शनिवार, 21 मई 2016

नस्ल और राष्ट्र ( जातियां ) - २

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने समाज के विकास में नस्लीय तथा जातीय विशेषताओं पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



नस्ल और राष्ट्र ( जातियां ) - २
( races and nations - 2 )

१९वीं सदी के उत्तरार्ध में और २०वीं सदी के प्रारंभ में, जब विश्व की उपनिवेशी प्रणाली ( colonial system ) तथा दुनिया में पुनर्विभाजन ( redivide ) के लिए साम्राज्यवादियों ( imperialists ) का संघर्ष ज़ोर पर था, तब विविध नस्लवादी ( racist ) तथा राष्ट्रवादी ( nationalistic ) सिद्धांतों और दृष्टिकोणों का उत्पन्न होना शुरू हुआ और उनका व्यापक रूप से प्रचार होने लगा।

नस्लवादियों के दृष्टिकोण से लोगों की मुख्य विशेषता उनकी जैविक प्रकृति से निर्धारित होती है। नस्लों के जैविक अनुगुण शाश्वत ( eternal ) और अपरिवर्तनीय हैं, जो लोगों की मानसिक क्षमता, संस्कृति की रचना, आविष्कार तथा शासन करने, अन्य जातियों को अपने अधीन लाने की क्षमता, आदि का निर्धारण करते हैं। नस्लवादी यह सोचते हैं कि कुछ नस्लें ऊंची और कुछ नीची होती हैं और कि मनुष्यजाति के इतिहास तथा उसकी संस्कृति में हर मूल्यवान चीज़ की रचना उच्चतर नस्लों ने की है, जबकि नीची नस्लें उनको आत्मसात करने में भी अक्षम हैं और इसीलिए नीची नस्लों को ऊंची नस्लों द्वारा शासित होना चाहिए।

जर्मन फ़ासिज़्म ( fascism ) के विचारकों का ख़्याल था कि आर्य उच्चतम नस्ल हैं और आर्य भावना जर्मन राष्ट्र में सर्वाधिक पूर्णता से मूर्त है। अमरीकी और दक्षिण अफ़्रीकी नस्लवादी आज भी अश्वेतों ( नीग्रो ) पर श्वेत नस्ल ( यूरोपीय ) की श्रेष्ठता के गुण गाते हैं। नस्लवाद के दृष्टिकोण से नीची जातियां परजीवी ( parasitic ) हैं और प्रकृति तथा सभ्यता को विघटित करती हैं और इसीलिए उनके क्रियाकलाप को ऊंची नस्लों द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए।

राष्ट्रवाद, नस्लवाद के साथ घनिष्ठता से संबंधित है। राष्ट्रवादी, एक राष्ट्र की दूसरे पर श्रेष्ठता की शिक्षा देते हैं। सारतः, वे राष्ट्रों को विभाजित करके तथा उन्हें एक दूसरे के मुक़ाबले में खड़ा करके प्रभुतासंपन्न वर्गों ( dominant classes ) द्वारा ग़ुलाम बनाये गये जनगण व राष्ट्रों के शोषण को प्रोत्साहित करते हैं।

फलतः नस्लवाद और राष्ट्रवाद प्रतिक्रियावादी ( reactionary ) भूमिका अदा करते हैं। मनुष्यजाति को ग़रीबी, अधिकारों के अभाव और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए वर्ग संघर्ष के क्रांतिकारी सिद्धांत के मुक़ाबले में, वे कुछ लोगों की अन्य पर श्रेष्ठता के जैविक आधारों के मत को, कुछ राष्ट्रों द्वारा अन्य को ग़ुलाम बनाने के अधिकार को, राष्ट्रीय अंतर्विरोधों और राष्ट्रीय झगड़ों के शाश्वत स्वभाव तथा उन पर क़ाबू पाने की असंभाव्यता के मत को ला खड़ा करते हैं। इन दृष्टिकोणों का मक़सद शोषित वर्ग की शक्तियों में फूट डालना, समान शत्रु के ख़िलाफ़ तथा समानता आधारित समाज की ख़ातिर उनके संघर्ष को कमज़ोर बनाना होता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

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