शनिवार, 28 मई 2016

नस्ल और राष्ट्र ( जातियां ) - ३

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने समाज के विकास में नस्लीय तथा जातीय विशेषताओं पर चर्चा को आगे बढ़ाया था, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



नस्ल और राष्ट्र ( जातियां ) - ३
( races and nations - 3 )

आधुनिक विज्ञान ने साबित कर दिया है कि सारी नस्लें मनुष्यजाति के समान पुरखों ( ancestors ) से उत्पन्न हुई हैं। मानवजाति की रचना के दौरान, निर्वाह के प्राकृतिक साधनों ने, बाह्य प्राकृतिक दशाओं की प्रणाली में, निर्णायक भूमिका अदा की। प्राचीन, आदिम क़बीलों ( tribes ) के विभाजन के फलस्वरूप तथा अलग-अलग जैविक उत्परिवर्तनों ( biological mutations ), यानी आनुवंशिकता ( heredity ) में सांयोगिक परिवर्तनों, के परिणाम के रूप में मनुष्य की कुछ द्वितीयक जैविक विशेषताएं ( चमड़ी का रंग, नैन-नक्श आदि ) पैदा हो गयीं और बाद में सुस्थापित होकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होने लगीं।

कुछ ऐतिहासिक दशाओं में उन्होंने उन ठोस प्राकृतिक निवास स्थलों ( natural habitats ) के प्रति मनुष्य के बेहतर अनुकूलन को आगे बढ़ाया जिनमें एक गोत्र-क़बीलाई समुदाय बहुत लंबे समय तक रहता रहा था। सामाजिक विकास के त्वरण ( acceleration ) के साथ-साथ जब प्राकृतिक संपदा ( wealth ) एवं आंतरिक प्राकॄतिक संसाधनों ने अधिकाधिक बड़ी भूमिका अदा करनी शुरू कर दी, तब नस्लीय, जैविक विशेषताओं का अनुकूलनात्मक महत्व अंततः समाप्त हो गया। हमारे युग में सारी नस्लों के सदस्य सारे महाद्वीपों में तथा किन्हीं भी प्राकृतिक तथा सामाजिक दशाओं में रहते हैं और सफलतापूर्वक काम करते हैं।

यह भी साबित कर दिया गया है कि विभिन्न नस्लों के सदस्यों की समान मानसिक क्षमताएं होती हैं तथा समान मनोवैज्ञानिक लक्षण, आदि होते हैं। विभिन्न नस्लों और राष्ट्रों के सदस्यों के बीच मिश्रित विवाहों से नितांत जीवंत संतानें पैदा होती हैं। मानवजाति के दसियों लाख वर्षों के क्रमविकास ( evolution ) के दौरान, जातियों तथा विभिन्न नस्लों के व्यक्तियों ने सैकड़ों बार अपने निवास स्थान बदले और विविध रक्त संबंध तथा पारिवारिक व विवाह संबंध क़ायम किये। इसलिए किसी प्रकार की ‘शुद्ध’ नस्ल की बातें करना उचित नहीं है। ‘शुद्ध’ नस्लें, नस्लवादियों, फ़ासिस्टों तथा राष्ट्रवादी प्रचार ( propaganda ) की वैचारिक मिथक ( ideological myth ) हैं।

आधुनिक राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन तथा एशिया, अफ़्रीका और दक्षिणी अमरीका और कैरीबियन क्षेत्र में अनेकों नये विकासमान देशों का उद्‍भव यह दिखलाता है कि नीग्रो तथा मंगोल नस्लों के जनगण तथा राष्ट्र, वैज्ञानिक-तकनीकी विकास के रास्ते पर सफलतापूर्वक चल सकते हैं और अपने विज्ञान, संस्कृति और अर्थव्यवस्थाओं का ठीक उतनी ही अच्छी तरह से विकास कर सकते हैं जैसे कि यूरोपी नस्ल। वे श्वेत उपनिवेशी अधिकारियों के बिना प्रबंध करने तथा अपनी नियति का स्वयं निर्धारण करने में समर्थ हैं।

हम यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि सारी नस्लों के सदस्यों ने सारे इतिहास में एक निश्चित भूमिका अदा की है। असाधारण वैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों, लेखकों और दार्शनिकों के बीच प्रत्येक नस्ल के सदस्यों को देखा जा सकता है। इन तथ्यों से दो अविवादास्पद निष्कर्ष निकलते हैं : (१) सारी नस्लें बराबर हैं और समाज तथा उसकी संस्कृति के विकास में अपना योगदान करने में समर्थ है और नस्लीय श्रेष्ठता का मिथक निराधार है ; (२) नस्लों की जैविक विशेषताएं, विविध राष्ट्रों तथा जनगण की ऐतिहासिक नियति के लिए निर्धारक नहीं है, किंतु इतिहास के दौरान स्वयं उभरी तथा परिवर्तित हुई हैं और बहुत हद तक सामाजिक कारकों से संचालित है। इससे यह स्पष्ट नतीजा निकलता है कि प्रकृति के प्रति लोगों के रुख़ तथा अंतर्क्रिया नस्ल से नहीं, बल्कि सामाजिक और ऐतिहासिक दशाओं तथा कारणों से निर्धारित होती है

जहां तक नस्लों और राष्ट्रों ( जातियों ) के रिश्ते का संबंध है, राष्ट्र नितांत निश्चित ऐतिहासिक दशाओं में बनते हैं और कुलमिलाकर जैविक नहीं, बल्कि सामाजिक विशेषताओं से निर्धारित होते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 21 मई 2016

नस्ल और राष्ट्र ( जातियां ) - २

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने समाज के विकास में नस्लीय तथा जातीय विशेषताओं पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



नस्ल और राष्ट्र ( जातियां ) - २
( races and nations - 2 )

१९वीं सदी के उत्तरार्ध में और २०वीं सदी के प्रारंभ में, जब विश्व की उपनिवेशी प्रणाली ( colonial system ) तथा दुनिया में पुनर्विभाजन ( redivide ) के लिए साम्राज्यवादियों ( imperialists ) का संघर्ष ज़ोर पर था, तब विविध नस्लवादी ( racist ) तथा राष्ट्रवादी ( nationalistic ) सिद्धांतों और दृष्टिकोणों का उत्पन्न होना शुरू हुआ और उनका व्यापक रूप से प्रचार होने लगा।

नस्लवादियों के दृष्टिकोण से लोगों की मुख्य विशेषता उनकी जैविक प्रकृति से निर्धारित होती है। नस्लों के जैविक अनुगुण शाश्वत ( eternal ) और अपरिवर्तनीय हैं, जो लोगों की मानसिक क्षमता, संस्कृति की रचना, आविष्कार तथा शासन करने, अन्य जातियों को अपने अधीन लाने की क्षमता, आदि का निर्धारण करते हैं। नस्लवादी यह सोचते हैं कि कुछ नस्लें ऊंची और कुछ नीची होती हैं और कि मनुष्यजाति के इतिहास तथा उसकी संस्कृति में हर मूल्यवान चीज़ की रचना उच्चतर नस्लों ने की है, जबकि नीची नस्लें उनको आत्मसात करने में भी अक्षम हैं और इसीलिए नीची नस्लों को ऊंची नस्लों द्वारा शासित होना चाहिए।

जर्मन फ़ासिज़्म ( fascism ) के विचारकों का ख़्याल था कि आर्य उच्चतम नस्ल हैं और आर्य भावना जर्मन राष्ट्र में सर्वाधिक पूर्णता से मूर्त है। अमरीकी और दक्षिण अफ़्रीकी नस्लवादी आज भी अश्वेतों ( नीग्रो ) पर श्वेत नस्ल ( यूरोपीय ) की श्रेष्ठता के गुण गाते हैं। नस्लवाद के दृष्टिकोण से नीची जातियां परजीवी ( parasitic ) हैं और प्रकृति तथा सभ्यता को विघटित करती हैं और इसीलिए उनके क्रियाकलाप को ऊंची नस्लों द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए।

राष्ट्रवाद, नस्लवाद के साथ घनिष्ठता से संबंधित है। राष्ट्रवादी, एक राष्ट्र की दूसरे पर श्रेष्ठता की शिक्षा देते हैं। सारतः, वे राष्ट्रों को विभाजित करके तथा उन्हें एक दूसरे के मुक़ाबले में खड़ा करके प्रभुतासंपन्न वर्गों ( dominant classes ) द्वारा ग़ुलाम बनाये गये जनगण व राष्ट्रों के शोषण को प्रोत्साहित करते हैं।

फलतः नस्लवाद और राष्ट्रवाद प्रतिक्रियावादी ( reactionary ) भूमिका अदा करते हैं। मनुष्यजाति को ग़रीबी, अधिकारों के अभाव और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए वर्ग संघर्ष के क्रांतिकारी सिद्धांत के मुक़ाबले में, वे कुछ लोगों की अन्य पर श्रेष्ठता के जैविक आधारों के मत को, कुछ राष्ट्रों द्वारा अन्य को ग़ुलाम बनाने के अधिकार को, राष्ट्रीय अंतर्विरोधों और राष्ट्रीय झगड़ों के शाश्वत स्वभाव तथा उन पर क़ाबू पाने की असंभाव्यता के मत को ला खड़ा करते हैं। इन दृष्टिकोणों का मक़सद शोषित वर्ग की शक्तियों में फूट डालना, समान शत्रु के ख़िलाफ़ तथा समानता आधारित समाज की ख़ातिर उनके संघर्ष को कमज़ोर बनाना होता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 14 मई 2016

नस्ल और राष्ट्र ( जातियां ) - १

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने मनुष्य में जैविक तथा सामाजिक आधारों पर चर्चा की थी, इस बार हम समाज के विकास में नस्लीय तथा जातीय विशेषताओं पर विचार करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



नस्ल और राष्ट्र ( जातियां ) - १
( races and nations - 1 )

जैविक और सामाजिक के संबंध की सटीक समझ हमें समाज के विकास में नस्लीय तथा जातीय ( राष्ट्रीय ) विशेषताओं का निर्धारण करने में मदद देती है।

अपने व्यक्तिगत अनुभव से हर कोई यह जानता है कि लोग अपने विविध गुणों, चरित्र की विशेषताओं, शिक्षा के स्तर, सार्वजनिक हितों के प्रति रुख़, चमड़ी के रंग, ऊंचाई, चहरे की आकृति, भाषा, आदि में एक दूसरे से बहुत भिन्न होते हैं। इनमें से कुछ गुण मनोवैज्ञानिक हैं, कुछ सामाजिक और कुछः अन्य जैविक हैं। जैविक में निम्नांकित शामिल हैं : रंग, क़द, शरीर की कुछ विशेषताएं, आदि। मनुष्य की उत्पत्ति ( origin ), क्रमविकास ( evolution ) तथा मनुष्य की जैविक संविरचना ( biological constitution ) का अध्ययन करनेवाला नृतत्वविज्ञान ( anthropology ) इन गुणों के अनुसार कई नस्लों ( races ) को विभेदित ( distinguish ) करता है।

नस्लें ऐसे विभिन्न मानव समुदायों ( क़बीलों, जातियों, राष्ट्रों ) के समूहन हैं जो कई समान जैविक गुणों की उपस्थिति द्वारा आपस में एक हैं। सामान्यतः तीन नस्लों को विभेदित किया जाता है : यूरोपीय ( सफ़ेद चमड़ीवाले लोग ) ; मंगोलियाई ( पीताभ चर्म तथा तिरछी आंखों वाले लोग ) ; और नीग्रों ( काली चमड़ी वाले लोग )। बेशक, ये सारी विशेषताएं सोपाधिक, यादृच्छिक तथा सापेक्ष हैं और साथ ही वे हमेशा सुस्पष्ट नहीं होती हैं। कभी-कभी मध्यवर्ती, ग़ैरबुनियादी, छोटी नस्लों की बात भी की जाती है। लोगों की नस्लीय विशेषताएं जैविक स्वभाव की होती हैं

नस्लीय विशेषताओं के विपरीत जातीय व राष्ट्रीय विशेषताएं, सामाजिक विशिष्टताओं में व्यक्त होती हैं और इतिहासानुसार विरचित जन-समुदायों ( communities of people ) के लक्षणों को चित्रित करती हैं। इन समुदायों में क़बीले ( tribes ), जातियां ( nationalities ) और राष्ट्र ( nations ) शामिल हैं। सबसे जटिल समुदाय राष्ट्र है, जो एक निश्चित युग में, पूंजीवाद में संक्रमण के युग में लंबे ऐतिहासिक विकास के फलस्वरूप बनते हैं।

एक क़बीले या जाति के सदस्य कुछ पारिवारिक रिश्तों, रक्त संबंधों और एक निश्चित समान मूल ( common origin ) के द्वारा एकीकृत ( united ) होते हैं। परंतु राष्ट्र, विभिन्न क़बीलों तथा जातियों ( कभी-कभी नज़दीकी मूल के ) के एकीकरण, ‘मेल’ ( merging ), ‘संलयन’ ( fusing ) से बनते हैं। एक राष्ट्र के लोग एक भाषा बोलते हैं। वे समान आर्थिक क्रियाकलाप, एक ही भूक्षेत्र पर अधिकार, संस्कॄति और सामाजिक मानसिकता की समरूपता तथा राष्ट्रीय चरित्र की विशेषताओं से परस्पर जुड़े होते हैं। यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि ये सब विशेषताएं सामाजिक विकास के क्रम में उत्पन्न तथा रूपायित ( moulded ) होती हैं और जैविक गुण नहीं होती हैं। राष्ट्र का बनना सामाजिक, ऐतिहासिक तथा आर्थिक विकास की एक नितांत निश्चित अवस्था के साथ जुड़ा होता है।

अब हम नस्लों और राष्ट्रों के बीच के रिश्ते पर, तथा इस बात पर विचार करेंगे कि इसका प्रकृति और समाज की अंतर्क्रिया से और मनुष्य में जैविक तथा सामाजिक के संबंध से क्या नाता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
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समय अविराम

रविवार, 8 मई 2016

मनुष्य में जैविक तथा सामाजिक - २

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने मनुष्य में जैविक तथा सामाजिक आधारों पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



मनुष्य में जैविक तथा सामाजिक - २
( the biological and social in Man -2 )

सामाजिक और जैविक के संबंध की वास्तविक वैज्ञानिक समझ, प्रकृति और समाज की भौतिकवादी संकल्पना ही दे सकती है। मनुष्य एक जीवित प्राणी है, किंतु ऐतिहासिक विकास के दौरान उसकी जैविक प्रकृति में, श्रम तथा सामाजिक जीवन के उन्नत रूपों के ज़रिये आमूल परिवर्तन हो गया। हालांकि रुधिर परिसंचरण, श्वसन, पाचन, आदि जैसी प्राकृतिक प्रक्रियाएं सामान्य जैविक नियमों या शरीरक्रिया के नियमों के अनुसार चलती हैं, फिर भी कुछ हद तक वे भी सामाजिक जीवन की परिस्थितियों पर निर्भर होती हैं।

मनुष्य के व्यवहार और क्रियाकलाप के रूप जितने उच्चतर तथा जटिल होते हैं, सामाजिक नियमों की भूमिका उतनी ही बड़ी होती जाती है। लोगों की अंतर्क्रिया, उनके चिंतन का विकास तथा उनका सामाजिक जीवन अंततोगत्वा उनके भौतिक उत्पादन तथा सामाजिक क्रियाकलाप द्वारा निर्धारित होते हैं। सामाजिक वर्गों तथा समूहों में विभाजन, युद्ध व शांतिपूर्ण सहयोग, पारिवारिक लालन-पालन और संस्कृति का विकास, जैविक नहीं, सामाजिक नियमों के अनुसार होता है। मनुष्य के व्यवहार में सामाजिक क्रियातंत्र के नियम, जैविक क्रियातंत्र के नियमों पर हावी होते हैं, हालांकि वे उनका उन्मूलन ( abolish ) नहीं करते।

इन क्रियातंत्रों ( mechanism ) का विनाशक नहीं, बल्कि सृजनात्मक व रचनात्मक होने के लिए सबसे पहले स्वयं समाज का आमूल रूपांतरण ( radical transformation ) आवश्यक है, न कि मनुष्य की जैविक प्रकृति का पुनर्निर्माण होना

मनुष्य के चरित्र, क्षमताओं तथा व्यवहार के रूपों और उसके रुझानों एवं दिलचस्पियों का बनना उस सामाजिक माध्यम से निर्धारित होता है, जिसमें वह रहता है। रुडयार्ड किपलिंग की एक कहानी का ‘मावग्ली’ में एक ऐसे लड़के की कहानी बतायी गयी है जो भेड़ियों के बीच पला और कालांतर में सामान्य जीवन की ओर लौट आया। अपनी कहानी ‘टार्ज़न आफ़ एप्स’ में एडगर बेरौज़ ने एक ऐसे आदमी की कथा कही है जो वानरों के बीच पला और बाद में पूंजीवादी व्यापार की दुनिया में बहुत सफल सिद्ध हुआ। वास्तव में, जैसा कि पूर्णतः साबित कर दिया गया है, ऐसी बातें नितांत असंभव हैं। वास्तविक मामलों में जो बच्चे जानवरों के बीच जा पड़े और किसी तरह से जीवित बचे रह गये, वे बच्चे कालांतर में सामान्य मानव जीवन बिताने में कभी भी समर्थ नहीं हो पाये।

मनुष्य एक वास्तविक मानवीय प्राणी के रूप में केवल सामाजिक पर्यावरण में ही पल और बढ़ सकता है। केवल इसी के ज़रिये वह भाषा, चेतना, संस्कृति, सामाजिक व्यवहार की आदतों, काम करने तथा विश्व को बदलने में पारंगत हो सकता है। बेशक, किसी भी अन्य जीवित प्राणी की तरह मनुष्य में भी कुछ जैविक सहजवृत्तियां ( instincts ), अंतर्जात ( inborn ) गुण तथा वंशानुगत ( inherited ) विशेषताएं अंतर्निहित होती हैं, किंतु वे मात्र जैविक क्रमविकास का परिणाम नहीं, बल्कि लाखों वर्षों के सामाजिक विकास का फल भी हैं, यही कारण है कि भौतिकवादी दर्शन मनुष्य की जीवन क्रिया के जैविक आधार से इनकार न करते हुए आधुनिक समाज की सारी समस्याओं के समाधान की कुंजी, जैविक के बजाय सामाजिक में खोजता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम
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