शनिवार, 26 सितंबर 2015

संज्ञान की तार्किक और ऐतिहासिक विधियां

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की विश्लेषण और संश्लेषण की पद्धतियों पर चर्चा की थी, इस बार हम संज्ञान की तार्किक और ऐतिहासिक विधियों को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संज्ञान की तार्किक और ऐतिहासिक विधियां
( Logical and Historical methods of cognition )

प्रकृति तथा समाज में कोई प्रणाली कितनी ही जटिल क्यों न हो, उसे दो दृष्टिकोणों से जांचा जा सकता है। पहले उपागम ( approach ) में ज्ञान को प्रदत्त व निरूपित तथा कुछ हद तक पूर्ण माना जाता है। दूसरे में वस्तु के विकास तथा रचना की प्रक्रिया के अध्ययन पर जोर दिया जाता है। पहले उपागम से अध्ययनाधीन वस्तु की कार्यात्मकता ( functioning ) या जीवन क्रिया के नियमों को प्रकाश में लाना संभव हो जाता है, दूसरे में उसके विकास, रचना, उत्पत्ति और परिवर्तन के वस्तुगत ( objective ) नियमों को खोजा तथा उनका अध्ययन किया जाता है।

पहले उपागम में हम संज्ञान की जिस विधि का उपयोग करते हैं, वह तार्किक विधि ( logical method ) कहलाती है। इसमें बुनियादी, सबसे महत्वपूर्ण सारभूत विशेषताओं, अनुगुणों और लक्षणों को प्रकाश में लाया जाता है और इन अनुगुणों व विशेषताओं को परावर्तित करनेवाली आरंभिक संकल्पनाओं ( concepts ) से उन अधिक जटिल मूर्त संकल्पनाओं में निरंतर संक्रमण किया जाता है, जो हमें अध्ययनाधीन घटनाओं तथा प्रक्रियाओं के बारे में अधिक पूर्ण व सर्वांगीण ज्ञान प्रदान करती हैं। इस विधि के उपयोग से एक वस्तु के संज्ञान की प्रक्रिया में, उसकी सारभूत विशेषताओं के साथ यथातथ्य जानने में मदद मिलती है।

दूसरे उपागम में हम ऐतिहासिक विकास की वास्तविक प्रक्रिया को क़दम-ब-क़दम पुनःप्रस्तुत करते हैं जो हमेशा सहज व सीधी प्रक्रिया नहीं होती है। संज्ञान की ऐतिहासिक विधि ( historical method ) में अध्ययनाधीन प्रक्रियाओं या घटनाओं की रचना, विकास तथा उनके रूपायित ( shaping ) होने की, सारी अवस्थाओं की अनुक्रमिक, सतत जांच तथा वर्णन किया जाता है। इसमें विकास की जटिल वास्तविक प्रक्रिया के सारे सर्पिलों ( spiral ) का, उसके सभी टेढ़े-मेढ़े रास्तों व पश्चगमनों ( retreats ) सहित, अध्ययन किया जाता है। इसलिए ऐतिहासिक विधि बहुत श्रम-साध्य होती है और भारी शक्ति तथा समय की मांग करती है। साथ ही यह उन कई प्रश्नों का उत्तर देने में मदद देती है, जिनका सर्वांगीण उत्तर तार्किक विधि से नहीं मिल सकता है। इन प्रश्नों में अध्ययनाधीन वस्तुओं ( विषयों ) के क्रम तथा ऐतिहासिक विकास की दिशा से संबंधित प्रश्न भी शामिल हैं। अतः तार्किक व ऐतिहासिक विधियां एक दूसरे का विरोध नहीं करतीं, बल्कि एक दूसरे की संपूरक ( supplement ) हैं।

मिसाल के लिए, जब एक डॉक्टर रोगलक्षणों का अध्ययन करता है, तो वह सबसे महत्वपूर्ण चिह्नों को पृथक कर लेता है : तापमान में परिवर्तन, रुधिर की अवस्था में परिवर्तन, कुछ सूक्ष्म जीवाणुओं की उपस्थिति, अलग-अलग अंगों में परिवर्तन। अंत में वह प्राप्त तथ्यों को तार्किक ढंग से जोड़ते तथा मिलाते हुए एक निदान ( diagnosis ) पर पहुंचता है, यानी वह रोगी के स्वास्थ्य तथा बीमारी की स्थिति के बारे में नितांत ठोस ज्ञान प्राप्त करता है। किंतु कारगर उपचार ( effective treatment ) के लिए यह निदान काफ़ी नहीं होता।  डॉक्टर को बीमारी के इतिहास, लक्षणों के प्रकट होने के क्रम, बीमारी के अलग-अलग प्रकटीकरणों के विकास, अंगों की विविध विशेषताओं में परिवर्तनों और रोगी की अनुभूतियों, आदि के बारे में भी जानना होता है। इस ऐतिहासिक सूचना से अपने पूर्व अर्जित ज्ञान को संपूरित करके ही डॉक्टर अंततःअपने निदान को अधिक सटीक बनाता है और रोग के कारगर इलाज के लिए हिदायतें देता है। इससे भी अधिक, स्वयं रोग का उपचार यह मांग करता है कि उसके विकास, गतिकी तथा परिवर्तनों में सुधार प्रक्रिया की लगाता जांच करते रही जाये।

संज्ञान की तार्किक और ऐतिहासिक विधियां विभिन्न सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में भी एक दूसरे को द्वंद्वात्मक ( dialectical ) ढंग से संपूरित करती हैं। उदाहरण के लिए, जब हम किसी देश की समसामयिक अर्थव्यवस्था का अध्ययन करते हैं, तो हमें सबसे पहले उसकी संरचना को उद्घाटित करने, उसके मुख्य उत्पादन संबंधों का विश्लेषण करने, अर्थव्यवस्था के मुख्य घटकों ( उद्योग, कृषि, व्यापार, सेवाक्षेत्र, वित्त, कर प्रणाली, अदि ) की जांच करने का प्रयत्न करते हैं ; अर्थव्यवस्था के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों तथा तकनीकों की छानबीन करते हैं। यह अनुसंधान तार्किक उपागम के संदर्भ में किया जाता है, जिससे आर्थिक प्रणाली के प्रमुख केंद्रों और उनके संपर्कों, अंतर्क्रिया, पारस्परिक प्रभाव, आदि को विभेदित करना संभव हो जाता है।

किसी प्रदत्त देश में अमुक-अमुक स्थिति कैसे बनी, उसके विकास की प्रवृत्तियां और परिप्रेक्ष्य क्या है, कुछ सूचकांकों में अन्य देशों से क्यों भिन्न है - इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए ऐतिहासिक उपागम को अपनाना और अर्थव्यवस्था के सारे घटकों को उनके उत्थान ( rise ), स्थापना ( establishment ), निकट तथा दूर भविष्य में उनके अलग-अलग तत्वों के दुर्बलीकरण या दृढ़ीकरण की सविस्तार जांच करना आवश्यक है।

तार्किक और ऐतिहासिक विधियां घनिष्ठता से संयोजित तथा एक दूसरे की संपूरक हैं। किसी एक आर्थिक प्रणाली के मुख्य घटकों तथा संयोजनों को अलग छांटकर तार्किक विधि यह दर्शाती है कि इस प्रणाली के ठीक किस क्रियातंत्र का विश्लेषण किया जाये, आज की आर्थिक स्थिति को समझने के लिए ऐतिहासिक अनुसंधान के लिए कौन से क्रियातंत्र सबसे महत्वपूर्ण है। परंतु ऐतिहासिक विधि इस आर्थिक प्रणाली के उत्थान के क्रम तथा कार्य-कारण संबंधों और पूर्ववर्ती अवस्थाओं से मौजूदा अवस्था में उसके संक्रमण ( transition ) की जांच करके हमें तार्किक विश्लेषण द्वारा उद्घाटित नियमितता को अधिक अच्छी तरह से समझने और इस आर्थिक स्थिति के विशिष्ट लक्षणों तथा विशेषताओं का स्पष्टीकरण देने में मदद करती है।

इस तरह, तार्किक और ऐतिहासिक विधियों के बीच एक गहन आंतरिक संपर्क होता है। तार्किक विधि उन महत्वपूर्ण घटकों को सामने लाती है, जो ऐतिहासिक अध्ययन के विषय हैं और ऐतिहासिक विधि, तार्किक विधि के परिणामों को ठोस, परिष्कृत बनाने तथा संपूरित करने में मदद देती हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 19 सितंबर 2015

विश्लेषण और संश्लेषण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की साम्यानुमान पद्धति पर चर्चा की थी, इस बार हम विश्लेषण और संश्लेषण की पद्धतियों को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



विश्लेषण और संश्लेषण
( Analysis and Synthesis )

जब वैज्ञानिकगण किसी नयी वस्तु का अध्ययन शुरू करते हैं, तो उन्हें उसके बारे में नियमतः अत्यंत सामान्य अमूर्त ( abstract ) ज्ञान होता है, जो उस वस्तु के अलग-अलग अनुगुणों ( properties ) और लक्षणों ( characteristics ) को परावर्तित करता है। यह ज्ञान अध्ययन की हुई घटना या प्रक्रिया को व्यावहारिक कार्यों में लागू करने के लिए तो दूर की बात, उसकी गहरी समझ के लिए भी पर्याप्त नहीं होता।

उनके बारे में सारी की सारी अपेक्षित जानकारी हासिल करने और उन्हें संनियमित ( govern ) करने वाले नियमों को खोजने के लिए प्रदत्त वस्तु को एक विशेष प्रणाली ( system ) के रूप में प्रस्तुत करना जरूरी है। इसके बाद इस प्रणाली को विखंडित करके उसके पृथक-पृथक तत्वों तक के विविध स्तरों की उपप्रणालियों में विस्तारित किया जाता है। एक प्रणाली को उसकी उपप्रणालियों तथा तत्वों में विखंडित करना और उन उपप्रणालियों व तत्वों का क़दम ब क़दम अध्ययन करना विश्लेषण ( analysis ) कहलाता है। दूसरे शब्दों में, विश्लेषण साकल्य ( whole ) का सरलतर घटक अंगों, पक्षों और अनुगुणों में मानसिक विखंडन है, उनका सोद्देश्य और सुव्यवस्थित अध्ययन है। इसके दौरान अध्ययनाधीन वस्तु के अलग-अलग अनुगुनों व लक्षणों, अंशों और तत्वों के बारे में सूचनाएं संचित की जाती है। विषय-वस्तु का उसके घटक अंगों में मानसिक विंखंडन और उनकी जांच अनुसंधानकर्ता को उनकी संपूर्ण विविधता से सर्वाधिक मौलिक, सारभूत और आंतरिक विशेषताओं को छांटने में, उन्हें गौण, सांयोगिक तथा बाह्य विशेषताओं से पृथक करने में समर्थ बना देता है। ऐसी मानसिक संक्रियाओं से उस मूलतः सामान्य विशेषता को प्रकट करना संभव हो जाता है, जो संपूर्ण विविध तत्वों को प्रदत्त वस्तु की गुणात्मक विशेषता ( qualitative determinacy ) में एकीभूत करता है।

परंतु संज्ञानात्मक प्रक्रिया ( cognitive process ) विश्लेषण पर ही समाप्त नहीं हो जाती, क्योंकि इसके दौरान एक प्रकार के साकल्य के रूप में वस्तु की मूल प्रारंभिक संकल्पना ( concept ) वस्तुतः लुप्त हो जाती है। वस्तु के बारे में नया और इस बार नितांत ठोस व समृद्ध ज्ञान प्राप्त करने के लिए संज्ञान की एक नयी अवस्था को अमल में लाना आवश्यक होता है। इस अवस्था को संश्लेषण कहते हैं। संश्लेषण ( synthesis ) विश्लेषण का तार्किक अनुक्रम ( continuation ) है, उसका दूसरा पक्ष है जो विविधता की एकता के रूप में मूर्त ( concrete ) का पुनरुत्पादन करता है। इसमें विश्लेशण के दौरान प्राप्त सारे ज्ञान को कुछ नियमों के अनुसार ऐसे समेकित व परस्पर संयोजित किया जाता है कि वे अध्ययनाधीन वस्तु की उपप्रणालियों तथा तत्वों के अनुगुणों, लक्षणों, संबंधों तथा उनके बीच संयोजनों को सर्वाधिक सटीकता ( exactly ) तथा पूर्णता से परावर्तित करते हैं। दूसरे शब्दों में, संश्लेषण विश्लेषित के अंगों, पक्षों तथा तत्वों के संपर्कों और संबंधों का मानसिक संयोजन तथा पुनरुत्पत्ति है, और साकल्य की एकता में उसका बोध ( comprehension ) है। जब ज्ञान का समेकन या संश्लेषण पूरा हो जाता है, तब हमें वस्तु की एक अखंडित संकल्पना तथा एकीकृत ज्ञान फिर से हासिल होता है।

किंतु, मूल प्रारंभिक ज्ञान के विपरीत यह अपकर्षित या अमूर्त नहीं, बल्कि मूर्त होता है और सूचनाओं का एक ऐसा परिमाण उपलब्ध कराता है, जिससे अध्ययन की गयी वस्तुओं को बदलना, रूपांतरित ( transform ) करना और उन्हें नियोजित ( planned ) उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए व्यावहारिक क्रियाकलाप में इस्तेमाल करना संभव हो जाता है। मूर्त की और अग्रसरण ( advancing ), विचाराधीन वस्तु के संपर्कों और संबंधों की विविधता व पूर्णता में उसकी मानसिक पुनरुत्पत्ति, एक पेचीदा विश्लेषण-संश्लेषणात्मक प्रक्रिया है। विश्लेषण से संश्लेशण में संक्रमण की प्रक्रिया को अनेक बार दोहराया जा सकता है। इस कार्यविधि की प्रत्येक नयी पुनरावृत्ति से मानो ज्ञान का एक नया सर्पिल ( spiral ) प्राप्त होता जाता है। संज्ञान की विधियां दोहरायी जाती हैं, किंतु संज्ञान के द्वंद्वात्मक सर्पिल के एक नये, उच्चतर स्तर पर।

संज्ञान की वैज्ञानिक पद्धतियों के रूप में विश्लेषण और संश्लेषण को पृथक नहीं किया जा सकता है। साकल्य को समझने के लिए विश्लेषण की मदद से उसके घटकों का अध्ययन करना जरूरी है, दूसरी तरफ़, घटकों की भूमिका और कार्य को संश्लेषण के द्वारा साकल्य के संज्ञान से ही समझा जा सकता है। विश्लेषण अनुसंधानकर्ता को संवेदनात्मक-मूर्त से अमूर्त की ओर, और संश्लेषण अमूर्त से मानसिक रूप से मूर्त की तरफ़ बढ़ने में मदद करता है। विश्लेषण और संश्लेषण का उपयोग वैज्ञानिक अनुसंधान तक ही सीमित नहीं है, उन्हें सभी सैद्धांतिक या व्यावहारिक समस्याओं के समाधान में इस्तेमाल किया जाता है।

अध्ययन-सामग्री का विश्लेषण-संश्लेषणात्मक प्रसंस्करण ( processing ) उसके रचनात्मक स्वांगीकरण ( assimilation ) की एक शर्त है। ऐसी सामग्री का विश्लेषण, बोध तथा व्यवस्थापन द्वंद्वात्मक चिंतन को विकसित करता है, जबकि उसे यांत्रिक ढंग से याद करना व्यर्थ होता है : एक सीमा तक उससे किसी व्यक्ति की याददाश्त बेहतर हो सकती है, लेकिन फिर यह बेकार का बोझ ही सिद्ध होता है। सच्चे वैज्ञानिक ज्ञान का तक़ाज़ा है कि विश्लेषण और संश्लेषण को उनकी एकता में इस्तेमाल किया जाये। यदि कोई व्यक्ति अपने को विश्लेषण ही तक सीमित रखता है, तो वह पूर्ण, मूर्त ज्ञान हासिल नहीं कर सकता या विचाराधीन वस्तु, प्रक्रिया अथवा घटना के सार को नहीं समझ सकता। यदि कोई व्यक्ति अपने को केवल सतही संश्लेषण तक ही सीमित रखता है, तो वह संज्ञान को अनिश्चित और बहुधा व्यर्थ प्रयास में परिणत कर देगा।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 12 सितंबर 2015

साम्यानुमान पद्धति

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की पद्धतियों निगमन और आगमन के एकत्व पर चर्चा की थी, इस बार हम संज्ञान की एक और पद्धति साम्यानुमान को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



साम्यानुमान पद्धति
( Analogy method )

संज्ञान में वैज्ञानिक अपाकर्षणों ( abstractions ) की भूमिका असाधारण महत्व की होती है। लेकिन संज्ञानात्मक प्रक्रिया अपाकर्षणों की विरचना ( formulation ) पर समाप्त नहीं होती, क्योंकि वे अध्ययनाधीन विषय के संपूर्ण सार ( essence ) को प्रकट नहीं कर सकते। अपाकृष्ट चिंतन ( abstract thought ) अपूर्ण, सामान्य और अद्वंद्वात्मक होता है, जबकि द्वंद्वात्मक चिंतन ( dialectical thought ) गहन रूप से वैज्ञानिक, स्पष्ट, सुसंगत, निश्चायक, यानी मूर्त ( concrete ) होता है। आगमन और निगमन के साथ ही विचार को मूर्त बनाने का एक और प्रमुख उपकरण है साम्यानुमान ( analogy )। इसका विशिष्ट लक्षण है एक विशेष ( particular ) से दूसरे विशेष की ओर विचार की गति। साम्यानुमान आगमन और निगमन के बीच एक प्रकार की मध्यवर्ती, संक्रामी ( transitional ) स्थिति में होता है।

साम्यानुमान एक प्रकार का अनुमानित ( inferred ) ज्ञान होता है, जिसमें वस्तुओं के बीच कुछ मामलों की समानताओं को अन्य मामलों मे उनकी समानता पर निष्कर्ष निकालने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसका यह मतलब है कि साम्यानुमान से पहले अध्ययनाधीन वस्तु के संबंध में प्रारंभिक संक्रियाओं ( operations ) का एक सेट पूरा हो चुकना चाहिये। ये संक्रियाएं हैं, पहली, वस्तु के अलग-अलग पक्षों, अनुगुणों, संपर्कों व संबंधों के बारे में अनुभवात्मक ज्ञान का स्वांगीकरण ( assimilation ) और उनका व्यवस्थापन; दूसरी, एक उपयुक्त तुल्यरूप ( analogue ) का ( समरूपता दर्शाने के लिए एक नमूने model का ) चुनाव, जिसके अनुगुणों का सर्वांगीण अध्ययन किया गया है तथा जिसके साथ साम्यानुमान लगाया जायेगा; और तीसरी, तुलनाधीन वस्तुओं के समान लक्षणों तथा नमूने में विद्यमान उस लक्षण के बीच आवश्यक व मौलिक संबंध का निर्धारण करना, जिसे अध्ययनाधीन वस्तु को अंतरित ( transferred ) करना है।

अनुसंधान की प्रारंभिक और सरलतम कार्य-विधि, विभिन्न वस्तुओं या घटनाओं की समान विशेषताओं को सही-सही निर्दिष्ट करना है। यहां महत्वपूर्ण यह है कि पहला, जितनी अधिक समान विशेषताएं संभव हों, उन सबको निर्धारित करना और, दूसरा, इन वस्तुओं या घटनाओं की मूलभूत, अंतर्निहित विशेषताओं में समानता पर जोर देना और गौण तथा सांयोगिक विशेषताओं को पृथक करना। अध्ययनाधीन वस्तुओं, घटनाओं या प्रक्रियाओं की समानताओं तथा भेदों को जितनी ज़्यादा पूर्णता से विश्लेषित किया जाता है, साम्यानुमान के निष्कर्ष उतने ही सही, उतने ही अधिक प्रसंभाव्य ( probable ) होते हैं

अन्य अनुगुणों या पक्षों की समानताओं के आधार पर वस्तुओं या घटनाओं के कुछ अनुगुणों या पक्षों की समानता पर निकाला गया कोई भी निष्कर्ष हमेशा प्रसंभाव्य होता है। साम्यानुमान से निकाले गये निष्कर्षों की प्रसंभाव्यता को बढ़ाने की एक अत्यंत महत्वपूर्ण शर्त यह है कि समानुरूप वस्तुओं या घटनाओं का व्यापक, सर्वांगीण और गहन अध्ययन किया जाये। अध्ययनाधीन वस्तुओं का हमारा ज्ञान जितना पूर्णतर होगा, उनकी संख्या का महत्व उतना ही कम होगा। जहां वस्तुओं का अच्छा अन्वेषण न हुआ हो, उनका सार प्रकाश में न लाया गया हो और उनके भेदों को ध्यान में न रखा गया हो, वहां साम्यानुमान से निकाले गये निष्कर्षों की अच्छी प्रसंभाव्यता का कोई आधार नहीं होता।

साथ ही, यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि तुलनाधीन वस्तुएं पूर्णतः समान नहीं भी हो सकती हैं। साम्यानुमान निश्चित विशेषताओं के अनुसार केवल कुछ ही मामलों में उनकी अनुरूपता ( correspondence ) को प्रमाणित करता है। प्रत्येक तुलना अपूर्ण होती है, प्रत्येक तुलना में तुलनाधीन वस्तुओं या धारणाओं के एक या कुछ पक्षों के संदर्भ में समरूपता दिखलायी जाती है, जबकि अन्य पक्षों को अस्थायी रूप से तथा शर्त के साथ अपाकर्षित ( abstracted ) किया जाता है। चूंकि साम्यानुमान के निष्कर्ष केवल प्रसंभाव्य होते है, इसलिए यह तार्किक प्रमाण के औज़ार का काम नहीं कर सकता है। पर इसके बावजूद यह संज्ञान की एक सबसे अधिक प्रयुक्त पद्धति है।

साम्यानुमान को लागू करने के नियमों की तथा उसका कुशलता से इस्तेमाल करने की जानकारी व्यावहारिक काम में बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। समानुरूपी प्रक्रियाओं, घटनाओं तथा जीवन की स्थितियों के विश्लेषण से विभिन्न समस्याओं के लिए इष्टतम ( optimal ) समाधान खोजना और यह फ़ैसला करना संभव हो जाता है कि ठोस स्थितियों में कैसा व्यवहार किया जाये। मिलते-जुलते संसूचकों ( indicators ) के एक सेट के आधार पर एक प्रक्रिया या घटना के विकास की दिशा का अनुमान लगाया जा सकता है और उसके अवांछित परिणामों से बचने तथा उसके सकारात्मक तत्वों को सुदृढ़ बनाने के लिए, उस पर प्रभाव डालने के तरीक़े व साधनों का निर्धारण किया जा सकता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

रविवार, 6 सितंबर 2015

निगमन और आगमन का एकत्व

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की गमनात्मक पद्धति पर चर्चा की थी, इस बार हम निगमन और आगमन के एकत्व को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



निगमन और आगमन का एकत्व
( unity of deduction and induction )

बाहर से देखने पर निगमनात्मक तथा आगमनात्मक विधियां विपरीत दिशाओं में हैं, किंतु अंदर से वे वैज्ञानिक ज्ञान की सारी प्रणाली के द्रुत विकास को बढ़ावा देनेवाले एक गहन द्वंद्वात्मक एकत्व ( dialectical unity ) की रचना करती हैं। इसके साथ ही आगमनात्मक पद्धति की सीमाओं को, उनके परिणामस्वरूप प्राप्त ज्ञान की समस्यामूलक प्रकृति को भी ध्यान में रखना चाहिये। आगमन विधि की ख़ामी यह है कि यह अध्ययनाधीन वस्तु के विकास की प्रक्रिया को ध्यान में नहीं रख सकती है, जबकि निगमन विचाराधीन वस्तु के रूपांतरण की ऐतिहासिक अवस्थाओं के अनुसार संरचित होता है। इसी तरह निगमनात्मक पद्धति की भी अपनी कमजोरियां है कि वह बुनियादी सामान्य आधारिकाओं की कुल तादाद तथा उन आधारिकाओं की सत्यता को प्रमाणित करने की अक्षमता से सीमित होता है।

संज्ञान की वास्तविक प्रक्रिया में आगमन और निगमन की एकता होती है। यह एकता इन दोनों पद्धतियों के फ़ायदों को इस्तेमाल करना संभव बना देती है, इससे एक की ख़ामी का असर दूसरी के गुण से दूर हो जाता है। आगमन, निगमन से अनिवार्यतः संपूरित ( supplemented ) होता है और उसमें निगमन के तत्व शामिल होते हैं। यह विचाराधीन वस्तुओं में एक समान लक्षणों को सही-सही दर्शाने तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि उनके बीच से मूलभूत तत्वों को अलग करता है तथा उनके पारस्परिक संयोजनों व संबंधों को प्रकट करता है, जो निगमन के कुछ तत्वों के बिना असंभव है। दूसरी तरफ़, निगमन को प्रारंभिक आधारिकाओं की सच्चाई तथा तर्क-संगति को ध्यान में रखे बिना तर्कणा की प्रणाली में परिणत नहीं किया जा सकता, जो  एक ऐसी चीज़ है, जिसे आगमन के तत्वों को शामिल करके सुनिश्चित बनाया जाता है।

आगमन और निगमन की पद्धतियों के उपयोग की आवश्यकता वहां पर होती है, जहां प्राप्त सूचना के आधार पर अनुमान लगाकर ज्ञान हासिल किया जाता है। इन पद्धतियों के उपयोग में पारंगत होने से, एक ओर तो, वास्तविकता के तथ्यों तथा घटनाओं के दैनिक व्यावहारिक कार्यों के सामान्यीकरण में दूसरी ओर, सामान्य कार्यों और प्रस्थापनाओं के आधार पर व्यावहारिक समस्याओं के ठोस समाधान पाने में मदद मिलती है।

शिक्षाशास्त्रीय आगमन व निगमन की विधियों के कुशल उपयोग से शिक्षा तथा काम में बहुत व्यावहारिक सहायता मिलती है। आगमन और निगमन का शिक्षाशास्त्रीय उपयोग अनुमानित ज्ञान हासिल करने की तदनुरूप पद्धतियों से इस बात में भिन्न है कि इसका लक्ष्य आधारिकाओं से निष्कर्ष निकालना नहीं, बल्कि ज्ञान की एक इकाई से दूसरी में जाना, विविध संकल्पनाओं ( concepts ) और प्रस्थापनाओं ( propositions ) को प्रकट करना होता है। अध्ययन की हुई सामग्री को व्यवस्थित करने में उसे आगमनात्मक ढंग से भी पेश किया जा सकता है और निगमनात्मक ढंग से भी। यदि वह सामग्री अलग-अलग तथ्यों से सामान्य प्रस्थापनाओं की ओर संक्रमण के रूप में व्यवस्थित व प्रस्तुत की गयी है, तो प्रयुक्त पद्धति आगमनात्मक है, और अगर समस्या का प्रस्तुतीकरण सामान्य प्रस्थापनाओं से प्रारंभ होता है और बाद में अलग-अलग तथ्यों की ओर संक्रमण किया गया है, तो प्रयुक्त पद्धति निगमनात्मक है।

लगभग सभी समस्याओं को आगमनात्मक और निगमनात्मक, दोनों ही तरीक़ों से पेश किया जा सकता है। पद्धति का चुनाव सामान्यतः प्रस्तुतिकरण के लक्ष्यों, स्वयं समस्या की विशिष्टताओं और उन लोगों की विशेषताओं के अनुसार किया जाता है, जिनके सामने वह समस्या पेश की जानी है। समस्या को पेश करने की एक सुप्रचलित, आसानी से समझ में आनेवाली विधि आगमन की सहायता से उपलब्ध होती है, जबकि पेश की जानेवाली प्रस्थापनाओं के परिशुद्ध प्रमाण के लिए निगमन की आवश्यकता होती है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के अध्ययन में इन दोनों पद्धतियों का इस्तेमाल होना चाहिये, प्रत्येक विषय में वरीयता ( preference ) उसे देनी चाहिये, जो शिक्षार्थी को समस्या की अंतर्वस्तु ( content ) को अधिक अच्छी तरह से समझने में तथा प्राप्त ज्ञान का व्यावहारिक उपयोग करने में समर्थ बनाती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम
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