शनिवार, 25 अप्रैल 2015

सत्य क्या है - १ ( सत्य की संकल्पना )

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत तर्कमूलक संज्ञान या अमूर्त चिंतन पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम सत्य की द्वंद्ववादी शिक्षा को समझने की कोशिश शुरू करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



सत्य क्या है - १ ( सत्य की संकल्पना )
what is truth - 1 ( concept of the truth )

संज्ञान की प्रक्रिया में हम विलगित संकल्पनाओं ( isolated concepts ) का नहीं, बल्कि अंतर्संबंधित ( interconnected ) संकल्पनाओं का उपयोग करते हैं। कथनों ( statements ) तथा अनुमानों ( inferences ) के ज़रिये यह अंतर्संबंध कायम किया जाता है। उनके द्वारा हम अपने इर्दगिर्द दुनिया में अनुगुणों ( properties ), संबंधों या अंतर्क्रियाओं के बारे में किसी चीज़ की अभिपुष्टि ( assert ) या अस्वीकरण ( deny ) करते हैं।

अलग-अलग संकल्पनाएं ‘घर’, ‘संस्थिति’, ‘पहाड़ी’ इस बात की बहुत कम जानकारी देते हैं कि हमारा घर कहां हैं। इसके विपरीत, यह पद कि ‘घर पहाड़ी पर है’ हमें आवश्यक सूचना देता है। एक अनुमान या निष्कर्ष ( conclusion ), कथनों की एक श्रृंखला है जो ऐसे निर्मित होती है कि उनमें से एक कथन, तर्कणा के नियमों के अनुसार, दूसरे कथन का अनुगामी ( follower ) होता है। मसलन, आवश्यक पता ज्ञात होने पर हम निम्नांकित अनुमान की रचना कर सकते हैं : ‘यदि हमारी जरूरत का घर पहाड़ी पर है, तो हमें पहाड़ी पर चढ़ना पड़ेगा।’

लेकिन जिन कथनों तथा अनुमानों से कोई एक व्यक्ति बाह्य जगत के बारे में अत्यंत महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान सूचना को निरुपित ( formulate ) करता है, वे भी इस जगत को सही ढंग से भी परावर्तित ( reflect ) कर सकते हैं और ग़लत ढंग से भी। बाह्य जगत को सही ढंग से तथा ग़लत ढंग से परावर्तित करनेवाले कथनों के बीच भेद करने के लिए हम विशेष संकल्पनाओं का उपयोग करते हैं - ‘सत्य’ ( truth ) और ‘असत्य’ ( falsehood )। संज्ञान का लक्ष्य, सत्य की उपलब्धि है और उसके आधार पर मानवजाति के सम्मुख मौज़ूद नयी समस्याओं को हल करना है

‘सत्य’ क्या है? यह बहुत जटिल प्रश्न है और संज्ञान के सिद्धांत का एक केन्द्रीय प्रश्न है। प्रत्ययवादी/भाववादी ( idealistic ) तथा भौतिकवादी ( materialistic ) दर्शन इसका भिन्न-भिन्न ढंग से उत्तर देते हैं।

सत्य की संकल्पना अनेकार्थक है और बहुधा विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त की जाती है। अपने दार्शिनिक अर्थ में यह शब्द, ज्ञान की अंतर्वस्तु तथा बाह्य जगत के बीच एक निश्चित संबंध ( connection ) को व्यक्त करता है। ‘सत्य’ शब्द चिंतन में वास्तविकता ( reality ) के शुद्ध, प्रामाणिक ( authentic ) परावर्तन को द्योतित करता है। सत्यता स्वयं वस्तुओं का अपना अनुगुण नहीं है, बल्कि मनुष्य के मन में उनका प्रामाणिक परावर्तन हैमार्क्स के विचार में सत्य का ज्ञान वस्तुओं, घटनाओं तथा प्रक्रियाओं को उस रूप में समझना है, जिस रूप में वे वास्तव में विद्यमान हैं।

प्राचीन दार्शनिक सत्य को सही ज्ञान के साथ जोड़ते थे, जो यथार्थता ( reality ) के अनुरूप ( corresponding ) होता था। इसका विलोम था भ्रम या मिथ्या ज्ञान, जो यथार्थता को विरूपित ( deform ) करता है। अरस्तु ऐसे ज्ञान को सत्य मानते थे, जिसमें बाह्य जगत से संबंधित निर्णय सही हैं। बाद में अनेक दार्शनिक इस बात पर सहमत हुए कि सत्य, यथार्थता के साथ चिंतन की अनुरूपता, और जो हम जानते हैं उसके साथ ज्ञान की अनुरूपता है। किंतु यह निरुपण प्रत्ययवादी और भौतिकवादी दोनों ही करते हैं, जबकि दर्शन के बुनियादी प्रश्न का भिन्न-भिन्न उत्तर देते हुए वे चिंतन तथा यथार्थता की अनुरूपता को भिन्न-भिन्न ढंग से समझते और व्याख्यायित करते हैं।

मसलन, वस्तुगत प्रत्ययवादी ( objective idealist ) अफ़लातून सत्य को शाश्वत ( eternal ), अपरिवर्तनीय प्रत्ययों ( ideas ) के साथ हमारे ज्ञान की अनुरूपता समझते थे। उनके दृष्टिकोण से भौतिक विश्व का ज्ञान सत्य नहीं हो सकता है, क्योंकि भौतिक विश्व अस्थिर और परिवर्तनशील है, और सत्य किसी शाश्वत तथा अपरिवर्तनशील चीज़ से ही संबंधित हो सकता है। वहीं, एक और वस्तुगत प्रत्ययवादी हेगेल सत्य को परम आत्मा ( absolute spirit ) के, निरपेक्ष प्रत्यय ( absolute idea ) के साथ हमारे ज्ञान की अनुरूपता मानते थे। उनकी राय में, मानव ज्ञान का लक्ष्य निरपेक्ष प्रत्यय के साथ पूर्ण संगतता ( coincidence ) है और सत्य इसी संगतता में निहित है।

मार्क्स से पहले के अधिकांश भौतिकवादी यह समझते थे कि सत्य, वस्तुगत भौतिक जगत के साथ हमारे ज्ञान की अनुरूपता है। लेकिन मुख्य कठिनाई ठीक इसी की वजह से पैदा हुई, यानी इस बात से कि इस अनुरूपता को कैसे परखा जाये, कैसे प्रमाणित ( establish ) किया जाये ? यदि इसका साधन, माप या कसौटी, संवेदन ( sensation ) हैं, तो कठिनाइयां और भी ज़्यादा होतीं क्योंकि संवेदन स्वयं भ्रामक ( deceptive ) हो सकता है। यदि सत्य की कसौटी स्वयं मनुष्य की तर्कबुद्धि ( reason ) में निहित है, तो वह देर-सवेर प्रत्ययवाद पर पहुंचा देती है ( देखें - ज्ञान के स्रोतों के बारे में एक वार्ता )।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

तर्कमूलक संज्ञान या अमूर्त चिंतन - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत तर्कमूलक संज्ञान या अमूर्त चिंतन पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



तर्कमूलक संज्ञान या अमूर्त चिंतन - २
( rational cognition or abstract thinking - 1 )

चिंतन-प्रक्रिया में संकल्पनाएं ( concepts ) आम तौर पर निर्णयों के अवयव ( elements of judgments ) होती हैं। निर्णय एक प्रकार का विचार ( thought ) है, जो इस बात को उचित या ग़लत ठहराता है कि कुछ लक्षण ( features ) एक निश्चित वस्तु या वस्तु-समूह के हैं, या जो वस्तुओं के बीच एक संबंध ( relation ) के होने या न होने का दावा करते हैं। मसलन, ऐसे विचार कि, ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’, ‘एशियाई, अफ़्रीकी और लैटिन अमरीकी देशों के पिछड़ेपन के लिए उपनिवेशवाद ( colonialism ) दोषी है’ और ‘समाजवाद ( socialism ) सामाजिक न्याय का समाज है’ निर्णय हैं। इनमें से पहला विचार मनुष्य और समाज के बीच संबंध, दूसरा उपनिवेशवाद तथा अनेक अल्पविकसित देशों के बीच तथा तीसरा समाजवाद और सामाजिक न्याय के बीच संबंध को निश्चित करता है।

एक निर्णय, प्रत्यक्ष प्रेक्षण ( observation ) से भी निरूपित किया जा सकता है और अन्य निर्णयों के आधार पर अप्रत्यक्ष रूप से भी। चिंतन के जिस रूप के द्वारा एक या कई अन्य निर्णयों से एक नया निर्णय निगमित ( deduced ) किया जाता है, उसे अनुमान ( inference ) या अनुमिति ( conclusion ) कहते हैं। जिन निर्णयों से अनुमान का निष्कर्षण ( drawn ) होता है, उन्हें आधारिका ( premises ) और नये निर्णय को निष्कर्ष ( conclusion ) या परिणाम ( consequence ) कहते हैं। अनुमान का एक उदाहरण ऐसे लिया जा सकता है : "पितृसत्तात्मक (  patriarchal ) समाजों में स्त्रियों की स्थिति दोयम दर्ज़े की होती है। भारत के अधिकतर हिस्सों में पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना अभी भी कायम है। फलतः, भारत के अधिकतर हिस्सों में अभी भी स्त्रियों की स्थिति दोयम दर्ज़े की है।" यहां पहले दो निर्णय इस प्रकार संबंधित हैं कि उनसे ऐसे नये निर्णय का अनुमान करना संभव हो जाता है, जिसमें एक नया प्रत्यय ( idea ) निहित हो।

जिन घटनाओं को प्रत्यक्षतः नहीं देखा जा सकता है, परंतु जो ज्ञात नियमों से संचालित ( governed ) हैं, उनके बारे में ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनुमानों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। अनुमान, विभिन्न प्रस्थापनाओं ( propositions ) की सत्यता अथवा तर्कदोष ( fallacy ) को प्रमाणित करने, स्थापित तथ्यों और नियमों को स्पष्ट करने और अन्वेषित नियमानुवर्तिताओं ( discovered uniformities ) के बल पर वैज्ञानिक भविष्यवाणियां करने में सहायक होते हैं।

संज्ञान की संवेदनात्मक ( sensory ) और बौद्धिक ( rational ) अवस्थाएं घनिष्ठता से अंतर्संबंधित ( interconnected ) हैं। वैज्ञानिक संज्ञान, वस्तु या घटना के अलग-अलग पक्षों तथा संबंधों के प्रत्यक्ष अवबोधन ( perception ) से शुरू होता है। फिर प्रयोग किये जाते हैं, जिनमें सामान्य (general ) को प्रकाश में लाने के लिए, इन पक्षों और संबंधों की तुलना तथा मिलान करने के लिए सामग्री प्राप्त होती है। इसके उपरांत अपकर्षण ( abstraction ) होता है, यानी वस्तुओं और घटनाओं के कुछ अनुगुणों ( properties ) और संबंधों से ध्यान हटाना तथा सामान्यीकरण, यानी महत्त्वपूर्ण निर्णायक अनुगुणों और संबंधों को प्रकट करना। इससे आगे वैज्ञानिक संज्ञान, वस्तुओं और प्रक्रियाओं के आंतरिक संबंधों, उनकी अंतर्क्रियाओं ( interactions ) तथा कायांतरणों ( transmutations ) और उनके विकास की निर्णायक नियमानुवर्तिताओं को उद्‍घाटित करता है।

हमारे ज्ञान के गहराने के साथ ही इन संयोजनों, संबंधों और स्वयं वस्तु का परावर्तन ( reflection ) भी संवेदनात्मक बिंब ( sensory image ) को गंवाने लगता है, लेकिन संज्ञान की प्रक्रिया जारी रहती है, क्योंकि वैज्ञानिक अपकर्षण उसको भी समझना संभव बना देता है, जिसका प्रत्यक्ष प्रेक्षण नहीं हो सकता है। यहां यह मुद्दा ध्यान में रखना चाहिये कि संवेदनात्मक संज्ञान की ही भांति चिंतन भी व्यवहार ( practice ) पर, व्यावहारिक मानवीय आवश्यकताओं पर आश्रित तथा उनसे संबंधित होता है और व्यवहार से हासिल जानकारी पर भरोसा करता है

मानव संज्ञान के विकास का नियम, आभास ( appearance ) ) से सार ( essence ) की ओर, बाह्य ( external ) से आंतरिक ( internal ) की ओर होनेवाली हरकत ( movement ) है। विज्ञान का सारा इतिहास इसका गवाह है। मसलन, पहले के कई अर्थशास्त्रियों ने पण्यों ( commodities ) के बाहरी अनुगुण देखे थे, यानी उनकी उपयोगिता ( उपयोग मूल्य ) तथा विनिमय क्षमता ( विनिमय मूल्य )। लेकिन पण्यों के अनुगुणों की इन बाह्य अभिव्यक्तियों में गहरे आंतरिक संबंध छुपे हुए हैं। वह मार्क्स थे, जिन्होंने इनका पता लगाया और सारे पण्यों के सर्वनिष्ठ ( common ) गुण को, यानी उनके उत्पादन के लिए आवश्यक सामाजिक श्रम ( social labour ) को उद्‍घाटित किया। पण्य का मूल्य, श्रम की सामाजिक प्रकृति को, लोगों के बीच सामाजिक संबंधों को व्यक्त करता है।

वैज्ञानिक सैद्धांतिक चिंतन की भारी अहमियत इस बात में है कि यह विश्व के संज्ञान में एक ऐसा सशक्त औज़ार है, जो मनुष्य को सत्य ( truth ) की समझ में समर्थ ( enable ) बनाता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

रविवार, 12 अप्रैल 2015

तर्कमूलक संज्ञान या अमूर्त चिंतन - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संवेदनात्मक संज्ञान या जीवंत अवबोधन पर चर्चा की थी, इस बार हम तर्कमूलक संज्ञान या अमूर्त चिंतन को समझने की कोशिश शुरू करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



तर्कमूलक संज्ञान या अमूर्त चिंतन - १
( rational cognition or abstract thinking - 1 )

वस्तुओं के सार्विक ( universal ), आवश्यक और सारभूत अनुगुण तथा संबंध, उनके नियमाधीन संपर्क ( law-governed connections ), संवेदनात्मक ज्ञान के लिए अलभ्य ( inaccessible ) होते हैं। इन्हें जानने-समझने का काम चिंतन ( thinking ) की सहायता से संज्ञान की बौद्धिक या तार्किक अवस्था में संपन्न होता है। मानव चिंतन उसे भी समझ लेने में सक्षम है, जो किसी क्षण-विशेष पर देखा नहीं जा सकता या जिसका प्रत्यक्ष प्रेक्षण ( direct observation ) हो ही नहीं सकता। मसलन हमारे संवेदी अंग ( sensory organs ) पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति की दशाओं की या प्रकाश की गति की रफ़्तार की प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं कर सकते, लेकिन ऐसी प्रक्रियाओं और घटनाओं का मानसिक बोध ( mental comprehension ) संभव हैं।

चिंतन, आंतरिक तथा सार्विक संबंधों को प्रकट करने, प्रकृति, समाज में और स्वयं संज्ञान में हो रहे परिवर्तनों व विकास के नियमों का पता लगाने, हमारे परिवेशीय जगत के गहनतम रहस्यों का अनावरण ( unravel ) करने में सहायता करता है। चिंतन, सामाजिक व्यवहार के ऐतिहासिक विकास का एक उत्पाद ( product ) है। यह वास्तविकता ( reality ) का सामान्यीकृत और अप्रत्यक्ष परावर्तन ( reflection ) है। चिंतन, वास्तविक जगत के साथ, संवेदनात्मक संज्ञान ( sensory cognition ) के द्वारा जुड़ा होता है और इसका सार ( essence ) संवेदी अंगों द्वारा प्राप्त सूचनाओं को संसाधित ( processing ) करने में निहित है।

वास्तविकता के सामान्यीकृत संज्ञान के रूप में चिंतन, वस्तुओं, घटनाओं और प्रक्रियाओं के सामान्य, सारभूत अनुगुणों ( general, essential properties ) को प्रकट करने की ओर निर्देशित होता है। भाषा के बग़ैर सामान्यीकरण असंभव होता : चिंतन और भाषा एक दूसरे के साथ घनिष्ठता से जुड़े हैं। वस्तुओं और घटनाओं में से सामान्य को प्रकाश में लाते हुए हम उसे भाषा में, शब्दों के रूप में व्यक्त करते हैं। भाषा की सामान्यीकरण करनेवाली भूमिका की ही वजह से एक मनुष्य अपने विचारों को प्रकट कर सकता है और अपनी बारी में अन्य लोगों के विचारों के बारे में पता लगा सकता है ; वह ज्ञान का समाहार ( summarise ) कर सकता है और उसे दूसरों को अंतरित ( pass on ) कर सकता है। ( चिंतन पर और विस्तार से `यहां' पढ़ा जा सकता है )

संवेदनात्मक संज्ञान की तरह चिंतन भी निश्चित रूप ( forms ) धारण करता है। ये रूप हैं : संकल्पनाएं ( concepts ), निर्णय ( judgments ) और अनुमान ( inference )। संकल्पना, चिंतन का एक ऐसा रूप है, जो वस्तुओं और घटनाओं के सामान्य और सारभूत लक्षणों ( features ) को परावर्तित करता है। इन सामान्य लक्षणों का साकल्य ( totality ), संकल्पना की अंतर्वस्तु ( content ) होता है। भाषा में संकल्पनाएं शब्दों या शब्द-समूहों में व्यक्त की जाती हैं, जैसे ‘भूतद्रव्य’ ( matter ), ‘अंगी’ ( organism ), ‘सामाजिक-आर्थिक विरचना’ ( socio-economic formation ), आदि। प्रत्येक विज्ञान की संकल्पनाओं की अपनी ही प्रणाली ( system ) होती है। ये संकल्पनाएं उसके द्वारा खोजे नियमों को व्यक्त करती हैं और उसके प्रांरभिक उसूलों ( principles ) को निरूपित करती है। मसलन, दर्शन की बुनियादी संकल्पनाओं में शामिल हैं भूतद्रव्य, चेतना, गति, कारणता ( causality ), आदि, और राजनीतिक अर्थशास्त्र में मूल्य ( value ), पण्य ( commodity ), आदि की बुनियादी ( basic ) संकल्पनाएं शामिल हैं।

वैज्ञानिक संकल्पनाएं वास्तविकता का सामान्यीकृत परावर्तन हैं। उनमें एक संपूर्ण ऐतिहासिक अवधि के दौरान विज्ञान तथा व्यवहार ( practice ) द्वारा प्राप्त ज्ञान व अनुभव संचित ( accumulated ) होता है। इसलिए प्रत्येक संकल्पना ज्ञान के विकास में एक प्रकार की संक्षिप्त विवरणिका ( summary ), वस्तुगत जगत के संज्ञान की एक अवस्था ( stage ), किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत की श्रृंखला ( chain ) में एक मुख्य कड़ी ( nodal link ) होती है। संकल्पनाओं की सहायता से कोई एक विज्ञान, जारी परिवर्तनों के कारणों का, उनकी प्रकृति और विशेषताओं का और उनके पीछे निहित नियमों का स्पष्टीकरण दे सकता है। इसलिए संकल्पनाओं का विराट संज्ञानात्मक मूल्य है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

संवेदनात्मक संज्ञान या जीवंत अवबोधन

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत प्रत्ययवाद की ज्ञानमीमांसीय जड़ों पर चर्चा की थी, इस बार हम संवेदनात्मक संज्ञान या जीवंत अवबोधन को समझने की कोशिश करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संवेदनात्मक संज्ञान या जीवंत अवबोधन
( sensory cognition or living perception )

संज्ञान ( cognition ) शुरू से लेकर आखिर तक एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया ( dialectical process ) है। वह प्रत्यक्ष जीवंत अवबोधन ( living perception ) से लेकर अमूर्त चिंतन ( abstract thought ) और फिर व्यवहार ( practice ) तक की गति है। सत्य के संज्ञान का, वस्तुगत वास्तविकता ( objective reality ) के संज्ञान का द्वंद्वात्मक पथ ऐसा ही है - जीवित अवबोधन से अमूर्त चिंतन तक और यहां से व्यवहार तक। फलतः संज्ञान के दो स्तर हैं : पहला, संवेदनात्मक संज्ञान या जीवंत अवबोधन और दूसरा, तर्कमूलक ( rational ) संज्ञान या अमूर्त चिंतन। संज्ञान का आधार व्यवहार ही होता है। इन दो में से प्रत्येक स्तर पर संज्ञान अपने ही ठोस रूप ( concrete forms ) ग्रहण करता है। संवेदनात्मक संज्ञान के तीन रूप हैं : संवेदन ( sensation ), अवबोधन ( perception ) और प्रतिनिधान ( representation )।

संवेदन और उनकी भूमिका पर हम पिछली बार काफ़ी चर्चा कर चुके हैं। हम भूतद्रव्य ( matter ) के या गति ( motion ) के रूपों के बारे में संवेदनों के सिवा और किसी के द्वारा कुछ नहीं जान सकते हैं, संवेदन हमारे संवेदी अंगों ( sense organs ) पर गतिमान भूतद्रव्य की क्रिया से उत्पन्न होते हैं। वे वस्तुगत वास्तविकता के आत्मगत बिंब ( subjective image ) होते हैं। ये आत्मगत बिंब वस्तुओं की वस्तुगत प्रकृति के अनुरूप ( corresponding ) होता है। संवेदन यथार्थता का सही परावर्तन ( reflection ) होते हैं और हमें बाह्य जगत की चीज़ों के बारे में सही प्रांरंभिक सूचना ( elementary information ) देते हैं।

अवबोधन या प्रत्यक्ष ( perception ), संवेदनात्मक संज्ञान का अधिक जटिल ( complex ) रूप है। ( अवबोधन या प्रत्यक्ष को और बेहतरी से समझने के लिए कुछ पोस्टें यहां   देखी जा सकती हैं। ) वे संवेदी अंगों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालनेवाली वस्तुओं को उनकी समग्रता ( entirety ) में परावर्तित करते हैं। नियमतः, हमारे संवेदन एक दूसरे से अलग-थलग ( isolated ) नहीं होते, बल्कि एक निश्चित सम्मेल ( combination ) की रचना करते हैं। कोई भी वस्तु अपने उन विभिन्न अनुगुणों ( properties ) से, जो स्वयं वस्तु के अंदर घनिष्ठ एकता ( close unity ) की स्थिति में होते हैं, भिन्न-भिन्न संवेदी अंगों पर क्रिया करती है। जब ये सारे संवेदन उस वस्तु के एक ही बिंब में घुल-मिल जाते हैं, तो वस्तु का प्रत्यक्ष या अवबोधन होने लगता है।

संवेदनों के विपरीत, जो बाह्य वस्तुओं के अलग-अलग गुणधर्मों को परावर्तित करते हैं, प्रत्यक्ष या अवबोधन ( perception ) वस्तु को समग्रतः और उसके गुणधर्मों की एकता के रूप में चेतना ( consciousness ) में परावर्तित करता है, और एक समेकित बिंब ( integrated image ) प्रस्तुत करता है। निस्संदेह यह समेकित बिंब, विविध संवेदनों के रूप में प्राप्त वस्तुओं की विशेषताओं और गुणधर्मों के हमारे ज्ञान के सामान्यीकरण से पैदा होता है। प्रत्यक्ष/अवबोधन की वस्तुपरकता ( objectivity ), वास्तविकता की क्रिया में, यानी बाह्य जगत से प्राप्त जानकारी को इस बाह्य जगत से संबद्ध ( relate ) करने में व्यक्त होती है। प्रत्यक्ष/अवबोधन की बाह्य वस्तुओं से संबद्धता, सहज गुण नहीं है। मनुष्य क्रियाओं की एक निश्चित पद्धति (method ) के ज़रिये, जिसमें स्पर्श और गति मुख्य भूमिका अदा करते हैं, विश्व के वस्तुपरक रूप का अवबोधन करता है।

मनुष्य अपनी स्मृति ( विस्तार के लिए ‘यहां’ देखें ) में पूर्ववर्ती अवबोधनों/प्रत्यक्षों को सुरक्षित रख सकता है और वस्तुओं की अनुपस्थिति में भी उनके बिंबों को पुनर्प्रस्तुत ( reproduce ) कर सकता है। किसी वस्तु के ऐसे पुनर्प्रस्तुत बिंब को, जो उस क्षण-विशेष पर संवेदी अंगों पर क्रिया नहीं करता, प्रतिनिधान ( representation ) कहते हैं

प्रतिनिधान सामान्यीकरण ( generalisation ) को संभव बनाते हैं, क्योंकि स्मृति ( memory ) में धारण किये हुए वस्तुओं के बिंब, मनुष्य को तुलनाएं ( comparisons ) करने, साम्य ( equality ) दर्शाने और ऐसा अपकर्षण/अमूर्तकरण ( abstraction ) करने में समर्थ बनाते हैं, जिससे वस्तुओं की लाक्षणिक विशेषताएं प्रकाश में आती हैं। इस प्रकार, जहां प्रत्यक्ष/अवबोधन वस्तुओं को उनके सारे ठोस अनुगुणों व विवरणों में परावर्तित करते हैं, वहां प्रतिनिधान उनके सर्वनिष्ठ, सामान्य लक्षणों को प्रकट करते हैं, इससे उन वस्तुओं के सार ( essence ) को समझने में मदद मिलती है। जब हमारे पास किसी वस्तु का प्रतिनिधान होता है, तो हम उसके सार और विशेषताओं को शीघ्र समझ लेते हैं।

संवेदन, अवबोधन और प्रतिनिधान, यानी संवेदनात्मक संज्ञान के रूप, वास्तविकता के बिंब हैं। वस्तुगत रूप से अस्तित्वमान वस्तुओं के साथ बिंबों की तदनुरूपता ( correspondence ) व्यवहार में परखी जाती है। लेकिन मनुष्य संवेदनात्मक संज्ञान की अवस्था तक ही नहीं रुकता। वह इससे आगे, वस्तुओं के सार्विक ( universal ), आवश्यक ( necessary ) और सारभूत अनुगुणों तथा संबंधों को, उनके नियमाधीन संपर्कों ( law-governed connections ) को जो कि संवेदनात्मक अवबोधन के लिए अलभ्य ( inaccessible ) होते हैं, अच्छी तरह जानने के लिए आगे बढ़ता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम
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