शनिवार, 26 मार्च 2016

प्रकृति और समाज पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद - १

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाजपर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने प्रकृति और समाज के अंतर्संबंधो के बारे में प्राचीन मतों पर संक्षेप में चर्चा की थी, इस बार हम इसी विषय पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का मत प्रस्तुत करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



प्रकृति और समाज पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद - १
( dialectical materialism on nature and society - 1 )

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, समाज को प्रकृति के क्रमविकास ( evolution ) का एक परिणाम मानता है। परंतु साथ ही प्रकृति और समाज के बीच एक गहरा अंतर भी है। प्रकृति में केवल अंधी, अचेतन शक्तियां ही एक दूसरे पर क्रिया करती हैं और उनकी अंतर्क्रिया में सामान्य नियम अभिव्यक्त होते हैं। इसके विपरीत, समाज के इतिहास में चेतना से संपन्न लोग निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संक्रिया करते हैं। परंतु यह अंतर कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, इससे यह तथ्य नहीं बदलता है कि इतिहास का क्रमविकास, आंतरिक सामान्य नियमों से संचालित होता है

श्रम के दौरान लोग मात्र भौतिक मूल्यों की रचना ही नहीं करते, बल्कि सचेत, चिंतनशील प्राणियों के रूप में स्वयं को भी ढालते हैं। प्रकृति, भौतिक उत्पादन क्रिया के विषय ( object ) तथा उसकी मूल वस्तु के रूप में कार्य करती है। परंतु मनुष्य, अपनी चेतना में प्रकृति को परावर्तित करते तथा अपने लिए कुछ व्यक्तिगत व सामाजिक लक्ष्य निश्चित करते हुए, इस क्रिया का विषयी ( subject ) होता है। उसकी उत्पादन क्रिया प्राकृतिक पदार्थ पर नियंत्रण क़ायम करने और उसे संसाधित ( processed ) करने में एक ख़ास ढंग से मदद करती है।

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के संस्थापकों ने अपने आपको यह ध्यान दिलाने तक ही सीमित नहीं रखा कि प्रकृति के साथ मनुष्य के रिश्ते का मुख्य क्रियातंत्र श्रम प्रक्रिया है और कि वह श्रम के ज़रिये अपने को प्रकृति से विलगाता तथा स्वयं को उसके मुक़ाबले में खड़ा करता है। उन्होंने स्वामित्व के मुख्य रूपों तथा उसके द्वारा संनियमित ( governed ) समाज के संगठन पर, प्रकृति और मनुष्य की अंतर्क्रिया की निर्भरता ( dependence ) पर भी लगातार ज़ोर दिया।

प्रकृति के प्रति मनुष्य का रुख़ अंतर्विरोधी ( contradictory ) है। एक ओर, वह स्वयं प्रकृति का उत्पाद है, उसकी जीवन क्रिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पूर्वाधार प्रकृति है। प्राकृतिक संपदा, ऊर्जा संसाधन, उर्वर मिट्टी, पानी, वायु, जलवायु, आदि का अस्तित्व एक निश्चित ढंग से समाज के विकास को प्रभावित करता है। दूसरी ओर, मनुष्य श्रम प्रक्रिया के दौरान प्रकृति को बदलता है। अपने लिए ठोस लक्ष्य निश्चित करते तथा उन्हें हासिल करने के लिए काम करते हुए लोग, प्रकृति को इस तरह से बदल देते हैं कि उनके क्रियाकलाप का अंतिम परिणाम अक्सर उसके मूल लक्ष्यों तथा इरादों के विपरीत हो जाता है।

मालूम है कि जानवर भी अपने प्राकृतिक पर्यावरण को प्रभावित करते हैं और उसमें कमोबेश सुस्पष्ट परिवर्तन कर देते हैं। किंतु मनुष्य का प्रभाव सैकड़ों नहीं, बल्कि हज़ारों गुना अधिक प्रबल होता है। इस प्रभाव के विनाशक परिणामों की रोकथाम करने के लिए, इसके प्रति मात्र जागरुक होने से कहीं अधिक की ज़रूरत है। यह जागरुकता, स्वयं सामाजिक सत्व ( social being ) से निर्धारित होती है और उस पर निर्भर करती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 19 मार्च 2016

प्रकृति और समाज पर प्राचीन विचार

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने प्रकृति और समाज के बारे में एक संवाद प्रस्तुत किया था, इस बार हम प्रकृति और समाज के अंतर्संबंधो के बारे में प्राचीन मतों पर संक्षेप में चर्चा करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



प्रकृति और समाज पर प्राचीन विचार
( ancient ideas on nature and society )

समाज के विकास के साथ, प्रकृति के प्रति मनुष्य का रुख़ ( attitude ) बदल गया है जो समाज और प्रकृति के संबंधों के बारे में विभिन्न मतों में परावर्तित ( reflect ) हुआ है।

आदिम मनुष्य प्राकृतिक संपदा के उपभोक्ता थे। सैकड़ों हज़ारों वर्षों तक वे जानवरों तथा पौधों का आहार करते, गुफाओं में सोते, चमड़े के वस्त्र पहनते, लकड़ी, पत्थर और हड्डियों के औज़ारों का इस्तेमाल करते रहे। वे केवल प्राकृतिक पदार्थ का स्वांगीकरण ( assimilation ) करते, किंतु ऐसी किसी वस्तु की रचना नहीं करते थे जो प्रकृति में नहीं पायी जाती। उत्पादक शक्तियों के विकास का वह स्तर तत्कालीन धार्मिक धारणाओं, मिथकों, पुराणकथाओं की एक प्रणाली में परावर्तित होता था, जिसमें अपने परिवेशीय जगत के प्रति मनुष्य के जटिल, अंतर्विरोधी ( contradictory ) रुख़ को अभिव्यक्ति मिलती थी।

एक तरफ़, प्रकृति जीवनदायी थी, मनुष्य को पोषित करती थी अतः वह पूजा की, दैवीकरण की पात्र थी। दूसरी तरफ़, वह प्रकृति की भयोत्पादक, अबोधगम्य शक्तियों के ख़िलाफ़ लगातार संघर्ष करता, उन पर काबू पाने तथा उन्हें अपने अधीन लाने का प्रयास करता और अक्सर कई प्राकृतिक घटनाओं को वैरभाव से देखता था। आदिम समाज के भंग होने और प्रारंभिक दास-प्रथावाले राज्यों के उद्‍भव की अवधि में लोगों ने खेती करना, फ़सल उगाना, घरेलू जानवरों को पालना व उनका प्रजनन करना शुरू कर दिया था। धातु के औज़ारों, कुम्हारी चक्के के अविष्कार तथा आग के उपयोग की क्षमता अर्जित करने के बाद मनुष्य ने वस्तुओं, खाद्य पदार्थों, मकानों तथा परिवहन साधनों का निर्माण करना शुरू कर दिया जो प्रकृति में विद्यमान नहीं थे। उत्पादन शक्तियों और तकनीक के विकास के फलस्वरूप प्रकृति का रूपांतरण ( transformation ) शुरू हो गया।

प्रागैतिहास के सैकड़ों हज़ारों वर्षों के दौरान लोगों ने प्रकृति को ज़ोरशोर से बदलना शुरू कर दिया था : उन्होंने जंगल काट दिये, जानवरों की कई प्रजातियों का मूलोच्छेदन कर दिया, सैकड़ों सड़कें और रास्ते बना दिये। मनुष्य के श्रम तथा सामाजिक क्रियाकलाप के दौरान प्रकृति को बदलने की प्रक्रिया वर्ग समाज में कई गुना अधिक त्वरित ( accelerated ) हो गयी। परंतु ये क्रियाकलाप नियमतः स्वतःस्फूर्त थे और उसके परिणाम नितांत अनपेक्षित थे, न कि वे, जिनके लिए लोग शुरू में प्रयत्नशील थे। यह पूर्ववर्ती विरचनाओं ( formations ) की तथा उनके अनुरूप संस्कृतियों की लाक्षणिक विशेषता थी।

प्राचीन काल के दर्शन, विशेषतः प्राचीन भौतिकवाद का लक्ष्य सकल विश्व को समझना था। इस विश्व ( ब्रह्मांड ) को एक विकासमान साकल्य मानते तथा इसके मूलाधारों और उद्‍गम को समझने का प्रयत्न करते हुए प्राचीन दार्शनिक परिवेशीय प्रकृति को रूपांतरित करने में मनुष्य की सक्रिय भूमिका को नहीं समझ पाये। वे उसे सचेत, सोद्देश्य, रूपांतरणकारी क्रियाकलाप का नहीं, बल्कि प्रेक्षण ( observation ) का विषय मानते रहे।

ईसाई धर्म तथा ईश्वरमीमांसा और मध्ययुग में प्रभावी अन्य विश्व धर्मों की लाक्षणिकता थी प्रकृति के प्रति नकारात्मक रुख़। मध्ययुग के दार्शनिकों की राय में ईश्वर ने मनुष्य की सेवा के लिए प्रकृति की रचना की। केवल मनुष्य में ही दैवी आत्मिक मूल का एक छोटा-सा अंश होता है जबकि प्रकृति में हीन मूल निहित होता है।

केवल पुनर्जागरण काल में तथा उसके बाद प्रकृतिविज्ञान के द्रुत विकास के समय, प्रकृति में वैज्ञानिक दिलचस्पी तेज़ी से बढ़ी। किंतु वह दिलचस्पी धनलोलुपता ( money-grubbing ) और मुनाफ़े की चाह के कारण धूमिल हो गयी। नये जमाने के दर्शन तथा विज्ञान के एक संस्थापक फ्रैंसिस बेकन  समाज के कल्याणार्थ प्रकृति के ज्ञान को आवश्यक समझते थे। उनका कहना था कि समाज में उत्पन्न होनेवाला कोई भी असंतोष ग़रीबी और कुशासन का फल होता है। ये दोनों खामियां केवल विज्ञान की मदद से ही मिटायी जा सकती हैं। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक ज्ञान एक बल है। विज्ञान का लक्ष्य प्रकृति को जानना और उस पर नियंत्रण को सुनिश्चित बनाना है। प्रकृति पर नियंत्रण से समाज में ख़ुशहाली और स्थायित्व लाया जा सकता है। बेशक, उनके मन में निजी स्वामित्व तथा मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर आधारित समाज था और प्रकृति के प्रति समाज के रुख़ की बुर्जुआ संकल्पना इन दृष्टिकोणों से अभिपुष्ट ही हुई।

वे प्रकृति से जितना संभव था उतना खसोट लेना चाहते थे, लेकिन किसी ने भी समाज के सामने प्रकृति के संरक्षण का लक्ष्य पेश नहीं किया। प्रकृति पर नियंत्रण का विचार बुर्जुआ दर्शन की आधारशिला बन गया। उसने प्रकृति के प्रति लूट-खसोट के रुख़ और प्राकृतिक संपदा के क्षयीकरण को उचित ठहराया। जब आधुनिक पूंजीवाद में अंतर्निहित मुनाफ़े की प्रबल पूंजीवादी चाह के कारण सारी मानवजाति के विनाश का ख़तरा पैदा करनेवाला पर्यावरणीय संकट उत्पन्न हो गया, तो इस रुख़ की तह में पहुंचने तथा इस पर क़ाबू पाने की जरूरत विशेष तीव्रता से महसूस की जाने लगी।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 12 मार्च 2016

प्रकृति और समाज के बारे में एक संवाद - २

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने प्रकृति और समाज के बारे में एक संवाद का पहला हिस्सा प्रस्तुत किया था, इस बार हम उसी संवाद के दूसरे हिस्से से गुजरेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



प्रकृति और समाज के बारे में एक संवाद - २
( a dialogue about nature and society - 2 )

आशावादी - आपका पूर्वानुमान क्या है?

निराशावादी - दशकों पहले १९६८ में, रोम में एक स्वैच्छिक सार्वजनिक संगठन ‘ रोम क्लब’ की स्थापना हुई। उसमें सर्वोच्च स्तरीय वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री तथा राजनीतिज्ञ शामिल हैं। उनका पहला निष्कर्ष यह था कि उत्पादन की वृद्धि को रोकना, समाज के विकास की रफ़्तार को रोकना, अनेक देशों में भूखमरी पैदा करनेवाली आबादी की तीव्र बढ़ती को घटाना, अपशिष्ट रहित उत्पादन प्रक्रिया की रचना करना और ‘शून्य वृद्धि’ ( zero growth ) की स्थापना करना आवश्यक है। यह सच है कि बाद में इस क्लब तथा ऐसे ही अन्य संगठनों ने अपने विचार बदल दिये और वे सोचने लगे कि नयी आधुनिक तकनीकें स्थिति को सुधार सकती है, बशर्ते कि ऐसे उद्यम ( industries ) बनाये जायें, जो प्राकृतिक संसाधनों को बचाते हैं और उनकी किफ़ायत करते हैं।

आशावादी - क्या इसका तात्पर्य है कि अगर हम इन सिफ़ारिशों पर ध्यान दें तो मनुष्य को मौत से बचाया जा सकता है और प्रकृति का विनाश रोका जा सकता है? क्या बात ऐसी ही है? तो हमें ऐसा करने से कौन रोक रहा है?

निराशावादी - पहली बात तो यह कि मैंने यह दावा नहीं किया कि ‘रोम क्लब’ तथा प्रकृति की सुरक्षा के अन्य संगठनों की सिफ़ारिशों पर अमल करके मनुष्यजाति को बचाया जा सकता है। इससे प्रकृति को शायद ही मदद मिले। जो नष्ट हो गया है, इस्तेमाल हो गया है और जला दिया गया है, उसे फिर से वापस नहीं लाया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि मनुष्यजाति ने अक़्लमंदी की आवाज़ कभी नहीं सुनी। आज के लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रयत्नों में वह कल के बारे में नहीं सोचती है।

आशावादी - मैं सोचता हूं कि आप ग़लती पर हैं। मनुष्य का सार ( essence ) अपरिवर्तनीय नहीं है, यह बदलता रहता है। लोग जिन सामाजिक दशाओं, सामाजिक प्रणाली और उत्पादन पद्धति के अंतर्गत रहते हैं, उन्हीं के अनुरूप एक या दूसरे ढंग का आचरण करते हैं। जब ये बदल जायेंगी, तो कार्य पद्धति और प्रकृति के प्रति उनके रुख़ ( attitude ) में भी बदलाव हो जायेंगे। मैं सोचता हूं कि तब काफ़ी कुछ को सही करना और स्थिति को आज के मुक़ाबले बेहतर बनाना संभव हो जायेगा।

निराशावादी - परंतु अगर यह किया जा सकता है, तो पिछले कई हज़ार वर्षों के दौरान इस तरह का कुछ क्यों नहीं किया गया?

आशावादी - क्योंकि इन सारे वर्षों में निजी स्वामित्व ( private property ) का बोलबाला रहा और व्यक्तिगत, समूहगत तथा वर्ग हितों और सर्वोपरि निजी उद्यमियों तथा बड़ी इजारेदारियों के हितों को समाज के हितों के ऊपर रखा गया। इस तरह की सामाजिक प्रणालियां और राजनैतिक सत्ताएं रही जो यह सब संभव बनाती रहीं।  इस स्थिति में लोग उन दृष्टिकोणों, मानकों, मूल्यों तथा वैचारिकियों से निर्देशित होते रहे, जिनमें सारी मानवजाति के हितों को और फलतः प्रकृति के साथ तर्कबुद्धिसम्मत, ध्यानयुक्त, औचित्यपूर्ण संबंध के हितों को ध्यान में नहीं रखा गया।

निराशावादी - लेकिन क्या इस स्थिति को बदला जा सकता है?

आशावादी - निस्संदेह।

निराशावादी - कैसे?

आशावादी - मेरा विचार है कि इसका मानवजाति के सबसे बुनियादी हितों, यों कहें कि पर्यावरण के प्रति उसके रुख़ के सार से संबंधित सर्वोत्तम उत्तर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दर्शन ने दिया है। वह क्या है जो इसे अन्य दार्शनिक प्रस्थापनाओं से भिन्न बनाता है? इसका सकारात्मक कार्यक्रम तथा उसके कार्यान्वित करने की संभावनाएं क्या हैं?

इन प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में हम आगे थोड़ा विस्तार से विचार करेंगे।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 5 मार्च 2016

प्रकृति और समाज के बारे में एक संवाद - १

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने प्रकृति और समाज के अंतर्संबंधों पर चर्चा की शुरुआत की थी, इस बार हम प्रकृति और समाज के बारे में एक संवाद का पहला हिस्सा प्रस्तुत करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



प्रकृति और समाज के बारे में एक संवाद - १
( a dialogue about nature and society - 1 )

प्रकृति तथा समाज के अंतर्संबंध तथा अंतर्विरोधों पर विभिन्न दृष्टिकोणों पर प्रकाश डालने और ऐतिहासिक आशावादियों ( historical optimists ) के विचारों की सत्यता को दर्शाने के लिए हम दो प्रतीकात्मक पात्रों, निराशावादी ( pessimist ) और आशावादी ( optimist ) के बीच एक संवाद यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।

००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००

निराशावादी - मानवजाति का सारा इतिहास बतलाता है कि समाज के विकास का नतीजा प्रकृति का विनाश है। लोग अंततः पर्यावरण को नष्ट कर देंगे और स्वयं अपने अस्तित्व की दशाओं को ख़त्म कर डालेंगे।

आशावादी - परंतु अतीत में जो कुछ हुआ, भविष्य में भी वैसा ही होना कोई जरूरी नहीं है। लोगों ने विराट अनुभव अर्जित कर लिया है, वे शक्तिशाली उपकरणों तथा वैज्ञानिक ज्ञान का उपयोग करते हैं और उनके ज़रिये वे पर्यावरण के विनाश को रोक सकते हैं।

निराशावादी - बिल्कुल उल्टी बात। तकनीक के पीछे-पीछे प्राकृतिक संसाधनों का क्षयीकरण होता जाता है। ख़ुद देखिये : मोटरकारें, ट्रेक्टर, तापबिजलीघर, विशाल समुद्री जहाज और विमान प्रतिदिन करोड़ों बैरल तेल व तेल उत्पाद फूंक रहे हैं। उर्वरकों, दवाओं, कृत्रिम रेशों, नयी सामग्री, आदि के उत्पादन के लिए रासायनिक कारख़ाने भी तेल का इस्तेमाल कर रहे हैं। यही बात कोयले के बारे में भी कही जा सकती है। किंतु तेल और कोयले के प्राकृतिक भंडार निश्चय ही सीमित हैं। जब वे ख़त्म हो जायेंगे तो लोग क्या करेंगे?

आशावादी - किंतु इन खनिज ईंधनों के नये स्रोतों की खोज भी लगातार हो रही है।

निराशावादी - यह सच तो है, लेकिन देर-सवेर वे भी निःशेष ( exhausted ) हो जायेंगे। यही नहीं, जो यंत्र तेल के उत्पाद जलाते हैं वे साथ ही साथ वायुमंडलीय आक्सीजन भी जलाते जाते है। एक छोटी कार एक घंटे में उतनी ही आक्सीजन नष्ट करती है, जितनी कि एक बड़ा, सदियों पुराना कोई पेड़ वायुमडल में २४ घंटे के अंदर विसर्जित करता है। हम विशाल जंगलों को भी लगातार नष्ट कर रहे हैं और उनकी लकड़ी को तापन, निर्माण तथा काग़ज़ बनाने के लिए इस्तेमाल में ला रहे हैं। इसके अलावा, जंगल की आगों के कारण भी, जो हमारे युग में अधिक से अधिक बार लग रही है, जंगलों का विनाश हो रहा है। और ज़रा सारी फैक्टरियों की चिमनियों की बात सोचिये जो वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड और दूसरे हानिकारक अपशिष्टों ( waste ) का विसर्जन कर रही हैं; इसमें यह बात भी जोड़ दीजिये कि पृथ्वी की सतह का हरित वानस्पतिक आवरण भी विनाशक ढंग से घट गया है और आप यह समझ लीजिये कि हम पर ऊर्जा साधनों के ख़त्म होने का ही नहीं, बल्कि आक्सीजन की भूख का ख़तरा भी मंडरा रहा है।

आशावादी - आप एक बहुत ही निराशावादी तस्वीर पेश कर रहे हैं।

निराशावादी - बात यहीं पर ख़त्म नहीं होती। पृथ्वी की, और ख़ासकर शहरों की तेज़ी से बढ़ती हुई आबादी के लिए मीठा पानी पर्याप्त नहीं है। यही नहीं, शहरी मल-पदार्थों और औद्योगिक अस्वास्थ्यकर अपशिष्टों से नदियों तथा सागरों का पानी दूषित हो रहा है। उनसे मछलियां और जलीय वनस्पति नष्ट हो रही है और प्लैंक्टन ( plankton ) मारे जा रहे हैं, जो समुद्री प्राणियों का खाद्य हैं। इसके अलावा, उर्वर ज़मीन तथा प्राकृतिक भूदृश्यावलियों, आदि का विनाश भी इस तस्वीर में जोड़ देना चाहिए।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम
Related Posts with Thumbnails