शनिवार, 1 अगस्त 2015

प्रयोग और प्रेक्षण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत वैज्ञानिक संज्ञान के रूपों सिद्धांत और प्राक्कल्पना पर चर्चा की थी, इस बार वैज्ञानिक संज्ञान के अन्य रूपों प्रयोग और प्रेक्षण की महत्ता को समझने की कोशिश करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



वैज्ञानिक संज्ञान के रूप
प्रयोग और प्रेक्षण
( experiment and observation )

जब एक खगोलविद ( astronomer ) अपनी रेडियोदूरबीन ( radio telescope ) से अंतरिक्ष की रहस्यमय गहराइयों से आनेवाली रेडियो तरंगों या एक्स-किरणों को ग्रहण करता है, तो वह एक ऐसे तारे या तारा-पुंज की खोज कर सकता है, जो सामान्य प्रकाशिक दूरबीन ( optical telescope ) के लिए अदृश्य ( invisible ) हैं। एक जैविकीविद ( biologist ) प्रयोगशाला या प्राकृतिक दशाओं में जानवरों का प्रेक्षण करके उनके व्यवहार की किसी ऐसी नियमितताओं की खोज कर सकता है, जो पहले अज्ञात थीं। प्रेक्षण ( observation ) दृश्य, श्रव्य तथा अन्य संवेदनों के द्वारा संवेदनात्मक अनुभव हासिल करने की प्रक्रिया पर आधारित होता है

हम सामान्य जीवन में काम पर या वैज्ञानिक अनुसंधान ( research ) के समय जो सूचनाएं प्राप्त करते हैं, उनमें से बहुत सारी प्रेक्षणों पर आधारित होती हैं। लेकिन वैज्ञानिक प्रेक्षण दैनंदिन प्रेक्षणों से गुणात्मकतः ( qualitatively ) भिन्न होते हैं। मसलन, ऐसे प्रेक्षण निम्नांकित तरीक़ों से किये जाते हैं : (१) विशेष उपकरणों, औज़ारों व यंत्रों के ज़रिये ; (२) विशेष कार्यक्रम या योजनानुसार, नियमतः पहले से चयनित वस्तुओं पर किये जाते हैं ; (३) वे सख़्ती से परिभाषित लक्ष्य ( aim ) के मुताबिक़ होते हैं, यानी असंबंधित तथ्यों ( facts ) को मात्र जमा करके नहीं, बल्कि ऐसे तथ्यों के संकलन से जिनसे नयी प्राक्कल्पना प्रस्तुत करना या पूर्व प्रस्तुत प्राक्कल्पनाओं की परीक्षा करना संभव हो सके ; (४) प्रेक्षण, नियमतः ऐसी वस्तुओं व घटनाओं का किया जाता है, जो दैनिक जीवन में नहीं पायी जातीं ; और अंतिम (५) प्रेक्षण ऊंची सटीकता ( high accuracy ), सूक्ष्मता ( precision ) और विश्वसनीयता ( reliability ), आदि की आवश्यकताओं के अनुरूप होने चाहिए। परंतु इस सबके बावजूद, सबसे जटिल तथा सटीक वैज्ञानिक प्रेक्षण भी हमें घटना की गहराई तथा सार ( essence ) तक पहुंचने में सक्षम नहीं बना सकते। क्यों ?

कोई भी प्रेक्षण, चाहे वह सबसे सही उपकरणों से क्यों न किया गया हो, अध्ययनाधीन वस्तु या घटना को बदले या रूपांतरित ( transform ) किये बिना उसे उसकी प्राकृतिक अवस्था ( natural state ) में ही रहने देता है। परंतु किसी भी वस्तु के गहन आंतरिक संयोजनों ( deep inter connections ) को जानने के लिए उसे रूपांतरित करना, उसमें फेर-बदल करना और यह पता लगाना आवश्यक है कि रूपांतरण की प्रक्रिया के दौरान उसका व्यवहार कैसा होता है। इसके लिए उस वस्तु को उसकी आम कड़ियों तथा दशाओं से पृथक करना, उसे दूसरी दशाओं में रखना तथा उसके क्रियाकलाप की व्यवस्था को बदलना होता है ; उसे उसके विभिन्न भागों में विभाजित करना, अन्य वस्तुओं के साथ टकराना तथा अनपेक्षित परिस्थितियों ( unexpected circumstances ) में काम तथा संक्रिया ( operation ) करने के लिए बाध्य करना होता है। यही वैज्ञानिक प्रयोग ( scientific experiment ) की या प्रायोगिक अनुसंधान की विषयवस्तु भी है। फलतः प्रयोग, व्यवहार ( practice ) का एक विशेष वैज्ञानिक रूप ( form ) है। प्रयोग के दौरान किये जानेवाले प्रेक्षण निष्क्रिय ( passive ) नहीं, बल्कि ‘जीवंत चिंतन-मनन’ ( living contemplation ) के रूप में सक्रिय ( active ) होते हैं। चूंकि प्रयोग स्थापित नियमों और पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों यानी एक प्राक्कल्पना ( hypothesis ) की पुष्टि या खंड़न करने और नये नियमों व सिद्धांतों को निरूपित करने के लक्ष्यों के पूर्णतः अनुरूप होता है, इसलिए यह वैज्ञानिक संज्ञान और ज्ञान का एक सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है।

प्रयोगों को कई रूपों में विभाजित करने का रिवाज है : (१) अन्वेषणात्मक ( exploratory ), इसका मक़सद नयी घटनाओं, नये अनुगुणों या घटनाओं के बीच पहले से अज्ञात संपर्कों का पता लगाना है ; (२) परीक्षणात्मक ( testing or checking ), इसका लक्ष्य प्राक्कल्पना की पुष्टि या खंडन करना और उसकी सटीकता का अनुमान लगाना है ; (३) रचनात्मक ( constructive ), जिसके दौरान ऐसे नये पदार्थों, नयी संरचनाओं या नयी सामग्री की रचना की जाती है जो पहले प्रकृति में विद्यमान नहीं थी ; और (४) नियंत्रणात्मक ( control ), जिसका लक्ष्य माप उपकरणों, यंत्रों और औज़ारों की जांच तथा समंजन ( adjustment ) करना है।

प्रायोगिक क्रियाकलाप के ये सभी रूप अक्सर एक ही प्रयोग में अंतर्गुथित ( interwoven ) होते हैं। मसलन, शुक्र ग्रह तक एक अंतरिक्ष प्रयोगशाला के प्रक्षेपण से सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत की कई प्रस्थापनाओं की सटीकता की पुष्टि करना ( परीक्षणात्मक प्रयोग ), ग्रह के वायुमंडल में तथा सतह पर नयी घटनाओं की खोज करना संभव हुआ ( अन्वेषणात्मक प्रयोग ) और उस सिलसिले में नितांत नये यंत्रों तथा उपस्करों का निर्माण किया गया ( रचनात्मक प्रयोग ) और संक्रियाशील उपकरणों की विश्वसनीयता का परीक्षण किया गया ( नियंत्रणात्मक प्रयोग )।

आधुनिक विज्ञान का एक विशिष्ट लक्षण यह है कि अब संज्ञान ( cognition ) की एक सामान्य वैज्ञानिक विधि के रूप में प्रयोगों का न केवल प्राकृतिक विज्ञानों तथा इंजीनियरी में, बल्कि सामाजिक जीवन में भी व्यापक अनुप्रयोग ( application ) होता है। वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति की दशाओं में संज्ञान तथा वास्तविकता ( reality ) को रूपांतरित करने की प्रायोगिक विधियां उद्योग, कृषि, प्रबंध और प्रशासन के सारे क्षेत्रों में आम ( common ) हो गयी हैं। इसमें हम सामाजिक व्यवहार पर विज्ञान के प्रभाव के एक सर्वाधिक शक्तिशाली कार्यतंत्र ( mechanism ) को देखते हैं। यही इसका स्पष्टीकरण है कि प्रत्येक सचेत व्यक्ति को संज्ञान तथा व्यावहारिक क्रियाकलाप में प्रयोग की भूमिका ( role ) को समझने की जरूरत क्यों हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

1 टिप्पणियां:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, एक के बदले दो - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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