रविवार, 22 अक्तूबर 2017

अधिरचना की प्रणाली में राज्य - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां समाज की अधिरचना की प्रणाली में राज्य पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


अधिरचना की प्रणाली में राज्य - २
( the state in the system of the superstructure - 2 )

समाजवादी समाज में संक्रमण (transition) के साथ एक नये प्रकार के राज्य - समाजवादी राज्य (socialist state) - का जन्म होता है। यह संपूर्ण जनता के राजनीतिक प्राधिकार (authority) का उपयोग करनेवाले संगठन होते हैं। देश की ठोस दशाओं के आधार पर तथा राजनीतिक शक्तियों की अवस्थिति और अंतर्राष्ट्रीय स्थिति के अनुरूप पूंजीवादी समाज में निर्मित राजकीय तंत्र में कमोबेश गहरे रूपांतरण (transformation) होते हैं और नये क़ानून बनाये जाते हैं। किंतु राजकीय सत्ता के संगठन का कोई एकल (single), अनिवार्य नमूना (obligatory model) नहीं होता, जो सारे देशों और राष्ट्रों के लिए उपयुक्त हो। समाजवादी राज्य की स्थापना में, राष्ट्रीय परंपराओं, राजनीतिक संघर्ष की तीक्ष्णता (acuteness) तथा अन्य कारकों पर निर्भर करते हुए, ठोस रूपों की बड़ी विविधता की पूर्वापेक्षा की जाती है।

इसके अलावा, निर्णायक कारक (decisive factor) शोषक वर्गों के प्रतिरोध का दर्जा होता है। जब राष्ट्रीय बुर्जुआ (bourgeoisie), निम्न बुर्जुआ, किसान तथा बुद्धिजीवी, समाजवादी सुधारों के बुनियादी उसूलों (principles) को स्वीकार कर लेते हैं, तो उन्हे व्यापक जनवादी आधार पर, नयी राजकीय प्रणाली में सहयोग करने को तत्पर आबादी के सारे संस्तरों (strata) की सहभागिता के साथ शनैः शनैः संपन्न किया जा सकता है। किंतु अगर समाजवादी सुधारों के ख़िलाफ़ तीक्ष्ण प्रतिरोध होता है, तो राज्य को स्वभावतः पदच्युत शोषकों (overthrown exploiters) को दबाने के लिए नितांत उचित उपाय करने ही होते हैं। किंतु समाजवादी राज्य का मुख्य कार्य दमन (suppression) का नहीं, जो अस्थायी (temporary), क्षणिक (transient) तथा प्रतिरक्षात्मक (defensive) स्वभाव का होता है, बल्कि रचनात्मक (creative) होता है, सामाजिक न्याय, समानता, जनवाद तथा मानवतावाद के उसूलों के आधार पर नये समाज के निर्माण में जुटे अवाम का नेतृत्व होता है।

सर्वहारा अधिनायकत्व (dictatorship of proletariat) नये समाज के निर्माण में निर्णायक भूमिका अदा करता है और उसके दृढ़ीकरण (consolidation) के दौरान स्वयं भी परिवर्तित होता है। अपना ऐतिहासिक मिशन पूरा करने के बाद सर्वहारा का अधिनायकत्व, सारे मेहनतकशों के राजनीतिक संगठन में विकसित हो जाता है और सर्वहारा राज्य सारे जनगण का ऐसा राज्य बन जाता है, जो समस्त जनगण के हितों को व्यक्त करता है। समाज के साम्यवादी (communist) संगठन की ओर विकास के दौरान राज्य के प्रशासनिक, संगठक तथा शैक्षिक कार्य अधिक घनीभूत और विस्तृत हो जाते हैं। उनमें से कुछ कार्य विभिन्न सामाजिक संगठनों और श्रम समष्टियों के द्वारा संपन्न होने लगते हैं। इसमें समाजवादी समाज का जनवादी चरित्र अभिव्यक्त होता है।

जब समुचित सामाजिक-राजनीतिक और वैचारिक दशाओं का निर्माण तथा प्रशासन और प्रबंध में सारे नागरिकों की सहभागिता होने लगेगी तथा बाहरी ख़तरे समाप्त हो जाएंगे एवं समुचित अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां मौजूद होंगी, तब ही एक समाजवादी राज्य एक संक्रमणात्मक रूप ग्रहण करेगा - राज्य से राज्यहीनता (non-state) की तरफ़ जाने का - और अधिरचना के एक विशेष राजनीतिक तत्व के रूप में राज्य की आवश्यकता शनैः शनैः लुप्त हो जायेगी।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 15 अक्तूबर 2017

अधिरचना की प्रणाली में राज्य - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां इतिहास के सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रेरक बल के रूप में वर्ग और वर्ग संघर्ष पर चर्चा की थी, इस बार हम समाज की अधिरचना की प्रणाली में राज्य पर चर्चा शुरू करेंगे

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।

अधिरचना की प्रणाली में राज्य - १
( the state in the system of the superstructure - 1 )

राज्य ( state ) हमेशा विद्यमान नहीं था। समाज के वर्गों ( classes ) में विभाजित होने तक सैकड़ों-हज़ारों वर्ष के दौरान लोग राज्य तथा शासकीय निकायों व एजेंसियों के बिना ही काम चला लिया करते थे। तो फिर राज्य का जन्म क्यों हुआ? और यह है क्या?

अंग्रेज दार्शनिक टामस हाब्स (१५८८-१६७९) यह मान कर चले कि प्राकृतिक दशाओं में लोग लगातार एक दूसरे से लड़ते हैं क्योंकि ‘आदमी आदमी का दुश्मन है’। कभी बंद न होनेवाले इस संघर्ष में, न मरने के लिए लोग एक सामाजिक अनुबंध ( contract ) करने और सार्विक पुनर्मिलन ( universal reconciliation ) के एक निकाय ( body ) के रूप में, एक राज्य बनाने के लिए विवश हो गये। बाद में बुर्जुआ सिद्धांतकारों ने इस विचार को ही कई संस्करणों में विस्तारित ( elaborate ) किया और आज हमारे युग में भी कमोबेश यही विचार जारी है। वे दावा करते हैं कि राज्य समाज में मेल-मिलाप कराने और, वर्गीय तथा प्रतिरोधी अंतर्विरोधों सहित, सारे अंतर्विरोधों के नियमन ( regulation ) का निकाय है। इसलिए समाज के सारे संस्तरों ( strata ) को चाहिए कि वे एक ऐसे संस्थान ( institution ) के रूप में राज्य का समर्थन करें, जो संपूर्ण समाज के तथा प्रत्येक व्यक्ति के हितों में काम करता है, न कि कुछ निजी समूहों या वर्गों के।

ऐसे विचार वास्तविकता ( reality ) से मेल नहीं खाते हैं। तथ्य यह दर्शाते हैं कि दासों पर स्वामित्ववाला पहला राज्य समाज के वर्गों में बंटने के बाद बना। राज्य, प्रभावी वर्गों ( dominant classes ) के हितों के लिए संघर्ष करने तथा उनकी रक्षा करनेवाले लोगों के विशेष समूहों की सकलता ( ensemble ) है

वास्तव में, राज्य ‘एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर प्रभुत्व क़ायम रखने का कार्यतंत्र ( mechanism ) है’। शोषक राज्य ( exploiter state ) कई घरेलू और विदेशी कार्य करता है। इसका मुख्य घरेलू कार्य शोषित ( exploited ) वर्गो के वर्ग संघर्ष ( class struggle ) को दबाना है। इस काम को अंजाम देने के लिए उसमें कई अभिकरण ( agencies ), संगठन और संस्थान शामिल किये जाते हैं, जैसे सेना, पुलिस, जासूसी और प्रतिजासूसी सेवाएं, अदालतें, दंडाधिकारी, सरकार तथा उसकी कार्यकारी एजेंसिया और विधि ( legislative ) निकाय। विधी निकाय, क़ानूनी प्रणाली ( क़ानून, मानक, क़ायदे ) को निरूपित करता है, जो सामाजिक व्यवस्था पर प्रभुत्वशाली वर्गों के हितों तथा दृष्टिकोणों को अभिव्यक्त करते हैं और उनके संकल्प ( will ) तथा प्राधिकार ( authority ) को सुदृढ़ बनाते हैं।

अदालतें तथा क़ानून लागू करने वाले निकाय, इन क़ानूनों के सख़्ती से अनुपालन को सुनिश्चित बनाते हैं, अपराधियों का पीछा करते हैं और उन्हें निर्ममता से दंड देते हैं। यह बात प्रभुत्वशाली वर्ग के उन अलग-अलग सदस्यों पर भी लागू होती है, जो प्रभावी वर्गों के लिए लाभप्रद क़ानून को तोड़ते हैं या क़ानून द्वारा स्थापित व्यवहार के मानदंड का अनुपालन नहीं करते हैं। राज्य, व्यक्तिगत हितों ( personal interests ) की नहीं, बल्कि वर्ग के समान हितों ( common interests ) की रक्षा करता है। इसलिए पूंजीवादी सिद्धांतकारों द्वारा. प्रभुत्वशाली वर्गों के अलग-अलग सदस्यों के ख़िलाफ़ राजकीय उपायों और दंडात्मक कार्रवाइयों के तथ्य को, वर्ग समाजों में राज्य के राष्ट्रीय स्वभाव के साक्ष्य ( evidence ) के रूप में पेश करने के प्रयास नितांत सारहीन ( insubstantial ) हैं।

कोई भी शोषक राज्य, एक या दूसरे प्रभुत्वशाली वर्ग की तानाशाही ( dictatorship ) होता है। इसके अनुसार शोषक राज्यों के तीन प्रकारों में भेद किया जाता है: दासप्रथात्मक ( slave-owning ) राज्य, सामंती ( feudal ) राज्य तथा पूंजीवादी ( capitalist ) राज्य। फलतः, राज्य का प्रकार अंततोगत्वा स्वामित्व ( ownership ) की प्रचलित क़िस्म पर और इस क़िस्म के ही आधार पर बनने वाले प्रमुख उत्पादन संबंधों ( relation of production ) पर निर्भर करता है। अपने कार्य करते हुए राज्य अपने आधार को दृढ़ बनाता और उसकी रक्षा करता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 8 अक्तूबर 2017

समाज में वर्ग और वर्ग संघर्ष

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां समाज के आधार और अधिरचना पर चर्चा की थी, इस बार हम इतिहास के सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रेरक बल के रूप में वर्ग और वर्ग संघर्ष पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


समाज में वर्ग और वर्ग संघर्ष
( classes and class struggle in the society )

राज्यों के तथा राजनीतिक पार्टियों के जन्म तथा उनकी कार्यात्मकता ( functioning ) का कारण वर्ग और वर्ग संघर्ष है। समाज के मामलों में वर्गों की महत्वपूर्ण भूमिका, समाज के इतिहास पर उनके संघर्ष के प्रभाव और समाज की दिशा का उसके द्वारा निर्धारण होने के तथ्य की खोज बुर्जुआ इतिहासकारों तथा अर्थशास्त्रियों ने ऐतिहासिक भौतिकवाद ( historical materialism ) की उत्पत्ति से पहले ही कर ली थी। नियमतः, वे वर्ग विभाजन ( class division ) के कारणों को कुछ लोगों की अन्य पर आत्मिक या नस्लीय श्रेष्ठता ( spiritual or racial superiority ) या  उनकी अंतर्जात ‘कुलीनता’ ( innate nobility ) में देखते थे। यह सच है कि फ्रांसीसी प्रबोधक जां जाक रूसो ( १७१२-१७७८) ने इस आशय की दलील दी थी कि सामाजिक असमानता और वर्ग विभाजन निजी संपत्ति ( private property ) की उत्पत्ति के परिणाम हैंमार्क्स  ने उनकी इस दलील का बहुत ऊंचा मूल्यांकन किया था। किंतु रूसो की ग़लती यह थी कि वे निजी स्वामित्व की स्थापना को व्यक्तिगत स्वेच्छाचारिता ( personal arbitrariness ) का कृत्य समझते थे। उनका कहना था कि यदि पहले-पहले संपत्तिवानों का विरोध किया जाता तो मनुष्य जाति का बाद का इतिहास नितांत भिन्न होता। 

आधुनिक पूंजीवादी सिद्धांतकार समाज के वर्ग विभाजन को मान्यता तो देते हैं, किंतु उसे या तो शाश्वत ( eternal ) या अनुच्छेदनीय ( unabolishable ) मानते हैं या यह दावा करते हैं कि वर्ग हितों ( class interests ) के पारस्परिक विरोध को सार्विक समृद्धि ( universal prosperity ) के समाज की रचना से, किंतु निजी संपत्ति को हाथ लगाये बिना, ख़त्म किया जा सकता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद की एक महानतन उपलब्धि वर्गों तथा वर्ग संघर्ष की उत्पत्ति के वस्तुगत कारणों ( objective reasons ) को खोजना और इस प्रस्थापना ( proposition ) को प्रमाणित करना था कि इन कारणों के लुप्त हो जाने पर विश्व इतिहास में अंततः एक नयी अवस्था का, यानी वर्गहीन समाज ( classless society ) की अवस्था का सूत्रपात हो जायेगा। वर्गों और वर्ग संघर्ष की उत्पत्ति के कारण क्या हैं? और वर्ग क्या है?

निजी संपत्ति की उत्पत्ति से पहले समाज में कोई वर्ग नहीं थे। यह तब बनी जब उत्पादक शक्तियां ( productive forces ) ऐसे पर्याप्त स्तर पर पहुंच गयी, जहां भोजन, कपड़े, शरण, आदि की फ़ौरी जरूरतों की पूर्ति के बाद कुछ अधिशेष ( surplus ) का उत्पादन होने लगा था। इस स्तर पर पहुंच जाने के उपरांत, इस अधिशेष के ज़रिये दूसरों के श्रम ( labour ) को काम में लाना, उसका शोषण करना संभव हो गया। उससे चंद लोगों के पास संपदा ( wealth ) का संचय होने लगा और उसे समाज के अन्य सदस्यों पर आर्थिक शक्ति ( power ) व प्राधिकार ( authority ) की प्राप्ति के लिए इस्तेमाल में लाया जाने लगा। उस प्रक्रिया से समाज भिन्न-भिन्न वर्गों में बंट गया।

सारे सामाजिक समूह, वर्ग नहीं हैं। "वर्ग, लोगों के बड़े-बड़े समूहों को कहते हैं, जो सामाजिक उत्पादन की इतिहास द्वारा निर्धारित पद्धति में अपने स्थान की दृष्टि से, उत्पादन के साधनों ( means of production ) के प्रति अपने संबंधों की दृष्टि से ( अनेक मामलों में क़ानूनों द्वारा निश्चित तथा प्रतिपादित ), श्रम के सामाजिक संगठन में अपनी भूमिका ( role ) की दृष्टि से और फलस्वरूप सामाजिक संपदा के उस भाग की, जो उनके पास रहता है, प्राप्ति की विधि तथा आकार की दृष्टि से भिन्न होते हैं।"

इन लक्षणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण, उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व ( ownership ) है। जिन वर्गों के पास ऐसी संपत्तियां होती हैं और जो उसे अन्य लोगों के श्रम के परिणामों का विनियोजन करने के लिए इस्तेमाल करते हैं, शोषक वर्ग हैं, जबकि जिन वर्गों के पास ऐसी संपत्ति नहीं होती, उनका शोषण होता है, वे शोषित वर्ग हैं। इसलिए समाज के वर्ग विभाजन के आधार में कुछ संबंध ( relations ) निहित होते हैं और वे उत्पादक शक्तियों के विकास के स्वभाव व स्तर को नियंत्रित ( govern ) करते हैं।

किसी प्रदत्त ऐतिहासिक अवधि में, प्रचलित उत्पादन पद्धति के अनुरूप ही उसके मुख्य वर्ग होते हैं। एक युग में वे थे दास और दास स्वामी ( slaves ans slave-owners ), दूसरे में भूदास और सामंती भूपति ( serfs and feudal lords ) और तीसरे में उजरती मज़दूर और पूंजीपति ( wage workers and capitalists )। समाजवादी समाज में, जहां उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व नहीं होता है और फलतः कोई शोषक वर्ग नहीं होता है, मुख्य वर्ग हैं मज़दूर वर्ग ( working class ) और सहकारी किसानों का समुदाय ( co-operative peasantry )।

मुख्य वर्गों के अलावा अन्य सामाजिक संस्तर भी होते हैं, जो मुख्य नहीं होते और जो अन्य लोगों के श्रम का शोषण नहीं करते हैं ( अलग-अलग किसान, कारीगर तथा दस्तकार, जो पण्य उत्पादक होते हैं ) और कुछ ऐसे विशेष सामाजिक संस्तर भी हैं, जिनकी उत्पादन प्रणाली में कोई सुपरिभाषित स्थिति नहीं होती है, मसलन, बुद्धिजीवी ( intelligentsia ), जो शोषक समाज में नियमतः प्रभावी वर्ग का पल्ला थामें रहते हैं और उनके हितों की सेवा करते हैं। समाजवादी समाज में, जहां मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण नहीं होता, अधिकतर बुद्धिजीवी मज़दूरों और किसानों के परिवारों के होते हैं और उनके हित और लक्ष्य मज़दूर-किसानों के हितों के तदनुरूप होते हैं।

चूंकि समाज के वर्ग विभाजन का कारण सामाजिक उत्पादन का वस्तुगत विकास ( objective development ) है, इसलिए वर्ग भी कुछ निश्चित वस्तुगत अवस्थाओं ( objective conditions ) में ही लुप्त हो सकते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व का उन्मूलन है। चूंकि निजी संपत्ति का प्राबल्य ( prevalence ) होने पर समाज के मुख्य वर्गों के हित, एक दूसरे के विरोधी और असमाधेय ( irreconcilable ) होते हैं, इसलिए उनके बीच वर्गों की उत्पत्ति के समय से ही कटु संघर्ष होता चला आ रहा है। जिन समाजों में कुछ वर्ग अन्य वर्गों की क़ीमत पर अस्तित्वमान हैं, उनमें वर्ग संघर्ष हिंसक और निर्मम है। ऐसे समाजों को प्रतिरोधी समाज ( antagonistic society ) कहते हैं।

उत्पादक शक्तियों और उत्पादन संबंधों के बीच आंतरिक प्रतिरोधी अंतर्विरोध ( antagonistic contradictions ) इसी संघर्ष से हल किये जाते हैं, समाज के संगठन के पुराने रूप विघटित हो जाते हैं और नये रूपों की रचना होती है। जहां तक वर्गों का संबंध है, वे अपने आर्थिक और राजनीतिक लक्ष्यों को जानते-समझते हैं और उन लक्ष्यों की प्राप्ति और अपने विरोधी वर्गों को पराजित करने के लिए आवश्यक कुछ दृष्टिकोण ( views ), मत ( doctrines ) और सिद्धांत ( theories ) पेश करते हैं। वर्ग संघर्ष, उत्पादन तथा आर्थिक क्रियाकलाप से लेकर सामाजिक चेतना तक, समाज के जीवन के सारे पक्षों पर असर डालता है और, इस तरह, साबित कर देता है कि इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रेरक बल ( motive force ) वर्ग संघर्ष ही है।

चूंकि शोषक वर्ग, समाज में नियमतः अल्पसंख्यक होते हैं, इसलिए उन्हें ऐतिहासिक विकास की प्रत्येक अवस्था में अपने आर्थिक हितों की हिफ़ाज़त करने और सामाजिक उत्पादन की प्रणाली में अपनी प्रभावी स्थिति को बनाए रखने के लिए विशेष संस्थानों और संगठनों की ज़रूरत होती है। इन सामाजिक संस्थानों में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं राज्य  ( state ) और पार्टियां ( parties )। ये सारे वर्ग समाजों की अधिरचना का अंग हैं और महत्वपूर्ण क़ानूनी व राजनीतिक कार्य संपन्न करते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम
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