शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

व्यवहार के सहज रूप और सहजवृत्तियां

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार यहां क्षोभनशीलता पर हम एक संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया गया था। इस बार व्यवहार के सहज रूप और सहजवृत्तियों पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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व्यवहार के सहज रूप और सहजवृत्तियां


( पिछली बार हमने क्षोभनशीलता पर चर्चा करते हुए गुच्छिकीय तंत्रिका-तंत्र वाले जीवों में बाह्य क्षोभकों पर प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न सक्रियता को समझने की कोशिश की थी। यही उनका व्यवहार सुनिश्चित करती है। इस बार हम जीवों के व्यवहार के इन्हीं संरूपों को, उनके उत्सों को समझने की कोशिश करेंगे। यहां प्रचलित दृष्टिकोणों से अलग से लगते कुछ इशारे मिल सकते हैं, जो अपना एक वैज्ञानिक आधार रखते हैं। इसलिए थोड़ी सी एकाग्रता और गंभीरता की दरकार है )



कृमियों का व्यवहार सीलेंटरेटा की अपेक्षा अधिक जटिल होता है। उनके व्यवहार की मुख्य विशेषता सक्रिय खोज है।

उदाहरण के लिए, केंचुए पहले गिरे हुए पत्तों को उनके नुकीले सिरों से पकड़ते हैं और इसके बाद ही उन्हें अपने छिद्रों में खींचते हैं। अनेक अनुसंधानों ने दिखाया है कि कृमियों का "सोद्देश्य" व्यवहार पत्ते के सिरे पर मौजूद रासायनिक पदार्थ की प्रतिक्रिया है, न कि पत्ते के आकार की प्रतिक्रिया। कृमियों में हमें जातीय स्मृति की अधिक स्पष्ट अभिव्यक्ति मिलती है, जो अपने को सहज अननुकूलित प्रतिवर्तों में प्रकट करती है। उदाहरण के लिए, कतिपय एनेलिडा प्रजातियों की मादाएं अपने बच्चों की देखभाल की आनुवंशिक क्षमता प्रदर्शित करती हैं। वे अपनी वासयोग्य नलिका के भीतर अंडे देने के बाद अपने को ज़ोर से इधर-उधर हिलाने लगती हैं और इस तरह भ्रूणों के सांस लेने के लिए नलिका में ताज़ा पानी पहुंचाती हैं।

किंतु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अननुकूलित प्रतिवर्त सर्वथा सुनिश्चित परिवेशीय परिस्थितियों में ही पैदा होते हैं। दूसरी ओर, परिवेश निरंतर बदलता रहता है और इसलिए जातीयतः निर्धारित आनुवंशिक प्रतिक्रियाओं के अमली रूप लेने में बाधा पड़ सकती है। गुच्छिकामय तंत्रिका-तंत्रों वाले जीवों की परावर्तन-योग्यताएं अननुकूलित प्रतिवर्तों तक ही सीमित नहीं है। अपने जीवनकाल में वे बाह्य प्रभावों से संबंधित अनुक्रिया के नये रूप विकसित करते हैं, जो सहज प्रतिक्रियाओं से अधिक लचीले होते हैं। ये अनुकूलित प्रतिवर्त हैं।

यद्यपि सीलेंटरेटा भी अस्थायी संबंध ( अनुकूलित प्रतिवर्त ) विकसित कर सकते हैं.फिर भी कृमियों के अनुकूलित प्रतिवर्त स्पष्टतः उच्चतर श्रेणी के हैं, क्योंकि वे एक निश्चित सुनम्यता का प्रदर्शन करते हैं ( इसके बावज़ूद कि उन्हें भी अपने पैदा होने के लिए बड़ी संख्या में तरह-तरह के क्षोभकों की जरूरत होती है )।

एक प्रयोग किया गया, जिसमें कृमियों को अपने छिद्र तक पहुंचने के लिए लैटिन के T अक्षर के आकार की भूलभुलैया से बाहर निकलने का रास्ता खोजना था। जब निकास दायें सिरे पर होता था और कृमियों को बायीं ओर से बिजली का झटका दिया जाता था, तो वे १२०-१८० प्रयोगों के बाद दायीं ओर मुड़ना सीख जाते थे। बाद में जब बिजली के तारों को दूसरे सिरे पर स्थानांतरित किया गया और निकास को बायें सिरे पर रखा गया, तो कृमियों ने अपनी अनुक्रिया को तदअनुसार बदल लिया। मगर यह उल्लेखनीय है कि पुनर्शिक्षण-काल आरंभ में आदत बनने में लगे काल से दो-तीन गुना छोटा था।

कृमियों में जन्मजात व्यवहार-संरूपों ( भावी सहजवृत्तियों के पूर्वगामियों ) के प्रथम चिह्न भी मिलते हैं और साथ ही परावर्तन का एक अधिक नमनीय रूप, अनुकूलित प्रतिवर्त भी।  गुच्छिकामय तंत्रिका-तंत्र की ज़्यादा पेचीदी संरचना परवर्तन की ओर अधिक गुंजाइश पेश करती है।

आर्थोपोडा और खास तौर से कीटों की एक विशेषता उनमें सहजवृत्तियों की मौजूदगी है। सहजवृत्तियां, जीव की परिवेश की परिस्थितियों से संबंधित प्रतिक्रियाओं का एक जटिल जन्मजात रूप है। कुछ निश्चित क्षोभकों के प्रति प्रतिक्रियाओं का उनका एक श्रृंखलित स्वरूप होता है और उन्हीं की वज़ह से ही जीव एक के बाद एक अनुकूलनात्मक क्रियाएं करता जाता है

उदाहरण के लिए, मकड़ियों की कुछ जातियों की मादाएं अपने अंडों के लिए जाली के कृमिकोष बनाती हैं। मादा इस कॄमिकोष को संभालकर रखती है और प्रायः उसकी जगह बदलती रहती है। ज्यों ही नन्हीं मकड़ियां परकट होती हैं, मादा उनसे नज़र नहीं हटाती। मगर जैसे-जैसे समय गुजरता है और बच्चे बड़े होते हैं, उनकी मां उनकी ओर से उदासीन होती जाती है और अंत में जब वे आत्मनिर्भर बन जाते हैं, वह उन्हें छोड़ देती है।

मधुमक्खियों में उनके सामूहिक व्यवहार-संरूपों से संबंधित बड़ी ही पेचीदी सहजवृत्तियां पायी जाती हैं।

जैसा कि मालूम है, मधुमक्खियों के हर छत्ते में एक रानी मधुमक्खी, बीसियों नर मधुमक्खियां और कई सौ बांझ कामगार मधुमक्खियां ( अविकसित जननेंद्रियोंवाली मादाएं ) होती हैं। सबसे जटिल कामगर मधुमक्खियों का व्यवहार होता है। अपने विकास के दौरान ऐसी हर मधुमक्खी अपने प्रकार्य बदलती रहती है। शुरू में वह लार्वा को खिलाया करती है, छत्ते की सफ़ाई करती है, बाद में उसका काम छत्ते की रक्षा करना, खाना लाना और कोशिकाएं बनाना हो जाता है।
बिलकारी बर्र की सहजवृत्तियां भी उसके द्वारा किये जानेवाले कार्यों की एक जटिल श्रृंखला है। ज़मीन में बिल बनाकर वह हर बार जब भी उसे खाने की तलाश में जाना होता है, बिल के मुंह पर मिट्टी का लौदा लगा देती है। जब वह लौटती है, तो पहले शिकार ( खाने ) को द्वार पर रखती है, लौंदे को हटाती है, बिल की जांच करती है और इसके बाद ही शिकार को भीतर ले जाती है।

अनजान आदमी को आर्थोपोडा का ऐसा स्पष्टतः कार्यसाधक व्यवहार आश्चर्य में ड़ाल सकता है, किंतु इसमें किसी भी तरह का कोई सचेतन प्रयास नहीं है। वास्तव में ये निश्चित बाह्य उत्तेजकों की स्वचालित प्रतिक्रियाएं ही हैं, जो दत्त जाति के सभी जीवों द्वारा एक ही ढ़ंग से की जाती हैं। सहज व्यवहार परिस्थितियां बदलने पर भी नहीं बदलता, किंतु तब वह कार्यसाधक नहीं रह जाता, और इसके लिए एक महत्वपूर्ण कड़ी का बदलना या छूट जाना ही काफ़ी है। ऐसी कई परिस्थितियों के प्रेक्षण तथा अध्ययन किये गये हैं, जो सहजवृत्तियों को बेमानी बना देती हैं।

उदाहरणार्थ, बहुत बार परजीवियों द्वारा कृमिकोष के भीतर के अंडों को खा लिये जाने के बावज़ूद, मादा मकड़ी उस खोखले कृमिकोष की फिर भी रक्षा करती है और अपने साथ ले जाती है। ऐसा भी होता है कि मादा मकड़ी कृमिकोष बनाती है, अंडे देने की क्रियाएं करती हैं, किंतु असल में अंडे देती नहीं। इस असफ़लता के बावज़ूद वह आगे की सभी क्रियाएं करती है, यानि खाली कृमिकोष को बंद करती है और अपने साथ ले जाने लगती है।
मधुमक्खियों की प्रतिक्रियाओं की कार्यसाधकता भी काफ़ी सापेक्ष है। यदि छत्ते के पिछले हिस्से को काट दिया जाए, जिसमें शहद संचित किया जाता है, तो मधुमक्खी फिर भी उसमें शहद की एक निश्चित मात्रा रखकर अगले हिस्से को मोम से बंद कर देगी, जबकि पिछले हिस्से से शहद बाहर बहता रहेगा।
एक बर्र के रूढ़ अलाभकर व्यवहार का एक दिलचस्प प्रेक्षण है। जब वह एक मृतप्राय टिड्डे को पकड़कर लाई और सभी बर्रों की तरह पहले अपने बिल की जांच करने गई, तो अध्येता ने बिल के मुंह के पास रखे टिड्डे को कुछ दूर हटा दिया। बाहर आने पर बर्र ने टिड्डे को खोजा, खींचकर बिल के मुंह के पास ले आई और फिर से बिल के अंदर जांच करने गई। अध्येता ने चालीस बार टिड्डे को हटाया और हर बार बर्र फिर से उसे खोजकर बिल के मुंह के पास ले गई और फिर उसे खींचकर अंदर ले जाने से पहले बिल की जांच करने के लिए भीतर गई। अध्येता को ही बर्र की इस सहजवृत्ति से हार मान लेनी पड़ी।

ये मिसालें सहजवृत्ति की सीमाएं दिखाती हैं। सहजवृत्ति-जन्य क्रियाएं कुछ निश्चित परिस्थितियों से ही जुड़ी होती हैं। सहज व्यवहार के क्रियातंत्र को बाह्य परिस्थितियों द्वारा प्रवृत्त किया जाता है, जो प्रतिवर्ती अनुक्रिया को पैदा करती है। यह अपनी बारी में अगली और वह उससे अगली अनुक्रिया को जन्म देती है। इस प्रकार प्रतिवर्तों की सारी श्रृंखला एक आनुवंशिक प्रोग्राम बन जाती है। जैसे ही परिवेशीय परिस्थितियों के मानक रूप में परिवर्तन आता है, सहजवृत्तिमूलक क्रियाएं अपनी कार्यसाधकता खो बैठती हैं। इस तरह जीवधारियों में सहजवृत्ति पर आधारित व्यवहार-संरूप अपरिवर्तित परि्स्थितियों में ही कार्यसाधक होते हैं।

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इस बार इतना ही। अगली बार हम सहजवृत्तियों पर ही बात को और आगे बढ़ाएंगे, और देखेंगे कि इनकी सीमाएं लांघ कर जीव किस तरह अनुकूलित संबंध विकसित करते हैं।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

3 टिप्पणियां:

L.Goswami ने कहा…

बेहतर ...

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सहजवृत्ति में सूचनाएँ प्रोसेस नहीं होती हैं,प्राप्त सूचनाएँ सीधे एक्शन को ट्रिगर कर देती हैं और शरीर उसी के अनुरूप क्रिया करने लगता है।
इतना समझ पाया हूँ।

Vinashaay sharma ने कहा…

यह जीवों के बारे में पड़ कर,एक नया ज्ञान मिला,जिससे में अनभिज्ञ
था ।

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