ने उसपर प्रबल प्रहार किया, जब तीन गणितिज्ञ एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यूक्लीडीय ज्यामिति के ‘निर्विवाद’, ‘सुस्पष्ट’ माने जाने वाले पांचवें अभिगृहीत ( समानान्तर रेखाओं के बारे में ) को विभिन्न अभिगृहीतों से बदला जा सकता है। इस तरह विभिन्न अयूक्लीडीय ज्यामितियां पैदा हुई, जो एक दूसरे से भिन्न होने के साथ-साथ तर्कसंगत भी थीं। जैसा कि विज्ञान के विकास ने विशेषतः आपेक्षिकता सिद्धांत के अविष्कार और अंतरिक्षीय प्रयोगों समेत बहुसंख्य प्रयोगों के बाद दिखाया है, यूक्लीडीय ज्यामिति की अपेक्षा वे बाह्य विश्व की अधिक गहरी और अधिक विश्वसनीय जानकारी देती हैं।

इस प्रकार वैज्ञानिक ( और सबसे पहले गणितीय ) संज्ञान के बहुत से तथ्यों का स्पष्टीकरण पेश करने के बावजूद तर्कबुद्धिवाद, एक ओर विज्ञान के नियमों तथा वास्तविकता की संज्ञेयता और दूसरी ओर भौतिक विश्व की परिघटनाओं ( phenomena ) के बीच के सही संबंध को न पहचान सका। तर्कबुद्धिवाद की संकीर्णता इस बात की अस्वीकृति में निहित है कि सार्विकता तथा आवश्यकता, अनुभव से उत्पन्न हुई। वह ज्ञान के संक्रमण ( transition ) में व्यवहार और चिंतन की द्वंद्वात्मकता ( dialectic of practice and thinking ) को स्वीकार नहीं करता। इसी संकीर्णता पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने क़ाबू पाया जो व्यवहार के साथ ज्ञान की एकता में संज्ञान की प्रक्रिया पर विचार करता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम
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