शनिवार, 27 दिसंबर 2014

तत्वमींमासीय भौतिकवाद की ज्ञानमीमांसा

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान सिद्धांत पर संक्षिप्त विवेचना प्रस्तुत की थी, इस बार हम तत्वमींमासीय भौतिकवाद की संज्ञान विषयक अवधारणा पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



तत्वमींमासीय भौतिकवाद की ज्ञानमीमांसा
( epistemology of metaphysical materialism )

१७वीं सदी से लेकर १९वीं सदी के आरंभ तक प्रकृतिविज्ञान ( natural science ), परिघटनाओं के अध्ययन की विधियों ( methods ) के प्रश्न पर यंत्रवाद ( mechanism ) का ही अनुसरण करता रहा। यंत्रवाद, यांत्रिकी ( mechanics ) के नियमों के निरपेक्षीकरण के परिणामस्वरूप विश्व का एक यांत्रिकवादी चित्र प्रस्तुत करता था, जिसके अनुसार, समस्त ब्रह्मांड ( परमाणुओं से लेकर ग्रहों तक ) ऐसे अपरिवर्तनीय तत्वों से युक्त एक बंद यांत्रिक प्रणाली है, जिनकी गति क्लासिकीय यांत्रिकी से निर्धारित होती है। परंतु कालान्तर में प्राकृतिक विज्ञानों की उपलब्धियों ने यंत्रवाद की संकीर्णता को स्पष्ट कर दिया। तत्कालीन तत्वमीमांसीय या अधिभूतवादी भौतिकवाद के संज्ञान सिद्धांत की मूलभूत विशेषताएं काफ़ी कद तक इसी यांत्रिकवादी दृष्टिकोण की उपज थीं।

इस सिद्धांत के मूल में यह धारणा निहित थी कि मनुष्य परिवेशी विश्व का काफ़ी-कुछ सही संज्ञान प्राप्त कर सकता है। संज्ञान का आधार, या यह कहें कि भौतिक वास्तविकता के साथ मनुष्य के संपर्क का साधन अनुभूतियां ( sensations ) हैं। तत्कालीन भौतिकवादी दार्शनिकों के अनुसार, ये अनुभूतियां बाह्य विश्व की छवियां ( images ), प्रतिकृतियां ( replicas ) या दर्पण में दिखायी देनेवाली छायाओं ( shadows ) की तरह हैं। संज्ञान की प्रक्रिया में अनुभूतियों की भूमिका से संबंधित यह दृष्टिकोण न केवल सामान्य व्यक्ति में पायी जानेवाली सामान्य बुद्धि, बल्कि तत्कालीन प्रकृतिविज्ञान के भी अनुरूप था। आत्मपरक प्रत्ययवादी ( subjective idealistic ) और अज्ञेयवादी ( agnostic ) अनुभूतियों की भूमिका की ऐसी व्याख्या का ही घोर विरोध करते थे।

तत्वमीमांसीय भौतिकवाद की ज्ञानमीमांसा ( epistemology ) का कमज़ोर पहलू यह था कि वह निष्क्रिय प्रेक्षण ( passive observation ), यानी प्रेक्षणाधीन वस्तुओं में होनेवाले परिवर्तनों से असंबंधित प्रेक्षण पर आवश्यकता से अधिक ज़ोर देती थी। इस तरह प्रेक्षण को इतना महत्त्व दिया जाना इस प्रकृतिवैज्ञानिक सिद्धांत को परम सत्य मानने का परिणाम था कि वैज्ञानिक का कार्य प्रकृति का प्रेक्षण करना है, न कि उसे बदलना। यह नियम प्रायोगिक प्रकृतिविज्ञान के अपेक्षया आरंभिक चरण, तथ्य सामग्री के संचय और वर्गीकरण के अनुरूप था। हालांकि १७वीं-१९वीं सदियों में प्रयोगात्मक संज्ञान ( experimental cognition ) की संज्ञेय परिघटनाओं पर प्रभाव डालने से संबंधित विधियों का भी शनैः शनैः विकास और परिष्करण ( refinement ) हुआ, किंतु तत्वमीमांसीय भौतिकवाद उनके महत्त्व को पूरी तरह ह्रदयंगम नहीं कर पाये।

चिन्तनपरकता और संज्ञान की सक्रिय भूमिका के अपूर्ण मूल्यांकन का एक कारण यह भी था कि तत्वमीमांसीय भौतिकवादी, चिन्तन की नियमसंगतियों के विश्लेषण के महत्त्व को पूरी तरह आंक नहीं सके थे। यही पूर्ववर्ती भौतिकवाद की मुख्य कमज़ोरी थी, कि तत्वमीमांसीय भौतिकवादी विश्व के संज्ञान को एक ऐसी प्रक्रिया मानते थे, जो निष्क्रिय प्रेक्षण पर आधारित है न कि प्रकृति और समाज के सक्रिय रूपांतरण ( active transformation ) पर। वे इस तथ्य को पहचान नहीं पाये कि सही वैज्ञानिक ज्ञान विश्व के सक्रिय रूपांतरण के दौरान ही पाया जा सकता है।

यह स्वीकार करने के बावजूद, कि हमारे संप्रत्यय ( concepts ) और अनुभूतियां भौतिक वस्तुओं और प्रक्रियाओं के बिंब ही है, तत्वमीमांसीय भौतिकवाद तो चिंतन के विकास के नियमों की व्याख्या कर पाया और संज्ञान के परिवर्तन के आधारों का अध्ययन ही कर सका, क्योंकि वह संज्ञान के मुख्य तरीक़ो और रूपों को स्थायी ( permanent ) और अपरिवर्तित मानता था। इसी बात ने उसे दोषपूर्ण और उन बहुत से प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ बनाया, जो समाज और विज्ञान के विकास द्वारा उठाये गये थे। यह आवश्यक था कि लोगों के संज्ञानकारी कार्यकलाप के अध्ययन के सिलसिले में पैदा हुए प्रश्नों के प्रति सिद्धांततः नया रवैया ( attitude ) अपनाया जाये। इस समस्या का समाधान द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ( dialectical materialism ) के संज्ञान सिद्धांत ने प्रस्तुत किया।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -२

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान सिद्धांत पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -२
( theory of knowledge by classical idealism - 2 )

काण्ट का दर्शन अंतर्विरोधों ( contradictions ) से भरपूर था। एक ओर, प्रकृतिविज्ञान के सामने झुकते हुए वह यथार्थ ( real ) वस्तु-निजरूपों के अस्तित्व ( existence ) को स्वीकार करते थे और उन्हें अनुभूतियों का स्रोत ( source ) मानते थे। मगर दूसरी ओर, तर्कबुद्धिवाद के सिद्धांतों पर अडिग रहने की कोशिश में वह इस बात से इनकार करते थे कि अनुभूतियां और इन्द्रियजन्य कल्पनाएं यथार्थ विश्व का काफ़ी-कुछ सही प्रतिबिंब करती हैं, और इसलिए वह निर्णायक स्थान संज्ञान के प्रागनुभव रूपों को ही देते थे। काण्ट की ज्ञानमीमांसा ( epistemology ) की इस विरोधपूर्णता का उल्लेख करते हुए जर्मन दार्शनिक फ़्रीडरिख़ जैकोबी ( १७४३-१८१९ ) ने लिखा कि ‘वस्तु-निजरूप’ के बिना काण्ट के दर्शन में प्रवेश नहीं किया जा सकता, किंतु उसी ‘वस्तु-निजरूप’ के साथ इस दर्शन के अंदर रहा भी नहीं जा सकता।

महान जर्मन द्वंद्ववादी हेगेल ने काण्ट के दर्शन के अंतर्विरोध को ख़त्म करने और उसे अधिक सुसंगत बनाने की कोशिश में जर्मन क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान के सिद्धांत को ‘वस्तु-निजरूप’ से और उसके साथ ही प्रकृतिविज्ञान पर आधारित भौतिकवाद के तत्वों से भी पूर्ण मुक्ति दे दी। हेगेल के अनुसार, आंतरिक विरोधों से प्रेरित होकर, मानव संज्ञान निरंतर विकास करता रहता है। विश्व संज्ञेय है किंतु हमारा चिंतन, सत्ता के रहस्यों में जितना ही गहरा पैठेगा, उतना ही अधिक यह स्पष्ट होगा कि संज्ञान की प्रक्रिया की सहायता से परम चित् परिवेशी विश्व में ख़ुद अपने नियमों को उद्घाटित करता है। दूसरे शब्दों में, विश्व के संज्ञान का मतलब है उसके आध्यात्मिक, प्रात्ययिक अन्तर्य का संज्ञान करना।

मानव संज्ञान की सक्रिय और द्वंद्वात्मक प्रकृति के निरूपण में हेगेल के बहुत बड़े योगदान के बावजूद उनका संज्ञान सिद्धांत आदि से लेकर अंत तक प्रत्ययवादी ( idealistic ) था और इसलिए प्रायोगिक प्रकृतिविज्ञान को वह मान्य नहीं हुआ। इसके अलावा, चूंकि हेगेल को अपने काल की भौतिकी और गणित की उपलब्धियों का भरपूर ज्ञान नहीं था, इसलिए प्रकृति विकास के नियमों के बारे में उनके निष्कर्ष प्रायः १९वीं सदी के वैज्ञानिकों की अवधारणाओं से मेल नहीं खाते थे।

प्रत्ययवादी दार्शनिक ऐसा संज्ञान सिद्धांत न बना सके, जो सैद्धांतिक और प्रायोगिक प्रकृतिविज्ञानों की आवश्यकताओं और निष्कर्षों के अनुरूप होता। ऐसा सिद्धांत तत्कालीन भौतिकवादी ( materialistic ) दार्शनिक भी न बना पाये, यद्यपि उनके बीच कई प्रतिभाशाली विचारक थे। व्यापक प्रसार तथा विज्ञान और संस्कृति के विकास पर अपने बड़े प्रभाव के बावजूद ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ ( dialectical materialism ) से पूर्व का भौतिकवाद भी संज्ञान प्रक्रिया की समझ के मामले में कई दोषों से मुक्त नहीं था।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -१

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान विषयक तर्कबुद्धिवाद के विचारों पर संक्षिप्त विवेचना प्रस्तुत की थी, इस बार हम क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान सिद्धांत पर चर्चा शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -१
( theory of knowledge by classical idealism - 1 )

अज्ञेयवाद ( agnosticism ) और तर्कबुद्धिवाद ( rationalism ) में से कोई भी संज्ञान का एकीभूत, संपूर्ण चित्र प्रस्तुत न कर सका। दोनों में से प्रत्येक ने अनुभूति ( sensation ) या तर्कबुद्धि ( reason ) के महत्त्व को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हुए उन्हें एक दूसरे के मुक़ाबले में रखा और उस संबंध को अनदेखा किया, जो संज्ञान की प्रक्रिया में इन दोनों पहलुओं ( aspects ) के बीच मौजूद रहता है।

उदाहरण के लिए, भौतिकीवेत्ता यंत्र की मापनी पर सूई के इन्द्रियगोचर दोलनों ( sensible oscillations ) को देखते हुए उन्हें विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र के परिवर्तनों ( changes ) से जोड़ता है और इस तरह तार्किक व्याख्या ( logical explanation ) और दृश्यानुभूति ( visual sensation ) को एकीभूत प्रक्रिया में संयुक्त ( unified ) बनाता है। किंतु जो संज्ञान की प्रक्रिया के अनुभूतिमूलक ( sense-oriented ) और तर्कमूलक ( logic-oriented ) पक्षों को एक दूसरे के मुक़ाबले में रखता है, वह संज्ञान की प्रक्रिया ( process of cognition ) का अति सरलीकरण करता है और संज्ञानकारी कार्यकलाप की असली तथा जटिल प्रकृति को बिगाड़कर दिखाता है।

जर्मन क्लासिकी प्रत्ययवाद के प्रवर्तक एमानुएल काण्ट ने अज्ञेयवाद और तर्कबुद्धिवाद के वैपरीत्य ( contrariety ) को ख़त्मकर संज्ञान सिद्धांत को तत्कालीन प्रकृतिविज्ञान और गणित के निष्कर्षों के अनुरूप बनाने की कोशिश की थी। जैसा कि ज्ञात है, प्राकृतिक विज्ञान प्रेक्षणों और प्रयोगों का सहारा लेता है। किंतु इस तरीक़े से पाया गया ज्ञान परिवेशी विश्व की घटनाओं के बाह्य, परिवर्तनशील और सांयोगिक पक्ष की ही सूचना देता है।

काण्ट के शब्दों का इस्तेमाल करें, तो बाह्य, प्रतीयमान और दृश्य पक्ष अर्थात परिघटना के पीछे यथार्थ वस्तुएं या ‘वस्तु-निजरूप’ ( ‘thing in itself’ ) छिपे होते हैं। ये वस्तु-निजरूप ही परिघटनाओं ( phenomena ) को जन्म देते हैं। किंतु परिघटना और वस्तु-निजरूप के बीच बहुत बड़ी खाई है। परिघटना अनुभूतिगम्य है, जबकि वस्तु-निजरूप केवल मन ( मस्तिष्क ) द्वारा ही जाना जा सकता है। मन में अनुभवनिरपेक्ष प्रवर्ग होते हैं, जिनकी संख्या १२ है, जैसे अनिवार्यता, कारण, आदि। विज्ञान के नियमों की रचना में ये प्रवर्ग ( categories ) ही भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार काण्ट के अनुसार इन्द्रियबोध हमें वस्तु-निजरूपों की जानकारी नहीं देता और इस प्रश्न को असमाधित ( unresolved ) ही छोड़ देता है कि हम उनके अस्तित्व के बारे में कहां से जानते हैं।

काण्ट ने संज्ञान के अनुभवनिरपेक्ष या प्रागनुभव रूपों ( pre-experience forms ) में दिक् और काल ( space and time ) को भी सम्मिलित किया था, जिनकी सहायता से ही अनुभूतियों पर आधारित अनुभवसिद्ध ज्ञान को क्रमबद्ध और व्यवस्थित किया जाता है। किंतु काण्ट का दर्शन इसका कोई उत्तर नहीं दे पाता कि प्रवर्गों तथा अन्य अनुभवनिरपेक्ष रूपों को, इन्द्रिय दत्त रूपों ( sensuous forms ) के अनुरूप कैसे और क्यों बनाया जाता है। और साथ ही यह भी कि इन्द्रिय दत्त रूप, सिद्धांततः असंज्ञेय ( non-cognizable ) वस्तु-निजरूपों के बारे में क्या सूचना देते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

तर्कबुद्धिवाद और विश्व का संज्ञान

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा पर संक्षिप्त विवेचना का समापन किया था, इस बार हम संज्ञान विषयक तर्कबुद्धिवाद के विचारों पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



तर्कबुद्धिवाद और विश्व का संज्ञान
( rationalism and cognition of the world )

संज्ञान के सिद्धांत के विकास को दार्शनिक तर्कबुद्धिवाद ( rationalism ) ने काफ़ी प्रभावित किया है। तर्कबुद्धिवादी (rationalist ) मानते हैं कि ज्ञान का सामान्य तथा आवश्यक स्वरूप तर्कबुद्धि से हासिल किया जा सकता है, इसलिए यह मत अनुभववाद ( empiricism ) के प्रतिकूल है जो कि इसे सिर्फ़ अनुभव ( experience ) से हासिल किये जाने योग्य मानता है। इसी तरह तर्कबुद्धिवाद जो कि विवेक, चिंतन की शक्ति प्राथमिकता देता है, अतर्कबुद्धिवाद ( irrationalism ) के भी प्रतिकूल है जो कि संज्ञान में अंतःप्रज्ञा ( intuition ), अनुभूति, सहजबोध आदि को प्रधानता देता है।  गणित संबंधी तार्किक विशेषताओं का स्पष्टीकरण करने के प्रयास के रूप में तर्कबुद्धिवाद की उत्पत्ति हुई। १७वीं शताब्दी में उसके प्रतिपादक देकार्त, स्पिनोज़ा, लेइब्नित्स, तथा १८वीं शताब्दी में कांट, फ़िख्टे, शेलिंग तथा हेगेल थे।

तर्कबुद्धिवाद के अनुसार सच्चे ज्ञान के तार्किक लक्षणों का निगमन केवल स्वयं मन से किया जा सकता है, या तो मन में जन्म से विद्यमान संकल्पनाओं ( concepts ) से, अथवा केवल मन के रुझानों ( trends ) के रूप में विद्यमान संकल्पनाओं से उनका निगमन किया जा सकता है। तर्कबुद्धिवादी मानते थे कि अनुभूतियों ( sensations ) और इन्द्रियबोधों ( senses ) की भूमिका गौण है और संज्ञान के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति, यानी जिन वस्तुओं का अध्ययन किया जा रहा है, उनके नियमों, मुख्य गुणों और संबंधों की खोज केवल तर्कबुद्धि ( reason ) की सहायता से और तार्किक विवेचनाओं के आधार पर संभव है। किंतु हर विवेचना ( deliberation ) के लिए कोई आरंभबिंदु तो होना ही चाहिए।

यह आरंभबिंदु वे अभिगृहीत, स्वयंसिद्धियां या सिद्धांत ( axioms or theory ) हैं, जिनका संबंध सारे विश्व या उसके अलग-अलग हिस्सों से होता है। किंतु स्वयं उनका मूल क्या है? तर्क के वे नियम और मापदंड़ ( criteria ) कहां से लिये जाते हैं, जो सिद्धांतों के आधार पर क़दम-क़दम करके वैज्ञानिक ज्ञान पाने की संभावना देते हैं? धार्मिक रुझान वाले तर्कबुद्धिवादियों की धारणा थी कि कोई दैवी शक्ति दार्शनिकों और विचारकों को उनका उद्घाटन करती है। इसके विपरीत अनीश्वरवादी तर्कबुद्धिवादी सोचते थे कि विचारक इन सिद्धांतों, अभिगृहीतों और नियमों का ज्ञान तर्कबुद्धि के निरन्तर प्रशिक्षण ( training ) के ज़रिये पा सकता है, जिसके फलस्वरूप सीधे सहजबुद्धि की सहायता से उसे आवश्यक जानकारी मिल जायेगी। यह आरंभिक जानकारी स्पष्ट, सुनिश्चित और निर्विवाद होनी चाहिये। मानव की तर्कबुद्धि सर्वोच्च निर्णायक है और यदि वह उसके उसके द्वारा सृजित ( created ) संप्रत्ययों तथा सिद्धांतों ( concepts and theories ) में विरोधाभास नहीं पाती, तो यह उनकी सत्यता का सर्वोत्तम प्रमाण है। तर्कबुद्धिवादियों के इन विचारों पर गणित और विशेषतः ज्यामिति संबंधी विचारों और विधियों की स्पष्ट छाप थी। यह संयोग नहीं है कि तर्कबुद्धिवाद के एक प्रवर्तक फ्रांसीसी दार्शनिक देकार्त ( १५९६-१६५० ) आधुनिक विश्लेषणात्मक ज्यामिति के पितामहों में भी गिने जाते हैं।

ज्ञात है कि यूक्लिड की ज्यामिति सदियों तक विज्ञान की रचना का आदर्श मानी जाती थी। अतीत के विचारकों की दृष्टि में उसकी एक सबसे आकर्षक विशेषता यह थी कि वह कुछ इने-गुने स्वयंसिद्ध तथ्यों की प्रस्थापना से शुरू होती है, जिनसे फिर क़दम-क़दम करके, तर्कसंगत ढंग से अकाट्य प्रमाणों की सहायता से नये-नये प्रमेय ( theorem ) निकाले जाते हैं। तर्कबुद्धिवादियों ने, जो प्राप्त ज्ञान की तार्किक निर्दोषिता को सर्वाधिक महत्त्व देते थे, इस स्वयंसिद्धिमूलक विधि ( axiom oriented method ) को ही अपने आदर्श के रूप में स्वीकार किया।

किंतु यदि स्वयंसिद्धियां दैवी देन नहीं है, तो वे कहां से आयीं? हमारी सहजबुद्धि यथार्थ विश्व का साफ़-साफ़ ज्ञान कैसे दे पाती हैं और यदि अनुभूतियां सूचना का विश्वसनीय स्रोत नहीं हैं, तो भौतिक वस्तुओं के विश्व के साथ स्वयंसिद्धियों से प्राप्त परिणामों के संबंध को कैसे परखा जा सकता है? तर्कबुद्धिवाद इन प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाया। १९वीं सदी में स्वयं विज्ञान ने उसपर प्रबल प्रहार किया, जब तीन गणितिज्ञ एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यूक्लीडीय ज्यामिति के ‘निर्विवाद’, ‘सुस्पष्ट’ माने जाने वाले पांचवें अभिगृहीत ( समानान्तर रेखाओं के बारे में ) को विभिन्न अभिगृहीतों से बदला जा सकता है। इस तरह विभिन्न अयूक्लीडीय ज्यामितियां पैदा हुई, जो एक दूसरे से भिन्न होने के साथ-साथ तर्कसंगत भी थीं। जैसा कि विज्ञान के विकास ने विशेषतः आपेक्षिकता सिद्धांत के अविष्कार और अंतरिक्षीय प्रयोगों समेत बहुसंख्य प्रयोगों के बाद दिखाया है, यूक्लीडीय ज्यामिति की अपेक्षा वे बाह्य विश्व की अधिक गहरी और अधिक विश्वसनीय जानकारी देती हैं।

इस प्रकार वैज्ञानिक ( और सबसे पहले गणितीय ) संज्ञान के बहुत से तथ्यों का स्पष्टीकरण पेश करने के बावजूद तर्कबुद्धिवाद, एक ओर विज्ञान के नियमों तथा वास्तविकता की संज्ञेयता और दूसरी ओर भौतिक विश्व की परिघटनाओं ( phenomena ) के बीच के सही संबंध को न पहचान सका। तर्कबुद्धिवाद की संकीर्णता इस बात की अस्वीकृति में निहित है कि सार्विकता तथा आवश्यकता, अनुभव से उत्पन्न हुई। वह ज्ञान के संक्रमण ( transition ) में व्यवहार और चिंतन की द्वंद्वात्मकता ( dialectic of practice and thinking ) को स्वीकार नहीं करता। इसी संकीर्णता पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने क़ाबू पाया जो व्यवहार के साथ ज्ञान की एकता में संज्ञान की प्रक्रिया पर विचार करता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 29 नवंबर 2014

अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी संक्षिप्त विवेचना का समापन करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा - २
( epistemology of agnosticism - 2 )

हर व्यक्ति और समस्त मानवजाति के जीवन का अनुभव बताता है कि अनुभूतियां ( feelings ) वास्तव में बाह्य विश्व के बारे में हमारे ज्ञान का स्रोत हैं। हम अपने दैनंदिन जीवन में प्रकृति संबंधी प्रयोगों के द्वारा जो अधिकांश ज्ञान पाते हैं, वह इंद्रियबोधों ( senses ) और अनुभूतियों पर ही आधारित होता है। इस प्रश्न पर भौतिकवादी और अज्ञेयवादी दोनों सहमत हैं। उनके बीच का मतभेद तब शुरू होता है, जब संज्ञान की प्रक्रिया में अनुभूतियों की भूमिका ( role ) और उनके स्रोत ( source ) का सवाल उठता है।

भौतिकवादी कहते हैं कि अनुभूतियां मानव मस्तिष्क में बाह्य परिवेश से पहुंचनेवाली सूचना का संप्रेषण ( communication ) तथा प्रसंस्करण ( processing ) करती हैं। इसके विपरीत अज्ञेयवादी भौतिक विश्व के अस्तित्व को और इस तरह संज्ञान की संभावना को भी नहीं मानते। किंतु बात इतनी ही नहीं है। समस्त संज्ञान को इन्द्रियजन्य अवबोध मात्र मानने के बाद अज्ञेयवादी आगे यह नहीं बता पाते कि मनुष्य की चेतना और विशेषतः वैज्ञानिक जानकारियों की प्रणाली में वे विचार या संप्रत्यय ( concepts ) कैसे प्रकट होते हैं, जिन्हें इंद्रियजन्य बिंब ( image ) और अनुभूतियां नहीं कहा जा सकता।

एक स्वतंत्र विचार प्रणाली के रूप में अज्ञेयवाद का जन्म प्रायोगिक प्रकृतिविज्ञान और गणित के तीव्र विकास के काल में हुआ था। यह गणितीय विश्लेषण, उच्च बीजगणित, इत्यादि के उत्कर्ष का काल था। ये विज्ञान ऐसे संप्रत्ययों का इस्तेमाल करते हैं, जैसे ‘अनन्तता’, ‘फलन’, ‘अनन्त रूप से लघु परिणाम’, ‘बहुविम सदिश’, आदि। इन सब संप्रत्ययों की रचना केवल अनुभूतियों के आधार पर नहीं की जा सकती और न उन्हें अनुभूति का समतुल्य ( equivalent ) ही कहा जा सकता है। दूसरी ओर, विज्ञान का सारा इतिहास उनके महत्त्व की पुष्टि कर चुका है और वे सिद्धांत के विकास के लिए ही नहीं, अपितु व्यावहारिक परिणाम पाने के लिए भी अत्यावश्यक सिद्ध हुए हैं। यह तथ्य अज्ञेयवाद की अयुक्तिसंगतता को साफ़-साफ़ दिखा देता है, क्योंकि यह आधुनिक विज्ञान के अनेक महत्त्वपूर्ण संप्रत्ययों के मूल और भूमिका को नहीं समझा सकता।

आज के समय में, अज्ञेयवाद की सर्वाधिक अतिवादी और स्पष्ट अभिव्यक्ति अतर्कबुद्धिवाद ( irrationalism ) है। यह विश्वास तथा सहजबोध को, मानव ज्ञान के मुक़ाबले में खड़ा करके मनुष्य की संभावनाओं को सीमित करता है। इसके अनुसार संज्ञान में विवेक, चिंतन और तर्क की शक्ति सीमित होती है, कि संज्ञान की मुख्य विधि अन्तःप्रज्ञा ( intuition ), अनुभूति, सहजवृत्ति ( instinct ), आदि हैं। वे विश्व की एक अराजक, नियमसंगति से रहित, तर्कहीन, संयोग के करतबों वाली निराशावादी तस्वीर पेश करते हैं, और विज्ञान तथा सामाजिक प्रगति का निषेध करते हैं। कुछ अतर्कबुद्धिवादी दार्शनिक, बल तथा संकल्पशक्ति का विचार भी प्रतिपादित करते हैं, जो कि अंततः अपनी नियति में फ़ासिज़्म ( fascism ) की वैचारिकी तथा व्यवहार के निरूपणार्थ एक स्रोत के रूप में काम करता है।

इस तरह अज्ञेयवादी केवल विज्ञान की बुनियाद को ही कमज़ोर नहीं बनाते, बल्कि वैज्ञानिक विश्व-दृष्टिकोण तथा प्रगतिशील वैचारिकी को भी कमज़ोर करते हैं। अतः यह आश्चर्य की बात नहीं है कि वर्तमान में भी प्रगतिशील वर्गों के विरोधी, वैचारिक संघर्ष में अज्ञेयवाद को एक हथियार की तरह से इस्तेमाल करते हैं। वे यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि विश्व और मनुष्य को जानना असंभव है। वे विज्ञान की भूमिका को सीमित करते हैं, तार्किक चिंतन को अस्वीकार करते हैं तथा प्रकृति और विशेष रूप से समाज के वस्तुगत नियमों के संज्ञान के अस्वीकरण के आधार पर एक वैचारिक घटाघोप की अंधगली में भटकते रहने के लिए हमें छोड़ देते हैं। विश्व की ज्ञेयता ( knowability ) को अस्वीकार करके अज्ञेयवादी हमें इस विश्व में सही दिशा की ओर जाने से वंचित करते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 22 नवंबर 2014

अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत विश्व की ज्ञेयता के बारे में एक बातचीत प्रस्तुत की थी, इस बार हम अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा पर एक संक्षिप्त विवेचना की शुरुआत करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा - १
( epistemology of agnosticism - 1 )

विश्व की ज्ञेयता ( knowability ) के प्रश्न के उत्तर के अनुसार सारे दार्शनिक मुख्यतः दो प्रवृत्तियों में विभाजित हो जाते हैं। एक प्रवृत्ति में विश्व की ज्ञेयता के समर्थक शामिल हैं, दूसरी प्रवृत्ति में इस ज्ञेयता के विरोधी शामिल हैं, जो यह मानते हैं कि विश्व पूर्णतः या अंशतः अज्ञेय ( unknowable ) है। विश्व की ज्ञेयता के विरोधियों को सामान्यतः अज्ञेयवादी ( agnostic ) कहते हैं। अज्ञेयवाद, यूनानी दर्शन में संशयवाद ( scepticism ) के रूप में उत्पन्न हुआ और उसे ह्यूम तथा कांट के दर्शन में क्लासिकीय रूप प्राप्त हुआ। इसकी एक क़िस्म चित्रलिपियों ( अथवा प्रतीकों ) का सिद्धांत ( theory of hieroglyphs or symbols ) है। नवप्रत्यक्षवाद ( neo-positivism ) और अस्तित्ववाद ( existentialism ) तथा कई अन्य धाराओं के प्रतिनिधि भी यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि विश्व तथा मनुष्य को जानना असंभव है।

अज्ञेयवाद, विश्व की ज्ञेयता से इंकार करता है। अनुभूतियों ( sensations ) को हमारे समस्त ज्ञान का स्रोत मानते हुए अज्ञेयवादी कहते हैं : यदि हमारी अनुभूतियां, हमारे इन्द्रियबोध ( senses ) वास्तविक घटनाओं से मेल खाते हैं, तो हमारा ज्ञान सही है। यदि हमारी अनुभूतियां और इन्द्रियबोध वस्तुओं के वास्तविक रूप के अनुरूप नहीं है, तो हमारे ज्ञान को भ्रामक ही मानना होगा। किंतु क्या किसी वस्तु के इन्द्रियजन्य अवबोध और स्वयं इस वस्तु के बीच तुलना की जा सकती है? "मस्तिष्क के सामने इन्द्रियबोधों के अलावा और कोई वस्तुएं नहीं होतीं। मस्तिष्क इन्द्रियबोधों और वस्तुओं के सहसंबंधों ( correlations ) के बारे में कोई भी प्रयोग करने में बिल्कुल असमर्थ है," प्रसिद्ध अंग्रेज दार्शनिक डेविड ह्यूम ( १७११-१७७६ ) ने लिखा था।

इनके अनुसार हमारी अनुभूतियों की शून्य से तुलना करना और इसकी जांच करना असंभव है कि अनुभूतियां उस वास्तविकता ( actuality ) के अनुरूप हैं या नहीं, जिसका वे ज्ञान करवाती हैं। इसलिए इस प्रश्न का भी उत्तर नहीं दिया जा सकता कि अनुभूतियां विश्व का प्रतिबिंबन ( imaging ) करती हैं या वे मात्र भ्रांतियां ( misconception ) ही हैं। हो सकता है कि हमसे बाहर ऐसी वस्तुओं का अस्तित्व हो, जिनमें वे ही गुण हैं, जिनकी सूचना अनुभूतियां देती हैं। साथ ही यह भी सर्वथा संभव है कि ऐसी कोई वस्तुएं हैं ही नहीं। इसलिए अज्ञेयवादी कहते हैं कि इस प्रश्न पर संशयों से मुक्त हो पाने और उसका समाधान प्रस्तुत करने की सामर्थ्य लोगों में नहीं है।

ह्यूम के पूर्ववर्ती, आत्मपरक प्रत्ययवादी ( subjective idealistic ) बर्कले भी अनुभूतियों को ज्ञान का एकमात्र स्रोत कहते थे, यद्यपि साथ ही अपने इस विश्वास के कारण कि बाह्य परिवेश की वस्तुएं अनुभूतियों की संहति हैं, वह ईश्वर की सत्ता को अनुभूतियों पर निर्भर नहीं मानते थे। उनकी दृष्टि में ईश्वर ही अनुभूतियों का स्रोत था। इसी में बर्कले ने अपने मत में निहित विरोधाभास ( paradox ) दिखाया, क्योंकि वह अनुभूतियों के स्रोत ( ईश्वर ) को स्वयं अनुभूतियों से बाहर मानते थे।

यहां पर ह्यूम का बर्कले से मतभेद हो जाता है। ह्यूम न केवल अनुभूतियों को समस्त ज्ञान का स्रोत मानते हैं, मगर साथ ही, प्रत्ययवादी होने के बाबजूद, ईश्वर की सत्ता से भी इंकार करते हैं। ह्यूम के अज्ञेयवाद का यह पक्ष शुरू में प्रकृतिविज्ञानियों को पसंद आया, क्योंकि वह धर्मशास्त्रियों के हमलों से उनके बचाव का साधन बन सकता था। किंतु शीघ्र ही उनमें से सर्वाधिक सूक्ष्म दृष्टिवालों ने जान लिया कि अज्ञेयवाद विज्ञान से मेल नहीं खाता : विज्ञान का मुख्य उद्देश्य परिवेशी विश्व का ज्ञान प्राप्त करना है, जबकि अज्ञेयवाद यथार्थ विश्व की ज्ञेयता से ही इनकार करता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 15 नवंबर 2014

विश्व की ज्ञेयता के बारे में एक संवाद

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने  संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम इसी के अंतर्गत विश्व की ज्ञेयता के बारे में एक संवाद प्रस्तुत करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



विश्व की ज्ञेयता के बारे में एक संवाद
( a dialogue about the knowability of the world )

विश्व की ज्ञेयता के विरोधी यानी अज्ञेयवादी ( agnostics ) तथा ज्ञेयता के पक्षपोषक यानी भौतिकवादी ( materialists ) अपने-अपने विचारों का मंडन कैसे करते हैं? क्यों न उनके बीच एक संवाद होने दिया जाये? --------

भौतिकवादी - यह कल्पना करना भी कठिन है कि एक सामान्य व्यक्ति विश्व की ज्ञेयता से इनकार कर सकता है। हमारे जीवन का सारा अनुभव सिखाता है कि विश्व ज्ञेय है।

अज्ञेयवादी - नहीं, इसकी उलट बात सच है। हमारे दैनिक जीवन का अनुभव हमारे आसपास की वस्तुओं के प्रेक्षण ( observation ) पर, दृष्टि, श्रवण तथा, स्पर्श, आदि के ज़रिये उनके संवेदनात्मक प्रत्यक्षण ( sensory perception ) पर आधारित है। और उन पर विश्वास करना बहुत ग़लत होगा।

भौतिकवादी - क्यों?

अज्ञेयवादी - मैं एक पेंसिल थामे हुए हूं। यह सीधी दिखायी देती है। मैं इसके आधे भाग को पानी में डुबोता हूं। अब यह पेंसिल आपको कैसी दिखायी पड़ती है ?

भौतिकवादी - मैं देखता हूं कि यह एक छोटे से कोण पर मुड़ी हुई है।

अज्ञेयवादी - तो, दृष्टि कहती है कि एक मामले में पेंसिल सीधी है, और दूसरे में वही मुड़ी हुई। हम किस पर विश्वास करें ? इसके बाद हम कैसे कह सकते हैं कि हम पेंसिल जैसी साधारण वस्तु के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी रखते हैं ?

भौतिकवादी - आपका उदाहरण विश्वसनीय नहीं है। इस बात को परखने के कई तरीक़े हैं कि हमारी दृष्टि से प्राप्त अनुभव सही हैं या ग़लत। जैसे कि एक तो मैं पेंसिल को पानी से बाहर खींचे बिना उसे थामे रख सकता हूं और अपने को आश्वस्त कर सकता हूं कि पेंसिल का मोड़ आभास मात्र है। दूसरा, मैं पेंसिल को पूर्णतः पानी में डुबों सकता हूं, तब वह उतनी ही सीधी होगी जितनी की हवा में। तीसरा, मैं पेंसिल का किंचित मुड़ा हुआ एक अलग खोल ले सकता हूं और पेंसिल को पानी से बाहर निकाले बिना उसे उसके अंदर डालने की कोशिश कर सकता हूं। किंतु मैं ऐसा नहीं कर सकूंगा। इसका मतलब यही होगा कि पेंसिल मुड़ी हुई नहीं है।

अज्ञेयवादी - इससे आप क्या निष्कर्ष निकालते हैं ?

भौतिकवादी - ज्ञान की सत्यता या असत्यता को परखने के लिए, यानी उसे यथार्थता ( reality ) के तदनुरूप सिद्ध करने के लिए केवल प्रेक्षण ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए चाहे सरलतम ही क्यों ना हो, प्रयोग ( experiment ) करने की, यानी जैसे कि इस उदाहरण में, पेंसिल तथा पानी को लेकर कुछ क्रियाकलाप ( activity ) करने की आवश्यकता होती है और तभी हम दृष्टि-भ्रम ( optical illusion ) तथा वास्तविक स्थिति के बीच भेद करने में कामयाब हो सकते हैं।

अज्ञेयवादी - ( अपनी राय पर अड़ते हुए ) - ज्ञान की सत्यता पर संदेह करने के अन्य कारण भी है।

भौतिकवादी - कौनसे ?

अज्ञेयवादी - एक ही सदी पहले तक वैज्ञानिकों का ख़्याल था कि परमाणु अविभाज्य है। फिर प्रयोग करने के बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे कि परमाणु में एक नाभिक तथा मूल कण, इलैक्ट्रोन, होते हैं, जो आगे अविभाज्य हैं। हाल के वर्षों में वैज्ञानिकगण यह कहने लगे हैं कि स्वयं मूल कणों में विशेष भौतिक तत्व, क्वार्क तथा उनको साथ ‘श्लेषित’ ( glued ) करने वाले भौतिक क्षेत्र ( ग्लूओन ) होते हैं। अर्थात १९वीं सदी के अंत में जो बात सत्य समझी जाती थी, वह २०वीं के प्रारंभ में मिथ्या ( false ) सिद्ध हो गयी और जो बात तब सत्य मानी जाती थी, वह हमारे युग में असत्य पायी जाती है। तो बताइये कि हम किसे सत्य मानें ? हम विश्व के सही ज्ञान की बात कैसे कर सकते हैं ?

भौतिकवादी - आप इस बात को ध्यान में नहीं रख रहे हैं कि विज्ञान के विकास के अपने नियम होते हैं। मुद्दा यह है कि जब हमारा ज्ञान गहनतर ( deeper ) होता है, तो हम पहले के असत्य दृष्टिकोणों को व्यर्थ ही ठुकराते नहीं, बल्कि उन्हें अधिक सही, अधिक पूर्णतर और अधिक सत्य बनाते हैं। इसलिए हमारा संबंध संज्ञान की एक प्रक्रिया से है जिसमें हम हर समय विश्व के अधिक सत्य तथा पूर्णतर ज्ञान की ओर लगातार आगे बढ़ते रहते हैं। आपका उदाहरण केवल इस बाट की पुष्टि करता है कि आज की भौतिकी के पास परमाणु की संरचना के बारे में ५० या १०० साल पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा अच्छी जानकारी है, इस बारे में हमारा ज्ञान अधिक उन्नत और समृद्ध हुआ है। इससे आपके नहीं, बल्कि मेरे इसी दृष्टिकोण की पुष्टि होती है कि हम विश्व को जान सकते हैं और यह ज्ञान असीम है।

उपरोक्त संवाद से दो महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं।

(१) अज्ञेयवाद अपने दृष्टिकोणों के समर्थन में संवेदनों के भ्रमों ( illusions ) का ( उपरोक्त उदाहरण में दृष्टि-भ्रम का ) उपयोग करता है। वह केवल निष्क्रिय ( passive ) प्रेक्षण पर भरोसा करता है, यही नहीं, वह जिस प्रेक्षण पर भरोसा करता है उसे अन्य के रिश्ते में नहीं, उनसे अलग-थलग करके देखता है। दूसरी तरफ़ विश्व की ज्ञेयता के समर्थक, यानी एक भौतिकवादी, विश्व के संज्ञान के लिए और अज्ञेयवाद की बातों का खंडन करने के लिए प्रयोग का उपयोग करता है, जो व्यवहार ( practice ) का, यानी जनगण की सामाजिक व उत्पादन क्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। यह व्यवहार ही है जो विश्व की ज्ञेयता को प्रमाणित करने में मदद करता है

(२) अज्ञेयवाद विज्ञान के विकास की विभिन्न अवस्थाओं को एक दूसरे से असंबंधित ( unconnected ) रूप में देखता है। वह उनकी आंतरिक एकता और अंतर्संबंधों को, या विज्ञान के विकास पर ध्यान नहीं देता और इसीलिए यह समझने में असमर्थ होता है कि विकास या क्रमविकास के दौरान एक अवस्था दूसरी अवस्था से संबंधित होती है, उसे संपूरित करती है और कोई एक ज्ञान गहनतर होता है, अन्य को संशोधित ( refine ) करता है। फलतः ज्ञान स्वयं विकसित ( develop ) होता है और बाह्य जगत के बारे में हमारी जानकारी बढ़ती जाती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 8 नवंबर 2014

संज्ञान का द्वंद्वात्मक सिद्धांत

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘संभावना और वास्तविकता’ के प्रवर्गों पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत पर चर्चा शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संज्ञान का द्वंद्वात्मक सिद्धांत
( dialectical theory of knowledge )

द्वंद्ववाद के प्रवर्गों ( categories of dialectics ) की विवेचना के बाद अब हम भौतिकवादी द्वंद्ववाद के अंतर्गत संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत ( dialectical theory of knowledge ) के व्यवस्थित निरूपण ( systematic representation ) की ओर आगे बढ़ेंगे। जैसा कि हम पहले भी यहां चर्चा कर चुके हैं, संज्ञान की समस्या दर्शनशास्त्र के मूलभूत प्रश्न के दूसरे पहलू ( second aspect ) को प्रतिबिंबित करती है। यह पहलू इस प्रकार है : क्या चेतना ( consciousness ) इस विश्व का सही प्रतिबिंबन कर सकती है, क्या मनुष्य प्रकृति तथा समाज के नियमों और बाह्य परिवेश के मूलभूत गुणों तथा सहसंबंधों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और यदि हां, तो यह कितना पूर्ण है? इस प्रश्न का उत्तर देनेवाले मतों और दृष्टिकोणों को संज्ञान का सिद्धांत ( theory of knowledge ) या ज्ञानमीमांसा ( epistemology ) कहा जाता है।

मनुष्य अपने जीवन के हर क्षण पर अपने परिवेशीय जगत के बारे में कुछ न कुछ जानने का, उसके रहस्यों को खोलने के प्रयत्नों में जुटा रहता है। इन्हीं प्रयत्नों में मानवजाति ने परिवेशी विश्व के बारे में उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ ज्ञान हासिल किया और उसे संचित करती रही। आधुनिक मनुष्य विस्तृत ज्ञान का धनी है और अत्यंत विविधतापूर्ण कौशलों का स्वामी है। कुछ लोग स्वचालित मशीनों को चलाना जानते हैं, अन्य अंतरिक्ष यान बनाना तथा उनमें उड़ना जानते हैं। कुछ अन्य परमाणु नाभिक को विखंडित करना और उसकी ऊर्जा को उपयोग में लाना जानते हैं। पिछली सदियों के सापेक्ष हमारा ज्ञान कई गुना बढ़ गया है, केवल प्रकाशित पुस्तकों की संख्या तथा वैज्ञानिक पत्रिकाओं के लेखों से ही यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

हर कोई अच्छी तरह से जानता है कि ज्ञान, विशेषतः वैज्ञानिक ज्ञान, उद्योगों ( industry ) का एक महत्त्वपूर्ण प्रेरक बल ( motive force ) है। केवल उसी के आधार पर प्रकृति तथा समाज के बीच तीक्ष्ण अंतर्विरोधों ( acute contradictions ) का उन्मूलन ( elimination ) हो सकता है और स्वयं समाज को तर्कबुद्धिसम्मत ( rationally ) ढंग से रूपांतरित ( transformed ) किया जा सकता है तथा मानव जीवन को अधिक दिलचस्प, स्वस्थ और बुद्धिमतापूर्ण ( intelligent ) बनाया जा सकता है। लेकिन यह कहना सबके वश की बात अक्सर ही नहीं होती है कि ज्ञान क्या है, कैसे उत्पन्न होता है, इसके स्रोत ( source ) कहां हैं और सत्य ज्ञान को मिथ्या ( false ) और असत्य ज्ञान से किस प्रकार विभेदित ( distinguish ) किया जाये और क्या हमारे पास इस बात की कोई गारंटी है कि हम सामान्यतः स्वयं को तथा अपने परिवेशीय जगत को जान सकें।

हममें से हर कोई बहुत सी तरह-तरह की वस्तुओं को जानता है और ऐसी बहुविध जानकारियां रखता है, जिनकी सत्यता में कोई संदेह नहीं करता। हम जानते हैं कि बिजली का लैंप कैसे जलाया जाता है, धातु का टुकड़ा कैसे जोड़ा जाता है, गमले में एक पौधे के लिए हमें क्या करना होगा या टेलीफ़ोन डायरेक्टरी में ज़रूरी नंबर कैसे खोजा जाता है। जीवन के अनुभव ( experience ) की कसौटी पर खरी उतरी ये जानकारियां मानो हमारे ज्ञान की सत्यता में हर तरह के संदेह को मिटा देती हैं।

किंतु प्रायः ऐसा भी होता है कि पहली नज़र में निर्विवाद प्रतीत होनेवाली बात ग़लत निकलती है। उदाहरण के लिए, पांच-छह सौ वर्ष पूर्व लोगों का विश्वास था कि पृथ्वी चपटी है तथा विश्व का केंद्र है और ग्रह और सूर्य उसके चारों ओर चक्कर काटते हैं। अब अधिकतर लोग जानते हैं कि पृथ्वी लगभग गोलाकार है तथा अन्य ग्रह सूर्य के गिर्द चक्कर लगाते हैं। लेकिन हमारे दैनिक प्रेक्षण ( observation ) अब भी हमें बतलाते हैं कि सूर्य पूर्व में उदय होता है और पश्चिम में अस्त होता है। १९वीं सदी के अंतिम वर्षों तक वैज्ञानिकों का विश्वास था कि परमाणु, पदार्थ के लघुतम कण, अविभाज्य हैं। पर अब हम जानते हैं कि यह धारणाएं भी असत्य हैं, मूल कणों की भी एक आंतरिक संरचना होती है। चंद्रमा तक मनुष्य की उड़ान से पहले कई वैज्ञानिकों का विचार था कि चंद्रमा पृथ्वी से टूटा हुआ एक टुकड़ा है, जो पृथ्वी के तप्त गोले से उस समय टूटा, जब कोई विशाल आकाशीय पिंड उसके क़रीब से होकर गुजरा था। चंद्रमा से प्राप्त आधार-सामग्री से पता चला है कि पुरानी प्राक्कल्पनाएं ( hypothesis ) असंतोषजनक हैं और चंद्रमा की उत्पत्ति की सही जानकारी के लिए और अधिक खोजबीन करने की ज़रूरत है।

इस तरह के तथ्यों से जुड़ी बातें हमें यह सोचने के लिए बाध्य करती हैं कि क्या हमारी सभी जानकारियां वस्तुतः सत्य, निर्विवाद हैं? क्या कोई सुदृढ़, विश्वसनीय ज्ञान है? आज हम सोचते हैं कि हम किसी घटना के बारे में हम सब कुछ जानते हैं, लेकिन कल ही यह साबित हो सकता है ( जैसा कि अतीतकाल में अनेक बार हुआ है ) कि हमारा ज्ञान त्रुटिपूर्ण था। क्या विश्व का संज्ञान प्राप्त करने का कोई विश्वसनीय तरीक़ा है, जो हमें भ्रांतियों ( fallaciousness ) से बचा सके? क्या हमारा चिंतन ( thought ) बाह्य जगत का सही-सही संज्ञान ( cognition ) कर सकता है, क्या हम अपने आसपास की घटनाओं और प्रक्रियाओं के बारे में सही अंदाज़ा लगा सकते हैं और कि क्या हम अपने निर्णयों ( judgments ) तथा कथनों ( statements ) के आधार पर सफलता पूर्वक कर्म ( act ) कर सकते हैं? इस तरह से यह प्रश्न कि क्या विश्व संज्ञेय ( knowable ) है और अगर ऐसा है, तो किस सीमा तक तथा क्या मनुष्य बिल्कुल सही या लगभग सही ढंग से परिवेशी यथार्थता ( reality ) का संज्ञान प्राप्त कर सकता है, उसे समझ तथा उसकी छानबीन ( investigate ) कर सकता है?, दर्शन के बुनियादी सवाल के दूसरे पक्ष को सामने लाती है, जिसकी चर्चा हमने शुरुआत में की थी।

दार्शनिकों के बीच ऐसे संशय प्राचीन काल में ही पैदा हो गये थे। यदि कुछ दार्शनिकों का दृढविश्वास था कि विश्व संज्ञेय है, अर्थात उसे जाना जा सकता है, और हमारा ज्ञान परिवेशी वस्तुओं, घटनाओं, आदि की सही जानकारी देता है, तो वहीं कुछ दार्शनिकों का कहना था कि विश्व असंज्ञेय ( unknowable ) है, क्योंकि वस्तुएं हमारे उन्हें जानने से पहले ही बदल जाती है। इस प्रकार दर्शनशास्त्र के इतिहास में हम विश्व की संज्ञेयता के पक्ष में भी तर्क पाते हैं और विपक्ष में भी। अतः प्रश्न इसका नहीं है बिना सोचे-समझे तथ्यों को एकत्र किया जाये, अपितु इसका है कि संज्ञान की प्रक्रिया के सार ( essence ) का विश्लेषण ( analysis ) किया जाये और उसकी मुख्य विशेषताओं और नियमसंगतियों को उद्घाटित किया जाये। क्योंकि यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि विश्व की ज्ञेयता और हमारे ज्ञान की सटीकता को परखने का प्रश्न आज के युग में बहुत महत्त्वपूर्ण है। अपनी स्थिति के सही होने पर पूर्ण विश्वास करने के लिए हमें पक्का यक़ीन होना चाहिए कि हम दुनिया को जान सकते हैं और कि हमारा विश्व-दृष्टिकोण ( outlook on the world ) और वैचारिकी ( ideology ) विश्व का सही दृश्य ( correct view ) तथा उसमें होनेवाली घटनाओं का सही मूल्यांकन पेश करते हैं।

विश्व की ज्ञेयता के प्रश्न पर विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों ( philosophical systems ) की विभिन्न रायें हैं और उसका समाधान भी वे भिन्न-भिन्न सुझाती है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की ज्ञानमीमांसा को भली-भांति समझने के लिए पहले दत्त प्रश्न पर उसकी पूर्ववर्ती दार्शनिक प्रणालियों के मतों की थोड़ी-बहुत जानकारी होना आवश्यक है, क्योंकि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद इन्हीं विभिन्न सिद्धांतों की समालोचनात्मक ( critical ) समझ का नतीजा है, जिनकी कमियां और कमजोर पक्ष विज्ञान, तकनीक और मानव कार्यकलाप के अन्य रूपों की उन्नति ( advancement ) की बदौलत ऐतिहासिक विकास के दौरान प्रकट हुए थे। साथ ही इस बात पर भी बल दिया जाना चाहिए कि पूर्ववर्ती दार्शनिक प्रणालियों ने संज्ञान की प्रकृति ( nature ), मूलों ( roots ) और कसौटियों के प्रश्न पर जो कुछ भी मूल्यवान तथ्य संग्रहित किये थे, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने उन्हें अपने में समाहित किया है।

अतएव द्वंद्ववाद के संज्ञान सिद्धांत के व्यवस्थित निरूपण से पहले, हम अगली बार से ऐसे ही विभिन्न मतों की संक्षिप्त जानकारी और उनकी समालोचना प्रस्तुत करेंगे।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

संभावना और वास्तविकता - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘संभावना और वास्तविकता’ के प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू किया था, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए उसका समापन करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
संभावना और वास्तविकता - २
( possibility and actuality - 2)

अमूर्त संभावनाओं ( abstract possibility ) के कार्यान्वयन की संभाव्यताएं ( probabilities ) भिन्न-भिन्न होती हैं। कुछ अमूर्त संभावनाओं का कार्यान्वित होना इतनी दूर की बात है कि मानो वे असंभाव्यता ( impossibility ) की सीमा पर हों। फिर भी अमूर्त संभावना को असंभाव्यता के तदनुरूप नहीं मानना चाहिये, क्योंकि असंभाव्यता प्रकृति और समाज के नियमों का प्रतिवाद करती है, उनके ख़िलाफ़ होती है और कभी भी वास्तविकता में परिणत नहीं हो सकती।

अमूर्त और वास्तविक संभावनाओं ( real possibilities ) के बीच अंतर सारभूत ( essential ), परंतु सापेक्ष ( relative ) है। कई अमूर्त संभावनाएं वास्तविक में परिवर्तित होने की विभिन्न अवस्थाओं में होती हैं। जहां तक व्यावहारिक कार्यों का संबंध हैं, काम करनेवाले को वास्तविक संभावनाओं की ओर उन्मुख ( oriented ) होना चाहिये। यहां ध्यान रखने का मुद्दा यह है कि वास्तविक संभावनाओं की व्यवहार्यता ( feasibility ) में अंतर हो सकता है : इनमें से कुछ को अन्य के मुक़ाबले ज़्यादा आसानी से कार्यान्वित किया जा सकता है।

संभावना का वास्तविकता में संक्रमण ( transition ) अनुक्रमिक द्वंद्वात्मक निषेधों ( successive dialectical negations ) की एक प्रक्रिया है। अमूर्त, आकारिक ( formal ) संभावना मूर्त, वास्तविक संभावना में और यह संभावना वास्तविकता ( reality ) में बदल जाती है। अपनी बारी में वास्तविकता अपने विकास के दौरान नयी संभावनाओं को जन्म देती है, शुरू में अमूर्त और फिर मूर्त संभावना को, जो नयी वास्तविकता में विकसित हो सकती हैं, बशर्ते कि कुछ कारण, पूर्वावस्थाएं, आदि मौजूद हों। इसे जैविक विकास के उदाहरणों और जीन इंजीनियरी की रचनाओं में आसानी से देखा जा सकता है।

डी एन ए के अणुओं के घटक तथा जीवित अंगियों ( living organism ) की आनुवंशिकता ( heredity ) का नियंत्रण करनेवाले जीनों को विभिन्न तरीक़ों से संयुक्त ( combined ) किया जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि स्वयं प्रकृति में नयी आनुवंशिक विशेषताओं के पैदा होने, सुदृढ़ होने और फलतः नयी जातियों ( species ) की उत्पत्ति होने की संभावना हमेशा विद्यमान होती है। किंतु उस संभावना के यथार्थता में परिणत होने के वास्ते पूर्वावस्थाओं के के समुच्चय की आवश्यकता होती है, जो जैविक क्रम-विकास ( evolution ), प्राकृतिक वरण ( natural selection ) तथा अस्तित्व के लिए संघर्ष ( struggle ) के दौरान विकसित हुई हैं। नयी जातियों की उत्पत्ति के लिए आवश्यक पूरा समुच्चय हमेशा विद्यमान नहीं होता है, इसलिए प्रकृति में नयी जातियां उत्पन्न होना अक्सर मुश्किल ही होता है। जीन इंजीनियरी के उद्‍भव ( rise ) के साथ लोगों ने वंशानुगतता ( inheritance ) पर नियंत्रण करना और नयी जातियों की रचना करना तक सीख लिया है। हमारे युग में नयी जातियों की "रचना करने" की संभावना वास्तविकता में परिणत हो गयी है। नये सूक्ष्म जीवाणुओं, पौधों, पशुओं की नयी जातियों व नस्लों की रचना की जा रही है। जाति रचना की जो पद्धति लाखों वर्षों से विद्यमान थी उसका वस्तुतः निषेध ( negation ) किया जा रहा है, किंतु यह निषेध पूर्ण ( full ) नहीं है, अतः यह उन्मूलन ( abolition ) नहीं है। यह द्वंद्वात्मक निषेध है, क्योंकि यह प्रकृति के विकास के दौरान बने डी एन ए में समाविष्ट तत्वों ( incorporated elements ) के ही संयुक्तिकरण ( combination ) की क्रियाविधि पर आधारित है।

संभव तथा यथार्थ की द्वंद्वात्मकता सामाजिक विकास में विशेष स्पष्टता से व्यक्त होती है। इसमें संभव का यथार्थ में संक्रमण और उसके आधार पर नयी संभावनाओं की रचना लोगों के सचेत क्रियाकलाप ( conscious activity ) के साथ जुड़ी है।

प्रकृति में संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए केवल वस्तुगत दशाएं ( objective condition ) ही पर्याप्त होती हैं। मसलन, कोई बीज आवश्यक तापमान और नमी वाली उपयुक्त जगह पर महज़ गिर भर जाये, तो उसमें अंकुरण ( germinate ) हो जायेगा। परंतु सामाजिक जीवन में, जहां चेतना ( consciousness ) और संकल्प ( will ) वाले लोग कार्यरत होते हैं, संभावना को भिन्न तरीक़े से वास्तविकता में परिणत किया जाता है। यहां यह प्रक्रिया स्वचालित ( automatic ) नहीं होती, बल्कि सचेत मानव क्रिया का परिणाम होती है। इसीलिए समाज में एक संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए वस्तुगत दशाएं ही काफ़ी नहीं है, इसके लिए आत्मगत दशाओं ( subjective conditions ) की भी आवश्यकता होती है, जैसे रूपांतरणों ( transformation ) की आवश्यकता की जानकारी, उनके लिए काम करने का संकल्प, जनगण का, संबंधित वर्गों का संगठन ( organisation ), आदि।

सचेत मानवीय क्रियाकलाप पर, संभावना के वास्तविकता में परिवर्तन की यह निर्भरता, विरोधी प्रवृत्तियों और शक्तियों ( opposite tendencies and forces ) के अस्तित्व के कारण विभिन्न संभावनाओं की एकसाथ उत्पत्ति को देखते हुए और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। इनमें से कौनसी संभावनाएं कार्यान्वित होंगी, यह अधिकांशतः उन शक्तियों के क्रियाकलाप पर, उनके बीच संघर्ष के परिणाम ( outcome ) पर निर्भर होता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

संभावना और वास्तविकता - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम ‘संभावना और वास्तविकता’ प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
संभावना और वास्तविकता - १
( possibility and actuality - 1)

वस्तुगत जगत ( objective world ) में विद्यमान विभिन्न चीज़ें और प्रक्रियाएं प्राकृतिक आवश्यकताओं की वज़ह से तब उत्पन्न होती हैं, जब उनकी उत्पत्ति ( emergence ) के पूर्वाधार ( prerequisites ), कारण ( causes) और दशाएं ( conditions ) बन चुकी होती हैं। समुचित समय बाद विकास उस स्थल पर पहुंचता है, जहां अभी तक नयी वस्तु या प्रक्रिया उत्पन्न नहीं हुई है, परंतु उसकी उत्पत्ति की दशाएं बन चुकी हैं, क्योंकि वे पूर्ववर्ती विकास से परिपक्व हुई थीं।

इस तरह, पुरातन ( old ) के द्वंद्वात्मक निषेध ( dialectical negation ) से जो नयी ( new ) घटनाएं या प्रक्रियाएं उत्पन्न होती हैं, वे रिक्तता ( vacuum ) से नहीं उपजती। उनकी पूर्वावस्थाएं, आधार तथा दशाएं पूर्ववर्ती घटनाओं और प्रक्रियाओं में बनती तथा विद्यमान रहती हैं। किसी नयी चीज़ की उत्पत्ति के बुनियादी पूर्वाधारों, कारणों तथा दशाओं का अस्तित्व, यानि पूर्वावस्थाओं तथा दशाओं की वह समग्रता ( aggregate ) जिस ने अभी नयी घटना को जन्म नहीं दिया है, को आम तौर पर "संभावना" ( possibility ) संकल्पना से व्यक्त किया जाता है। स्वयं प्रक्रिया, जो पहले से ही विद्यमान है, उत्पन्न हो रही है, क्रियाशील है और विकसित हो रही है, उसे संकल्पना "वास्तविकता" ( actuality ) या "यथार्थता" ( reality ) से व्यक्त किया जाता है। संभावना और वास्तविकता दो घनिष्ठता से संबंधित संकल्पनाएं ( concepts ) हैं, जो एक दूसरे की परस्पर संपूरक ( supplement ) होती हैं, विकास की किसी भी प्रक्रिया की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को चित्रित करती हैं और इसीलिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के प्रवर्गों का एक युग्म समझी जाती हैं।

वास्तविकता की संकल्पना को व्यापक अर्थ ( broad sense ) में भी इस्तेमाल किया जाता है और संकीर्ण अर्थ ( narrow sense ) में भी। व्यापक अर्थ में इसका तात्पर्य उस सब से होता है, जो वस्तुगत जगत में विद्यमान है. और संकीर्ण अर्थ में इसका तात्पर्य एक निष्पन्न ( accomplished ), साकार संभावना ( realized possibility ) होता है। संभावना, वास्तविकता के विकास से उत्पन्न होती है और वास्तविकता संभावना से तैयार होती है। अतः उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जाना चाहिये।

व्यवहार में वास्तविकता से संभावना का विलगाव ( detachment ), अवास्तविक  संभावनाओं के बारे में अमूर्त संलाप ( abstract discourse ) पर पहुंचा देता है, क्योंकि सच्ची संभावना हमेशा वास्तविकता से जुड़ी होती है और उसी से पैदा होती है। दूसरी तरफ़, संभावना से वास्तविकता का विलगाव नये के अहसास को कुंद ( blunt ) बना देता है और परिप्रेक्ष्य ( perspective ) को निगाहों से ओझल कर देता है।

इसके साथ ही, संभावना और वास्तविकता को एक दूसरी के तदनुरूप ( identified ) भी नहीं मानना चाहिये, क्योंकि वे एक टेढ़ी-मेढ़ी और बहुधा कठिन प्रक्रिया द्वारा एक दूसरी से अलग-अलग होती हैं और इसी प्रक्रिया में दौरान संभावना, वास्तविकता में परिवर्तित होती है। मिसाल के लिए, सामाजिक जीवन में संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए गहन प्रयत्नों की जरूरत होती है और यह बदलाव विभिन्न सामाजिक शक्तियों के संघर्ष ( struggle ) से संबंधित होता है। व्यवहार में संभावना और वास्तविकता को तदनुरूप समझ लेने से आत्मतुष्टि ( complacency ) की भावना पैदा हो जाती है और बदलाव के मक़सद से होनेवाले कार्यकलापों में ढ़िलाई ही पैदा होती है।

अमूर्त और वास्तविक संभावनाओं के बीच अंतर करना जरूरी है। संभावना तभी वास्तविक होती है, जब उसके कार्यान्वयन के सारे पूर्वाधार बन गये हों। किसी भी संभावना के वास्तविकता में परिणत होने के लिए परिवर्तन की इस प्रक्रिया को वास्तविकता के कुछ वस्तुगत नियमों के अनुरूप होना चाहिए और उसके लिए आवश्यक सारी पूर्वावस्थाएं उपस्थित होनी चाहिए। यदि ये पूर्वावस्थाएं अपर्याप्त हों या उनका अभाव हो, तो संभावना अमूर्त ( abstract ) और आकारिक ( formal ) होती है। आवश्यक पूर्वाधारों के बनने पर ही यह अमूर्त या आकारिक संभावना, ठोस ( concrete ) या वास्तविक संभावना ( real possibility ) में परिणत हो जाती है।

अधिकांश पौधे विशाल संख्या में बीज पैदा करते हैं लेकिन इस बात की मात्र अमूर्त और आकारिक संभावना होती है कि प्रदत्त पौधे के सारे बीज उगेंगे और उनसे पौधे उपजेंगे तथा अपनी बारी में नये बीज पैदा करेंगे। यह संभावना पुनरुत्पादन ( reproduction ) के जैविक नियमों के पूर्ण अनुरूप है, किंतु इसके वास्तविकता में परिणत हो सकने के लिए आवश्यक पूर्वावस्थाओं का अस्तित्व नहीं होता। हो सकता है कि बीजों को अनुकूल ज़मीन न मिले, उन्हें परिंदे या कीड़े खा जायें, वे शाकपातनाशी ( weed-killers ) पदार्थों से नष्ट हो जायें, आदि। यदि सारी आवश्यक पूर्वावस्थाएं सभी बीजों को उपलब्ध हो जायें तो चंद वर्षों में एक ही पौधे के वंशज सारी पृथ्वी पर छा जायें।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

अनिवार्यता और संयोग - ४

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों पर चर्चा को आगे विस्तार दिया था, इस बार हम इन प्रवर्गों पर द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण को कुछ और समझते हुए इस चर्चा का समापन करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग - ४
( necessity and chance ) - 4

प्रकृति और समाज में अनेकानेक अनिवार्यताएं एक दूसरे को प्रतिच्छेदित ( intersects ) तथा परस्पर अंतर्क्रियाएं ( mutual interaction ) करती रहती हैं। ऐसे प्रतिच्छेदनों व अंतर्क्रियाओं के फलस्वरूप ही संयोग का जन्म होता है। संयोग भी उतना ही वस्तुगत ( objective ) है, जितनी की अनिवार्यता और उसी की तरह यह भी मनुष्य की चेतना के बाहर विद्यमान हैं। उनके बीच एक गहन और आंतरिक संयोजन ( connection ) है ; भूतद्रव्य ( matter ) के विकास और गति के दौरान वे एक दूसरे में रूपांतरित ( transform ) हो सकते हैं, वस्तुतः स्थान परिवर्तन कर सकते हैं। जो चीज़ एक मामले में तथा एक प्रणाली ( system ) में संयोग है वह दूसरे संबंध तथा दूसरी प्रणाली में अनिवार्यता बन सकती है और इसी भांति, अनिवार्यता संयोग बन सकती है। इस तरह, अनिवार्यता हमेशा संयोग से होकर अपने लिए रास्ता बनाती है और उसी के ज़रिये अपने को उद्घाटित करती है, जबकि प्रत्येक सांयोगिक वृत्त में अनिवार्यता का एक निश्चित अंश होता है।

द्वंद्वात्मक विधि ( dialectical method ) आधुनिक विज्ञान के अनुरूप इन दोनों के बीच संयोजनों की जांच करने की ज़रूरत पर बल देती है। प्रकृति और समाज का सही ढंग से संज्ञान ( cognition ) प्राप्त करना केवल ऐसे ही उपागम ( approach ) से संभव है। इसलिए यह सोचना ग़लत है कि विज्ञान ‘संयोग’ का शत्रु है। जो वैज्ञानिक प्रत्येक सांयोगिक घटना का ध्यान से अध्ययन करता है, केवल वही सांयोगिक घटनाओं के पीछे निहित गहन, स्थायी, अनिवार्य संयोजन की खोज कर सकता है।

संयोग सापेक्ष ( relative ) होता है। ऐसी कोई घटनाएं नहीं हैं, जो हर मामले में और हर तरह से संयोगात्मक हों और अनिवार्यता से जुड़ी हुई न हों। कोई एक सांयोगिक घटना किसी निश्चित नियमबद्ध संयोजन के संबंध में ही संयोगात्मक होती है, जबकि किसी अन्य संयोजन के मामले में वही घटना अनिवार्य भी हो सकती है। मसलन, वैज्ञानिक विकास के संपूर्ण क्रम की दृष्टि से यह महज़ एक संयोग है कि किसी वैज्ञानिक ने कोई खोज की, लेकिन ख़ुद वह खोज उत्पादक शक्तियों ( productive forces ) द्वारा हासिल विशेष विकास-स्तर का, स्वयं विज्ञान की प्रगति का आवश्यक परिणाम है।

संयोग अक्सर दो या अधिक अनिवार्य संपर्कों के प्रतिच्छेद-बिंदु पर होता है। मिसाल के लिए, तूफ़ान में गिरे एक पेड़ को ले लीजिये। उस पेड़ के जीवन में वह तेज़ हवा एक संयोग थी, क्योंकि वह उस पेड़ के जीवन व वृद्धि के सार से अनिवार्यतः उत्पन्न नहीं हुई। लेकिन मौसमी कारकों के संबंध में वह तूफ़ान एक अनिवार्य घटना था, क्योंकि उसकी उत्पत्ति उन कारकों की संक्रिया ( operation ) के कुछ निश्चित नियमों का फल थी। संयोग उस बिंदु पर हुआ, जहां दो अनिवार्य प्रक्रियाएं - एक पेड़ का जीवन और तूफ़ान का उठना - एक दूसरी को काटती हैं। इस उदाहरण में केवल हवा ही पेड़ के लिए संयोग नहीं, बल्कि वह पेड़ भी हवा के लिए वैसा ही संयोग था, जो उसके रास्ते में आ पड़ा।

अतः संयोग प्रदत्त घटना या प्रक्रिया के संबंध में कोई बाहरी चीज़ है और फलतः उस घटना या प्रक्रिया के लिए संयोग का होना संभव तो है, परंतु अवश्यंभावी नहीं और वह हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता।

अनिवार्यता एक स्थायी और पुनरावर्तक चीज़ के रूप में अनेकानेक संयोगों के बीच प्रकट होती है और उन्हीं से होकर अपनी राह बनाती है। मिसाल के लिए, सामाजिक विकास विविधतापूर्ण प्रयासों, लक्ष्यों तथा स्वभावोंवाले अनेकों व्यक्तियों के क्रियाकलाप का कुल जोड़ होता है। ये सारे प्रयास अंतर्गुथित होते हैं तथा टकराते है और अंततः विकास की एक निश्चित दिशा में परिणत होते हैं, जो पूर्णतः अनिवार्य प्रकृति की होती है। संयोग हमेशा अनिवार्यता के साथ होते हैं और उनको परिपूर्ण बनाते हैं और इस तरह इतिहास में एक निश्चित भूमिका अदा करते हैं। यही कारण है कि सामाजिक विकास के एक ही नियम विभिन्न देशों व विभिन्न अवधियों में विशेष रूप ग्रहण कर लेते हैं, अपने खास ढंग से संक्रिया करते हैं।

उस तथ्य से कि अनिवार्यता संयोग के ज़रिये साकार हो सकती है, यह निष्कर्ष निकलता है कि संयोग अनिवार्यता को परिपूर्ण ही नहीं बनाता, बल्कि यह उसकी अभिव्यक्ति का एक रूप भी है और यह अनिवार्यता तथा संयोग की द्वंद्वात्मकता को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है। यथा, सामाजिक क्रांतिया तथा नियमानुसार होनेवाली अन्य सामाजिक घटनाएं अनेक सांयोगिक परिस्थितियों से जुड़ी हैं, जैसे विभिन्न घटनाओं का स्थान व समय, उनके सहभागी आदि। यह परिस्थितियां ऐतिहासिक विकास के संबंध में सांयोगिक हैं, लेकिन इन्हीं सांयोगिक परिस्थितियों के ज़रिये अनिवार्य प्रक्रियाएं होती हैं।

सामाजिक विकास को संतुलित क्रिया बना कर, ऐसी अनुकूल दशाएं बनाई जा सकती हैं, जो अवांछित ( unwanted ) संयोगों के प्रभाव को सीमित करना संभव बना सकती हैं। जैसे, वैज्ञानिक कृषि कर्म का उपयोग शुरू करने, भू-सुधार तथा अन्य उपायों से विभिन्न प्रदेशों तथा सारे देश में कृषि उत्पादन पर मौसमी गड़बड़ियों के दुष्प्रभाव काफ़ी हद तक सीमित किये जा सकते हैं। इसी तरह सचेत व सोद्देश्य मानवीय क्रियाकलाप सांयोगिक घटनाओं की भूमिका को तेज़ी से घटा सकते हैं। इसलिए हमें सीखना चाहिये कि हम संयोगों की अवहेलना न करें, बल्कि उनका अध्ययन करें ताकि, एक ओर तो, प्रतिकूल ( adverse ) संयोगों का पूर्वानुमान लगाया जा सके, उन्हें रोका या सीमित किया जा सके और, दूसरी ओर, अनुकूल संयोगों का उपयोग किया जा सके।

विश्व में अग्रगामी प्रक्रियाओं के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना, उनकी नियमानुवर्तिताओं को समझना और वस्तुगत नियमों के ज्ञान के बल पर प्राकृतिक व सामाजिक प्रक्रियाओं का नियंत्रण करना महत्त्वपूर्ण है। अनिवार्यता निश्चित वस्तुगत दशाओं में प्रकट होती है। परंतु ये दशाएं बदलती रहती हैं और उन्हीं के तदनुरूप अनिवार्यता भी बदलती व विकसित होती है। अनिवार्यता बने-बनाये रूप में कभी उत्पन्न नहीं होती, बल्कि पहले एक ऐसी संभावना ( possibility ) के रूप में अस्तित्वमान होती है, जो केवल अनुकूल दशाओं में ही वास्तविकता ( actuality ) में परिणत होती है।

अगली बार हम द्वंद्ववाद के इन्हीं दो प्रवर्गों, संभावना और वास्तविकता पर चर्चा शुरू करेंगे।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

अनिवार्यता और संयोग - ३

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों पर चर्चा को आगे विस्तार दिया था, इस बार हम उसी चर्चा को नियमानुवर्तिताओं के संदर्भ में और आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग - ३
( necessity and chance ) - 3

अब तक की चर्चा के आधार पर, हम तो यह मान सकते हैं कि घटनाएं केवल सांयोगिक होती हैं और यह कि सब कुछ अनिवार्य, अवश्यंभावी है और यह ही कि कुछ घटनाएं सांयोगिक होती है तथा कुछ अनिवार्य। इन मान्यताओं के समर्थकों का दृढ़ विश्वास है कि हर घटना या तो शत प्रतिशत अनिवार्यता है या शत प्रतिशत संयोग और एक ही घटना में दोनों विलोम ( opposites ) नहीं पाये जा सकते। किंतु वास्तविकता तो यह है कि हर घटना इन विलोमों का संपात या एकत्व होती है। ऐसा क्यों?

प्रेक्षण से हमें पता चलता है कि हर नियम-नियंत्रित क्षेत्र की अलग-अलग घटनाएं एक दूसरे से काफ़ी भिन्न होती हैं। तो यहां पुनरावृत्ति ( recurrence ) कहां हैं? और यदि पुनरावृत्ति नहीं है, तो नियम ( law ) कहां हैं? नियमों का इसके अलावा और कोई महत्त्व नहीं होता कि वे प्रवृत्ति ( trend, tendency ) या औसत को दिखायें। आर्थिक नियमों की ही तरह ही प्रकृति में भी यही बात देखने में आती है। जीवों और वनस्पतियों की लाखों जातियों में यह प्रवृत्ति बार-बार दोहराई जाती है कि जो जातियां अपने को परिवेश के अनुकूल नहीं बना पातीं, वे मर जाती हैं, और जो बना लेती हैं, वे जीवित रहती हैं।

द्वंद्ववाद के नियमों ( laws of dialectics ) के प्रसंग में हम यह बता चुके हैं कि प्रकृति और समाज में पूर्ण, शत प्रतिशत पुनरावृत्ति कभी नहीं होती। कुछ संबंधों की पुनरावृत्ति बेशक और अवश्य होती है, हालांकि वह पूर्ण नहीं, बल्कि स्थूल पुनरावृत्ति ही है। अनिवार्यता इसी में प्रकट होती है। नियम का सार यही है कि किसी अलग घटना के लिए बहुसंख्य संभावनाओं की गुंजाइश छोड़ने के साथ-साथ वह उनकी हद, संभव और असंभव के बीच की सीमा निर्धारित करता है।

उदाहरण के लिए, एक अणु दूसरे अणु से टकराकर उसे जो ऊर्जा अंतरित करता है, उसका मान कुछ भी हो सकता है। किंतु नियम इस ‘कुछ भी’ की सीमा निर्धारित करता है और इस सीमा के बाद असंभाव्यता ( impossibility ) का क्षेत्र आ जाता है। यह असंभव है कोई अणु दूसरे अणु को अपने में निहित ऊर्जा से अधिक ऊर्जा अंतरित करे। अलग-अलग घटनाओं का नियम से विचलन ( deviation ) उस नियम द्वारा निर्धारित सीमाओं में ही होता है। नियम का उल्लंघन ( violation ), नियम के विपरीत घटना असंभव है।

नियम जिन बहुसंख्य घटनाओं का निष्कर्ष ( conclusion ) होता है, उनमें से हर एक घटना इस या उस दिशा में, कम या अधिक मात्रा में नियम से विचलन ही है और उस अर्थ में वह संयोग है, जिसका निस्संदेह सदा कोई न कोई कारण होता है। यह नियम का उल्लंघन नहीं, अपितु उसकी पूर्ति है : संयोग अनिवार्यता की अभिव्यक्ति का एक रूप है। नियम संयोगों के रूप में ही साकार बनता है, वह संयोगों के ‘बिखराव’ की सीमाओं को निर्धारित करता है। किसी नियम को उद्घाटित कर पाना इसीलिए कठिन होता है कि वह अपने विलोम, अर्थात नियम से विचलनों - में ही प्रकट होता है : सार्विक ( universal ), अनिवार्य और आवृत्तिशील संबंध केवल एकाकी, काफ़ी हद तक दोहराई न जानेवाली, सांयोगिक घटनाओं में प्रकट होता है। ऐसे कोई तथ्य नहीं हैं, जो या तो मात्र सांयोगिक हों, या मात्र अनिवार्य। हर तथ्य इन दो विलोमों की एकता ( unity of opposites ) दिखाता है।

कभी-कभी कुछ विद्वानों को कहते पाया जाता है कि बहुसंख्यीय पिण्डों ( जैसे घोल में विद्यमान अणुओं और अन्तरिक्षीय किरणों में विद्यमान सूक्ष्मकणों ) के मामले में तो अनिवार्यता वस्तुतः संयोग के रूप में प्रकट होती है और नियम हर पृथक अणु या सूक्ष्मकण का भाग्य अलग रूप से पूर्वनिर्धारित किये बिना, स्थूल या औसत रूप में क्रियान्वित होता है। मगर जहां तक क्लासिक यांत्रिकी ( classic mechanics ) के नियमों से नियंत्रित एकाकी पिंडों का सवाल है, तो उनमें शुद्ध अनिवार्यता ही देखने में आती है, जो संयोग के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती। इन विद्वानों के अनुसार, यहां नियम पूर्ण यथातथ्यता और अपरिहार्यता के साथ हर अलग पिण्ड के भाग्य को पूर्वनिर्धारित करते हैं। प्रमाण के तौर पर वे कहते हैं कि पृथ्वी, मंगल और अन्य ग्रह अरबों वर्षों से बिल्कुल एक ही सी गतियों को दोहरा रहे हैं, जिन्हें क्लासिकी यांत्रिकी ने ठीक-ठीक निरुपित कर दिया था।

किंतु ऐसे प्रमाण में विश्वास तब तक ही किया जा सकता था, जब तक माप ( measurement ) अपेक्षाकृत अल्प सटीक यंत्रों की मदद से किये जाते थे। अधिक परिशुद्ध यंत्र इस्तेमाल करके वैज्ञानिकों के पता लगाया है कि अपनी कक्षा पर पृथ्वी का हर चक्कर पूर्ववर्ती चक्कर से भिन्न होता है और इसी तरह उसकी सूर्य के गिर्द परिक्रमाएं भी एक सी नहीं होती।

यह पाया गया है कि हर अलग पिण्ड ( body ) की गति का प्रक्षेप पथ ( trajectory ) लाखों अतिसूक्ष्म हिस्सों से बना हुआ है जिनमें से हर एक, नियम द्वारा निर्धारित पथ से विचलन दिखाता है। ये अतिसूक्ष्म हिस्से नियम के अनुरूप तभी होते हैं, जब उन्हें समष्टि के रूप में लिया जाता है। यह बात सभी एकाकी पिण्डों पर लागू होती है। उनमें से हर एक उसमें अधिक गहरे स्तर में निहित बहुसंख्य तत्वों का योग है। दूसरे शब्दों में, एकाकी पिण्ड वास्तव में अपने अधिक गहरे स्तर पर बहुसंख्यीय पिण्ड ही है और जिस नियम से वह नियंत्रित होता है, वह उस पिण्ड के बहुसंख्य तत्वों के उससे विचलनों का योग है।

इसलिए ही कहा गया था कि सामाजिक विज्ञान का संबंध ( सामान्यतः सारे विज्ञान का भी ) बहुसंख्यीय परिघटनाओं से है, न कि एकाकी घटनाओं से। इस तरह यदि एकाकी और बहुसंख्यीय परिघटनाओं ( phenomenon ) का अंतर सापेक्ष है, तो परिशुद्ध नियमों और केवल औसत, प्रवृत्ति के रूप में ही काम करने वाले नियमों का अंतर भी सापेक्ष ( relative ) है। नियम, हर तरह का नियम संकीर्ण, अपूर्ण और स्थूल होता है

इस प्रश्न को द्वंद्वात्मक ढंग से समझना न केवल विज्ञान, अपितु तकनीक के लिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस बात को इलेक्ट्रॉनिकी के क्षेत्र में काम करनेवाले विशेष तीक्ष्णता के साथ महसूस करते हैं, क्योंकि वहां अनिवार्यता और संयोग की द्वंद्वात्मक समझ के बिना काम नहीं चल सकता। इलेक्ट्रॉनिकी से इतर क्षेत्रों में भी पुराना यंत्रवादी दृष्टिकोण नयी मशीनें डिज़ायन करने में तभी तक सहायक हो सकता है, जब तक कि वे अपेक्षाकृत कम जटिल हैं और उनसे अधिक ऊंची परिशुद्धता ( accuracy ) की अपेक्षा नहीं की जाती। किंतु इस पुराने दृष्टिकोण के आधार पर कोई ऐसा यंत्र बनाया भी जाता है, जिसमें किसी न किसी बात में एक दूसरे से असंबद्ध बहुत से पुर्जे हैं और जिससे सर्वाधिक परिशुद्ध लेथमशीनों से भी हज़ारों गुना अधिक परिशुद्धता की अपेक्षा की जाती है, तो उसमें किसी छोटे से पुर्जे के ख़राब होने की देर है कि सारा यंत्र ख़तरे में पड़ जायेगा।

यंत्र ( machine ) से जितनी ही अधिक परिशुद्धता और जटिलता की अपेक्षा की जायेगी, वह उतना ही कम विश्वसनीय होगा। उदाहरण के लिए, १९६२ में संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा शुक्र ग्रह की ओर छोड़े गये एक रॉकेट को बीच ही में इसलिए नष्ट कर देना पड़ा कि कंप्यूटर के लिए बनाये गये प्रोग्राम में एक हाइफन - डैश - चिह्न छूट गया था। उल्लेखनीय है कि इस रॉकेट के बनाने पर  १.८ करोड़ डालर ख़र्च हुए थे। इसलिए पिछले कुछ समय से ऐसे यंत्र बनाने पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है, जिनके पुर्जों में नियम से थोड़ा-बहुत विचलन के लिए गुंजाइश हो और यदि कोई एक या कुछ पुर्जे ख़राब भी हो जायें, तो भी शेष पुर्ज़े और इस तरह सारा यंत्र ठीक ढंग से काम करते रहें। अत्यधिक जटिल और अति परिशुद्ध यंत्रों की विश्वसनीयता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि तभी की जा सकती है, जब अनिवार्यता और संयोग के सहसंबंध को द्वंद्वात्मक ढंग से समझा जाये।

ऐसी समझ की आवश्यकता के बारे में २० वीं सदी में क्वाण्टम यांत्रिकी, आनुवंशिकी और साइबरनेटिकी ने इतने अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत कर दिये हैं जो कि अनिवार्यता और संयोग के प्रश्न पर द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण की महत्ता को स्थापित करते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम
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