शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

क्या गति का उद्‍गम है?

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने क्रमविकास पर चर्चा की थी, इस बार हम गति के उद्‍गम को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



क्या गति का उद्‍गम है?

कोई भी वस्तु गतिशील कैसे होती है, विकास कैसे करती है, परिवर्तित क्यों होती है?

प्राकृतिक घटनाओं के ऊपरी प्रेक्षण से प्राचीन समय के कई प्राचीन दार्शनिक इस प्रस्थापना तक पहुंचे थे कि कोई वस्तु किसी बाह्य कारक ( external factor ), किसी अन्य वस्तु के प्रभाव से गतिशील या गतिशून्य बनती है। यह प्रस्थापना, इस अन्य प्रस्थापना से घनिष्ठ रूप से संबंधित है कि एक ही वस्तु एक ही समय में विरोधी गुणों, विशेषताओं या प्रवृत्तियों में, जैसे गतिशीलता और गतिशून्यता की स्थिति में नहीं हो सकती। १७वीं-१८वीं सदियों के सबसे बड़े दार्शनिकों का सोचना यह था कि ये दो प्रस्थापनाएं गति और विकास के कारण ( reason ) संबंधी प्रश्न का एकमात्र तर्क संगत उत्तर पेश करती हैं।

स्वाभाविक ही है कि वस्तुओं की संरचना, उनके गुणों और विशेषताओं का अध्ययन करते हुए वैज्ञानिकों और दार्शनिकों का ध्यान सबसे पहले वस्तुओं के बीच मौजूद विरोधों ( conflicts ) पर जाता है न कि किसी वस्तु के अंदर मौजूद विरोधों पर। किंतु जब वे किसी पिंड में घटनेवाली प्रक्रियाओं और परिवेश के साथ उसके संबंधों की जांच करने लगते हैं, तो उनका साक्षात्कार काफ़ी भिन्न स्थिति से होता है।

दूर अतीत काल में ऐसे भी दार्शनिक थे, जो यह मानते थे कि स्वगति, आंतरिक गति तथा एक अवस्था से दूसरी का प्रतिस्थापन करने वाले परस्पर विरोधी आदिकारण या शक्तियां इस विश्व में क्रियाशील हैं। उनका कथन था कि कि प्रत्येक वस्तु दो विरोधी पक्षों ( opposites sides ) से बनी है, जो एक दूसरे के अभाव में अस्तित्वमान नहीं रह सकते हैं क्योंकि वे एक दूसरे की पूर्वापेक्षा करते हैं, साथ ही वे एक दूसरे के सर्वथा विरोधी होते हैं। मसलन, जीवन और मृत्यु, दिन और रात, प्रेम और घृणा, शुभ और अशुभ, पुरुष और नारी, आदि। विश्व में विरोधियों के अस्तित्व के बारे में प्राचीन चीन, भारत, यूनान और मध्यपूर्व के दार्शनिकों ने अपने अनुमानों को अभिव्यक्ति दी थी।

लाओ त्सी जैसे प्राचीन चीनी दार्शनिकों ने सार्विक प्राथमिक उद्‍गम ( universal primary source or origin ) के बारे में बताया और उसे ‘दाओ’ की संज्ञा दी। ‘दाओ’ को कई अंतर्विरोधी अनुगुणों से युक्त बताया गया। ‘दाओ’ रिक्त है और असीम भी, इसी तरह उसके अपने विरोधी में संक्रमण ( transition ) का, रूपांतरण ( conversion ) का विचार भी व्यक्त किया गया है: खंडित पूर्ण को संरक्षित रखने का काम देता है, वक्र ( curve ) ऋजु ( straight ) में परिणत हो जाता है, रिक्त भरा हुआ बन जाता है और पुरातन नूतन से प्रतिस्थापित हो जाता है। सुख में दुर्भाग्य तथा दुर्भाग्य में सुख निहित है । इसी प्रकार के विचार हेराक्लितस  ने भी व्यक्त किये : "हम में सब एक है - जीवित व मृत, जाग्रत व निद्रामग्न, जवान और वृद्ध। क्योंकि पूर्ववर्ती ( preceding ) परवर्ती ( latter ) में विलीन हो जाता है और परवर्ती पूर्ववर्ती में ।" प्राच्य प्रज्ञानियों ने दो आदि तत्वों के बीच संघर्ष की बात कही है : एक ओर प्रकाश और शुभ की, और दूसरी ओर अंधकार और अशुभ की शक्तियों के बीच । इन विचारों का बाद में और अधिक विकास किया गया। उदाहरण के लिए, इतालवी दार्शनिक जिओर्दानों ब्रूनों  का कहना था कि कोई एक विरोध दूसरे का आरंभ होता है, कि विनाश उद्‍भव है और उद्‍भव विनाश, और कि प्रेम घृणा है और घृणा प्रेम। फलतः उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जो कोई प्रकृति के अंतरतम रहस्यों में पैठना चाहता है, उसे चाहिए कि वह अंतर्विरोधों ( contradictions ) और विरोधों ( conflicts ) के न्यूनतम व अधिकतम का प्रेक्षण ( observation ) करे।

दैनंदिन जीवन, विज्ञान और राजनीतिक संघर्ष, सभी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि वास्तविकता अंतर्विरोधों से भरी पड़ी है। किंतु वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इस तथ्य को मान्यता देना ही काफ़ी नहीं है। यह भी जरूरी है कि प्रकृति में विद्यमान विरोधियों ( opponents ) के बीच संबंधों की जड़ तक पैठा जाये। केवल दार्शनिक और विज्ञानी ही नहीं, बल्कि साहित्यकार और कवि भी इस तथ्य के प्रति सचेत रहे हैं। मसलन, १७वीं सदी के अफ़गान कवि अब्दुल क़ादिर ख़ान  ने लिखा : बुराई पिटती अच्छाई से / तो पिटती दया बुराई से / दया उचित ठहराती जिसको / क्रोधित निंदा पाता वही बुराई सेरविन्द्रनाथ टैगोर  ने, जिनकी कविताएं उचित ही दार्शनिक निबंध कही जाती है, लिखा कि जीवन अपने सभी रूपों में शुभ है, क्योंकि एक चीज़ दूसरी से उपजती है और दूसरी के द्वारा वांछित ( desired ) होती है। उन्होंने जीवन के अंतर्विरोधों से निष्क्रियता में लौटने से इनकार कर दिया तथा वस्तुओं और घटनाओं की विराट विविधता को सराहा : भाव ललकता होने को साकार रूप में / चाह रूप की भावों में खो जाना / अभिलाषा असीम की सीमित होना / सीमा इच्छुक असीम में घुलने की / बंधन में जकड़े सारे मुक्ति मांगते / मुक्ति चाहती बंधन में बंध जाना

विरोधियों के बीच के संबंध शनैः शनैः प्रकाश में आ रहे थे। हेराक्लितस  ने कहा : "सब एक है - विभाज्य और अविभाज्य, जन्मा और अजन्मा, बुद्धित्व और चिरंतनता, पिता और पुत्र..."। यह साफ़ होता जा रहा था कि विरोधियों के बीच का संपर्क सूत्र घनिष्ठ और अटूट होता है, उसके परे उनका अस्तित्व नहीं। किंतु विरोधियों के बीच मात्र एकता ( unity ) के संबंध ही नहीं होते, वे मुखाभिमुख संघर्ष ( struggle ) में भी होते हैं। जर्मनी के महान कवि गेटे का कहना था कि जीवन स्वयं संघर्ष का नाम है, कि वह अच्छाई और बुराई के, प्रेम और घृणा, उल्लास और पीड़ा के बीच संघर्ष है।

जैसे-जैसे पिंड़ो में घट रही प्रक्रियाओं और परिवेश के साथ उसके संबंधों पर ध्यान दिया जाने लगा, वस्तुओं के संबंध में नये तथ्यों और जानकारियों का ज्ञान बढ़ने लगा, प्रकृति की द्वंद्वात्मकता ( dialectics ) का व्यापक रूप सामने आने लगा। हर गतिशून्य पिंड़ गतिशील और हर गतिशील पिंड गतिशून्य भी होता है, कि पिंड में गति और गतिशून्यता, दोनों साथ-साथ पायी जाती हैं और वे एक दूसरे से अविभाज्य ( indivisible ) हैं। हर प्रकार की गति वास्तव में विरोधियों के बीच इसी प्रकार के एकता और अंतर्विरोधों के संबंधों का परिणाम ( result ) होती है।

उदाहरण के लिए, जीवन भी एक गति है, जिसका कारण शरीर से बाहर नहीं होता। शरीर में गति उसमें निहित कारण का ही परिणाम है। इस गति का स्रोत शरीर के अंगीभूत विरोधों - द्रव्यों का आत्मसात्करण ( assimilation ) तथा निस्सारण ( extraction ) - की अन्योन्यक्रिया ( interaction ) है। इन विरोधों के बीच संतुलन, यहां तक कि आंशिक, स्थूल संतुलन भी, बहुत ही कम समय तक जारी रह पाता है। उनमें पूर्ण संतुलन कभी नहीं होता, वे एक दूसरे को निष्क्रिय कभी नहीं कर पाते। जब तक जीवन ( और इसीलिए उनका स्रोत - विरोधों का टकराव ) है, तब तक उनके बीच असंगति ( inconsistency ), विरोध भी बने रहते हैं। इसीलिए स्वतः गतिशीलता ही जीवन है।

निस्संदेह, बाह्य कारकों की भूमिका को पूरी तरह अस्वीकार करना ठीक नहीं होगा, जो किसी न किसी प्रकार से गति में सहायक या बाधक हो सकते हैं। किंतु सभी प्रकार की गति का उद्‍गम, स्रोत ( मूल ) आंतरिक विरोध ही होते हैं : नये विरोधों के आविर्भाव से गति का नया रूप पैदा होता है और जब उनका विलोपन ( elimination ) होता है, तो गति का भी रूप बदल जाता है, जिसकी प्रेरक शक्ति अन्य विरोध होते हैं। प्रत्येक अंतर्विरोध का एक अपना ही इतिवृत ( chronicle ) होता है। वह उत्पन्न होता है, बढ़ता है और फिर उसका समाधान हो जाता है। इस तरह संघर्ष के जरिये विकास होता है, संघर्ष विरोधियों के बीच संबंध का सार है। अधिभूतवादी दार्शनिक विरोधियों की एकता को अस्वीकार करते हैं, वे यह मानते हैं कि प्रत्येक विरोधी स्वतंत्र रूप से विद्यमान होता है। जो लोग विरोधियों की एकता को मानते हैं किंतु उनके बीच संघर्ष को स्वीकार नहीं करते, वे भी इसी अधिभूतवादी स्थिति में होते हैं।

अंत में कहा जा सकता है कि हमें जीवन में, वास्तविकता में लगातार अंतर्विरोधों का सामना करना पड़ता है। वे गति के, विकास के प्राथमिक सारतत्व तथा उद‍गम हैं। इसीलिए उन्हें जानना महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह ज्ञान हमारे क्रियाकलाप को कारगर बना देता है। यही इस प्रश्न का आधार है कि हमारे चिंतन में अंतर्विरोध किस तरह परावर्तित ( reflected ) होते हैं? यह अगली बार।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

6 टिप्पणियां:

अज़ीज़ राय ने कहा…

उन्मुक्त जी का और एक आपका, ब्लॉग पढ़ने में बड़ा मज़ा आता है वे बातें जो अक्सर सभी जानते हैं जिनके आधार पर वे निर्णय लेतें है परन्तु वे लोगों के सामने अपने निर्णय लेने की वजह को अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं उन बातों को आप सहजता से कहते हैं तो बड़ा अच्छा लगता है
विकास और उसके मापन का क्रम एक ही है परन्तु उसकी दिशा पारस्परिक विपरीत है ब्रह्माण्ड में दो तरह की क्रियाएँ होती हैं पहला स्वाभाविक और दूसरा स्वतः..
हमें आपसे एक बात जाननी थी कि आपके ब्लॉग में ये जो सुन्दर-सुन्दर चित्र हैं क्या इनको भी आप ही बनाते हैं ?

अज़ीज़ राय ने कहा…

विज्ञान ने हमें एक क्रम दिया है गति > बल > दिशा > स्थिति
इन सभी का उद्गम हुआ है परन्तु कैसे ? शायद यह क्रम अधूरा है

Unknown ने कहा…

हे आधारभूत आदरणीय,

आपको यहां गुजरने में मज़ा आता है, अच्छा लगता है, यह जानकर हमें भी अच्छा लगा। श्रम की सार्थकता महसूस करवाने के लिए, शुक्रिया।

हमारे ब्लॉग में प्रस्तुत सामग्री के साथ प्रविष्ट किए गये चित्र गूगल सर्च के ज़रिए विभिन्न स्थानों से साभार प्राप्त किए गये हैं।

अभी आपके प्रश्न या जिज्ञासाएं, काल्पनिक लोक में अधिक विचरण करते लगते हैं। यदि वास्तविकता के धारतल पर आप इन्हें प्रस्तुत कर सकें तो शायद हम साथ-साथ इनसे जूझ सकते हैं।

शुक्रिया।

अज़ीज़ राय ने कहा…

हम जिज्ञासाओं को विस्तार दिए बिना चर्चा या प्रश्न करेंगे तो स्वाभाविक है वह काल्पनिक ही लगेगा। जिज्ञासाओं को विस्तार दिए बिना प्रश्न करने के लिए माफ़ी चाहता हूँ :-) हमारा इस पर ध्यान नहीं गया था।

पहली प्रतिक्रिया में किसी भी तरह का प्रश्न नहीं है बल्कि गति से सम्बंधित चर्चा को विस्तार है कि ब्रह्माण्ड में दो तरह की क्रियाएँ क्रियान्वित होती हैं। पहला तो स्वतः और दूसरा स्वाभाविक... क्रियाओं पर चर्चा करना इसलिए भी जरुरी हो गया था। क्योंकि क्रियाएँ विकास के लिए उत्तरदायी होती हैं। परिवर्तन हुआ है या विकास हुआ है हम यह कैसे जाने ? इस विषय पर दूसरी प्रतिक्रिया दी गई है। जहाँ पर उसके क्रम को लिखा गया है।

गति में परिवर्तन हुआ है हम यह कैसे जाने ? पहले तो हम यह समझें कि गति में परिवर्तन दो तरह से होता है पहला किसी वस्तु या पिण्ड का विरामावस्था से गत्यवस्था को पाना और दूसरा नियत गति से गतिशील वस्तु के वेग में अंतर होना अर्थात अब त्वरण का मान शून्य नहीं होगा। फिर भी प्रश्न ज्यों का त्यों बना हुआ है कि गति में परिवर्तन हुआ है हम यह कैसे जाने ? गति में परिवर्तन को स्थिति परिवर्तन द्वारा समझा और जाना जाता है और यह कारक दोनों परिस्थितियों (विरामावस्था से गत्यवस्था और गतिशील वस्तु के वेग में परिवर्तन) पर लागू होता है। गति परिवर्तन का सीधा सम्बन्ध कभी भी स्थिति परिवर्तन से नहीं होता है। सर्वप्रथम स्थिति परिवर्तन द्वारा दिशा को तत्पश्चात दिशा परिवर्तन द्वारा बल को और बल परिवर्तन द्वारा गति को मापा और जाना जाता है। गति परिणामी बल में परिवर्तन के कारण परिवर्तित होती है। इस पूरी प्रक्रिया का सम्बन्ध जड़त्व के नियम और "प्रत्येक वस्तु (अवयवी पदार्थ) गतिशील है" कथन से है।

दूसरी प्रतिक्रिया में उस प्रक्रिया को समझने के लिए एक क्रम लिखा है। यह क्रम ग्यारहवी कक्षा की भौतिकी की पुस्तक में भी है। दूसरी प्रतिक्रिया में एक प्रश्न पर चर्चा है कि यह क्रम अधूरा जान पड़ता है। क्योंकि यह इस प्रश्न का उत्तर नहीं देता है कि स्थिति परिवर्तन को कैसे मापा जाए ? यदि इस क्रम को पूरा किया जा सका तो इस बात को जानने में आसानी होगी कि सर्वप्रथम किस भौतिकी राशि का उद्गम हुआ है तत्पश्चात किसका और फिर किसका... ?

Unknown ने कहा…

आदरणीय आधारभूत जी,

आप पुनः प्रस्तुत हुए अच्छा लगा, गंभीर से मामलों पर मंथन दुर्लभ और कठिन सा ही होता है। प्रचलन से सामन्यतः दूर इन चीज़ों पर चर्चा के लिए हमारे पास कुछ आधारभूत व आधिकारिक सामग्री उपलब्ध हो, इसी मंतव्य से यहां यह श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। आप इससे गंभीरता से गुजरें और फिर इसके साये में अपनी जिज्ञासाओं, धारणाओं और मान्यताओं को जांच कर, उन्हें नये परिप्रेक्ष्यों में परख कर फिर उन्हें अभिव्यक्ति दें तो अधिक बेहतर रहेगा ताकि उन्हें नये आयान मिल सकें, यही कामना है।

आपके चर्चा-विस्तार को उनके धरातल के सापेक्ष ही काल्पनिक कहा गया था, और हम यदि स्पष्ट कहें तो हमें लगता है कि अभी भी उनमें वह कायम है। हमारी सीमाएं भी अपनी जगह हैं ही।

यहां विकास और उसके स्रोतों पर कुछ चर्चा हो चुकी है, और आगे और भी स्पष्ट सैद्धांतिकी प्रस्तुत की जाएगी, जिनके अनुसार विकास और गति के वास्तविक स्रोत वस्तुओं और घटनाओं के आपसी अंतर्विरोध हैं, ये ही इनके लिए उत्तरदायी हैं। इन्हीं की वज़ह से विभिन्न क्रियाएं संपन्न होती हैं। यह समझ में नहीं आया कि आप किस तरह, और किन आधारों पर दो तरह की क्रियाओं की अवधारणा प्रस्तुत कर रहे हैं। यह भी ज्ञेय नहीं हुआ कि स्वतः और स्वाभाविक से आपका क्या तात्पर्य है? सामान्यतः इनसे लगभग एक से ही अर्थ द्योतित होते हैं।

यह भी समझ नहीं आया कि कि आपको गति में परिवर्तन को जानना इतना गंभीर रूप से अज्ञेय क्यों लग रहा है? जबकि आप यह इशारा भी प्रस्तुत कर ही रहे हैं कि सापेक्ष स्थितियों के द्वारा इसे कोई भी आसानी से जान सकता है। विरामावस्था और गतिशील अवस्था, दोनों ही सापेक्षिक अवधारणाएं हैं, क्योंकि आप जानते ही हैं कि प्रत्येक वस्तु गतिशील है, निरंतर गति में है।

सापेक्ष स्थितियों को जानना और उनमें परिवर्तन को मापना, जानना ऐसा कोई न समझ में आने वाला अलौकिक? सा कार्य भी नहीं है कि उसे इस तरह रहस्यमयी ढंग से प्रस्तुत किया जाए। आखिर मानवजाति बिना इसके पीछे के विज्ञान और सैद्धांतिकी को जाने बिना भी, अपनी सारी दैनन्दिनी जीवनयापन की क्रियाएं सफलतापूर्वक संपन्न करती ही आई है और कर ही रही है। वह शिकार करती थी, रास्ते तय करती थी, हमला करती थी, उनसे बचती भी थी, प्रकृति का रूपांतरण करती थी, आज भी लगी हुई है, उसके हर काम में गति को मापने, जानने और साधने का हुनर शामिल होता है।

पदार्थ अपनी गति में निरंतर चला जा ही रहा है अपने सभी आयामों, लाक्षणिकताओं और गुणों के साथ। यह हमारी सीमाएं है कि हम इन्हें किस क्रम में जानने-समझने में कामयाब हुए हैं।

शुक्रिया।

अज़ीज़ राय ने कहा…

लिखते समय समझ में ही नहीं आ रहा कि लिखूं भी या न लिखूं ! लिखूं, तो क्या लिखूं ! कहाँ से शुरुआत करूँ ! मेरे लिए आपने प्रतिक्रिया द्वारा पहले ही गद्यांश में इतनी सारी शर्तों को लिख दिया है कि आंगे लिखने से घबरा रहा हूँ। खैर..

पहले तक की प्रतिक्रियाओं में आपका हमारी टिप्पणीयों को काल्पनिक कहना समझ में आता है। परन्तु अब जबकि आप स्वयं अप्रत्यक्ष रूप से कह रहे हैं कि इसमें नया क्या है ? की दुनिया को आप कैसे काल्पनिक कह सकते हैं ? साथ ही यह भी सच है कि मैं स्वयं वर्तमान में आधारभूत ब्रह्माण्ड की संकल्पना और उसकी संगत परिस्थितियों को काल्पनिक ही कहूंगा।

इन सभी लेखों को पढ़ने के बाद हम आपसे इतनी अपेक्षा तो रख ही सकते थे कि आप स्वाभाविक और स्वतः क्रियाओं को समझते होंगे। क्योंकि आपके लेखों में बाह्य बलों के प्रभाव का उल्लेख मिलता है। निकाय (बंद या खुला) और निर्देशित तंत्रों (जड़त्वीय या अजड़त्वीय) में भिन्नता इसी बाह्य बल के कारण उत्पन्न होती है। स्वाभाविक क्रियाएँ बाह्य बल के कारण उत्पन्न होती हैं फलस्वरूप उस भौतिक संरचना में आंतरिक परिवर्तन देखने को मिलते हैं। जबकि स्वतः क्रियाएँ एक बंद निकाय में घटित होने वाली क्रियाएँ होती हैं। सरल शब्दों में स्वतः क्रियाएँ एक व्यवस्था को दर्शाती हैं। जबकि स्वाभाविक क्रियाएँ उस व्यवस्था में हुए परिवर्तन को दर्शाती हैं। अब आंगे समझ में ही नहीं आ रहा है कि आंगे भी कहता रहूँ या नहीं कहूं ? क्या पता, हो सकता है कि इस भिन्नता को सभी लोग जानते हों और मैं इसे जबरन का रहस्यमयी ढंग से प्रस्तुत करे जा रहा हूँ।

संगणक (अभिकलित्र) का प्रयोग करना सभी जानते हैं, क्या उसके पीछे के विज्ञान को वे सभी जानते हैं ? नहीं न.. ठीक उसी तरह मनुष्य हजारों सालों से पिंडों, जानवरों और दूसरे मनुष्यों को गति करते हुए देखता चला आ रहा है। परन्तु वे यह नहीं जानते थे कि गति सापेक्षीय होती है आज हम इस बात को जानकार ग्रहों के बीच की दूरी नाप पाए हैं खगोलीय घटनाओं की भविष्यवाणी कर पाए हैं। गति परिवर्तन का क्रम जानना इसलिए भी आवश्यक हो जाता है ताकि हम अपनी सुविधा के लिए बनाई जाने वाली मशीनों को बना सकें और उनका उपयोग कर सकें।

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